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💐#नटराजराजनमो_नमः💐

सत सृष्टि तांडव रचयिता
नटराज राज नमो नमः।
हे आद्य गुरू शंकर पिता
गंभीर नाद मृदंगना धबके
उरे ब्रह्माण्डना नित होत नाद
प्रचंडना,नटराज राज नमो नमः।

आप सभी का दिवस बरस
मङ्गलमय हो💐
समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हों💐

संगीत-नाट्य के आदि प्रवर्तक हैं
भगवान शिव।

कहते हैं,
कभी अपनेे नृत्य के बाद उन्होंने
डमरू बजाया।

डमरू की ध्वनि से ही शब्द ब्रह्म नाद हुआ।

यही ध्वनि चौदह बार प्रतिध्वनित होकर
व्याकरण शास्त्र के वाक् शक्ति के चौदह
सूत्र हुए।

नृत्य में ब्रह्मांड का छन्द,अभिव्यक्ति का
स्फोट सभी कुछ इसी में छिपा है।

महर्षि व्याघ्रपाद ने जब शिव से व्याकरण
तत्व को ग्रहण किया तो इस माहेश्वरसूत्र
की परम्परा के संवाहक बने पाणिनि।

आदि देव हैं भगवान शिव।
देवों के भी देव।
सुर-ताल के महान ज्ञाता।

नृत्य की चरम परिणति शिव
का ताण्डव ही तो है।

नटराज जब नृत्य करते हैं तो संपूर्ण
ब्रह्माण्ड में सर्वेश्वर की लीला का उच्छास
उनके अंग-प्रत्यंग में थिरक उठता है।

शिव का नृत्य 💐#तांडव है और पार्वती
का नृत्य 💐#लास्य।

भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार लास्य
का अर्थ लीला या क्रीडा करना है।

स्त्री-पुरुष के आपसी मनोभावों के आधार
पर होने वाली लीला लास्य है।

यह एक ही अर्थ या अलग-अलग अर्थों
पर अवलम्बित हो सकती है।

पारम्परिक मान्यता यह भी है कि नटराज
शिव ने पहले पहल पृथ्वी पर तमिलनाडू
के चिदम्बरम मंदिर में ही संध्या ताण्डव किया।

चिदम्बरम् के मंदिर जाएं तो ध्यान दें,
वहां नटराज पंचम प्राकार के अंदर हैं।

यहां उनका आकाश स्वरूप हैं।
माने कहीं कोई अवकाश नहीं।
नटराज की शक्ति-स्वरूपा नाट्येश्वरी भी है।

मन में कल्पना होती है,
नटराज शिव मगन हो नृत्य कर रहे हैं।
वह जब नृत्य करते हैं तो एकाकी कहां
होते हैं !

सृष्टि के विकास में सभी प्रादुर्भूत सहायक
शक्तियां वहां एकत्र है।

ब्रह्मा ताल देते हैं।

सरस्वती वीणा बजाती है।

इन्द्र बांसूरी बजाते हैं और विष्णु मृदंग।
लक्ष्मी गान करती है।

भेरी,परह,भाण्ड,डिंडिम,पणन,गोमुख
आदि अनद्ध वाद्यों से गुंजरित है यह
संपूर्ण ब्रह्माण्ड।

नटराज प्रवर्तित नृत्य के अनेक प्रकार हैं।
ताण्डव सर्वप्रमुख है।

कहते हैं शिव ने त्रिपुरदाह के बाद उल्लास
नर्तन किया था।

भगवान शिव उल्लास में आकर पृथ्वी पर
अपना पैर पटके भुजाओं को संकुचित करते
हुए अभिनय करते हैं ताकि यह लोक उनकी
भुजाओं के आघात से छिन्न-भिन्न न हो जाये।

शिव तीसरा नेत्र खोले तो यह लोक भस्म
हो जाये सो वह तृतीय नेत्र बंद करके ही
नृत्य करते हैं।

भोले भंडारी नाचने लगे तो सब कुछ भूल गये।
नाचते ही रहे।

निर्बाध।

कहते हैं,उन्हें संयत करने के लिये ही तब
पार्वती ने लास्य नृत्य किया।
शिव ताण्डव रस भाव से विवर्तित था और
पार्वती का किया लास्य रस भाव से समन्वित।

