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: राम।।🍁

        🍁 *विचार संजीवनी* 🍁

अपना कोई एक अत्यंत प्रिय व्यक्ति मिल जाय तो बड़ा आनन्द आता है। परन्तु जब सब रूपों में ही अपने अत्यंत प्रिय इष्ट भगवान मिलें तो आनन्द का क्या ठिकाना है ! इसलिये सब रूपों में अपने प्यारे को देख-देखकर प्रसन्न होते रहें, मस्त होते रहें। कभी भगवान सौम्य-रूप से आते हैं, कभी क्रूर-रूप से आते हैं कभी ठण्ड-रूप से आते हैं, कभी गर्मी रूप से आते हैं, कभी वायु-रूप से आते हैं, कभी वर्षा-रूप से आते हैं, कभी बिजली-रूप से चमकते हैं, कभी मेघ-रूप से गर्जना करते हैं। तातपर्य है कि अनेक रुपों से भगवान-ही-भगवान आते हैं। जहाँ मन जाय, वहीं भगवान हैं। अब मन को एकाग्र करने की तकलीफ क्यों करें ? मन को खुला छोड़ दें। यह दृढ़ विचार कर लें कि मेरा मन जहाँ भी जाय भगवान में ही जाता है और मेरे मन में जो भी आये, भगवान ही आते हैं, क्योंकि सबकुछ एक भगवान ही हैं। भगवान कहते हैं–‘ जो सबमें मुझको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’ (गीता ६/३०)
जैसे सब जगह बर्फ-ही-बर्फ हो तो बर्फ कैसे छिपेगी ? बर्फ के पीछे बर्फ रखने पर भी बर्फ ही दीखेगी ! ऐसे ही जब सब रूपों में भगवान ही हैं, तो फिर वे कैसे छिपें, कहाँ छिपें और किसके पीछे छिपें ?

राम ! राम !! राम !!!

परम् श्रद्धेय स्वामी जी श्रीरामसुखदास जी महाराज
साधन-सुधा-सिंधु, पृ. सं.467

अहंकार

अहंकार नकारात्मक भाव की चरम सीमा और परम
शिखर है। यह फूला हुआ एक गुब्बारा है, जो कब
फट जाएगा, कहां विस्फोट हो जाएगा, कहा नहीं जा
सकता। ‘मैं ही मैं हूं’, में इसकी अभिव्यक्ति होती है ।
अहंकार अपने अलावा किसी और को बर्दाश्त नहीं
कर सकता ।

किसी और के होने का मतलब है-
अहंकार को भीषण चुनौती देना । इसलिए यह विध्वंसात्मक
वृत्ति का प्रबल पक्षधर और सृजन का प्रबल विरोधी है। यह
विसर्जन में विश्वास नहीं रखता, अपने झूठे स्वरूप में प्रसन्न
होता है। अहंकार का अर्थ है-अनंतता के टुकड़े करने का
मिथ्या भ्रम । ऋषियों की मान्यता के अनुसार अहंकार भ्रम
और भ्रांति है, जो आत्म प्रदर्शन करने के लिए पग-पग पर
पाखंड रचने के लिए प्रेरित करता है । इस तथ्य को न
समझने वाला अहंकारी होता है और समझने-जानने वाले
को यथार्थवादी और बुद्धिमान कहा जाता है । अहंकार से
परिस्थिति और परिवेश का आकलन नहीं हो सकता ।

अहंकार विवेक का प्रतीक नहीं है । यह मूढ़ता का प्रबल
पर्याय है । इसमें ग्रहणशीलता नहीं होती । वह दूसरों जैसा
श्रेष्ठ बनना नहीं चाहता, उससे कई गुना श्रेष्ठ दिखना चाहता
है । इसलिए दूसरों की तुलना में अपने को विशिष्ट मान बैठने
पर अहंकार की उत्पत्ति होती है ।

बलिष्ठता, सुंदरता, संपन्नता, पद, अधिकार आदि उसके
अनेक कारण हो सकते हैं । कई बार नहीं, बल्कि बारंबार
भ्रम ही उसका निमित्त बना हुआ होता है ।

