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: ।।श्रीहरिः।।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

जैसे नदी का प्रवाह समुद्र की तरफ जा रहा है, ऐसे ही इस समय संसार का प्रवाह नरको की तरफ बड़े जोरो से जा रहा है।
पढ़ाई में, रस्म-रिवाज में, कानून -कायदों में , व्यापार आदि कार्यो में जहाँ कही भी देखो, पाप का बड़े जोरो से प्रवाह चल रहा है।
गोस्वामीजी ने वर्णन किया है-

“कलि केवल मल मूल मलीना।
पाप पयोनिधि जन मन मीना।।”
(मानस, बालकांड,२७/४)

कलियुग में ऐसा जोरो से पाप छा जाएगा की मनुष्यो का मन जल में मछली की तरह पापो में रम जाएगा अर्थात् जैसे मछली को जल से दूर से कर देने पर वह घबरा जाती है, उसको पहले अगर यह समझ मे आ जाय कि तुम्हे जल से दूर कर देंगे तो वह घबरा जाएगी;
क्योकि वह जल के बिना नही जी सकती,ऐसे ही पाप पयोनिधि – पापरूपी तो हुआ समुद्र और उसमें जन मन मीना— मनुष्यो का मन मछली हो गया।
आज अगर कहा जाय कि ब्लैक मत करो, झूठ-कपट मत करो, बेईमानी मत करो , न्याय से काम करो तो कहते है, ‘ महाराज! झूठ-कपट के बिना आज के जमाने मे काम नही चलता। ईमानदारी से अगर काम करे तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। हमारे से यह नही होगा।’ पाप से दूर करने की बात सुनते ही काँपते है। वे डरते है कि पाप अगर छोड़ देंगे तो गजब हो जायगा, फिर तो, हमारा निर्वाह होगा ही नही। हमारा तो झूठ-कपट-बेईमानी से ही काम चलता है।
: 3 ऐसे भक्त, जिनके शरीर का कुछ भी पता नहीं चल सका

कबीरदास (1398-1518)— 1518 में कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है।

चैतन्य महाप्रभु (1486-1534)— 15 जून, 1534 को रथयात्रा के दिन जगन्नाथपुरी में संकीर्तन करते हुए वह जगन्नाथ जी में लीन हो गए और शरीर का कुछ भी पता नहीं चल सका I

मीराबाई (1498-1547)— मीराबाई बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहीं और जीवन के अंतिम दिनों में द्वारका चली गईं। जहाँ 1547 ई. में वह नाचते-नाचते श्री रणछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश कर गईं और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहाँ नहीं थी। उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला।….
हूँ तेरा खिदमतगार मैं, कोई मेरे लायक खिदमत दे दे।
मेरे कान्हा तू मुझको भी इन जैसी किस्मत दे दे।।

महामृत्युञ्जय_मन्त्र

महामृत्युञ्जय मन्त्र या महामृत्युंजय मंत्र (“मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र”) जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है। इस मन्त्र में शिव को ‘मृत्यु को जीतने वाला’ बताया गया है। यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है।

इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं। इसे शिव के उग्र पहलू की ओर संकेत करते हुए रुद्र मंत्र कहा जाता है; शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मंत्र और इसे कभी कभी मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह कठोर तपस्या पूरी करने के बाद पुरातन ऋषि शुक्र को प्रदान की गई “जीवन बहाल” करने वाली विद्या का एक घटक है।

ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है। चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है।

मंत्र

मंत्र इस प्रकार है –

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

यह त्रयम्बक “त्रिनेत्रों वाला”, रुद्र का विशेषण जिसे बाद में शिव के साथ जोड़ा गया, को संबोधित है।

महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ

त्र्यंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
सुगंधिम = मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम् = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली
उर्वारुकम् = ककड़ी (कर्मकारक)
इव = जैसे, इस तरह
बन्धनात् = तना (लौकी का); (“तने से” पंचम विभक्ति – वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
मृत्योः = मृत्यु से
मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा = न
अमृतात् = अमरता, मोक्ष
~ इस महामत्रँ से लाभ निम्न है –

धन प्राप्त होता
.जो आप सोच के जाप करते वह कार्य सफल होता
परिवार मे सुख सम्रद्बि रहती है
जिवन मे आगे बढते जाते है आप
~ जप करने कि विधि –

सुबह स्नान करते समय गिलास मे पानी लेकर मुह गिलास के पास रखकर ग्यारह बार मत्रँ का जप करे फिर उस पानी को अपने उपर प्रवाह कर ले,
महादेव कि कृपा आप के उपर बनी रहगी।

सरल अनुवाद

हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग (“मुक्त”) हों, अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों।

