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: 🌺ईशोपनिषद् (प्रथम भाग)🌺
✍🏻 लेखक- महात्मा नारायण स्वामी

[ प्रथम भाग-प्रथम् के तीन मन्त्र पहला भाग है, जिनमें कर्तव्य-पञ्चक का विवरण दिया गया है अर्थात् उनमें पाँच कर्तव्यों का विधान किया गया है, जिन को आचरण में लाने ही से कोई व्यक्ति ब्रह्म-विद्या में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त किया करता है। वे पाँच कर्त्तव्य ये हैं –
▪️ (१) ईश्वर को प्रत्येक स्थान में मौजूद समझना।
▪️ (२) संसार की समस्त वस्तुओं को भोगते हुए यह भावना रखना कि वे सब वस्तुएँ ईश्वर की हैं। भोक्ता का इनमें केवल प्रयोगाधिकार है।
▪️ (३) किसी का धन या स्वत्व नहीं लेना।
▪️ (४) कर्तव्य समझ और फल की आकांक्षा से रहित होकर सदैव कर्म करना।
▪️ (५) अन्तरात्मा के विरुद्ध आचरण न करना।]

🔥ईशा वास्यमिदसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥१॥
▪️१. (इदं, सर्वम्) यह सब (यत्किञ्च) जो कुछ (जगत्याम्) पृथ्वी पर (जगत्) चराचर वस्तु है (ईशा) ईश्वर से (वास्यम्) आच्छादन करने योग्य अर्थात् आच्छादित है।
▪️२. (तेन)नउसी ईश्वर के (त्यक्तेन) दिये हुए पदार्थों से (भुञ्जीथाः) भोग कर।
▪️३. (कस्यस्वित्) किसी के भी (धनम्) धन का (मा गृधः) लालच मत कर।

🔥कुर्वन्नेवेह कर्मणि जिजीविषेच्छुतसमः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥
▪️४. (इह) यहाँ (कर्माणि) कर्मों को (कुर्वन्ने) करता हुआ ही (शतं समाः) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे (एवम्) इस प्रकार (त्वयि) तुझ (नरे) मनुष्य में (कर्म) कर्म (न, लिप्यते) नहीं लिप्त होता है (इतः) इससे (अन्यथा) भिन्न और कोई मार्ग (न) नहीं है।

🔥असुर्या नाम् ते लोकाऽअन्धेन तमसावृताः।
ताँस्ते प्रेत्यापिगच्छन्ति ये के चत्मिहनो जनाः॥३॥
▪️५. (ये के च) जो कोई (आत्मनः) आत्मा के घातक (आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले) (जनाः) मनुष्य हैं (ते) वे (प्रेत्य) मर कर (अन्धेन तमसा) गहरे अन्धेरे से (आवृताः) आच्छादित हुए (ते असुर्य्याः नाम लोकाः) वे प्रकाश-रहित नाम वाले जो लोक-योनियाँ हैं, (तान्)उन (योनियों) को (अपिगच्छन्ति) प्राप्त होते हैं।

◼️ व्याख्या ◼️
मनुष्य शक्ति का केन्द्र है। शक्ति उसी के भीतर निहित है। ईशोपनिषद् इन्हीं शक्तियों के विकास का नाम शिक्षा है। मनुष्य जीवन की सफलता का भेद यही शक्ति विकास है। यही शक्ति विकसित होकर अभ्युदय और निःश्रेयस, लोक और परलोक की सिद्धि का कारण बनती है। शक्ति-विकास के कार्यक्रम का ही नाम अध्यात्म (योग) विद्या है। योग कर्म में कुशलता का नाम है, जैसा कि गीता में कहा गया है कि- 🔥’योगः कर्मसु कौशलम्।’ महामुनि पतञ्जलि ने भी योग को क्रिया (कर्म) योग ही कहा है और उसके केवल तीन भाग किए हैं- 🔥’तपःस्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोगः।’ (योगदर्शन २ । १) अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर-भक्ति करने ही से योग की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। सुतराम् क्रिया (कर्म) ही योग है। उस क्रिया को करने के लिए सब से पहला साधन तप है। तप व्रतानुष्ठान को कहते हैं। व्रत नाम कर्तव्य प्रतिज्ञा का है। शक्ति के विकास के लिए जिस तप को करना, जिस व्रत का अनुष्ठान करना या जिस कर्तव्य का पालन करना है, उसी का नाम कर्तव्य-पञ्चक है अर्थात् क्रियात्मक जीवन बनाने के लिए जिस प्रकार के वातावरण (Atmosphere) के उत्पन्न करने की जरूरत है, वह उन पाँच कर्तव्यों के पालन करने से उत्पन्न होता है, जिसका नाम कर्तव्य-पञ्चक है। यह उपनिषद् की आदिम शिक्षा है। इन्हीं कर्तव्यों के पालन करने से किसी भी व्यक्ति को वह अधिकार प्राप्त हुआ करता है, जिसका नाम अध्यात्म-विद्या में प्रवेशाधिकार है। इसलिए उपनिषदों की शिक्षा के वर्णन करने में पहला स्थान इसी कर्तव्य-पञ्चक को दिया गया है।

