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साधना के जगत में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अगर कोई बात है है तो वो है ” संग ” हम कितना भी भजन कर लें, ध्यान कर लें लेकिन हमारा संग अगर गलत है सुना हुआ, पढ़ा हुआ और जाना हुआ तत्व आचरण में नहीं उतर पायेगा।। आपको धनवान होना है तो धनी लोगों का संग करो, राजनीति में जाना है तो राजनैतिक लोगों का संग करो। पर अगर रसिक बनना है, भक्त बनना है तो संतों का और वैष्णवों का संग जरूर करना पड़ेगा।। दुर्जन की एक क्षण की संगति भी बड़ी खतरनाक होती है। वृत्ति और प्रवृत्ति तो संत संगति से ही सुधरती है। संग का ही प्रभाव था लूटपाट करने वाले रामायण लिखने वाले वाल्मीकि बन गए। थोड़े से भगवान वुद्ध के संग ने अंगुलिमाल का ह्रदय परिवर्तन कर दिया। महापुरुषों के संग से व्यवहार सुधरता है।।
[ इंसान के सामने जिंदगी का बहुत छोटा सा हिस्सा होता है। उसे न भूत के बारे में पता होता है।। न भविष्य के बारे में उसे कुछ पता नहीं होता कि आज उसे किन कर्मों के कारण दुख उठाने पड़ रहे हैं। और किन कर्मों के कारण सुख मिल रहे हैं।। दुनियां में हमें जो भी सुख दुख मिलते हैं, ‘खुदा’ के हुक्म से मिलते हैं। मगर ‘हमारे ही पूर्व के किए हुए कर्मों के हिसाब से मिलते हैं’।।

गुरु साहिब कहते हैं–
मंदा चंगा आपणा, आपे ही कीता पावणा।
इसलिए सुख और दुख, आदर और निरादर, अमीरी और गरीबी, सबको ‘खुदा की रजा’ समझकर खुशी-खुशी मंजूर कर लेना चाहिए।।

🕉गीता जी में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के समक्ष सन्यासी और योगी की जो परिभाषा रखी है। वह बड़ी ही अदभुत और मनन योग्य है।। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं। कि हे अर्जुन सन्यास आवरण का नहीं अपितु आचरण का विषय है।।
🕉जिह्वा क्या बोल रही यह सन्यासी होने की कसौटी नहीं अपितु जीवन क्या बोल रहा है। यह अवश्य ही सन्यासी और योगी होने की कसौटी है।।
अनाश्रित: कर्म फलं कार्यं कर्म करोति य:। स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चा क्रिया।।
🕉जो पुरुष कर्म फल की इच्छा का त्याग कर सदैव शुभ कर्म करता रहता है, परोपकार ही जिसके जीवन का ध्येय है, वही सच्चा सन्यासी है। कर्मों का त्याग सन्यास नहीं, अपितु अशुभ कर्मों का त्याग सन्यास है।। दुनिया का त्याग करना सन्यास नहीं है। अपितु दुनिया के लिए त्याग करना यह अवश्य सन्यास हैं।।
[ अब सामाजिक सम्बन्धों की बात पर ध्यान दीजिए। चारों और बड़ी उन्नति हो रही है।। ज्ञान-विज्ञान और कलाएँ फल-फूल रही हैं, परन्तु मनुष्य मनुष्य के सम्बन्ध बिगड़ते जा रहे हैं। घर में, पड़ोस में, देश में और सारी दुनिया में एक यही बात देखने में आती है।। कि मनुष्य हिल-मिलकर नहीं रह सकता एक-दूसरे को खा जाना चाहता है। यह कैसी स्थिति है? परस्पर अविश्वास और सन्देह बढ़ता जा रहा है। घर में पैसा है, कमी किसी बात की नहीं, परन्तु फिर भी सुख का लोप होता जा रहा है।। वस्तुतः हम सब यह भूलने लगे हैं, कि समाज में कैसे रहना चाहिए। हम आपके सामने तीन व्यावहारिक सूत्र प्रस्तुत कर रहें हैं।। यदि इन पर अमल किया जाय तो आपके सामाजिक सम्बन्ध अवश्य सुधर सकते हैं, और सुख मिल सकता है। एक तो जिसके लिए आप जो भी करते हैं।। उसका बदला पाने की आशा छोड़ दीजिए। यदि आप किसी का काम इस आशा से करते हैं, कि किसी अवसर पर आप उस व्यक्ति से लाभ उठा सकेंगे, तो आप एक बहुत बड़ी दुराशा का बीज बो रहे हैं। आपकी यह इच्छा कभी न पूरी होगी। ऐसी इच्छा करने की अपेक्षा किसी का काम न करना ज्यादा अच्छा है।।

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