बड़ी तपस्या से ऋषि मृकण्ड के पुत्र हुआ। कितु ज्योतिर्विदों ने उस शिशु के लक्षण देखकर ऋषि के हर्ष को चिंता में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने कहा यह बालक अल्पायु है। इसकी आयु केवल बारह वर्ष है।

मृकण्ड ऋषि ने अपनी पत्नी को आश्वत किया-देवी, चिंता मत करो। विधाता जीव के कर्मानुसार ही आयु दे सकते हैं, कितु मेरे स्वामी समर्थ हैं। भाग्यलिपि को स्वेच्छानुसार परिवर्तित कर देना भगवान शिव के लिए विनोद मात्र है।

ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय बढऩे लगे। शैशव बीता और कुमारावस्था के प्रारंभ में ही पिता ने उन्हें शिव मंत्र की दीक्षा तथा शिवार्चना की शिक्षा दी। पुत्र को उसका भविष्य बता•र समझा दिया कि पुरारि ही उसे मृत्यु से बचा सकते हैं। माता-पिता तो दिन गिन रहे थे। बारह वर्ष आज पूरे होंगे। मार्कण्डेय मंदिर में बैठे थे। रात्रि से ही और उन्होंने मृत्युंजय मंत्र की शरण ले रखी है-

त्र्यम्बक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म।
उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात्॥

सप्रणव बीजत्रय-सम्पुटित महामृत्युंजय मंत्र चल रहा था। काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। यमराज के दूत समय पर आए और संयमनी लौट गए। उन्होंने अपने स्वामी यमराज से जाकर निवेदन किया- हम मार्•ण्डेय तक पहुंचने का साहस नहीं पाए। इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड को पुत्र को मैं स्वयं लाऊंगा। दण्डधर यमराज जी महिषारूढ़ हुए और क्षण भर में मार्कण्डेय के पास पहुंच गए। बालक मार्कण्डेय ने उन कज्जल कृष्ण, रक्तनेत्र पाशधारी को देखा तो सम्मुख की लिंगमूर्ति से लिपट गया।

हुम्, एक अद्भुत अपूर्व हुंकार और मंदिर, दिशाएं जैसे प्रचण्ड प्रकाश से चकाचौंथ हो गईं। शिवलिंग से तेजोमय त्रिनेत्र गंगाधर चन्द्रशेखर प्रकट हो गए थे और उन्होंने त्रिशूल उठा लिया था और यमराज से कहा कि तुम मेरे आश्रित पर पाश उठाने का साहस केसे करते हो?। यमराज ने डांट पडऩे से पूर्व ही हाथ जोडक़र मस्तक झुका लिया था और कहा कि मैं आप का सेवक हूं। कर्मानुसार जीव को इस लोक से ले जाने का निष्ठुर कार्य प्रभु ने इस सेवक को दिया है।

भगवान चंद्रशेखर ने कहा कि यह संयमनी नहीं जाएगा। इसे मैंने अमरत्व दिया है। मृत्युंजय प्रभु की आज्ञा को यमराज अस्वीकार केसे कर सकते थे? यमराज खाली हाथ लौट गए। मार्कण्डेय ने यह देख लिया।

उर्वारुमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
वृन्तच्युत खरबूजे के समान मृत्यु के बन्धन से छुड़ाकर मुझे अमृतत्व प्रदान करें। मंत्र के द्वारा चाहा गया वरदान उस का सम्पूर्ण रूप से उसी समय मार्कण्डेय को प्राप्त हो गया।

महामृत्युजय प्रयोग के लाभ

कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्।
येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।।
स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:।
मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।
देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत।
यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित।।
जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।

कलियुग में केवल शिवजी की पूजा फल देने वाली है। समस्तं पापं एवं दु:ख भय शोक आदि का हरण करने के लिए महामृत्युजय की विधि ही श्रेष्ठ है। निम्निलिखित प्रयोजनों में महामृत्युजंय का पाठ करना महान लाभकारी एवं कल्याणकारी होता है। मराठी पद्यानुवाद ः- ॐकारे चला करू चिंतन, शिवशंकर तोचि त्रिनयन । जो देई सुख पुष्टीचे दान, त्या शिवाचे करू पूजन ।। काकडी जशी जाई तुटून, तशी मुक्तता मिळो दान । ती खरेचि मृत्युपासून, नव्हे परी अमृतापासून ।।

