कठिनाइयाँ जीवन में सदा नहीं रहतीं। जीवन में प्रतिदिन त्योहार नहीं होता।। प्रतिदिन छुट्टी नहीं होती। प्रतिदिन काम भी नहीं होता।। कभी छुट्टी होती है, तो कभी काम भी करना पड़ता है। इसी प्रकार से व्यापार में सदा लाभ नहीं होता, कभी हानि भी होती है। सदा स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। कभी-कभी रोग भी आ जाते हैं। यह तो संसार है। यहां ऐसा ही चलता है।। जीवन में जब कठिन समय आता है, परिस्थितियां विपरीत हो जाती हैं, अनेक कारणों से वातावरण बिगड़ जाता है, जैसा कि आजकल देखा जा रहा है। सब तरफ परेशानी दुख चिंताएं तनाव आदि समस्याओं ने सब को घेर रखा है। तो ऐसी स्थिति में यदि धैर्य रखा जाए, स्थिति के सुधरने की प्रतीक्षा की जाए, तो कुछ ही समय में ये समस्याएं काफी सीमा तक हल हो सकती हैं। और यह कठिन समय भी पार हो जाएगा।। जो व्यक्ति संसार की इस सच्चाई को समझ लेता है, और स्वयं को इसके अनुसार ढाल लेता है, वह धैर्यशाली सहनशील बुद्धिमान धार्मिक सदाचारी चरित्रवान एवं सुखी होता है।। जो व्यक्ति संसार की इस सच्चाई को समझता नहीं, समझना चाहता नहीं, अथवा समझ कर भी स्वीकार नहीं करता, इस सच्चाई के विरुद्ध मन में बड़ी-बड़ी इच्छाएं रखता है, वह व्यक्ति असहनशील क्रोधी असंयमी लोभी झगड़ालू स्वार्थी एवं सदा दुखी रहता है।। अब दोनों रास्ते आपके सामने हैं। आप बुद्धिमान हैं, जो रास्ता आपको अच्छा लगे, उस पर चलें।।
🙏🌹आज का चिन्तन-लालसा🌹
🌹बीते हुए लम्हे याद आ रहे हैं
जहाँ मिलती थी खुशियां वो रास्ते अब सुनसान नज़र आ रहे हैं🌹
आज हम जिस विषय पर विचार, चिन्तन और मनन करेंगे वह वर्तमान समय में समाज में एक बहुत बड़े साम्राज्य को खड़ा करने में सफल रहा है । हम जिस विषय की वार्ता कर रहे हैं उसे समाज “लालसा” अथवा “लालच” के नाम से जानता है । वास्तव में लालसा का स्वरुप या लालच का करण क्या है? और इसका मूल क्या है? हम इन सभी प्रश्नों का हल खोजने का प्रयास ही नहीं करते कभी ।
मन लालसा से भरा रहता है और हम अनुभव से जानते भी हैं कि हमारे लालच के कारण हमें ही दुःख होता है । यहाँ तक कि लालची व्यक्ति नीति और नियमों को तोड़ कर भी अपनी लालसा पूर्ण करने का प्रयत्न करता है । और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उसका कोई मित्र ही नहीं होता । वो सदैव अविश्वास से भरा रहता है और मन…मन चञ्चल रहता है । क्या ये सत्य नहीं ? ये है लालसा का स्वरुप – अकेलापन, डर, अविश्वास और कुछ पागलपन । लालसा का कारण है कि हमें दूसरों से अधिक वस्तु प्राप्त करने की इच्छा रहती है सदा । सम्पत्ति हो, सत्ता हो, प्रतिष्ठा हो, वासना हो या फिर रूप श्रृंगार हो अधिक से अधिक पाने की दौड़ रहती है सदा मन में । किसी बात से सन्तोष प्राप्त नहीं होता । हम दूसरों को नुक्सान पहुंचाकर भी अधिक प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहते हैं पर इस अंधी दौड़ का मूल कहाँ है ये हम जान