।। वेद विज्ञान और वर्तमान विज्ञान ।।
वेदादिशास्त्रों में एक शब्द आता है प्राण तब प्रश्न उठता है कि यह प्राण क्या है तो अथर्ववेद कहते हैं प्राण विराट है, सबका प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य, चन्द्र और प्रजापति है।जिसके अधीन यह सारा जगत है, उस प्राण को नमस्कार है। वही सबका स्वामी है, उसी में सारा जगत प्रतिष्ठित है।
प्राणों विराट प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते।
प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राण माहुः प्रजापतिम्॥
प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठम्।
(अथर्ववेद संहिता)
प्राण को सामान्यतः एनर्जी (Energy) कहा जा सकता है, किन्तुप्राण के लिए अधिक उपयुक्त शब्द ‘साईकिक एनर्जी’ होगा जिस शब्द का प्रयोग प्रसिद् मनो वैज्ञानिक युंग ने किया है (फ्रिटजोफ कापरा, अनकॉमन विज़डम, पृ. ४६८)। एनर्जी की अवधारणा जड़ भूत से जुड़ी है। प्राण की अवधारणा जीवित शरीर से जुड़ी है । दो दृष्टियाँ हैं—एक दृष्टि का मानना है कि जड़भूत से ही चेतना का विकास हो जाता है; एनर्जी की अवधारणा इस प्रथम दृष्टि से जुड़ी है। दूसरी दृष्टि है कि चेतना ही भूत के रूप में अवतरित होती है। प्राण की अवधारणा इस दूसरी दृष्टि से जुड़ी है। प्रथम दृष्टि के अनुसार मौलिक भूत है, चेतना उसका विकास अथवा विकार है । दूसरी दृष्टि के अनुसार मौलिक तत्त्व चेतना है, भूत उसका विकार है। प्रथम दृष्टि के अनुसार परमार्थतः सब जड़ है, चेतन कुछ भी नहीं है। दूसरी दृष्टि के अनुसार परमार्थतः सब चेतन है, जड़ कुछ भी नहीं है। जहाँ चेतना इतनी अधिक आवृत्त हो जाती है कि वह हमारी प्रतीति में न आवे, हम उसे जड़ कह देते हैं किन्तु जैसे-जैसे वे साधन हमें उपलब्ध होते
हैं जिससे हम छिपी हुई चेतना को भी पहचान सकें वैसे-वैसे हम जिसे कल तक जड़ समझते थे. उसे ही हम चेतन के रूप में जानने लगते हैं । उदाहरणतः सर जगदीश चन्द्र बोस से पहले वनस्पति को जड़ समझा जा रहा था, यद्यपि मनु की यह स्पष्ट घोषणा कि वनस्पति में भी चेतना छिपी हुई है और वे सुख तथा दुःख का अनुभव करते हैं :-
तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना
अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ||
(कर्महेतुना) पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण (बहुरूपेण तमसा) बहुत प्रकार के तमोगुण से (वेष्टिताः) संयुक्त या घिरे हुए (एते) ये स्थावर जीव (अन्तः – संज्ञाः भवन्ति) आन्तरिक चेतना वाले (जिनके भीतर तो चेतना है किन्तु बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती) होते हैं (सुख – दुःखसमन्विताः) और सुख – दुःख के भावों से युक्त होते हैं । अर्थात इनके भीतर चेतना तो होती है किन्तु चार प्राणियों के समान बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती | अत्याधिक तमोगुण के कारण चेतना और भावों का प्रकटीकरण नहीं हो पाता |