◼️ पहला कर्तव्य
पहली बात यह है कि मनुष्य उच्च प्रकार की आस्तिकता के भावों से अपने हृदय को भर ले। इसका साधन यह है कि मनुष्य ईश्वर को परिच्छिन्न (एकदेशीय) न मानकर उसे विभू व्यापक रूप में माने, अर्थात् जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु आकाश में है और प्रत्येक वस्तु के भीतर भी आकाश है, इसी प्रकार से ईश्वर भी जगत् में ओत-प्रोत हो रहा है। कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जो ईश्वर में न हो और जिसमें ईश्वर न हो। इस सिद्धान्त के आचरण में आने से मनुष्य का हृदय लचकीला हो जाता है। हृदय के लचकीला होने के लिए दो बातों की जरूरत होती है। प्रथम वह निष्पाप हो, दूसरे उसमें प्रेम की मात्रा अधिकता से हो। ये दोनों बातें ईश्वर को उपर्युक्त भाँति सर्वव्यापक मानने से मनुष्य में आया करती हैं।

मनुष्य पापाचरण के लिए सदैव एकान्त की खोज किया करता है। चोर इसलिए रात्रि को सफलता का साधन समझता है, क्योंकि उसमें एक प्रकार के एकान्त की अधिक सम्भावना होती है, जो ऐसे दुष्ट कर्मों के लिए आवश्यक है। परन्तु ईश्वर का विश्वास होने पर पापाचरण के लिए एकान्त स्थान मिल ही नहीं सकता। एक उर्दू कवि ने इसी भाव को अपनी एक कविता में इस प्रकार प्रकट किया है –

जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर।
या वह जगह बता कि जहाँ पर खुदा न हो।
(जाहिद-परहेजगार-शुद्धाचारी मनुष्य)

अस्तु, जब तक मनुष्य के हृदय में नास्तिकता न आये तब तक वह पाप नहीं करता। इसलिए ईश्वर के सर्वव्यापकत्व पर विश्वास होने ही से मनुष्य निष्पाप हो सकता है। दूसरी बात प्रेम है। मनुष्य ईश्वर को सर्वव्यापक मानने से विवश है कि प्रत्येक प्राणी में ईश्वर की सत्ता, उसके व्यापकत्व गुण से, स्वीकार करे और जब इस प्रकार प्रत्येक प्राणी में-चाहे वह अछूत हो या और कोई उनसे भी निकृष्ट-ईश्वर का होना मानेगा, तब उससे घृणा किस प्रकार कर सकता है। घृणा का अभाव ही प्रेम का द्वार है।

घृणा भी नास्तिकता ही से उत्पन्न होती हैं। जिससे कोई घृणा करेगा, अवश्य उसमें ईश्वर की सत्ता का अभाव मानेगा। इसी का नाम तो नास्तिकता है। निष्कर्ष यह है कि निष्पापता और प्रेम से मनुष्यों के हृदयों में लचकीलापन (कठोरता का अभाव) आया करता है, और इन दोनों साधनों की प्राप्ति ईश्वर के व्यापकत्व पर विश्वास होने ही से हुआ करती है। उपनिषद् ने इस शिक्षा को अपने शब्दों में इस प्रकार प्रकट किया है – 🔥‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याञ्जगत्।’

◼️ दूसरा कर्तव्य
उपनिषद् के संक्षिप्त से तीन शब्दों में दूसरा कर्तव्य वर्णन किया गया है। वे शब्द ये हैं- 🔥’तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’ अर्थात् उस (ईश्वर) के दिये हुए से भोग करे। उपनिषदों ने प्रत्येक प्रकार के भोग की आज्ञा दी है। मनुष्य विवाह करके सन्तान उत्पन्न करे, शक्ति प्राप्त करके राज्य प्राप्त करे और उसका उपभोग करे, कृषि-व्यापार तथा अन्य कौशलादि से धन प्राप्त करके उसका इस्तेमाल करे इत्यादि। उपनिषद् इन सब को विहित बतलाती है, परन्तु एक शर्त इन सब के भोग के साथ लगाती है और वह यह है कि मनुष्य इन प्राप्त भोग पदार्थों को ईश्वर का समझकर भोग करे। ऐसे विश्वास से मनुष्य प्रत्येक पदार्थ, राज्य, धनादि को ईश्वर का समझकर उनमें केवल अपना प्रयोगाधिकार समझेगा और ममत्व न जोड़ सकेगा कि ‘अमुक पदार्थ मेरा है’ संसार के समस्त दुःखों का मूल ममता है। दु:ख प्रायः किसी न किसी वस्तु के पृथक् होने से हुआ करते हैं, परन्तु जब इन्हीं वस्तुओं को स्वयं छोड़ देता है, तब दु:ख नहीं अपितु सुख हुआ करता है। एक प्रोफेसर को कालिज में अनेक वस्तुएँ, पुस्तकें, चित्र, कुर्सी, मेज आदि-प्रयोग के लिए मिली हुई हैं। वह उनका कॉलिज के घण्टों में प्रयोग करता है। प्रयोग-काल (कॉलिज के घण्टों) के भीतर यदि कोई उससे इन वस्तुओं को लेना चाहता है तो नहीं देता, परन्तु जब कॉलिज को अन्तिम घण्टा बजा और इन वस्तुओं के प्रयोग का समय खत्म हुआ, तब स्वयं इन वस्तुओं को कॉलिज में ही छोड़कर तने तनहा (अकेला शरीर लेकर) चल देता है। उस समय यदि कोई कहता है कि उन वस्तुओं में से वह किसी को अपने साथ लेता जाय तो वह उसे अपने ऊपर बोझ समझता है। प्रोफेसर ने जब इन वस्तुओं के सम्बन्ध में अपना केवल प्रयोगाधिकार समझा, तब उसे इन वस्तुओं के छोड़ने में कुछ भी दुःख नहीं हुआ, परन्तु यदि वह इन वस्तुओं में ममता जोड़ लेता है कि ‘वस्तुएँ मेरी हैं’ तब उसे इन वस्तुओं को छोड़ने में कष्ट अनुभव करना पड़ता है। अस्तु, मनुष्य में जब तक ममता का प्राबल्य रहता है, तब तक वह किसी वस्तु को छोड़ना नहीं चाहता। परन्तु जब उन वस्तुओं में वह अपना केवल प्रयोगाधिकार समझता है, तब प्रयोग-समय समाप्त होने पर स्वयं उन्हें छोड़ दिया करता है। वस्तुओं के छीनने वाले चोर-डाकू, राजे-महाराजे हुआ ही करते हैं, परन्तु एक बड़ी प्रबल शक्ति है जो गिन-गिन कर एक-एक वस्तु प्राणियों से ले लिया करती है और कुछ भी नहीं छोड़ा करती। उस शक्ति का नाम है मृत्यु । मृत्यु आकर पदार्थों को छीनती है, परन्तु ममता के वशीभूत प्राणी उन्हें देना नहीं चाहता । इसी कलह का नाम मृत्युसंवेदना (मरने का दुःख) है। मृत्यु वास्तव में दुःखप्रद नहीं सुखप्रद है, परन्तु मरने के समय ये दुःख मनुष्यों को ममता के वश में होकर उठाने पड़ते हैं। जो मनुष्य सांसारिक भोग्य पदार्थों में अपना प्रयोगाधिकार समझता है वह इन्हें प्रयोग का समय (जीवन-काल=आयु) समाप्त होने पर छोड़ देता है और फिर उसके पास कुछ रहता ही नहीं, जिसे मृत्यु आकर अपहरण करे। इसलिए उसके लिए मृत्यु का समय दुःख का समय नहीं, अपितु सुख और शान्ति के साथ संसार छोड़ने का समय होता है, जिसमें उसे आशा और आशा ही नहीं, अपितु विश्वास होता है। कि वह यह यात्रा चिरकालीन सुख और शान्ति की प्राप्ति करने के लिए कर रहा है। और ऐसे व्यक्ति मृत्यु से डरते नहीं, अपितु मृत्यु का स्वागत किया करते हैं और प्रसन्नता के साथ हँसते-हँसते संसार को छोड़ दिया करते हैं। मृत्यु के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त दुनिया के सामने रखा जाता है कि वह दुःखप्रद नहीं, अपितु सुखप्रद है, तब मनुष्य उसे स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं।

