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गरुड़ जी ने कागभुसुंडिजी से सात प्रश्न पूछे?????

मानस-रोगों के विश्लेषण एवं उनके प्रदर्शन का तात्पर्य एक स्वस्थ्य और आदर्श जीवन की उपलब्धि है। खासकर तब जब विज्ञान ने मनुष्य की वांछित सुख-सुविधाओं को उपलब्ध करा दिया हो, और फिर भी अशान्ति बढ़ती जा रही हो। तब यह निश्चित हो जाता है कि कारण बाहर नहीं अंदर है। कागभुशुण्डि-संवाद के मध्य जीवन के मूलभूत प्रश्नों को बड़ी ही सूक्ष्मता से उभारा गया है।

नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥

प्रथम- सृष्टि के अंदर जड़ तथा चेतन जितने भी जीव है, सब से दुर्लभ शरीर कौन-सा है?

उत्तर- मनुष्य देह के समान दूसरी कोई देह नहीं है। चर अथवा अचर अर्थात चलने फिरने और न चलने वाले, जड़ व चैतन सृष्टि के अंदर जितने भी जीव है, सब इस देह की याचना करते है।

दूसरा – इस संसार मैं सब से बड़ा दुःख क्या है?

उत्तर- संसार में दरिद्रता के समान दूसरा कोई दुःख नहीं है।

तीसरा– इस संसार में सबसे बड़ा सुख क्या है?

उत्तर- संतो के मिलने के समान दूसरा कोई सुख नहीं है।

यहाँ पर प्रश्न उठता है कि दरिद्रता कंगालपन को कहते है धनहीन को। तो यह धन की हीनता माया का धन है या भक्ति का धन? उत्तर साफ़ है यह भक्ति का धन है- जिसके बिना मनुष्य कंगाल और दुखी है। क्योंकि जब यह कहा गया कि संतो के मिलाप के समान दूसरा कोई सुख नहीं है तो फिर यह बात सिद्ध हो जाती है कि भक्ति से हीन होने के बराबर दूसरा कोई दुःख भी नहीं है। किन्तु जब संत मिलते है तो अपनी भक्ति का धन देकर सुखी कर देते है क्योंकि संतो के पास भक्ति ही का धन होता है।

चौथा – संत सत्पुरुषो तथा दुष्ट पुरुषों का सहज स्वभाव वर्णन कीजिये।

उत्तर- मन वचन और कर्म से उपकार करना संतो का सहज स्वभाव है। यहाँ तक कि संत दूसरे के हित के निमित्त अपने ऊपर दुःख भी सहते है, जैसे भोज पत्र का वृक्ष दूसरों को सुख देने के निमित अपनी खाल खिचवाता है (भोज परत के वृक्ष की खाल उतार कर ऋषि मुनि और तपस्वी लोग अपने शरीर को ढ़कते थे)।

तात्पर्य यह है कि संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहन करते है तथा खोटे पुरुष दूसरों की बुराई के निमित दुःख सहते है। दुष्ट पुरुष बिना प्रयोजन ही दूसरों की बुराई करते है, जैसे साँप काट लेता है, तो उसको कुछ लाभ नहीं होता पर दूसरों के प्राण चले जाते है। चूहा बहुमूल्य वस्त्रों को काट डालता है, दूसरों की हानि हो जाती है परन्तु उसका कुछ लाभ नहीं होता। फिर कहते है जैसे बर्फ के ओले खेती का नाश करके आप नष्ट हो जाते है, ऐसे ही दुष्ट जन दूसरो की सम्पदा का नाश करके आप भी नष्ट हो जाते है।

पांचवा – वेदों ने कौन-सा सबसे बड़ा पुण्य बताया है?