अहंकार से भावुकता का मिलन और संयोग बड़ा ही
खतरनाक होता है । यह एक बड़ा विषम दुर्योग है ।
अहंकारी यदि भावुक प्रकृति का हो तो संदिग्ध चरित्र
का निर्माण करता है । यह कब और कैसे व्यवहार
करेगा, कहा नहीं जा सकता है । यह दो विरोधी
प्रवृत्तियों में जीता है, जहां कोई मेल नहीं है, कोई
सामंजस्य-तारतम्य नहीं है। अहंकार का नकारात्मक
स्वरूप जितना भयावह और भीषण होता है, उसका
विधेयात्मक पक्ष उतना ही सृजनशील हो सकता है ।
अहंकार की प्रकृति प्राण, साहस, दृढ़ निश्चय और
संकल्प से भरीपूरी होती है । अहं प्रधान व्यक्ति का
रचनात्मकता की ओर उठा कदम उसे अपार धैर्यवान,
सहनशील और सहिष्णु बना देता है । ऐसा संकल्पवान
जब एक बार कोई काम हाथ में लेता है तो अपार धैर्य
के साथ उसको पूरा करने के लिए संलग्न हो जाता है ।
: ॐ श्री परमात्मने नमः

शास्‍त्रोंमें भक्तिकी बड़ी महिमा है । भक्ति सुगम भी है । ‘भगवान् अपने हैं’‒इस प्रकार भगवान्‌के साथ अपना सम्बन्ध माननेमें ‘दूसरे अपने नहीं हैं’‒यह मानना आवश्यक है । अपनेपनसे भगवान् बँध जाते हैं । दूसरी बातोंसे भगवान् बँधते नहीं । अपनापन होनेसे माँ स्वतः अच्छी लगती है ।

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भगवान्‌की प्रतीक्षा, लगन बहुत जल्दी भगवान्‌को मिलाती है । कीर्तन करनेसे बहुत लाभ होता है । कीर्तन करनेसे भगवान्‌में प्रेम होता है । कीर्तनमें आनन्द-रूपसे भगवान् प्रकट होते हैं ।

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क्रिया और पदार्थसे ऊँचा उठनेपर ही तत्त्वकी प्राप्ति होगी । क्रिया और पदार्थका उपयोग केवल दूसरोंके लिये किया जाय, निष्कामभावसे किया जाय तो हम क्रिया और पदार्थसे ऊँचा उठ जायँगे । यह कर्मयोग है ।

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क्रिया और पदार्थ हमारे थे नहीं, हैं नहीं, होंगे नहीं, हो सकते नहीं । ये संसारके हैं । इनको अपना मानना बेईमानी है ।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

     *इस दुनिया में सदैव ही दो तरह जी विचारधारा के लोग जीते हैं। एक इस दुनिया को निः सार समझकर इससे दूर और दूर ही भागते हैं। दूसरी विचारधारा वाले लोग इस दुनियां से मोहवश ऐसे चिपटे रहते हैं कि कहीं यह छूट ना जाए। कुछ इसे बुरा कहते हैं तो कुछ इसे बूरा ( मीठा ) कहते हैं।*
      *भगवान् वुद्ध कहते हैं जीवन एक वीणा की तरह है। वीणा के तारों को ढीला छोड़ेगो तो झंकार ना निकलेगी और ज्यादा खींच दोगे तो वो टूट जायेंगे। मध्यम मार्ग श्रेष्ठ है , ना ज्यादा ढीला और ना ज्यादा खिचाव।*
      *अपनी जीवन रूपी वीणा से सुख - आनंद की मधुर झंकार निकले इसलिए अपने इन्द्रिय रुपी तारों को ना इतना ढीला रखो कि वो निरंकुश और अर्थहीन हो जाएँ और ना इतना ज्यादा कसो कि वो टूटकर आनंद का अर्थ ही खो बैठें। जिसे मध्यम मार्ग में जीना आ गया वो सच में आनंद को उपलब्ध हो जाता है* 

जय श्री कृष्ण🙏🙏


: “विधि का विधान है क़ि हमारे जीवन के सारे सद्गुण विरासत में हमारी संतान को प्राप्त होते हैं…बालक के शरीर में एक सौम्य आत्मा का अस्तित्व होता है…शास्त्रों में वर्णित है सुकर्मी पिता की संतान दुःख नहीं पाती…हमारा जीवन ,हमारी आने वाली पीढ़ी की भवन के लिए नींव का निर्माण करती…तो क्यूं न हम अपने जीवन को इतना अनुकरणीय बनाये क़ि आज के साथ-साथ हमारा भविष्य भी हमारे अतीत का गुणगान करे….कृपालु प्रभु से संपूर्ण परिवार के गरिमामयी भविष्य को साकार करने की कृपामयी प्रार्थना के साथ…”

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏

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