एक व्यक्ति कुष्ठ रोग से पीड़ित है और उसके शरीर से रक्त और मवाद निकला करता है, जिससे प्रत्येक क्षण उसे व्यथित रहना पड़ता है। इस पर तुर्रा यह कि वह जेलखाने में भी कैद है। किसी प्रकार की स्वतन्त्रता न होने से उसका जीवन दुःख और केवल दुःखमय बन रहा है। परन्तु ऐसे व्यक्ति से जब यह पूछते हैं कि क्या भाई तुम इन सारी विपत्तियों से बचने के लिए मरना चाहते हो? तो मरने का नाम सुनकर वह भी कानों पर हाथ धरता है। क्रियात्मक जगत् में मृत्यु का इतना भय मनुष्यों के हृदय में बैठा हुआ है, फिर वे मृत्यु को किस प्रकार सुखप्रद कह सकते हैं। यही कारण है, जिससे मनुष्य इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में हिचर-मिचर (आनाकानी) करते हैं। परन्तु जैसा कि कहा गया है, यह दुःख मनुष्यों को तब होता है जब वे ममता से नाता जोड़ लेते हैं।

एक अत्यन्त रूपवान् पुरुष अपना मुँह जब हँसाने वाले शीशे (Ludicrous=Laughing glass) में देखता है, तो उसका अच्छा मुँह भी बहुत भोंड़ो और हँसने के योग्य दिखाई देता है तो इसमें मुँह का क्या दोष? मुँह तो अच्छा खासा है। इसमें दोष असल में उस हास्यकारी शीशे ही का है। इसी प्रकार मृत्यु तो दुःखप्रद नहीं अपितु सुखप्रद ही है। परन्तु जब मनुष्य ममता के आयने को सामने रखकर उसमें उसे (मृत्यु को) देखता है, तब वह डरावनी और भयावनी प्रतीत होने लगती है। इससे स्पष्ट होता है कि दोष मृत्यु का नहीं, किन्तु उसी ममतारूपी हास्यकारी शीशे का है। यदि इस शीशे को हटा कर देखें तो फिर मृत्यु की प्यारी और असली सूरत दिखाई देने लगती है।

मृत्यु के प्रिय होने के सम्बन्ध में डॉक्टर ह्यूग लौंसडेल हैंड्स (Dr. Hugh Lonsdale Hands) ने आत्मघात के द्वारा परीक्षण करके मृत्यु के प्रिय होने की पुष्टि की है। उसने अपनी डायरी में इस प्रकार लिखा है-

I have taken half an ounce of Aconite, an ounce of Chloral Hydrate. Both are nice except the tingling, waiting feeling very happy—first time. I ever felt without worries as if free. +++ Japs are right-death is lovely. I feel fine no pain.

