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विषम अहंकार अपना रिमोट अपने हाथ में रखना चाहता है पर उसका रिमोट सदा दूसरे के हाथ में होता है। सिर्फ समत्व युक्त पुरुष का ही रिमोट दूसरे के हाथ में नहीं होता। ‘
सत्य की बातें या सत्संग इतना स्पष्ट होना चाहिए कि दूसरी बार समझना न पडे। आशा, अपेक्षा, उम्मीद से भरा अहंकार युक्त जीवन जीना कोई बाध्यता नहीं है यदि उसकी व्यर्थता को समझ लिया जाय।
अहंकार की यह समस्या है कि उससे आशा, अपेक्षा, उम्मीद का सुख छूटता नहीं, वह सबको अपना सेवक बनाकर रखना चाहता है। ऐसी स्थिति में वह दूसरों को चलाने वाला रिमोट अपने हाथ में रखना चाहता है। कुछ शक्तिशाली लोग इसमें सफल हो जाते हैं, सभी नहीं हो पाते।जो सफल होते हैं वे भी किसीकी आत्मा को खरीद नहीं पाते। उस दृष्टि से किसीका रिमोट किसी दूसरे के हाथ में नहीं हो सकता। अहंकार जरूर है हर एक के भीतर इसलिए “बनने” की जद्दोजहद चलती रहती है। कई बार बोलकर, बताकर उसकी पुष्टि की जाती है कि मै यह हूँ या वह हूँ। इससे सफलता मिले या न मिले, मूर्खता जरूर सिद्ध हो जाती है। समझदार व्यक्ति तो उच्च पद पर रहते हुए भी उसका प्रदर्शन नही करता। सारे पद मान्यता के हैं। यथार्थ में तो जो अस्तित्व बोध सबको हो रहा है वही है। उसे किसी पद की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं सिद्ध है, परिपूर्ण है। उसका अनुभव हो ही रहा है। रमण महर्षि उसीको साक्षात्कार कहते हैं। ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व “मै मेरा” रहित अस्तित्व होता है। पूर्णता और सदा आनंदित रहने का यही कारण है। जहाँ मै मेरा आया वहां तू तेरा, वह उसका, वे उनका के भेद भी आ जाते हैं। ये भेद मानसिक हैं, स्व कल्पित हैं। इनसे अपने ही भीतर संघर्ष चलता है। आदमी “मानसिक दूसरे” का रिमोट अपने हाथ में रखना चाहता है लेकिन दूसरा है कहाँ, वही तो है। वह खुद को या अपने ही हिस्से को दूसरा मानकर उसका रिमोट अपने हाथ में रखना चाहता है। चूंकि आंखकान बाहर देख सुन कर बाहरी की पुष्टि करते हैं इससे भ्रम बढ जाता है। सही बात यह है कि अपना ही मन, द्रष्टा-दृश्य बन जाता है। सारा व्यवहार मानसिक द्रष्टा, मानसिक दृश्य के बीच में ही तो चलता है। ऐसे में मानसिक दृश्य का रिमोट मानसिक द्रष्टा द्वारा अपने हाथ में रखने का क्या अर्थ है? यह शायद मुमकिन हो भी सही पर वह मानसिक दृश्य तक कहां सीमित है, वह उसे बाहरी मानता है। बाहर कोई और है वहां भी ठीक यही (अ) व्यवस्था है इसलिए बाहरी संघर्ष शुरू हो जाते हैं। सभी लोग एक दूसरे का रिमोट अपने हाथ में रखना चाहते हैं और भूल जाते हैं कि यह रिमोट काल्पनिक है। और इसका इस्तेमाल खुद के खिलाफ ही हो रहा है।
हम अपने ही अनिच्छुक हिस्से को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं जिसका नतीजा है मानसिक संघर्ष, आंतरिक संघर्ष।
बाहरी अनिच्छुक और मानसिक अनिच्छुक एक साथ घटते हैं।मानसिक अनिच्छुक अपना ही हिस्सा है, अपना ही मन है यह ध्यान रहे तो बाहर कुछ करने की जरूरत नहीं है। यही वैराग्य है। लेकिन अपना ही हिस्सा अगर उपद्रव कर रहा है तो संतुलन लाना होगा। अपने आपको पहचानना होगा। यदि हम आधारभूत स्वयं की तरह जीते हैं हृदय में तो हम अपने विभाजित मानसिक द्रष्टा, दृश्य का आधार बन जाते हैं। फिर मन का खेल समझ में आता है वह कोई समस्या नहीं बनता।
समस्या तब आती है जब चित्त के किसी कोने मे “बाहरी” के होने का अहसास होता है, विश्वास होता है। यह अपने सत्य में लीन होने में सबसे बडी बाधा है। साधक संशय चित्त बना रहता है कि “बाहरी” होता है या नहीं?
