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बच्चों को कार भले मत दिलवाना पर संस्कार जरूर दिलवाना जिनके पास संस्कारो की दौलत होती है वो बच्चा कभी ग़रीब नहीं हो सकता

ये वाणी सत्य है ,जो माँगे ठाकुर अपने से सोई सोई देवे,
ये भी अकाट्य सत्य है की ,घर ताँ तेरे सब किछु है जिस देवे सो पावे

उस परमात्मा से जो माँगो वो मिल सकता है उस परमात्मा के घर किसी भी चीज़ की कमी नहीं है वो जिसे देता है वही उससे प्राप्त कर सकता है
*लेकिन सिर्फ़ कुछ मिलने की भावना से उसका भजन करना उसके दर जाना स्वार्थ है और जब आप स्वार्थी होंगे आपको माँगना पड़ेगा लेकिन यदि आप उससे प्रेम करते हो और वो परमात्मा आपसे प्रेम करता है तो वो स्वयं ही आपके भंडारे आपकी झोली सर्वसुखों से भर देता है *
उसका प्रेम प्राप्त करने के लिए देने की आदत स्वयं में भी डाले और बच्चों को भी सिखायें
एक संत ने एक द्वार पर दस्तक दी और आवाज लगाई ” भिक्षां देहि “
एक छोटी बच्ची बाहर आई और बोली, ‘‘बाबा, हम गरीब हैं, हमारे पास देने को कुछ नहीं है
संत बोले, ‘‘बेटी, मना मत कर, अपने आंगन की धूल ही दे दे
लड़की ने एक मुट्ठी धूल उठाई और भिक्षा पात्र में डाल दी
शिष्य ने पूछा, ‘‘गुरु जी, धूल भी कोई भिक्षा है? आपने धूल देने को क्यों कहा
संत बोले, ‘‘बेटे, अगर वह आज ना कह देती तो फिर कभी नहीं दे पाती। आज धूल दी तो क्या हुआ, देने का संस्कार तो पड़ गया। आज धूल दी है, उसमें देने की भावना तो जागी, कल समर्थवान होगी तो फल-फूल भी देगी।’’
जितनी छोटी कथा है निहितार्थ उतना ही विशाल । साथ में आग्रह भी …. दान करते समय दान हमेशा अपने परिवार के छोटे बच्चों के हाथों से दिलवाये जिससे उनमें देने की भावना बचपन से बने बच्चों को प्रभु से और सभी लोगों से निस्वार्थ प्रेम करना सिखाए आप दुनिया में कई ऐसे रिश्ते होंगे मित्र होंगे जिससे प्रेमवश मिलने जाते होगे कि उससे मिलकर मन को अच्छा लगता है वैसे ही प्रभु से भी मिलने उसका भजन करने और उसके प्रेमीयो की सेवा करने का निस्वार्थ प्रयास करे कि आपको अच्छा लगता है
[: अभी यदि कष्टों में हो तो विश्वास करो कि अभी सुख भी उपलब्ध हो जाएंगे सेवक की रक्षा करना सद्गुरु अपना प्रथम कर्तव्य समझते हैं। अहंकार से बचाने के लिए, नम्रता धारण कराने के लिए कभी ऐसी रचना रचा देते हैं ताकि सेवक अभिमान में न आ जाये और भक्ति धन को न खो बैठे।। परिश्रम से जो आराम मिलता है। उसे वास्तविक विश्राम समझो और प्रमाद से जो आराम मिलता है उसे बे-आराम समझो।। अहंभाव ईश्वरीय मार्ग में रुकावट है। यदि मालिक की दयालुता सदैव स्मरण रखोगे तो उनकी कृपा दृष्टि सदा होती रहेगी।।
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मन रोगी, तन क्या करे। आज जितनी दवाएं हैं, आज से पहले कभी भी नहीं थीं।। लेकिन बीमारियां कम नहीं हुईं, बढ़ गई हैं। बल्कि नई-नई बीमारियां पैदा हो गईं, हमने दवाओं का ही आविष्कार नहीं किया, बीमारियां भी पैदा की हैं।। अधिकांश बीमारियाँ हमारी बनाई हुई है। दवाइयां बढ़ें, तो बीमारियां कम होनी चाहिए पर बीमारियां बढ़ रही हैं, यह क्या है।। जीवन रक्षा के लिये क्षणिक सहयोग ठीक है।। परंतु दवाओं पर निर्भरता से आपकी प्रतिरोध क्षमता घटती जा रही है। जागिये, सुरक्षा के चक्कर में आप अधिक असुरक्षित हो रहे हैं।।

                 *!! !!*


जिस दिन पत्ते को ये पता चल जाये कि हमारे मूल ये नहीं हैं जिसमें मैं लटक रहा हूँ। हमारे मूल तो जमीन के भीतर हैं। जब तक हम पत्ते जैसे जीवों को लगे कि जिस परिवार रूपी टहनी में मैं लटक रहा हूँ, ये मेरे मूल हैं तो हल्की सी हवा भी विचलित कर देगी।

   *लेकिन जब ये पता लगे कि हमारे मूल तो कोई और हैं। मेरे मूल तो स्वयं श्रीकृष्ण हैं उनके संग मेरा सम्बन्ध है। तो बडे से बड़ी विपत्ति आये वो भी विचलित नहीं कर पायेगी।*

   *जरा सी विपत्ति आ जाय तो सलाह देने वाले बहुत मिल जाते हैं और जीव को भटकाते रहते हैं। भटकता भटकता जीव थक जाता है। जो जीव अपना संग श्रीकृष्ण से जोड़ रखा है, उसे कहीं भी भटकने की आवश्यकता है नहीं है।*

!!!…किसी को मकान बनाने में आनन्द आता है तो बनाने दो अगर आपको अपने झोपड़े में प्रसन्नता है तो व्यर्थ में मकान बनाने की दौड़ में क्यों दौड़ रहे हो?..
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सफल जीवन के लिए उपयोगी बातें,,,,,

इस संसार में कभी भी, कहीं भी, कोई भी, किसी के साथ हमेशा नहीं रह सकता। जितने भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, उन्हें उनसे एक ना एक दिन अवश्य बिछड़ना पड़ेगा। चाहे स्त्री हो, चाहे पुत्र हो ,चाहे धन हो, चाहे मकान हो, चाहे अपना शरीर हीं हो,—- इन सब को छोड़कर जाना ही पड़ेगा।

अतः यह जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मर कर जाता है। करनी- धरनी , पाप- पुण्य का फल भी अकेला ही भोक्ता है। इसलिए अधर्म की कमाई से कभी भी अपना और अपने परिवार का पालन पोषण नहीं करना चाहिए, नहीं तो पापों की गठरी अकेले ही सिर पर लादकर घोर नरको में गिरना पड़ेगा।

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