उत्तर- वेदों में सबसे बड़ा पुण्य अर्थात परम धर्म अहिंसा कहा गया है। अर्थात किसी की आत्मा को न ही दुखाना अहिंसा है।

छठा – सबसे घोर पाप कौन-सा है।

उत्तर-परायी निंदा के समान कोई बड़ा पाप नहीं है कागभुसुंडि जी का कथन है कि भगवान और गुरु की निंदा करने वाले मेंढ़क की योनि में जाते हैं और हजार जन्म तक मेंडक ही बनते रहते है तथा संतो की निंदा करने वाले उल्लू की योनि में जाते है। जिनको मोह रुपी रात्रि प्यारी है परन्तु ज्ञान रूपी सूर्य नहीं भाता अथवा जो मुर्ख सब की निंदा करते है, वे दूसरे जन्म में चमगादड़ बनते है।

सातँवा – मानसिक रोग कौन-२ से है?

उत्तर- अब मन के रोग सुनिए, जिन से सब लोग दुःख पाते है। सम्पूर्ण व्याधियो अर्थात रोगों की मूल जड़ मोह है। इस मोह से फिर अनेक प्रकार के शूल उत्पन्न होते है यदि मोह की जड़ कट जाए तो फिर शांति ही शांति है ।

अंतिम प्रश्न के उत्तर में प्रायः वे सभी कारण निहित हैं, जो अनेक प्रकार के दुःखों का कारण बनते हैं। इस कारण बाबा तुलसी मानस रोगों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

सुनहु तात अब मानस रोगा । जिन्ह तें दुख पावहिं सब लोगा ।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह तें पुनि उपजहिं बहु सूला ।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।
प्रीति करहिं जौ तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई ।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना ।।

कागभुशुंडि कहते हैं कि मानस रोगों के बारे में सुनिए, जिनके कारण सभी लोग दुःख पाते हैं। सारी मानसिक व्याधियों का मूल मोह है। इसके कारण ही अनेक प्रकार के मनोरोग उत्पन्न होते हैं। शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले वात, कफ और पित्त की भाँति क्रमशः काम, अपार लोभ और क्रोध हैं।

जिस प्रकार पित्त के बढ़ने से छाती में जलन होने लगती है, उसी प्रकार क्रोध भी जलाता है। यदि ये तीनों मनोविकार मिल जाएँ, तो कष्टकारी सन्निपात की भाँति रोग लग जाता है। अनेक प्रकार की विषय-वासना रूपी मनोकांक्षाएँ ही वे अनंत शूल हैं, जिनके नाम इतने ज्यादा हैं, कि उन सबको जानना भी बहुत कठिन है।

बाबा तुलसी इस प्रसंग में अनेक प्रकार के मानस रोगों, जैसे- ममता, ईर्ष्या, हर्ष, विषाद, जलन, दुष्टता, मन की कुटिलता, अहंकार, दंभ, कपट, मद, मान, तृष्णा, मात्सर्य (डाह) और अविवेक आदि का वर्णन करते हैं और शारीरिक रोगों के साथ इनकी तुलना करते हुए इन मनोरोगों की विकरालता को स्पष्ट करते हैं।

यहाँ मनोरोगों की तुलना शारीरिक व्याधियों से इस प्रकार और इतने सटीक ढंग से की गई है, कि किसी भी शारीरिक व्याधि की तीक्ष्णता और जटिलता से मनोरोग की तीक्ष्णता और जटिलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का रोग प्रत्यक्ष होता है और शरीर में परिलक्षित होने वाले उसके लक्षणों को देखकर जहाँ एक ओर उपचार की प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर व्याधिग्रस्त व्यक्ति को देखकर अन्य लोग उस रोग से बचने की सीख भी ले सकते हैं।

सामान्यतः मनोरोग प्रत्यक्ष परिलक्षित नहीं होता, और मनोरोगी भी स्वयं को व्याधिग्रस्त नहीं मानता है। इस कारण से बाबा तुलसी ने मनोरोगों की तुलना शारीरिक रोगों से करके एकदम अलग तरीके से सीख देने का कार्य किया है।

कागभुशुंडि कहते हैं कि एक बीमारी-मात्र से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और यहाँ तो अनेक असाध्य रोग हैं। मनोरोगों के लिए नियम, धर्म, आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि अनेक औषधियाँ हैं, किंतु ये रोग इन औषधियों से भी नहीं जाते हैं।