हकीकत यह है कि एक ही आत्मा है और बाहरी-भीतरी के भेद का कारण अपना अंत: करण है जो देह के आंखकान आदि से जुडा है।यहीं वह दुस्तर माया अपना खेल रचती है। इसे तरने के लिये, एकत्व की अनुभूति के लिए विभिन्न प्रकार की साधना हैं। जिनमे एक बाहरी का सर्वथा निषेध है। निसर्ग दत्त जी के गुरु ने कहा-केवल तुम ही हो।
और वे उसमें डूब गये। भक्तिमार्ग के आचार्य ने मंत्र, महामंत्र देकर कहा-इसमे डूब जाओ। यही सब कुछ है। ‘और वे उसमें डूबकर अंदर-बाहर की माया को तर गये। सवाल अंदर-बाहर की वास्तविकता या अ वास्तविकता का नहीं है, सवाल है क्या हमारा मूल स्वरूप, देह- अंत: करण है?
नहीं है और अभी इसका पता नहीं, यह पता लगाने के लिये विभिन्न साधनाएं है।
ईश्वरीय इंतजाम पक्का है। यदि कोई बहिर्मुखी है और दिनरात सबकी सेवा में लगा रहता है, स्वयं निस्वार्थ है, निष्काम है, निष्पक्ष है तो उसका भी उद्धार हो जाता है। जो पूर्णतया अंतर्मुखी है उसका तो होता ही है। बाकी सब बाहर, भीतर के झूले में झूलते रहते हैं। रागद्वेष के वश होकर चित्त सतत आगे पीछे गतिशील रहता है जिससे स्थिरता आ नहीं पाती। चित्त स्थिर हो तो बात बने। ऐसे में यह जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि केवल एक का ही नहीं, सभी के अंत: करण आंतरिक-बाहरी में बंटे हुए हैं।
मान लीजिये कोई मुझसे राग करता है तो मुझे ध्यान होना चाहिए कि वह खुद राग करने वाले और राग किये जाने वाले में बंटा हुआ है। यदि वह मुझसे द्वेष करता है तो उसीका चित्त द्वेष करने वाले और द्वेष किये जाने वाले में बंटा हुआ है, हकीकत में उसका मुझसे कोई लेना देना नहीं। इसे वह नहीं जानता, मैं जानता हूँ पर इससे बहुत फर्क पड़ जाता है। अब मैं चाहूं तो उसकी मदद भी कर सकता हूँ,
न कोई आशा, अपेक्षा, उम्मीद का रिमोट किसी हाथ में होने, न होने का तब कोई अर्थ है।
स्व ज्ञान(सेल्फ नोलेज) बहुत महत्वपूर्ण है। स्व ज्ञान से अपने को, अपने ही विभाजनों को देखा जा सकता है। देह, अंत: करण के रुप में हम ही आंतरिक-बाहरी में बंटे हैं। धीमे धीमे इस सत्य का अनुभव होने पर फिर बाहरी नहीं रहता, आंतरिक ही रहता है। आंतरिक विभाजन अर्थात अपने अंत: करण के विभाजित होने का तथ्य साफ दिखाई देने लगता है। अब अगर मैं किसीको दोस्त या दुश्मन मानता हूँ तो वह अपने को ही मानता हूँ। जैसा कि गीता कहती है-यह जीवात्मा आप ही अपना मित्र और आप ही अपना शत्रु है। आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:।
तब अपने रागद्वेष दिखाई देते हैं। भीतर राग है तो बाहर कोई दोस्त बन जाता है। भीतर द्वेष है तो बाहर कोई दुश्मन बन जाता है। यदि कोई अपने भीतर राग द्वेष को पहचान कर उसके वश में नहीं होता, तटस्थ होता है तो फिर बाहर कोई दोस्त, दुश्मन नहीं। तब इस जद्दोजहद में पडने की जरूरत नहीं होती कि अपना रिमोट अपने हाथ में है या नहीं?
नहीं है तो बाहरी सामर्थ्य बढानी चाहिए, है तो फिर ठीक है।जब तक आंतरिक-बाहरी का विभाजन भ्रम पक्का है तब तक यह तो होने ही वाला है और होगा ही। सभी लोग सत्य को नहीं जान सकते, जानलें तो वे अत्यंत दुर्लभ हो जायें। वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।
सर्वं खल्विदं ब्रह्म।
सीया राममय सब जग जानी। कर ऊं प्रणाम जोरी जुग पानी।।
वही एक से अनेक हुआ है वह जो भी है परम आत्मा-परम शक्ति-परम तत्व। इसलिए वापस अनेक से उस एक के सत्य में समाहित होने का सारा प्रयास है ये, सत्संग है ये।

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