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हमारे शास्त्रों ने लोभ को ही समस्त पाप वृत्तियों का कारण कहा है। महापुरुषों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि, कामी तरे क्रोधी तरे, लोभी की गति नाहीं अर्थात कामी के जीवन में भी बदलाव सम्भव है, क्रोधी व्यक्ति भी एक दिन परम शांत अवस्था को प्राप्त कर सकता है मगर लोभी व्यक्ति कभी अपनी वृत्तियों का हनन कर इस संसार सागर से तर जाए यह थोड़ा मुश्किल है।

      *जिस व्यक्ति की लोभ और मोह वृत्तियाँ असीम हैं उस व्यक्ति को कहीं भी शांति नहीं मिल सकती। बहुत कुछ होने के बाद भी वह खिन्न, रुग्ण और परेशान ही रहता है। लोभी अर्थात वो मनुष्य जिसे वहुत कुछ पाने की ख़ुशी नहीं अपितु थोडा कुछ खोने का दुःख है।*

     *अपनी उपलब्धियों और प्राप्तियों पर प्रसन्न रहो और किसी के साथ अकारण तुलना करके उनके होने के आनंद को कम मत करो। दुनिया में बहुत लोगों के पास वो भी नहीं है, जो तुम्हारे पास है। बहुत लोभ से बचो यह आपको बहुत पापों से बचा लेगा।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏
[पूजा क्या है….?

पूजा क्या हैं_किसी का दिल नही दुखाना

पूजा क्या हैं_ईश्वर को याद करतें वक्त, अपने धन, सम्पदा का घंमड नही करना

पूजा क्या हैं_भूखें को खाना खिलाना

पूजा क्या हैं_अपने मातापिता की सेवा करना

पूजा क्या हैं__किसी के प्रति दुर्भावना नही रखना

पूजा क्या हैं__औरतों की इज्जत करना

पूजा क्या हैं_निर्धोनो को दुत्काराना नही

पूजा क्या हैं__जीवों पर दया रखना

पूजा क्या हैं__प्यासें की प्यास बुझाना

पूजा क्या है__जिंदगी को, कुछ लक्ष्य देना

पूजा क्या है_आत्मा को शुद्ध रखना

अंत में पूजा वही हैं, जो किसी को बातों से, हथियारों से, कर्मों सें, चोट ना दें, अगर आप ऐसी पूजा करते हैं, तो आप भगवान के बहुत करीब हैं, वरना हाथ जोड़े रखना, कोई काम का नही🍁
[ बहुत से साधक पूछते हैं कि दुख कैसे मिटे? हम कहते हैं कि साधन में लगो, तो शिकायत रहती है कि मन नहीं टिकता, विषयों में भागा रहता है, वश में नहीं है, अराजक है।
तो ध्यान दें कि जैसे प्रकृति, राष्ट्र, समाज और परिवार सबका कुछ न कुछ संविधान होता ही है। जहाँ अराजकता है, इसका अर्थ ही है कि वहाँ संविधान का पालन नहीं हो रहा है। ऐसे ही मन का भी तो कोई संविधान होगा? आज हम मन का संविधान समझेंगे।
ध्यान से समझें, शान्ति, निश्चिंतता, विश्राम, मन का टिकना, आदि समानार्थक शब्द हैं। अब क्योंकि शान्ति आदि सत्व गुण के ही कार्य हैं, मन जब भी टिकेगा सत्वगुण में ही टिकेगा। पहले आपके अंत:करण में सत्वगुण का प्रभाव होगा, या कहो कि रजोगुण और तमोगुण का न्यूनाधिक अभाव होगा, तब तो आपका मन विश्राम को प्राप्त होगा।
अब प्रश्न पैदा हुआ की सत्वगुण की प्राप्ति कैसे हो? जैसे हर गुण किसी ना किसी संग से उत्पन्न है, सत्वगुण सत् के संग से ही मिलता है। तो देखें सत् शब्द कहाँ लगा है? सत्संग में लगा है, माने सत्वगुण सत्संग से मिलेगा। और सत्संग क्या है? संत का संग ही सत्संग है।
संत के संग से, बार बार संत के उपदेश की छड़ी खाकर, मन रूपी बकरा, विषय रूपी हरी घास की ओर झांकना ही छोड़ देता है।
थोड़ा भी मनोबल जिसमें हो, गृहस्थी संभालने के साथ साथ, एकबार संत का आश्रय ग्रहण करे, संत स्मरण, संत सेवा और संत उपदेश रूपी सत्संग का लाभ ले। कुछ और करना ही नहीं पड़ेगा, तब सत्वगुण अपनेआप ही उतरता है, मन स्वयं टिक जाता है, साधन होने लगता है, फिर दुख रहता ही नहीं। हालांकि संकट यह है कि मन तो सबके पास है, पर मनोबल कुछ के पास ही होता है।
अगर कहो कि महाराज अभी हमारी उम्र ही क्या है जो सत्संग में लगें? तो यहाँ बच्चा है ही कौन? यहाँ तो सब बूढ़े हैं, महाबूढ़े हैं, सब चौरासी भोग कर आए हैं। पर हजार बार पचपन आया, आपका बचपन नहीं गया।
एक बात नोट कर लें, संतसंग और सत्संग का मलहम लगाए बिना, दिल पर लगे जख्म, न किसी के कभी भरे हैं, न भरने की संभावना है।

