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  • बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
    साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥

भावार्थ:-बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥

मानव जीवन ईश्वर की अनमोल रचना है, प्रत्येक व्यक्ति को मानव शरीर का सदुपयोग करते हुए अपनी भौतिक प्रगति के साथ आध्यात्मिक चेतना विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।

एवं इस सत्य को याद रखना चाहिए कि यह शरीर कभी भी हम से छूट सकता है, समस्या तब प्रारम्भ होती है जब हम भौतिक जगत एवं शरीर को ही सत्य मान बैठते हैं एवं इसकी क्षणभंगुरता को भूल जाते हैं।

जिस क्षण भी हम मृत्यु को नजदीक से देखते हैं अपने किसी निकट संबंधी को असमय मृत्यु के आगोश में देखते हैं उस समय हमें जीवन की वास्तविकता का कुछ क्षण के लिए ही सही एहसास होता है लेकिन उस एहसास को थोड़ी देर बाद ही भूल जाते हैं।

यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तो युधिष्ठिर ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति प्रति क्षण अपने आसपास मृत्यु को देखता है फिर भी उसे स्वीकार नहीं करता एवं इस प्रकार कार्य करता रहता है जैसे उसको कभी मरना ही नहीं है।

यदि व्यक्ति मृत्यु को याद रखे तो संभवतः उसके लिए जीवन में किसी को भी दुःख पहुंचाना कठिन हो जाएगा एवं उसके द्वारा ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने जीवन एवं कार्यों से प्रसन्नता का एहसास करवाने का प्रयास किया जाएगा।

इस भावना के साथ जीवन जीने वाले व्यक्ति को स्वर्ग मिला कि नहीं, इसका निर्णय करना तो कठिन है लेकिन व्यक्ति अपने वर्तमान जीवन को ही स्वर्ग बना लेता है।

जिस समय हमारा मन घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध अहंकार जैसे मनोविकारों से ग्रस्त है उस समय हम नरक में जी रहे हैं एवं जिस समय हमारा मन दया, करुणा, परोपकार, क्षमा जैसे मनोभावों से भरा है उस समय हम स्वर्ग में जी रहे हैं।

हमारे ऋषि मुनियों द्वारा विभिन्न पर्वों पर दान एवं पुण्य की जो परम्परा विकसित की गई, स्वर्ग एवं नर्क मिलने की जो अवधारणा विकसित की गई, तीर्थयात्रा करने की सलाह दी गई, उसको करते हुए ही आप स्वर्ग के आनंद का अनुभव करते हैं।

इसलिए मरने के बाद स्वर्ग या नर्क मिलने की चिंता या प्रतीक्षा करने की आवश्यकता ही नहीं है, हमारे शरीर में रामायण की कहानी सदैव चलती रहती है।

उसको एक बार गम्भीरतापूर्वक देखने एवं समझने की आवश्यकता है, विवेक ही राम है एवं बुद्धि सीता है, काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ मत्सर जैसे दस मनोविकार ही दस सिरों वाला रावण है।

हमारी बुद्धि जब इन मनोविकारों रूपी रावण द्वारा हर ली जाती है तो विवेकरूपी राम चिंतित होता है, उस समय धैर्यरूपी लक्ष्मण उसका सहयोगी बनता है।

धेर्य एवं विवेक जब साथ-साथ चलते हैं तो मनरूपी हनुमान असंभव दिखने वाले कार्य को भी संभव बना देता है तब मन के सहयोग से विवेक एवं धैर्य बुद्धिरूपी सीता को पुनः वापस लाने में सफल होते है।

मनरूपी हनुमान, कठिनाइयों रूपी समुद्र को पार करके, लालच एवं संग्रह रूपी लंका को जलाने में तभी सफल होता है जब वह अपने आपको विवेक एवं धैर्य रूपी राम एवं लक्ष्मण का सेवक मानता है।

योग एवं प्राणायाम के माध्यम से हम शरीर के अस्तित्व को आत्मा से अलग करके देखने एवं अपनी आत्मा रूपी परमात्मा से जुड़ने का अनुभव करते हैं।

जो भी व्यक्ति योग एवं प्राणायाम को केवल शरीर को स्वस्थ रखने की भावना से करेगा एवं उसके माध्यम से आत्मा के आनंद प्राप्त करने का लक्ष्य नहीं बनाएगा उसको पूरा लाभ कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता।

योग एवं प्राणायाम हमें न केवल शारीरिक रूप से वरन मानसिक एवं सामाजिक रूप से भी स्वस्थ बनाता है, यही उसकी सुंदरता है।

योग एवं प्राणायाम हमें शरीर एवं आत्मा के संबंध को बड़े ही अच्छे तरीके से स्पष्ट कराता है जिससे मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है,क्योंकि,,,,,,,,,

  • नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
    करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥

भावार्थ:-यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,॥

  • जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
    सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

भावार्थ:-जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥

जय सियाराम!🙏

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