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ईश्वर के बारे में जब भी आप किसी से पूछते हैं, कि, ईश्वर कहां रहता है। तो लोग कहते हैं कि – ईश्वर सब जगह रहता है।। जो ईश्वर सब जगह रहता है, इतना लंबा चौड़ा विशाल है , क्या उसका कोई शरीर भी होगा? उत्तर है- नहीं। जब उसका कोई शरीर नहीं है, तो क्या उसको घर की आवश्यकता होगी आप कहेंगे – नहीं वह बिना ही शरीर के, बिना ही घर के सब जगह रहता है। तो सार यह हुआ कि उसके लिए तो घर की आवश्यकता नहीं है। हां मनुष्यों को घर की आवश्यकता है।। मनुष्य का शरीर है। मनुष्य को शरीर के कारण गर्मी ठंडी वर्षा आदि चीजें परेशान करती हैं।। इसलिए इन सब से अपनी रक्षा करने के लिए मनुष्य को घर की आवश्यकता है।। जिनके पास घर है, वे लोग बड़े आराम से सुरक्षित रूप से रहते हैं। जिन मनुष्यों के पास घर नहीं है, यदि उनके लिए घर बनवाए जाएं, तो उनको अवश्य लाभ होगा , सुख मिलेगा , सुरक्षा मिलेगी।। और यह बहुत ही पुण्य तथा मानवता का कार्य होगा। जो लोग इसमें सहयोग कर सकें, उनको विशेष पुण्य मिलेगा।। ईश्वर तो कभी शरीर धारण करता नहीं, उसे घर की आवश्यकता नहीं इसलिए ईश्वर के घर की बजाय, मनुष्यों के लिए घर बनाएं। यही उत्तम होगा। इसमें ही अधिक पुण्य मिलेगा। मंदिर आदि स्थान ईश्वर के लिए नहीं हैं, वे मनुष्यों के संगठन के स्थान हैं।। मंदिर में बैठकर मनुष्य लोग संगठित होते हैं और भविष्य की योजनाएं बनाते हैं। इस उद्देश्य से मंदिर अवश्य बनाएं परंतु ईश्वर के निवास के लिए नहीं।।


[ लक्ष्य जितना बड़ा होगा मार्ग भी उतना बड़ा होगा और बाधायें भी अधिक आएँगी। सामान्य आत्म विश्वास नहीं बहुत उच्च स्तर का आत्म विश्वास इसके लिए चाहिए। एक क्षण के लिए भी निराशा आयी वहीँ लक्ष्य मुश्किल और दूर होता चला जायेगा।
मनुष्य का सच्चा साथी और हर स्थिति में उसे संभालने वाला अगर कोई है तो वह आत्मविश्वास ही है। आत्मविश्वास हमारी बिखरी हुई समस्त चेतना और ऊर्जा को इकठ्ठा करके लक्ष्य की दिशा में लगाता है।
दूसरों के ऊपर ज्यादा निर्भर रहने से आत्मिक दुर्बलता तो आती है। साथ ही छोटी छोटी ऐसी बाधायें आती हैं जो पल में तुम्हें विचलित कर जाती हैं। स्वयं पर ही भरोसा रखें। दुनिया में ऐसा कुछ नहीं जो तुम्हारे संकल्प से बड़ा हो।
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पदार्थ सुख नहीं देते अपितु परमार्थ सुख देता है। सत्य समझना अगर पदार्थों में सुख होता तो जिनके पास पदार्थों के भण्डार भरे पड़े हैं, वे ही लोग दुनिया के सबसे सुखी लोग होते। विप्र सुदामा को भागवत ग्रन्थ कभी भी’ प्रशांतात्मा जैसा शब्द प्रयोग नहीं करता।
यह इस दुनिया का एक सामान्य नियम है यहाँ जिसके पास वस्तु है वे उस वस्तु के बदले पैसा कमाना चाहते हैं और जिनके पास पैसा है वे भी पैसा देकर वस्तु को अर्जित करना चाहते हैं।
मतलब साफ है कि एक को पदार्थ विक्रय में सुख नजर आ रहा है तो दुसरे को उसी पदार्थ को क्रय करने में सुख नज़र आ रहा है। जबकि दोनों ही भ्रम में हैं, स्थायी सुख तो भगवद शरणागति में और त्याग में हैं। अतः अपने जीवन को परमार्थ वादी भी बनाओ केवल पदार्थ वादी ही नहीं।