इसको भाव यह है कि विष खाने के बाद उसने लिखा – ‘मृत्यु प्रिय है, मैं अपने को अच्छा समझ रहा हूँ। मुझे कोई तकलीफ नहीं है।’

सारांश यह है कि इस दूसरे कर्तव्य का पालन करने से मनुष्य मृत्यु के भय से स्वतन्त्र होता है। किन्हीं-किन्हीं पुरुषों को यह भ्रम है, या हो जाता है कि यदि मनुष्य सांसारिक पदार्थों-राज्यादि में ममता न जोड़े तो फिर उनकी रक्षा न कर सकेगा। परन्तु यह उनकी भूल है। मनुष्य उन वस्तुओं की भी वैसी ही रक्षा-उपर्युक्त प्रोफेसर की तरह किया करता है, जो उसे प्रयोग के लिए मिली हों, जैसी उनकी करता है जिनमें उसने मेरेपन का नाता जोड़ा हुआ है। इसलिए लोकदृष्टि से भी यह नियम वैसा ही उपयोगी है जैसा परलोक दृष्टि से, मनुष्य मृत्यु के भय से स्वतन्त्र होकर संसार में कौन-सा बड़े से बड़ा काम है, जिसे नहीं कर सकता।

◼️ तीसरा कर्त्तव्य
विना शान्ति का वातावरण उत्पन्न किये संसार का कोई भी काम पूरा नहीं होता, फिर अध्यात्म-विद्या का तो कहना ही क्या, उसे तो कोई अशान्ति में या अशान्त-चित्त होकर प्राप्त ही नहीं कर सकता। अशान्ति का मूल कारण किसी व्यक्ति या जाति का स्वत्व अपहरण ही हुआ करता है।

दुनिया में भिन्न-भिन्न जातियों में जितने भी युद्ध हुआ करते हैं, उनका मुख्य कारण यही होता है कि किसी जाति का स्वत्व छीना गया या उसकी स्वतन्त्रता में बाधा पहुँचाई गई हो। यही कारण व्यक्ति-व्यक्ति के झगड़ों की तह में छिपा हुआ मिलता है। इसलिए 🔥’कारणाभावात्काभावः’ के नियमानुसार उपनिषदों ने तीसरा कर्तव्य यह ठहराया है कि 🔥‘मा गृधः कस्यस्विद्धनम्’ अर्थात् किसी के धन या स्वत्व को लेने की चेष्टा मत करो। न किसी का धन लिया जायेगा, न किसी का स्वत्व छीना जायेगा, न किसी की स्वतन्त्रता में बाधा पहुँचाई जायेगी और न उनकी सन्तति, अशान्ति का जन्म होगा।

◼️ चौथा कर्त्तव्य
उपनिषद् ने चौथा कर्तव्य इन शब्दों में बतलाया है कि कर्म करते हुए मनुष्य १०० वर्ष तक जीने की इच्छा करें। परन्तु शर्त यह है कि कर्म इस प्रकार करने चाहिये, कि वे करने वाले को लिप्त न करें, अर्थात् मनुष्य उनमें फँस न जाये। उपनिषद् ने खुले शब्दों में यह भी कह दिया कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए इस (कर्मयोग) के सिवाय कोई दूसरा मार्ग नहीं है।

यह कर्तव्य दो भागों में विभक्त है- ▪️(१) मनुष्य को निरन्तर कर्म करने का अभ्यास होना चाहिए, ▪️(२) वे कर्म कर्ता को फँसाने वाले न हों।

पहले भाग पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि कर्म सृष्टि का सार्वतन्त्रिक नियम है। जगत् में कोई वस्तु ऐसी दिखाई नहीं देती कि जो क्रिया-रहित हो। सृष्टि का महान् से महान् कार्य सूर्य-प्रतिक्षण गति में रहता है। पृथ्वी गतिमय है, चन्द्रमा चलता है। यदि छोटी से छोटी वस्तु एक कण (Atom) को लें और देखें तो एक बड़ा चमत्कार दिखाई देता है। उस कण के भीतर एक केन्द्र है और उसके चारों ओर असंख्य विद्युत्कण (Electrons) उसी प्रकार घूमते दिखाई देते हैं, जिस प्रकार अनेक ग्रह और उपग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड का एक-एक कण भी सूर्य-मण्डल (Solar System) का संक्षिप्त रूप है। क्या यह कण जिसके भीतर इतना कार्य हो रहा हो, ठहरा हुआ या निष्क्रिय है? विज्ञान का उत्तर यह है कि कदापि नहीं। यह पुस्तक जो सामने मेज पर रखी है क्या ठहरी हुई है? कदापि नहीं। पुस्तक के पृष्ठ जिन कणों से बने हैं, उनमें से प्रत्येक कण में कम्पन (Vibration) पाया जाता है। यदि कम्पन न हो तो कोई वस्तु, वस्तुरूप में बाकी न रहे। इससे स्पष्ट है कि जगत् की छोटी से छोटी वस्तु कण है, जिसके भीतर गति हो ही रही है, और जो स्वयं भी सूर्य मण्डल की तरह गति में है। जब कर्म का साम्राज्य जगद्व्यापी है, तो मनुष्य उससे किस प्रकार बच सकता है ? इसलिए मनुष्य को भी कर्मनिष्ठ होना चाहिए। उपनिषद् का उपर्युक्त वाक्य जीवन की अन्तिम घड़ी तक कर्म करने का विधायक है। संन्यास, कर्म के त्याग को अवश्य कहते हैं, परन्तु कर्म से प्रयोजन काम्य (सकाम) कर्म यज्ञादि से है, और उन्हीं का त्याग संन्यास है, निष्काम कर्म तो कभी भी नहीं छोड़े जा सकते।
कर्तव्य का दूसरा भाग यह है कि मनुष्य कर्म में लिप्त न हो।

