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वयक्ति के बिगड़ने के चार साधन होते है, रूप, यौवन, सम्पत्ति और बड़ा पद मिल जाना, सुन्दर रूप का होना, युवावस्था का होना, ज्यादा सम्पत्ति का होना, ऊँचा पद मिल जाना, इन चारों चीजों के साथ में यदि विवेक नहीं है, तो निश्चित रूप से वो व्यक्ति अनर्थ किये बिना नहीं रह सकता, यदि विवेक है, तो ये चारों चीजें ही व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ सकती और विवेक जो है वो सत्संग से प्राप्त होता है।

यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु।
धर्मे मयि च विद्वेष: स वा आशु विनश्यति।।

देवताओं के प्रति, वेदों के प्रति, गऊ-ब्राह्मणों के प्रति जिसके मन में विद्वेष उत्पन्न हो जाता है, वह व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाता है, उस व्यक्ति को नष्ट होने से कोई रोक नहीं सकता, इसलिये आप सभी से आग्रह है कि देवताओं, वेदों ब्राह्मणों और गौ माता का हमेशा सम्मान करें।

अहं सर्वेषु भुतेषु भूतात्मावस्थित: सदा।
तमवज्ञाय मां मत्य: कुरूतेऽर्चाविडम्बनम्।।

भागवत के एक प्रसंग में भगवान् कपिलजी माँ देवहूति को उपदेश देते हुए कहते हैं, कण-कण में रहने वाले मुझ परमात्मा को जिसने सबमें नहीं देखा, उस व्यक्ति की मूर्ति पूजा में भी मैं उसे मिलने वाला नहीं, उसकी मूर्ति पूजा भी तो ऐसे ही है जैसे राख में किया गया हवन्।

माता देवहूति ने पूछा- मातृगर्भ में तो जीव को बड़ा सुख मिलता होगा, न सर्दी है, न गर्मी है, न शोक है, न मोह है, कपिलजी बोले- यह मत पूछो माता, माँ के गर्भ में जीव को जितनी तकलीफ होती है, उतनी न पहले कभी होती है और न कभी बाद में होती है, “गर्भवास समं दु:खं न भूतो न भविष्यति” इतना कष्ट होता है कि हजारों छोटे-छोटे कीटाणु जो मातृगर्भ में पलते है, वे जीव के कोमल शरीर को काटते है, जीव तड़पता है, चिल्लाता है, सुने कौन?

कभी माँ चटपटी वस्तु का सेवन कर ले, तो इसको कष्ट होता है, माँ कभी गर्म वस्तु का सेवन कर ले तो इसको कष्ट होता है, सातवां महीना आते ही जन्म जन्मांतर के कर्म इसको याद आते है और भगवान् की स्तुति करता है, “तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्तनानातनोर्भुवि चलच्चरणारविन्दम्” परमात्मा से कहता है- हे भगवन् एक बार मुझे गर्भ से निकालो, गर्भ से बाहर करो, प्रभु! ऐसा भजन करूँगा कि फिर कभी गर्भ में नहीं आना पड़े।

भगवान् कहते हैं- तुम गर्भ में ही स्तुति करते हो, बाहर आते ही सब भूल जाओगे, जीव कहता है- सत्य कहता हूँ, एक बार गर्भ से बाहर निकालकर देखो- मैं तुम्हें नहीं भूलूंगा, बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञा करता है, नौवां महिना पूर्ण हुआ, दसवां मास आरम्भ हुआ और जैसे ही प्रसव की वायु का वेग आया, जीव मातृगर्भ से तुरंत संसार में आ जाता है।

माता देवहूति ने कहा- गर्भ में बड़ी तकलीफ थी, बाहर आ गया तो अब सुख मिलेगा, कपिलजी ने कहा- माता सत्य कहता हूँ, बाहर भी सुख नहीं है, बताओ दोस्तों! मैं आपसे पुँछता हूँ कि सुख मिला किसी को? आप बिल्कुल सत्य समझना, मैंने कई-कई विद्वानों, बलवानों, धनवानों को नजदीक से देखा है, वो एक दूसरे को सुखी बताते है, स्वयं कोई भी सुखी नहीं है।

दीन कहे धनवान सुखी,धनवान कहे सुख राजा को भारी।
राजा कहे महाराज सुखी,महाराज कहे सुख इन्द्र को भारी।
इन्द्र कहे ब्रह्मा को सुख, ब्रह्मा कहे सुख विष्णु को भारी।
तुलसीदास विचार करे, हरि भजन बिना सब जीव दुखारी।

सज्जनों, बाहर भी सुख नहीं, काहे का सुख? बालक जन्म लेता है, पलने में सो रहा है, उसे मच्छर काट रहे है, लेकिन बता नहीं सकता कि मुझे क्या तकलीफ है? थोड़ा और बड़ा हुआ, बच्चे ने अपने मन को तीन जगह में बांट दिया, माँ, पिताजी और भाई में, और बड़ा हुआ तो मन मित्रों में बंट गया, अब पढ़ने जा रहे हैं साहब, “मात-पिता बालकन बुलावें, उदर भरे सो ही धर्म सिखावें” पेट भरने की विधा सीखने जा रहे है।

पढ़-लिखकर डिग्रीयां लेकर आये, माता-पिता ने शादी कर दी, अब तक माता में ममता थी, पिताजी में अनुराग था, सारी ममता और अनुराग की डोरी को श्रीमतीजी के पल्लू से बांध दी, जब तक शादी नहीं हुई बेटा तब तक माता-पिता का था, बेटे की शादी होते ही बेटा पराया हो गया, फिर माता-पिता का कहना नहीं करेगा, श्रीमती का कहना करेगा।

युवावस्था ऐसे बीत गयी, बुढ़ापा आया तो रोगों ने ग्रस लिया और जैसे जीव आया था वैसे ही चला गया “पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं ••• बार-बार जन्म लेता है, बार-बार मर जाता है, बार-बार माता के गर्भ में आता है, इस आवागमन से छुटकारा मिल नहीं पाता, संसार की इन विषम परिस्थितियों से हमें यही शिक्षा लेनी चाहिये, माना कि कर्म सभी संसार के करें, परन्तु परमात्मा से प्रीति-भक्ति नहीं तोड़े।

तस्मान्न कार्य: सन्त्रासो न कार्पण्यं न सम्भ्रम:।
बद्ध्वा जीवगतिं धीरो: मुक्तसंगश्चरेदिह।।

परमात्मा के प्रति प्रीति-भक्ति के तीन साधन हैं, तीन धारायें हैं- विश्वास, सम्बन्ध और समर्पण, भक्ति आरम्भ होती है विश्वास से, परमात्मा के प्रति विश्वास करो, बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, यदि विश्वास नहीं है तो पूजा और भक्ति का फल नहीं मिलेगा, चाहे कितनी भी पूजा करिये, चाहे कितनी भी भक्ति करिये, पूजा का मतलब है मन में विश्वास हो “विश्वासो फल दायक:”

भक्ति की तीसरी धारा है- समर्पण! प्रभु के प्रति समर्पित हो जाओ, ये तो बिल्कुल सत्य है, लेकिन परमात्मा के प्रति विश्वास, संबंध और समर्पण ये तीनों ही बातें आयेंगी कैसे? श्रीमद्भागवत कथा, श्रीमद्भगवद्गीता, रामचरित मानसजी का श्रवण करों, कीर्तन से परमात्मा के नाम का गान करो।

जब प्रभु के नाम को गायेंगे तो नाम को गाते-गाते मन पवित्र होगा, फिर मन में चिन्तन की भावना बढ़ेगी, चिन्तन से फिर परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।

       

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