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एक नगर मे एक महात्मा जी रहते थे और नगर के बीच मे भगवान् का मन्दिर था..वहाँ रोज कई व्यक्ति दर्शन को आते थे और ईश्वर को चढाने को कुछ न कुछ लेकर आते थे।
एक दिन महात्मा जी अपने कुछ शिष्यों के साथ नगर भ्रमण को गये तो बीच रास्ते मे उन्हे एक फल वाले के वहाँ एक आदमी कह रहा था की कुछ सस्ते फल दे दो भगवान् के मन्दिर चढ़ाने है।
थोड़ा आगे बढे तो एक दुकान पर एक आदमी कह रहा था की दीपक का घी देना और वो घी ऐसा की उससे अच्छा तो तेल है।
आगे बढ़े तो एक आदमी कह रहा था की दो सबसे हल्की धोती देना एक पण्डित जी को और एक किसी और को देनी है।फिर जब वो मन्दिर गये तो जो नजारा वहाँ देखा तो वो दंग रह गये…
उस राज्य की राजकुमारी भगवान् के आगे अपना मुंडन करवा रही थी..वहाँ पर एक किसान जिसके स्वयं के वस्त्र फटे हुये थे पर वो कुछ लोगों को नये नये वस्त्र दान कर रहा था।
जब महात्मा जी ने उनसे पूछा तो किसान ने कहा, हे महात्मन चाहे हम ज्यादा न कर पाये पर हम अपने ईश्वर को वो समर्पित करने की ईच्छा रखते है जो हमें भी नसीब न हो…जब मैं इन वस्त्रहीन लोगों को देखता हूँ तो मेरा बड़ा मन करता है की इन्हे उतम वस्त्र पहनावे।
जब राजकुमारी से पूछा तो उस राजकुमारी ने कहा, हे देव एक नारी के लिये उसके सिर के बाल अति महत्वपुर्ण है और वो उसकी बड़ी शोभा बढ़ाते है..मैंने सोचा की मैं अपने इष्टदेव को वो समर्पित करूँ जो मेरे लिये बहुत महत्वपुर्ण है इसलिये मैं अपने ईष्ट को वही समर्पित कर रही हूँ।
जब उन दोनो से पूछा की आप अपने ईष्ट को सर्वश्रेष्ठ समर्पित कर रहे हो तो फिर आपकी माँग भी सर्वश्रेष्ठ होगी तो उन दोनो ने ही बड़ा सुन्दर उत्तर दिया।
हे देव, हमें व्यापारी नही बनना है और जहाँ तक हमारी चाहत का प्रश्न है तो हमें उनकी निष्काम भक्ति और निष्काम सेवा के अतिरिक्त कुछ भी नही चाहिये।
जब महात्मा जी मन्दिर के अन्दर गये तो वहाँ उन्होने देखा वो तीनों व्यक्ति जो सबसे हल्का घी, धोती और फल लेकर आये…साथ मे अपनी मांगो की एक बड़ी सूची भी साथ लेकर आये और भगवान् के सामने उन मांगो को रख रहे है।
तब महात्मा जी ने अपने शिष्यों से कहा, हे मेरे अतिप्रिय शिष्यों जो तुम्हारे लिये सबसे अहम हो जो शायद तुम्हे भी नसीब न हो जो सर्वश्रेष्ठ हो वही ईश्वर को समर्पित करना…और बदले मे कुछ माँगना मत और माँगना ही है तो बस निष्काम-भक्ति और निष्काम-सेवा इन दो के सिवा अपने मन मे कुछ भी चाह न रखना।
इसीलिये हमें हमेशा याद रखना की भले ही थोड़ा ही समर्पित हो पर जो सर्वश्रेष्ठ हो बस वही समर्पित हो
🙏🏽🙏🙏🏻 जय जय श्री राधे🙏🏿🙏🏾🙏🏼
: तेरा शुकराना..🙏🏻
एक बार दो दोस्त घूमते हुए..एक महल के पास पहुँच गए..
पहले दोस्त ने..उस शानदार महल को देखकर कहा :: जब इनमें रहने वालों की किस्मत लिखी जा रही थी..तब हम कहाँ थे..??
दूसरा दोस्त पहले वाले का हाथ पकड़ कर..अस्पताल ले गया..और..मरीजों को दिखाते हुए कहा :: जब इनकी किस्मत लिखी जा रही थी..तब हम कहाँ थे..??
परमात्मा ने हमें जो भी दिया..उसमें हमे हमेंशा खुश रहना चाहिए..
किसी संत ने क्या खूब कहा है..कि..तुम अपने पुराने जूतों को देखकर..क्यों परेशान होते हो..दुनिया में तो कई लोग ऐसे भी हैं..जिनके तो पैर ही नहीं है..
इस मालिक का हर हाल में शुक्र करना सीखना है..मेरे मालिक ने सब कुच्छ दिया है..
आज भी तेरा शुक्राना..
कल भी तेरा शुक्राना..
हर पल तेरा शुक्राना..
🌹जय श्री श्याम🌹
🙏 श्याम प्रेमीयो🙏
सुप्रभात 🙏🌹

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