कर्तव्य के इस भाग को समझने के लिए आवश्यक है कि यह समझ लिया जाये कि कर्म दो प्रकार के हैं- ▪️(१) सकाम और ▪️(२) निष्काम। सकाम कर्म, फल की इच्छा रख कर करने का नाम है, जब कि निष्काम कर्म फल की इच्छा त्याग कर, कर्म (कर्तव्य) समझकर, कर्म करने को कहते हैं। इन दोनों में अन्तर यह है कि सकाम कर्म से वह वासना उत्पन्न होती है जो फिर उसी प्रकार के कर्म की प्रेरणा भीतर से करती रहती है। योगदर्शन का भाष्य करते हुए व्यासमुनि ने एक संसारचक्र की बात कही है। यह चक्र ६ अरे वाला है। वे अरे ये हैं-मनुष्य इच्छा करता है उसका फल उसे सुख मिलता है, उससे सुख की वासना बनती है। वह फिर उसी प्रकार की इच्छा कराती है। उनसे फिर सुख और फिर वही वासना, फिर वही इच्छा। इस प्रकार ▪️(१) इच्छा, ▪️(२) उसका फल, सुख, ▪️(३) सुख की वासना, ये चक्र के तीन अरे हैं, जो बराबर उपर्युक्त भाँति घूमा करते हैं। बाकी तीन अरे ▪️(१) द्वेष, ▪️(२) उसका फल, दुःख, ▪️(३) दुःख की वासना है। वे भी पहले तीन अरों की भाँति घूमा करते हैं। यही छह अरों वाला संसार चक्र है, जो संसारी पुरुषों को चक्र में रखता है। इसी चक्र में रहने का नाम कर्म में मनुष्य का या कर्म का मनुष्य में लिप्त होना है। उपनिषद् मनुष्यों का कर्तव्य ठहराती है कि कर्म करते हुए भी इस चक्र में न फँसे। फँसे हुए प्राणी इस चक्र से किस प्रकार निकल सकते हैं? उसका उपाय और एकमात्र उपाय सकामता का निष्कामता में परिवर्तन करना है। इस परिवर्तन से प्रभावित मनुष्य निष्काम कर्म करके वासनाओं का नाश करता है। उनके न रहने से सब सुख-दुःख भी पृथक् हो जाते हैं और सुख-दु:ख के न रहने से उनकी वासनाएँ भी नहीं बन सकतीं और इस प्रचार चक्र के छहों अरे निकम्मे होकर चक्र टूट जाता है और मनुष्य उससे निकल आता है। यही चौथा कर्तव्य है, जिसके पालन किये विना व्यक्ति अध्यात्म-जगत् में प्रवेश का अधिकारी नहीं बन सकता।

◼️ पाँचवाँ कर्तव्य
उपनिषद् में पाँचवें कर्तव्य का विधान इस प्रकार किया गया है –
आत्म-हनन (आत्मा के विपरीत काम) करने वाले मरकर असुर्य (प्रकाश-रहित) और तम से आच्छादित योनियों को प्राप्त होते हैं।

मन्त्र में आत्म-हनन अर्थात् आत्मा के प्रतिकूल कार्य को निषिद्ध ठहराया गया है। आत्मा के प्रतिकूल कार्य नहीं करना चाहिए, इस पर विचार करना है। आत्मा-स्वरूप से शुद्ध और पवित्र है, किसी प्रकार के ईष्र्या-द्वेषादि दोषों से लिप्त नहीं। इसलिए आत्म-प्रेरणा भी, जिसको अन्त:करण के अनुकूल कार्य करना [कन्शन्स (Conscience)] कहते हैं, इन दोनों से मुक्त होती है। इसलिए धर्मशास्त्रकार मनु ने भी इसी आत्म प्रेरणा को 🔥’स्वस्य च प्रियमात्मनः’ कह कर धर्म का अन्तिम साधन बतलाया है।

चरित्र-निर्माण करने का मुख्य साधन भी यही आत्म-प्रेरणा है। चरित्रवान् हुए विना, मनुष्य अध्यात्म-जगत् में प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए उपनिषद् में इस बात पर विचार करते हुए कि कौन-कौन मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते, उसकी गणना में सब से पहला नाम चरित्रहीनों का लिया है-🔥”नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।” (कठोपनिषद् १।२ । २४) । आत्म-प्रेरणा से किस प्रकार चरित्र निर्मित होता है इसके लिए किसी विशेष व्याख्या की जरूरत नहीं है। चरित्र को ही सदभ्यास भी कहते हैं। अभ्यास एक ही कर्तव्य को अनेक बार कार्य-परिणत करने से बना करता है। मनुष्य जब कोई अच्छा या बुरा काम करना चाहता है तो अच्छा काम करने में आत्म प्रेरणा से उसको उत्साह और प्रसन्नता उत्पन्न होती है, परन्तु जब बुरा काम करने का विचार करता है तो उसके सम्मुख भीतर से भय, लज्जा और शंका के रूप में अनुत्साह और अप्रसन्नता पैदा होती है। पहली सूरत में किसी अच्छे कर्म को अनेक बार करके प्राणी उसके करने का अभ्यास (आदत) बना लेता है और फिर उस काम को वह इच्छा से नहीं किन्तु अभ्यासवश किया करता है। इसी का नाम सदभ्यास या चरित्र है। इसी प्रकार जब कुसंगति में पड़कर कुसंग-दोष से आत्म प्रेरणा के विरुद्ध मनुष्य कोई बुरा काम अनेक बार कर लेता है, तो उसके असदभ्यास बनता है और इससे वह उस बुराई को भी विना इच्छा के किन्हीं सूरतों में इच्छा के विरुद्ध भी अभ्यासवश करने लगता है। कल्पना करो कि एक मनुष्य ने अफ्यून खाने का बुरा अभ्यास बना लिया है। अब जब दूसरे मनुष्य उसको इस दुष्कर्म की दुष्कर्मता बतलाते हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर लेता है, परन्तु जब कहते हैं कि फिर उसे छोड़ क्यों नहीं देते, तब वह अपनी विवशता प्रकट करते हुए कह देता है कि क्या करूं? आदत से लाचार हूँ।