नहीं पाते । क्या ये सत्य नहीं ? हम बात कर रहे हैं लाससा की प्रवृत्ति पर । क्या कारण है कि हमें सदा ही दूसरों से अधिक प्राप्त करने की इच्छा रहती है ? कोई वाहन अथवा मकान पाने की इच्छा तो स्वभाविक है । सुविधा किसे प्रिय नहीं होती ? पर लालची व्यक्ति सदा ही दूसरों से बड़ी या दूसरों से अधिक वाहन प्राप्त करना चाहता है । लालसा वास्तव में दूसरों से स्पर्धा करने का नाम है । मनुष्य अपनी जीवन की परिस्थितियों से या हालातों से सन्तुष्ट न हो और अपनी परिस्थिति से ऊपर उठने की इच्छा रखे तो वो स्वभाविक है पर ऐसे व्यक्ति की स्पर्धा दूसरों से नहीं बल्कि अपने आप से होती है । वो प्रयत्न करता है अपनी मर्यादाओं को तोड़ने का । और कदाचित उसके प्रयासों में ही उसकी विजय है । उसके मन में महत्त्वकांक्षा तो होती ही पर उसे लालसा या लालच का नाम देना अनुचित और असंगत है । जो व्यक्ति स्वयं को अन्दर से रिक्त अर्थात खाली पाता है । जिसके अन्दर ना ही आत्मविश्वास होता है और न ही शान्ति । वही मनुष्य हमेशा स्पर्धा दूसरों से करता है । विचार कीजिए जब आप जानते हैं कि कोई कार्य आप सरलता से कर पायेंगे तब क्या आप स्पर्धा करते हैं कदाचित नहीं । स्पर्धा तब जन्म लेती है जब आपको कार्य कठिन दिखाई दे अर्थात जिनका हृदय आत्मविश्वास से भरा नहीं होता उसे सम्पूर्ण जीवन ही कठीन प्रतीत होता है । अर्थात उसके अन्दर का खालीपन बढ़कर सत्ता या सम्पत्ति की लालसा बन जाता है और आत्मविश्वास तो मन की स्थिति है । हम स्वयं से कहें की जीवन कठिन नहीं जीवन में कुछ भी कठिन नहीं अपने आप हम लालसा से मुक्त होकर आत्मविश्वास से भर जायेंगे । क्या ये सत्य नहीं ? लालसा या लालच के इस विषय पर विचार, चिन्तन और मनन अवश्य कीजियेगा । आशा करते हैं कि हमारा ये विषय हम सबके जीवन में कुछ अर्थ भरेगा । ऐसी मङ्गलकामना करते हुए ।। जय जय श्री राधे राधे जी।।. 🍁🍁🌹🌹🍁🍁🙏
समय की अरगनी अपने ऊपर टँगे हुए मन के बोझ से लटक गयी है।। हवाओं के थपेड़े से झूलता हुआ मन सूख चला है। खामोश स्थिर पड़ा पड़ा हृदय की संगति का उपक्रम कर रहा है।। आप आश्चर्य चकित हो सकते हैं। जीवन के इतिहास में मन की दशा को स्थिर और शांत देख कर जीवन है। तो मन है।। मुश्किलें जीवन पर हैं। और मन अपनी सुरक्षा में हृदय की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहा है।। मनुष्य अपनी तरक्की के सारे औजारों से दूर खुद और अपनी व्यवस्था के साथ जीवन बचाने में मशगूल है। आदतें कहाँ जल्दी जाती हैं।। अकेलापन जो जीवन की सुरक्षा का कवच था कहाँ सम्भाल पा रहा है। आदमी खैर ये उसकी मुश्किल है।। और अपनी मुश्किल का जिम्मेदार वो खुद है।। जब कि अकेलापन जरूरी है। खाली शरीर से नहीं बस एक अदत मनुष्य होने के सिवाय ढेर सारे विचारों से भी जो आ रहे है, जा रहे हैं।। और समय की अरगनी पर टँगा हुआ मन सूखता हुआ झूल रहा है। उन विचारों के साथ।। जब कि अकेलापन अद्भुत रूप से आधुनिक विचारों का सृजन कर रहा है। और सच मे मनुष्य प्रकृति के इतना करीब मुद्दत बाद आया है।।
