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क्या है कर्म किसे कहते है कर्मयोग? स्पष्ट करे 🙏🌹


कर्मयोग में सभी कर्म केवल दूसरों के लिए किये जाते हैं. हम सुख चाहते हैं, अमरता चाहतें हैं, निश्चिंतता- चाहते हैं, निर्भरताचा- हतें हैं, स्वाधीनता चाहते हैं –यह सब हमें संसार से नहीं मिलेगा, प्रत्युत संसार से सम्बन्ध विच्छेद से मिलेगा! हमें संसारसे जो कुछ मिला है, उसको केवल संसार कि सेवा में समर्पित कर दें, यही कर्म योग है. यदि ज्ञान के संस्कार हैं तो स्वरुप कासाक्षात्- कार हो जाता है और यदि भक्ति से संस्कार है! तो भगवान् में प्रेम हो जाता है! जो कर्म हम अपने लिए नहीं चाहते हैंउसको दूसरों के प्रति न करें।।
मैं और मेरा भाव ही दुःख का जनक है. निरंतर कर्म करो किन्तु उसमें आसक्त न हो जाओ! अनासक्ति ही आत्मत्याग है! जो व्यक्ति धन या अन्य किसी प्रकार की कामना न रख कर कार्य करतें है वे ही सबसे उत्तम कर्मकर्ता है! सब कर्म ईश्वर कोअर्पण करते चले यही कर्म योग का ध्येय है! निस्काम – कर्म मनुष्य को श्री भगवान् के समीप पहुंचा देता है।

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कर्म के द्वारा ईश्वर के साथ संयोग ही कर्मयोग है! जिस कर्म में भगवान् का संयोग नहीं होता वह कर्मयोग नहीं — वह केवलकर्म मात्र है! कर्म सकाम होने से ही वह बंधन का कारण होता है और निष्काम होने पर चित्त शुद्धि क्रम से वह मोक्ष का कारण बनता है!
राग मिटे बिना संसार कि स्वतंत्र सत्ता का आभाव होना बहुत कठिन है! जब तक अपने लिए कुछ भी पानेकी इच्छा रहती है तब तक कर्मों के साथ सम्बन्ध बना रहता है!
माया ही अज्ञान है, माया से अहम् ज्ञान और कर्त्तव्य बोध होता है! अहम् बुद्धि बंधन का कारण है, उसी से जीव मोह प्राप्तहो जाता है, जिससे वह आत्मस्वरूप- का ज्ञान खो बैठता है! इस अहम् रूप अज्ञान से मिट जाने से ही ब्रह्म आत्मरूप से प्रगट होते हैं!
जिस दिन या जिस क्षण वैराग्य का उदय होगा तभी संन्यास आश्रम ग्रहण करना कर्त्तव्य है! श्री भगवान ने कर्म अकरमऔर विकर्म सब कुछ छोड़ कर सन्यासी हो जाने का उपदेश नहीं दिया यथार्थ में पूर्ण तथा कर्मफल का परित्याग करकेकर्मयो- गी या नित्य सन्यासी होने का ही आदेश दिया है! कर्मत्याग या स्वधर्म त्याग गीता का उपदेश नहीं बल्कि स्वधर्म पालन और कर्मफल त्याग ही गीता का उपदेश है।

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सूत में जरा सा रेशा भी रहने से वह सुई के छेद में नहीं घुसता! उसी तरह मन में मामूली वासना रहने से भी वह ईश्वर केचरणकमलों- के ध्यान में लवलीन नहीं होता!
जिस विवेकयुक्त- बुद्धि द्वारा मन वशीभूत है, वह मन ही जीव का मित्र है और यदि मन विजित न हुआ तो वह शत्रु की तरहजीव को हर प्रकार से हानि पहुंचता है!
जो रूप रस आदि विषयों के संस्पर्श में आकर निर्विकार रहतें हैं और मृतिका प्रस्तर तथा सुवर्ण में समदर्शी हैं वही आत्मनिषठा कहे जाते हैं! मन बलवान है जो साधक को जबर्दस्ती विषयों में ले जाता है! अतः मन ही मोक्ष और बंधन का कारण हैं
भगवान् के साथ आत्मीयता का बोध हो जाने पर फिर संसार में कोई भय नहीं रहता, वह –बाप माँ या भाई बंधु है — इस प्रकार अपनापन आने से किसी साधन भजन कि आवश्यकता नहीं रहती, किन्तु उनकी विशेष कृपा के बिना उन्हें कोई अपना नहीं सकता!
पाप या पुण्य कोई भी कर्म बिना फल के नष्ट नहीं होता अतः जितने शुभ कर्म किए गए हैं उसका फल कर्म करने वाला अवश्य पायेगा, कोई भी शक्ति या देवता इस नियम को नहीं रोक सकते, साधन योग कर विपरीत परिस्तिथि का असर कमकर सकते हैं बस ——
ध्यान योग बहुत कठिन है, इसके लिए अनेक प्रयत्न की आवश्यकता है, यम नियम आसान प्राणायाम प्रत्याहार- धारणाध्यान- और समाधि में सिद्धी लाभ कर सकने से ही ध्यानयोग के लक्ष्य ब्राह्मी स्थिति की अवस्था प्राप्त होती है! यम नियमआदि कि साधना भी निष्काम भाव से ही करनी होगी।।

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