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खूबसूरत हृदय स्पर्शी विचार चाहे कहीं से भी मिले उठा लीजिये। क्योंकि चेहरों की खूबसूरती उम्र के साथ बदल जाती है।। मगर विचारों की खूबसूरती लोगों के दिलों में सदा के लिए बनी रहती है। प्रसन्नचित्त व्यक्ति मेँ रचनात्मक शक्ति अधिक होती है।। अनियंत्रित क्रोध विनाश और नियंत्रित क्रोध विकास का कारण बन सकता है। इसलिये क्रोध को अपने ऊपर हावी न होने दें, बाकी क्षमारुपी शस्त्र जिसके हाथ में है।। कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बिना अग्नि के स्त्रोत के कभी आग नहीं लगती।।

   
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[ईश्वर की व्यवस्था अटल है। उसके नियम सौ प्रतिशत संसार में लागू होते हैं।। ईश्वर कभी भी, किसी भी व्यक्ति को माफ नहीं करता, एक बार भी माफ नहीं करता। जैसे बिजली की तार को यदि छुआ जाए, तो वह एक बार भी माफ नहीं करती इसलिए ईश्वर की इस व्यवस्था को अवश्य समझें। अच्छे काम करें और सदा सुखी रहें। बुरे काम से बचें और दंड न भोगें।। यदि कोई व्यक्ति दूसरों के साथ छल कपट आदि धोखा देने का व्यवहार करता है, तो ईश्वर उसके प्रत्येक कर्म को अच्छी प्रकार से नोट करता है। और समय आने पर उसको खतरनाक दंड देता है।। उसे कीड़ा मकोड़ा पशु पक्षी वृक्षादि योनियों में जन्म देकर अत्यंत दुख देता है। ताकि उसका सुधार हो जाए, और वह आगे पाप कर्म न करे।।

🌷आत्मचिंतन के क्षण…..🌷

💐 जीवन में उदासी, खिन्नता एवं अप्रसन्नता के वास्तविक कारण बहुत कम ही होते हैं, अधिकाँश का कारण घबराहट से उत्पन्न भय ही होता है। मनुष्य नहीं जानता कि वह इससे अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का कितना बड़ा भाग व्यर्थ गँवाता रहता है? जिन्होंने जीवन में बड़ी सफलताएं पाई हैं, उन सबके जीवन बड़े सुचारु, क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित रहे हैं। जिनके जीवन में विश्रृंखलता होती है, उनके पास सदैव “समय कम होने” की शिकायत बनी रहती है फिर भी अन्त तक कुल मिलाकर एक-दो काम ही कर पाते हैं, पर जिन लोगों ने विधि-व्यवस्था से, धैर्य से चिन्ता-विमुक्त कार्य सँवारे उन्होंने असंख्य कार्य किये।

  काम करते समय आपको जब भी निराशा, बोझ या घबराहट लगा करे, उस समय अपने आत्म-विश्वास को जगाने का प्रयत्न किया जाना आवश्यक होता है,एतदर्थआध्यात्मिक चिन्तन पूर्णतः अपेक्षित हो जाता है। आप यह विचार कर सकते हैं कि आप भी दूसरों की तरह एक बलवान् आत्मा हैं, आपके पास शक्तियों का अभाव नहीं है। आपनेअभी तक उनका प्रयोग नहीं किया है इसीलिये भय, संकोच या लज्जा आती है। पर अब आपने जान लिया है कि आपकी भी सामर्थ्य कम नहीं है। आप निर्धन परिवार के सदस्य नहीं, वरन् परमात्मा के वंश में उसकी उत्कृष्ट शक्तियाँ लेकर अवतरित हुए हैं , फिर आपको घबराहट किस लिये होनी चाहिये?
  जो लोग बुराई को धीरे-धीरे समाप्त करने की बात कहते हैं वे यथार्थतः पूर्ण निश्चय से परे होते हैं। उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार उनके संकल्प में अपवाद बना रहता है। धीरे-धीरे छोड़ेंगे—इसका अर्थ है चित्त अभी दुविधा की स्थिति में है वह छोड़ भी सकता है और नहीं भी। इस स्थिति के रहते हुये कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। मन बहलाव या बाल-बुद्धि के लोगों को समझाने के लिये कोई ऐसा भले ही कह दे पर सच बात तो यही है कि आदतों का सुधार पूर्ण इच्छा से किया जाना चाहिये,तभी पूर्ण सुधार सम्भव हो सकेगा ।💐

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