[: एक जिज्ञासु साधक को अपने लिए एक श्रेष्ठ गुरु की तलाश थी। एक दिन वह इसी तलाश में घूमता हुआ एक संत के आश्रम में पहुंचा। संत का व्यक्तित्व सहज, सौम्य और तेज से भरा था। साधक ने उन्हें प्रणाम कर पूछा, मैं कौन-सी साधना करूं संत ने उत्तर दिया, ‘तुम जोर से दौड़ो।। दौड़ने से पहले निश्चित कर लो कि मैं भगवान के लिए दौड़ रहा हूँ। बस यही तुम्हारे लिए साधना है।। साधक ने पूछा, तो क्या बैठकर करने की कोई साधना नहीं है, संत बोले, है। क्यों नहीं, बैठो और निश्चय करो कि तुम भगवान के लिए बैठे हो।। साधक ने फिर प्रश्न किया, कुछ जप नहीं करें क्या संत ने समझाया, किसी भी नाम का जप करो, तो सोचो भगवान के लिए सोच रहा हूँ। साधक ने प्रश्न उठाया, तब क्या क्रिया का कोई महत्व नहीं।। केवल भाव ही साधना है। संत ने समझाया, क्रिया की भी महत्ता है।। क्रिया से भाव और भाव से ही क्रिया होती है। इसलिए दृष्टि लक्ष्य पर रहनी चाहिए। फिर तुम जो कुछ करोगे, वही साधना होगी।। भगवान पर यदि लक्ष्य रहे तो वे सभी को सर्वत्र सर्वदा मिल सकते हैं। संत की बात सुनकर साधक को संतुष्टि मिली।।
[: राधे – राधे ॥
संतुष्टि, व्यक्ति को जीते जी मुक्त करा देती है। इसलिए जो संतुष्ट है, वही मुक्त भी है। संतों का मत है कि इच्छाओं का शेष रहना और श्वासों का खत्म हो जाना ही मोह एवं इच्छाओं का खत्म हो जाना और श्वासों का शेष रहना ही मुक्ति है। आप अपने जीवन में कितने संतुष्ट हैं अथवा आपने अपना जीवन कितनी संतुष्टि में जिया यही आपकी मुक्ति का मापदंड भी है। किसी की संतुष्टि ही जीवन में उसकी मुक्ति का मापदंड भी निर्धारित करती है।। संतोषी व्यक्ति के जीवन में प्रसन्नता अपने आप प्रवेश कर जाती है। जहाँ किसी की अनगिन इच्छाएं उसके चिंता और विषाद का कारण बनती हैं, वहीं संतोष किसी व्यक्ति की प्रसन्नता का कारण भी बनता है। संतोष केवल वाह्य प्रसन्नता नहीं अपितु आंतरिक स्थिरता भी प्रदान करता है।।एक संतुष्ट जीवन ही एक सफल जीवन भी कहलाता है। महापुरुषों का जीवन इसलिए सफल अथवा वंदनीय नहीं माना जाता कि उन्होंने बहुत कुछ पा लिया है अपितु इसलिए सफल और वंदनीय माना जाता है, कि उन्होंने जो और जितना पाया है, बस उसी में संतुलन बनाना और संतुष्ट रहना सीख लिया है।। संतुष्टि का अर्थ निष्क्रिय हो जाना नहीं अपितु अपेक्षा रहित परिणाम है। संतुष्टि किसी व्यक्ति के जीवन को निष्क्रिय नहीं अपितु केवल धैर्यवान बनाती है। हमारी प्राथमिकता सदैव पूर्ण निष्ठावान होकर अपना श्रेष्ठतम देते हुए परिणाम के प्रति अपेक्षा रहित होकर निरंतर गतिमान रहना होनी चाहिए। क्योंकि परिणाम के प्रति हमारी अपेक्षाएं जितनी कम होगी , हमारी संतुष्टि का ग्राफ भी उतना ही अधिक होगा।। संतुष्टि का चरम ही तो जीते जी मुक्त हो जाना भी है। जिसे संतुष्ट होना आ गया, समझो उसे मुक्त होना भी आ गया।।