इस प्रकार विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि आत्म प्रेरणा से सदभ्यास या चरित्र बना करता है और उसके विरुद्ध आचरण करने से असदभ्यास या दुश्चरित्र। हमने देख लिया कि आत्मा के अनुकूल ही कार्य करके हम चरित्र-निर्माण करते हुए आत्म-जग में प्रवेशाधिकार प्राप्त कर सकते हैं। पश्चिमी विद्वानों ने भी उपनिषद् की सच्चाई के सामने सिर झुकाया है। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विद्वान् मारले ने एक पुस्तक लिखी है, जिस का नाम है ‘राजीनामा’ (Compromise)। पुस्तक में इस बात पर विचार किया गया है कि किन सूरतों में राजीनामा हो सकता है? उसने सम्मति के तीन दर्ज किये हैं

▪️(१) सम्मति का स्थिर करना। (Formation of opinion)
▪️(२) सम्मति का प्रकट करना। (Expression of opinion)
▪️(३) सम्मति का कार्य में परिणत करना। (Execution of opinion)

इस प्रकार से सम्मति के तीन दर्ज करते हुए मारले ने लिखा है कि सम्मति के स्थिर करने में कोई राजीनामा नहीं हो सकता। हाँ, कुछ थोड़ा-सा राजीनामा सम्मति के प्रकट करने (संख्या २) में हो सकता है और वह केवल इतना कि जिस सम्मति के प्रकट करने से दुष्परिणामों के निकलने की सम्भावना हो उस सम्मति को प्रकट न किया जाय। यह वही बात है जिसे मनु ने 🔥“न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्’ के द्वारा प्रकट किया है। मारले की सम्मति में पूरा-पूरा राजीनामा सम्मति के कार्य में लाने (संख्या ३) में हो सकता है, अर्थात् अल्पपक्ष की सम्मति की उपेक्षा करके बहुपक्ष के मतानुकूल कार्य किया जाय। परन्तु उसकी यह स्थिर सम्मति है कि सम्मति के स्थिर करने (संख्या १) में किसी दशा में कोई भी राजीनामा नहीं हो सकता। सम्मति का स्थिर करना क्या है ? आत्म-प्रेरणानुकूल किसी विचार का स्थिर करना। अत: यह स्पष्ट है कि मारले ने भी आत्म-प्रेरणा के विरुद्धाचरण का विधान नहीं किया है। कर्तव्य-पञ्चक में से यह पाँचवाँ कर्तव्य है-”आत्मा के अनुकूल कार्य करना।”

इस प्रकार उपनिषदों ने सब से पहली बात आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए यही बतलाई है कि मनुष्य इन पाँचों कर्तव्यों को समझकर इन पर आचरण करे। वे पाँचों कर्तव्य ये हैं, एक बार फिर उन्हें हम यहाँ दोहरा देते हैं

▪️ (१) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ईश्वर को सर्वव्यापक मानना।
▪️ (२) जगत् के भोग्य पदार्थों में ममता को छोड़कर अपना प्रयोगाधिकार समझना।
▪️ (३) किसी की वस्तु या स्वत्व का अपहरण न करना।
▪️ (४) सदैव कर्म करना, उन्हें निष्कामता को लक्ष्य में रखकर धर्म या कर्त्तव्य समझ कर करना।
▪️ (५) आत्मा के अनुकूल मन, वाणी और शरीर से आचरण करना।

