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मृत्यु और मुक्ति क्या है?

मोक्ष का अर्थ होता है मुक्ति। अधिकतर लोग समझते हैं कि मोक्ष का अर्थ जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति। बहुत से लोग मानते हैं कि श्राद्ध या तर्पण करने से हमारे पूर्वजों को मोक्ष मिल जाएगा। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि अच्छे कर्म करने से मिलता है मोक्ष। कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष के बाद व्यक्ति शून्य हो जाता है, अंधकार में लीन हो जाता है या संसार से अलग हो जाता है। आओ, जानते हैं कि क्या है मुक्ति?

● स्वार्थ परायण कर्मो छोड देने का नाम है कर्म बंधन से मुक्ति,,,

● स्वार्थ कर्म छोडकर, परमार्थ कर्म करना ही है, कर्म बंधन से मुक्ति,,,

● शरीर के साथ जीवात्मा का संबंध छूटने का नाम है जीवात्मा की मुक्ति

● जीवात्मा की शरीर बंधन से मुक्ति को मृत्यु कहते है,,,

● मृत्यु के बाद जीवात्मा की गति उस ने किए कर्म अनुसार होती है,,, वो जीवात्मा ही जानता है,,,

गरू पराण अनुसार मृत्यु के आठ प्रहर तक जीवात्मा अपना जीवन मे किए हुए कर्मो देखता है, फिर ग्यारह दिन तक सूक्ष्म अद्रश्य शरीर मृत्यु स्थान पर रहता है, ( लोगो का एक शक यह है कि जहाँ मरता है वहाँ आत्मा रहती है तो मरनेवाले की उत्तरक्रिया का विधि विधान घर पर क्युँ ???

तो विधि विधान मे मंत्रो के द्वारा आत्मा को बुलाया जाता है, इस लिए मरे कहीं पर भी मगर विधि विधान घर पर कराया जाता है और परिवार भी पिंडदान विधि मे सामिल होने से उस के ऋण से मुक्त होते है )

मृत्यु के बारहवा दिन की विधि विधान के बाद उन की गति किस योनि मे हुई वो जानने के लिए, एक बडी थाली मे आटा रखकर, उस के उपर जालीदार ढक्कन लगाकर, एकांत मे रातभर रख देते है, तो सुबह वो थाली मे देखने से दो पगा, चो पगा जानवर पगला ( पैरो के निशान ) देखने मिलेगा,,, उसे देखकर माना जाते है कि वो किस योनि मे गया,,,

ज्योतिष के अनुसार भी जान सकते है, मृत्यु का समय पक्का होना चाहिए,,, ( ज्योतिष मे सच्चाई तभी होती है, जब किसी भी घटना का समय, तिथि, स्थल निश्चित हो,,, नाम राशि एक आश्वसन है,,, )

● मृत्युपानेवाले को लोकबोली मे स्वर्गवासी कहते है,,, मगर जीवात्मा का कर्म अनुसार ही गति होती है, तब कोई गेरंटी नही की मरनेवाला सवर्गवासी ही हो गया,,,, ( लगता है कि कुछ कर्महीन लोगो का जीवन को ही लोग नर्क समजते होंगे,,, तभी स्वर्गवासी हो गया ऐसा कहते होंगे,,, ह ह ह ह ह ह )

● कोई अंतेवासी हो गए कहते है,,,

● कोई शांत हो गए कहते है,,,

● कोई धार्मिकता का महत्व जोडकर, मृत्यु पानेवाले के लिए अलग अलग शब्द जोडते है,,,
#विष्णुउपासक_पंथ मे,,,

▪ संत का मृत्यु होने पर गौ लोकवासी हो गए कहते है अथवा वैकुंठवासी हो गए कहते है,,,

शिवउपासक_पंथ मे,,,

▪ साधु-संत मृत्यु होने पर शिवलोकवासी हो गये कहते है अथवा कैलाशवासी हो गए कहते है,,,

▪ योगी तपस्वी साधु का मृत्यु होने पर
ब्रह्मनिष्ठ हो गए कहते है,,,

▪ मगर कोई योगेश्वर साधु अखंड तपस्या करने जीन्दा समाधि लेता है तो उसे ब्रह्मलिन कहते है ।

यह पृथ्वि को शास्त्रो मे मृत्यु लोक कहा है,,, यह मृत्युलोक जीवात्मा की कर्म भूमि है,,, जन्म और मृत्यु के बीच मे रहा जीवन जीवात्मा का कर्मकाल है, अपने कर्मकाल मे चेतन-जागृत होकर कर्म करे, तो अपने कर्मो से जीवात्मा मुक्ति, बंधन या काल पर विजय पाकर सकता है, अरे ! अजर अमर भी हो सकता है ।

भारत भूमि मे अजर अमर साधु संतो की कई जगह जीन्दा समाधि है ।

अपने प्राणो पर विजय पानेवाला ही अजर अमर हो सकता है, प्राण को आत्मा कहा गया है, तो प्राण को वायु भी कहा गया है । श्वास लेते है,,, वो वायु प्राण वायु है, श्वास छोडते है, वो वायु अपान ( अभोग्य ) वायु कहते है,,, योग सिध्ध महा पुरूष प्राणवायु को अपने योग से स्थिर कर देते है उर युगो तक जीवित रहते है । अपनी योग माया से सुक्ष्म शरीर से मायावी दुसरा स्वरूप से लोगो को दर्शन भी देते है । यह रहस्यमय होनेसे आप चमत्कार कहोगे,,, आत्मबल से यह होत है ।