मनुष्य दुख पाने के लिए कभी प्रयास नहीं करता, हमेशा सुख के लिए ही प्रयास करता है।
लेकिन उस का जैसा प्रारब्ध और जैसे उसके कर्म होते हैं, उसके हिसाब से उसके जीवन में दुख आते ही हैं और वह उन्हें भोगने के लिए बाध्य होता है।
उसी तरह सुख भी चाहे मनुष्य प्रयत्न करे या न करे उसके भाग्य और कर्मफल के हिसाब से अपने आप ही आ जाते हैं।
उन के लिए प्रयास की बिल्कुल भी कोई जरूरत नहीं होती।
इसलिए मनुष्य को सुख के लिए नहीं, बल्कि निरन्तर अच्छे कर्मों के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।
भगवद्भक्ति, परोपकार, सत्संग और सेवा में लगे रहना चाहिए।।

जय श्री कृष्ण🙏🙏
ॐ शिवगोरक्ष योगी आदेश ऊँ

इंसान के जीवन में हर तरह की परिस्थितियां आएगी ।
कुछ अपने साथ मुस्कान लायेगी तो कुछ रुलायेगी ।।

कुछ ना कुछ कमी सभी इंसानों में है ।
कोई भी पूर्ण नहीं सिवाय शिव के ।।

कुछ परेसानी का कारण इंसान के कर्म है तो कुछ जन्म के साथ ही गृह-दशा, पित्र, दैवीय-दोष ।
प्रयास करे सदैव सदकर्म करे और यदि कोई जन्म दोष हो तो उसका सही निराकरण करे ।।

सदकर्म की परिभाषा भी वक़्त और परिस्तिथि के साथ बदलती रहती है ।
सही क्या है इसका विचार स्वम के विवेक से करना चाहिए ।।

सुनी और पढ़ी हुयी बातें हर जगह काम नहीं आती ।
हमेशा याद रखना कि किताबो से उत्तम खुद का अनुभव ।

कब कहा, किसने कहा, क्यों कहा, किन परिस्थितियों में कहा यह सब ध्यान देने योग्य है ।

संसार मे प्रकट हुए महापुरुषों, अवतारों के विचार, कथन और कर्म परिस्थितियों के अनुरूप अलग-अलग रहे है ।

भगवान विष्णु के सभी अवतारों के कर्म अलग अलग रहे है ।
किन्तु उद्देश्य सिर्फ एक रहा धर्म स्थापना ।
नरसिंह अवतार में बिना पूर्व सूचना सीधा आक्रमण किया ।
वामन अवतार में भिक्षा से कार्य सम्पन्न कर दिया ।
राम अवतार में मर्यादा की नई परिभाषा प्रकट की ।
परशुराम अवतार में समूल नाश किया ।
कृष्ण अवतार में धर्म के लिये छल-झूट का भी सहारा लिया ।

सब अवतारों का समय के अनुसार कर्म रहा ।।

मत पड़ो चक्कर मे तुम कि किसने कब क्या कहा ।
संतो की वाणी अक़्सर वक़्त की आवाज़ होती है ।।

शिवगोरक्ष कल्याण करे ।
शिवशक्ति, भक्ति, शक्ति, मुक्ति, सद्बुध्दि दे ।
भैरव उस्ताद सदा सहाय ।।

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