✍🏻 लेखक- महात्मा नारायण स्वामी
📖 पुस्तक – उपनिषद् रहस्य

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ ओ३म् ॥
: 🔥 ओ३म् 🔥

मानव उन्नति के सात साधन―व्यर्थ की बकवाद न करना, दुष्टों की संगति न करना, किसी से वैर न करना, क्षमाशील होना और निर्भय रहना इन सातों से मानव उन्नति लाभ करता है।
: #पुरे विश्व में ‘बुद्ध ‘ही ऐसे थे जिन्होने ये कहा कि, मेरी पूजा मत करना ना ही मुझसे कुछ उम्मीद लगा के रखना की मैं कोई चमत्कार करूंगा….
दु:ख पैदा तुमने किया है और उसको दूर तुम्हे ही करना पड़ेँगा, मैँ सिर्फ तुम्हे मार्ग बता सकता हूँ, क्योकि मैँ चला हूँ उस मार्ग पर, लेकिन उस रास्ते पर तुम्हे ही चलना पड़ेँगा..!!!!
: माता पिता और आचार्य ये तीन व्यक्ति विशेष होते हैं , जो सदा अपने बच्चों एवं विद्यार्थियों पर बहुत कृपा करते हैं। उनको समय-समय पर आपत्तियों से बचाते हैं । उनका हित चाहते हैं । हर समय सावधान करते रहते हैं। उनको अच्छे कर्मों को करने के लिए प्रेरित करते हैं । सदा बुराइयों से बचाते हैं । क्योंकि माता पिता और आचार्य ये तीनों अपने बच्चों तथा विद्यार्थियों के परम हितैषी होते हैं । ये तीनो स्वयं कष्ट उठा कर भी अपने बच्चों एवं विद्यार्थियों का कल्याण करते हैं । इसलिए आपको अपने माता-पिता और आचार्य पर पूरी श्रद्धा रखनी चाहिए । उनके निर्देशों, सुझावों तथा आदेशों पर पूरा ध्यान देकर उनका पालन करना चाहिए ।
संसार में जो लोग श्रद्धा पूर्वक अपने माता-पिता तथा आचार्य के निर्देश आदेश का पालन करते हैं , वे कभी जीवन में दुखी नहीं होते । सदा उन्नति को प्राप्त करते हैं तथा सुखी रहते हैं । ऐसे बच्चों तथा विद्यार्थियों का जीवन सफल हो जाता है। – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
: यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के कार्यों की प्रशंसा करे, तो इससे दूसरे व्यक्ति का उत्साह बढ़ता है। और वह अच्छी प्रकार से उन्नति करता है।
ऐसा कौन करता है? जो किसी का हितैषी हो, उससे प्रेम करता हो। इसीलिए समय समय पर समाज के लोग एवं सरकार, अच्छे कर्म करने वालों को पुरस्कार और सम्मान देते हैं ।
इससे दो लाभ होते हैं।
एक- उस अच्छे काम करने वाले का भी उत्साह बढ़ता है। तथा दूसरा- समाज के अन्य लोगों को भी अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है।
आप भी, स्वयं अपनी उन्नति के लिए तथा समाज और देश उन्नति के लिए, इसी प्रकार से अच्छे काम करें ।
जिन लोगों ने आपका उत्साह बढ़ाया , आपकी प्रशंसा की , आपको पुरस्कार और सम्मान दिया, तो आपका भी कर्तव्य हो जाता है , कि आप भी उनका धन्यवाद करें । ऐसा करने से उन प्रोत्साहन देने वाले लोगों का भी उत्साह तथा प्रसन्नता बढ़ती है । तथा यह सभ्यतापूर्ण व्यवहार माना जाता है – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
: हम अनेक व्यक्तियों के जीवन में देखते हैं कि वे बचपन में बहुत छोटे और सामान्य स्तर के थे । बड़े हुए 20, 22 वर्ष तक भी वे सामान्य स्तर के कार्य करते थे । परंतु जीवन में अनेक घटनाएं ऐसी हो जाती हैं, जिनके कारण उन व्यक्तियों के पूर्व जन्मों के संस्कार जाग जाते हैं । उन संस्कारों से प्रेरणा लेकर फिर वे अत्यंत पुरुषार्थ करते हैं , और इतनी अधिक उन्नति करते हैं, जोकि अत्यंत आश्चर्यजनक होती है।
फिर वे कहते हैं कि मैंने अपने जीवन में कभी सोचा भी नहीं था, कि मैं यहां तक पहुंच जाऊंगा.
ऐसा बहुत लोगों के जीवन में देखा जाता है। आपके जीवन में भी ऐसा हो सकता है। आप अपने 20, 30, 40 वर्ष पुराने स्तर को देखें और आज के स्तर की उस से तुलना करें, तो शायद आपको भी यह आश्चर्य होगा , कि मैं आज जहां पहुंच गया हूं , ऐसा मैंने कभी पहले सोचा भी नहीं था। तो यह उन महापुरुषों अर्थात माता पिता गुरु आचार्य अथवा अन्य सज्जनों के आशीर्वाद और पुरुषार्थ का परिणाम है , कि आप आज वहां पहुंच गए , जहां आपने कभी अपने लिए सोचा भी नहीं था ।
इसलिए उन सब लोगों का धन्यवाद करें, जिन्होंने आपको कहां से कहां तक पहुंचा दिया – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
: जब व्यक्ति संसार में आता है तो खाली हाथ अर्थात कोई संपत्ति हाथ में नहीं लाता । जब संसार से जाता है तब भी सारी संपत्ति यहीं छोड़ जाता है , अपने साथ कोई रुपया पैसा या और कोई संपत्ति अपने साथ नहीं ले जाता।
परंतु जीवन काल में यदि कुछ चीजें मिलती हैं , तब व्यक्ति को बहुत खुशी होती है । जब उनमें से कोई वस्तु खो जाती है , नष्ट हो जाती है , या छिन जाती है तब वह ‘घबरा’ जाता है दुखी हो जाता है , उदास निराश हो जाता है, डिप्रेशन में चला जाता है । ऐसी हानि की घटनाएं सबके साथ होती हैं।
आपके साथ भी होती होंगी। ऐसी स्थिति में घबराए नहीं । चिंता ना करें । जब आप संसार में आए थे , उस दिन आप खाली हाथ थे। धीरे-धीरे लोगों ने आपको पढ़ना लिखना सिखाया , खाना पीना सिखाया , धन कमाना सिखाया और उनके सहयोग परिश्रम से तथा अपने पुरुषार्थ से आपने कुछ धन कमाया , तथा कुछ वस्तुएं प्राप्त की।
यदि उन वस्तुओं में से कोई वस्तु खो जाए, नष्ट हो जाए , या छिन जाए , तो दुखी ना हों। क्योंकि वह केवल आपकी कमाई हुई नहीं है। उसमें अन्य देश भर के भी करोड़ों व्यक्तियों का सहयोग है । इसलिए चिंता न करें ; और कमा लेंगे ।