इस प्रकार संसार के सभी जीव रोगी हैं। शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग से दुःख की अधिकता हो जाती है। इन तमाम मानस रोगों को विरले ही जान पाते हैं। जानने के बाद ये रोग कुछ कम तो होते हैं, मगर विषय-वासना रूपी कुपथ्य पाकर ये साधारण मनुष्य तो क्या, मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो जाते हैं।

मनोरोगों की विकरालता का वर्णन करने के उपरांत इन रोगों के उपचार का वर्णन भी होता है। कागभुशुंडि के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि सद्गुरु रूपी वैद्य के वचनों पर भरोसा करते हुए विषयों की आशा को त्यागकर संयम का पालन करने पर श्रीराम की कृपा से ये समस्त मनोरोग नष्ट हो जाते हैं।

रघुपति भगति सजीवनि मूरी । अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।

इन मनोरोगों के उपचार के लिए श्रीराम की भक्ति संजीवनी जड़ की तरह है। श्रीराम की भक्ति को श्रद्धा से युक्त बुद्धि के अनुपात में निश्चित मात्रा के साथ ग्रहण करके मनोरोगों का शमन किया जा सकता है। यहाँ तुलसीदास ने भक्ति, श्रद्धा और मति के निश्चित अनुपात का ऐसा वैज्ञानिक-तर्कसम्मत उल्लेख किया है, जिसे जान-समझकर अनेक लोगों ने मानस को अपने जीवन का आधार बनाया और मनोरोगों से मुक्त होकर जीवन को सुखद और सुंदर बनाया।

यहाँ पर श्रीराम की भक्ति से आशय कर्मकांडों को कठिन और कष्टप्रद तरीके से निभाने, पूजा-पद्धतियों का कड़ाई के साथ पालन करने और इतना सब करते हुए जीवन को जटिल बना लेने से नहीं है। इसी प्रकार श्रद्धा भी अंधश्रद्धा नहीं है।

भक्ति और श्रद्धा को संयमित, नियंत्रित और सही दिशा में संचालित करने हेतु मति है। मति को नियंत्रित करने हेतु श्रद्धा और भक्ति है। इन तीनों के सही और संतुलित व्यवहार से श्रीराम का वह स्वरूप प्रकट होता है, जिसमें मर्यादा, नैतिकता और आदर्श है। जिसमें लिप्सा-लालसा नहीं, त्याग और समर्पण का भाव होता है।

जिसमें विखंडन की नहीं, संगठन की; सबको साथ लेकर चलने की भावना निहित होती है। जिसमें सभी के लिए करुणा, दया, ममता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे उदात्त गुण परिलक्षित होते हैं। श्रद्धा, भक्ति और मति का संगठन जब श्रीराम के इस स्वरूप को जीवन में उतारने का माध्यम बन जाता है, तब असंख्य मनोरोग दूर हो जाते हैं।

स्वयं का जीवन सुखद, सुंदर, सरल और सहज हो जाता है। जब अंतर्जगत में, मन में रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब बाह्य जगत के संताप प्रभावित नहीं कर पाते हैं।
इसी भाव को लेकर, आत्मसात् करके विसंगतियों, विकृतियों और जीवन के संकटों से जूझने की सामर्थ्य अनगिनत लोगों को तुलसी के मानस से मिलती रही है। यह क्रम आज का नहीं, सैकड़ों वर्षों का है।

यह क्रम देश की सीमाओं के भीतर का ही नहीं, वरन् देश से बाहर कभी गिरमिटिया मजदूर बनकर, तो कभी प्रवासी बनकर जाने वाले लोगों के लिए भी रहा है। सैकड़ों वर्षों से लगाकर वर्तमान तक अनेक देशों में रहने वाले लोगों के लिए तुलसी का मानस इसी कारण पथ-प्रदर्शक बनता है, सहारा बनता है।

आज के जीवन की सबसे जटिल समस्या ऐसे मनोरोगों की है, मनोविकृतियों की है, जिनका उपचार अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के पास भी उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में तुलसीदास का मानस व्यक्ति से लगाकर समाज तक, सभी को सही दिशा दिखाने, जीवन को सन्मार्ग में चलाने की सीख देने की सामर्थ्य रखता है।

             

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