सर जगदीश चन्द्र बोस को जैसे ही समुचित उपकरण उपलब्ध हो गये वैसे ही मनु का उपर्युक्त कथन विज्ञान के प्रयोग से सिद्ध हो गया। विज्ञान अभी तक चट्टान को जड़ माने हुए है, किन्तु वेद पत्थरों को भी सम्बोधित करता है। तैत्तिरीय संहिता (१.३.१३.१) में कहा गया है कि हे पत्थरों सुनो- #शृणोतग्रावाणः । प्रश्न होता है कि क्या पाषाण सुन सकते हैं ? शतपथ ब्राह्मण (१४.४.२ १८) का कहना है कि आत्मा सबमें है- #अत्रह्येतेसर्वएकं #भवन्तितदेतत् #पदनीयंसर्वस्ययदयमात्मा । पत्थर में भी आत्मा है । आत्मा क्या है इसका उत्तर देते हुए शतपथ ब्राह्मण (१४.४.३.१०) कहता है कि आत्मा के तीन घटक हैं—वाक्, मन और प्राण-अयमात्मा #वाङ्मयोमनोमयः #प्राणमयः । निष्कर्ष यह हुआ कि पत्थर में केवल वाक् अर्थात् मैटर और प्राण अर्थात् एनर्जी ही नहीं है मन अर्थात् माइण्ड भी है। इसलिए पत्थर को सम्बोधित करना सर्वथा युक्तियुक्त है। जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान वनस्पति में चेतना को मानता है उसी प्रकार पाषाण में अभी तक चेतना को नहीं मानता किन्तु इस बारे में पर्याप्त संकेत है कि आधुनिक विज्ञान भी पाषाण में चेतना को मानने लगेगा ।
अब मन और पदार्थ को मौलिक रूप से भिन्न दो कोटियाँ नहीं माना जाता जैसा कि डेकार्ट का विश्वास था अपितु यह माना जा रहा है कि ये दोनों एक ही सार्वभौम प्रक्रिया के केवल दो भिन्न पक्ष हैं।
यही नहीं, आज का वैज्ञानिक यह स्पष्ट अनुभव कर रहा है कि – ( पर्यावरण केवल सजीव ही नहीं अपितु हमारी भाँति समनस्क भी है।
वस्तुतः आज ईश्वर को स्रष्टा के रूप में न समझ कर विश्व के मन के रूप में समझा जा रहा है ।
आज शतपथ ब्राह्मण का यह वक्तव्य कि प्रजापति सृष्टि को बनाकर स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गया #तत्सृष्ट्वा_तदेवानुप्राविशत (तैत्तिरीयोपनिषद् २.६) इस रूप में अभिव्यक्त हो रहा है कि-
सभी सजीव पिण्ड स्वयं द्वारा स्वयं व्यवस्थित हो रहे हैं अर्थात् व्यवस्था उन पर बाहर से थोपी नहीं जा रही अपितु उनमें अन्तर्निहित है।
जड़ और चेतन के बीच मौलिक एकता को हृदयङ्गम कर लेने के बाद इस बात में कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती कि अग्नि शब्द के द्वारा आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक।तीनों प्रकार की अग्नियों का बोध हो ।
सनातन धर्मावलंबियों पर कुछ स्वघोषित आर्य कथित वैदिकों के द्वारा यह आरोप लगया जाता है कि हम लोग जड़प्रकृति की उपासना करतें हैं वेद ज्ञान के अभवा में यह विलाप तभी तक ठीक प्रतीत होता था जब तक हम प्रकृति को जड़ तथा मनुष्य को चेतन मानकर दोनों के बीच भेदक रेखा खींच रहे थे आज यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रकृति भी सजीव है। अतः प्रकृति और मनुष्य को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता । इस प्रकार वेद अनेकता में अनुस्यूत एकता को अपनी अन्तर्दृष्टि से देख पाता है और यह घोषणा करता है कि पूरा विश्व एक नीड है- #यत्रविश्वंभवत्येकनीडम् । यही वेद की समग्र दृष्टि है। इस समग्र दृष्टि के कारण एक ही वेद-मन्त्र के अधिभौतिक अधिदैविक, और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के अर्थ निकलते हैं, क्योंकि वेद की दृष्टि सर्वतोमुखी है- #वेदानां_सर्वतोमुखम् ।
तो सज्जनों निष्कर्ष क्या निकला :–
१) वेद ही वर्तमान विज्ञान को उचित दिशा दे सकता है अन्य किसी भी मत का आसमानी किताब नहीं ।
२) विश्व का पत्येक पदार्थ चेतन है (सर्वं चिन्मयं विश्वं)
३) मूर्ति पूजा विज्ञान और वेद सम्मत है ।