आपको माता पिता एवं गुरुजनों ने बहुत सुंदर विद्याएँ सिखा रखी हैं। उन्हीं विद्याओं से आपने कुछ धन कमाया । उसमें से यदि कुछ खो गया , तो चिंता ना करें । उसी विद्या से आप और फिर से कमा लेंगे।
हां , अपनी वस्तुओं की सुरक्षा अवश्य रखें। पूरी ईमानदारी बुद्धिमत्ता तथा मेहनत से कमाएं और उनकी सुरक्षा करें । यदि धन संपत्ति आदि अधिक हो जाएं, तो अन्य योग्य पात्रों में बांट दें । तभी आपका जीवन सफल होगा – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
: संसार में प्रतियोगिता सभी जगह पर होती है। जैसे विद्यार्थियों में व्यापारियों में खिलाडियों में संगीतकारों में डॉक्टरों में , सबमें होती है । तो इस प्रतियोगिता में सब लोग स्वयं जीतना चाहते हैं और दूसरों को हराना चाहते हैं । कुछ लोग स्वस्थ प्रतियोगिता करते हैं अर्थात दूसरों को बाधा नहीं डालते , तथा स्वयं पुरुषार्थ करके आगे निकलना चाहते हैं । यह प्रतियोगिता तो ठीक है।
परंतु अनेक जगहों पर प्रतियोगिता करते समय स्वयं पुरुषार्थ इस बात में कम करते हैं कि मैं आगे निकल जाऊँ, बल्कि इस काम में पुरुषार्थ अधिक करते हैं कि दूसरे को कैसे गिराया जाए। ऐसी स्थिति को षड्यंत्र कहते हैं।
जब व्यक्ति स्वस्थ प्रतियोगिता करे अर्थात दूसरे को हानि न करे, और अपनी उन्नति के लिए परिश्रम करे, यह तो उत्तम है ।
परंतु यदि वह अपनी उन्नति में कम ध्यान देवे, और दूसरे को गिराने की कोशिश अधिक करे, अथवा अन्य लोगों के साथ मिलकर षड्यंत्र करे , तो यह स्थिति बहुत खराब है ।
ऐसा षड्यंत्र भी अनेक जगह पर देखा जाता है । जो लोग द्वेष के पुराने संस्कारो के कारण ऐसा करते हैं , वे लोग अच्छे नहीं हैं।
जब ऐसी स्थिति हो , तो जिस के विरुद्ध षड्यंत्र किया जा रहा है , तो आप समझ लीजिए , कि उस व्यक्ति की योग्यता सबसे उत्तम है। उसी को प्रोत्साहन देना चाहिए , और दुष्टों के षड्यंत्र को नष्ट कर देना चाहिए – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
[प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है , तथा दुख नहीं चाहता । दुख से बचने के लिए और सुख की प्राप्ति के लिए दिन-रात प्रयत्नशील रहता है। परंतु फिर भी उसे अच्छी प्रकार से सुख मिल नहीं पाता । कुछ मात्रा में मिलता भी है , तो फिर इच्छाएं और आगे बढ़ती जाती हैं । उसे पूरा संतोष नहीं मिल पाता।
एक दुख को दूर करता है , तो दो-चार और नए आ जाते हैं । इस प्रकार से जीवन में सदा असंतोष बना ही रहता है ।
जब व्यक्ति सुख प्राप्ति करने तथा दुख से छूटने के लिए प्रयत्न करता है , तो उसके लिए उसको बहुत सारा ज्ञान चाहिए, शुद्ध ज्ञान चाहिए । यदि उसके ज्ञान में गड़बड़ है , मिथ्या ज्ञान है , तो वह अनेक निर्णय गलत लेगा । और जब उसके निर्णय गलत होंगे , तो उसके आचरण भी गलत होंगे । जब आचरण गलत होंगे, तो परिणाम भी दुखदायक होगा।
कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है । इसलिए उसे अपने सुख रूप भविष्य के लिए अन्य अनेक बुद्धिमानों से , विद्वानों से सलाह लेनी चाहिए। जो व्यक्ति जिस विषय में कुशल अर्थात एक्सपर्ट हो , उससे उस क्षेत्र में अवश्य सलाह लेकर ही काम करना चाहिए। तब तो मनुष्य दुखों से अधिक से अधिक बच पाएगा और अधिक से अधिक सुखी हो पाएगा – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
: हम देखते हैं संसार में लोग भटक रहे हैं ।
बेचारे नहीं जानते कि हमें जीवन को कैसे जीना चाहिए ? हम संसार में क्यों आए थे? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या था? क्या हम अपने लक्ष्य की ओर चल रहे हैं ? या लक्ष्य से दूर जा रहे हैं , इन बातों को लोग नहीं जानते। इसलिए इसको भटकना कहते हैं ।
निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाए तो प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य – लंबे समय तक सब दुखों से छूटना और सौ प्रतिशत उत्तम आनंद की प्राप्ति करना है। ये दोनों कार्य संसार में जीवित रहते हुए नहीं हो सकते । मोक्ष में हो सकते हैं । इसलिए मनुष्य जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है । इसे केवल मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है, और कोई प्राणी नहीं ।
मोक्ष कैसे मिलेगा, इसका मार्ग हमें वेद के विद्वानों से , उत्तम आचरण वाले विद्वानों से जानना होगा ।
तो जो व्यक्ति अपने जीवन में किसी वेदज्ञ चरित्रवान् शरीरधारी मनुष्य को गुरु के रूप में स्वीकार करके चलता है , उसके आदेश निर्देश का पालन करता है, वह नहीं भटकता , और लक्ष्य की और आगे बढ़ता है ।
जो व्यक्ति किसी एक भी मनुष्य को , वेदों के विद्वान बुद्धिमान चरित्रवान ईश्वरभक्त शरीरधारी मनुष्य को अपना गुरु नहीं मानता, उसका भटकना निश्चित है। वह संसार में स्वयं भटकता रहेगा , गलतियाँ करेगा और दूसरों को भी गलत रास्ता दिखाएगा। स्वयं दुखी रहेगा और दूसरों को भी संकटों में डालेगा। इसलिए किसी भी शरीर धारी वेदज्ञ मनुष्य को गुरु के रूप में स्वीकार करें । उसके आदेश निर्देश का पालन करें , लक्ष्य की ओर आगे बढ़ें, तथा आपने जीवन को सफल बनाएं – स्वामी विवेकानंद परिव्राजक

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