योग्य गुरू से शीखकर यह क्रिया आप भी शीख सकते है,,, ( यहाँ यह कार्य के लिए सरकारी पेन्सन लेनेवाला और विध्यार्थी को गोखणपट्टी का टेन्सन देनेवाला शिक्षक नही चलता है, क्योकि शिक्षक शरीर को सुख दे सकता है, जब गुरू आत्मा को शांति देता है )

जीवात्मा का उध्धार के लिए सत्य सनातन धर्म के धर्मशास्त्रो मे कई मार्ग बताए है । मगर कर्महीन मनुष्य धर्म मे भी सरलता ढुँढता है, तभी तो कर्महीन लोगो की यहाँ कोई कमी भी नही है, ऐसा कर्महीन लोगो का जीवन ही नर्क समान होता है, तब ऐसा कर्महीन व्यक्ति का मृत्यु को कोई स्वर्गवासी कह भी दे तो कौन बुरा मानेगा,,,,,,,,,,,,ह ह ह ह ह ह,,,,,,,,,,

मृत्यु के बाद की गति को ( सामन्य मनुष्य ) कोई नही जानता है, सिर्फ सिर्फ मरनेवाला जीवात्मा ही जानता है,,, स्वार्थ परायण जीव स्वर्ग कैसे पा सकता है ???

स्वर्ग तो परमार्थ करनेवाले देवता पुरूषो के लिए होता है,,, परमार्थ करनेवाला जीव मृत्युलोक मे पूजनिय होता है, जो यहा पूजा जाता है, वहाँ भी पूजा जाता है, पूजाजानेवाला जीव देवता होता है, जिस का स्वर्ग मे स्वागत होता है ।

घर परिवार के लिए जीनेवाला, घर परिवार मे पूजा जाएगा, समाज के लिए जीनेवाला, समाज मे पूजा जाएगा, क्योकि वो सिर्फ घर परिवार के लिए या समाज के लिए जीया है,,, सूक्ष्म रूप से वो एक स्वार्थ पराणय जीवन है,,, क्योकि वो सब के लिए नही, समग्र के लिए नही, सभी के लिए नही जीया है,,, राजा और महाराजा सब के लिए, सभी के लिए, समग्र के लिए जीते है, तभी वो पूजनिय है ।

( महाराजा का अर्थ साधु- ब्राह्मण करना क्योकि धर्म की दिक्षा और शिक्षा लेकर वो धर्म-कर्म जाननेवाला होता है, राजा सदैव राजगुरू और राजगोर का सन्मान करता था,,, इन्ही महाराजाओ की आज्ञा सदैव मानता था )

नारी सदैव पूजनिय माना जाए क्योकि अपने माँ-बाप का घर परिवार का त्याग कर के दूसरो के लिए, परोपकार के लिए छोडकर जीवन व्यतित करती है, उन के स्वार्थ मे भी आंशिक परमार्थ है, त्यागी और परमार्थी होने के बाद भी उन का जीवन घर परिवार तक ही सीमित होता है । तब वो भी बंधन युक्त है ।

   भारत भूमि चेतना की भूमि है, क्योकि यह भूमि मे अनेको जीन्दा समाधि है,,, इस भूमि को पवित्र रखना हमारा धर्म है,,, 

पुराणो मे पढो,,, तो राक्षस खुन और हड्डिया जहाँ तहाँ फेककर देवताओ का कर्म नष्ट करते थे, आज भी ऐसा ही अपना धर्म नष्ट करने का प्रयास हो रहा है,,,

आज भी देव गुरू बृहस्पति द्वारा बताया हुआ दक्षिण मार्ग अहिंसक और पवित्रता का है, तो दूसरी तरफ दानव गुरू शुक्राचार्य द्वारा बताया हुआ वाममार्ग हिंसक और निंदनिय है । दौनो मार्ग धर्म का माने लैकिन अपना कुलधर्म को भूलकर नही,,,

भगवान श्री कृष्णने भी कहा है कि कैसा भी हो, मगर अपने कुल धर्म को हमे नही भूलना चाहिए,,, क्षत्रिय को क्षत्रिय का धर्म नही भूलना चाहिए,,, ब्राह्मण को, ब्राह्मणो का धर्म नही भूलना चाहिए,,, वैश्य को वैश्य का धर्म नही भूलना चाहिए,,, शुद्र को शुद्र का धर्म नही भूलना चाहिए,,,

वाल्मिक ऋषि के वंश को आज भंगी समाज से जानते है, वो जीते जी भी किसी के शरीर मे प्रवेश करने की विद्या आज भी कोई कोई जानते है, नीति नियम पालनेवाला भंगी किसी के आंगन मे, घर मे भोजन नही पाएगा,,, यह बात क्या बताती है,,, यही की वो अपने कुलधर्म के कर्म को वफादार है,,,

भगवान श्री कुष्ण सरल रूप मे मृत्यु और पुनर्जन्म के बारे मे समझाते है, कि जो जिस को भजता है,वो उसी को पाता है और मृत्यु समये जो जिस का ध्यान धरता है, वो उसी को पाता है,,, मंदिर मे नित्य जाने का नियम इसलिए था, ताकी देवता के गुणो को गुरू मानकर हम हमारा धर्म भूल ना जाए,,, तभी तो मै बार बार यही सीखाता हुँ, कि जो मरना सीख गए, वो जीना सीख गए,,,

 

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