कालिदास ने मालविकाग्निमित्र में शिव के
नृत्य का वर्णन करते लिखा है,यह नाट्य
देवताओं की आंखों को सुहाने वाला यज्ञ है।

पार्वती के साथ विवाह के अनन्तर शिव ने
अपने शरीर में इसके दो भाग कर दिये हैं।

पहला ताण्डव है और दूसरा लास्य।

💐#ताण्डव शंकर का नृत्य है-💐#उद्धत।
💐#लास्य पार्वती का नृत्य है-
💐#सुकुमार तथा मनोहर।

💐#ताण्डव_नामकरण की भी रोचक कथा है।

कहते हैं महादेव के नृत्य का अनुकरण
उनके शिष्य ‘तण्ड’ या ‘तण्डु मुनि’ ने किया।

💐#तण्ड_मुनि द्वारा प्रचारित होने से यह
ताण्डव कहलाया।

भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में इसका सांगोपांग
उल्लेख है।

शिव आज्ञा से ही तण्डु ने उनके इस नृत्य को
अभिनय के प्रयोग निमित्त भरतमुनि को दिया।

अभिनवगुप्त की टीका में तण्डु को ही
भगवान शिव का प्रख्यात गण नन्दी
बताया गया है।

नटराज की नृत्यशाला यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड है।

सृष्टि,स्थिति,संहार,तिरोभाव और अनुग्रह
इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक नटराज
का नृत्य ही है।

शिव के आनंद तांडव के साथ ही सृजन का
आरंभ होता है और रोद्र ताण्डव के साथ ही
संपूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाता है।

‘सत सृष्टि तांडव रचयिता
नटराज राज नमो नमः।
हे आद्य गुरू शंकर पिता
गंभीर नाद मृदंगना धबके
उरे ब्रह्माण्डना नित होत नाद
प्रचंडना,नटराज राज नमो नमः।’

अर्थात हे नटराज आप ही अपने तांडव
द्वारा सृष्टि की रचना करने वाले हैं।

आप ही परम पिता और आदि गुरू हैं।
हे शिव,यह संपूर्ण विश्व आपके मृदृंग की
ध्वनि द्वारा ही संचालित होता है।
इस संसार में व्याप्त प्रत्येक ध्वनि के स्त्रोत
आप ही हैं।
हे नटराज राज आपको नमन है !
नमन प्रभू। नमन !

मेलाकदम्बूर के शिव मंदिर में स्थित पाल
कालीन एक बहुमूल्य नटराज-मूर्ति जिसमें
शिव की दस भुजाएँ हैं और वे नंदी के ऊपर
नृत्य कर रहे हैं।

💐#शिवऔरतांडव💐

आदिदेव महाशिव को तांडव नृत्य का
जनक माना गया है,क्योंकि ऐसी मान्यता
है कि सम्पूर्ण 💐#खगोलीय_रचना और
इसके विनाश की,एक लयबद्ध कथा
नृत्यरूप में निबद्ध की गयी है।

संभवतः इसी के प्रतीक रूप में शिव को
‘नटराज’ रूप में स्मृत किया जाता रहा है।

तांडव नृत्य की दो भंगिमायें हैं–
रौद्र और आनंद।

‘तांडव’ शब्द की व्युत्पतिगत अर्थ उनके
उस अनुसेवी से जुड़ा है,जिसने नाट्यकला
के आदि आचार्य भरत मुनि को शिव द्वारा
इंगित सम्पूर्ण नृत्य मुद्रायें,भावपक्ष और
हावभाव को दर्शाने का आग्रह किया था।

बाद में आचार्य ने इन सभी मुद्राओं और
भाव पक्षों को विस्तृत वर्णन सहित अपने
रचित ‘नाट्यशास्त्र’ में सम्मिलित कर
💐#भारतीय_नाट्यकला को सम्पन्न
किया।

कलात्मक विषयों के पारखियों के अनुसार
भगवान शिव द्वारा प्रतिपादित नृत्यकला का
यह रूप ‘तांडव’ समस्त शृंगारिक,रौद्र और
अन्य मनोभावों को रूपायित करने में एक
श्रेष्ठ कुंजी है।

विविध रूपों में प्रदर्शित ‘तांडव’ नृत्य वास्तव
में एक संपूर्ण कलात्मक सृष्टि का रूपक है।

जिसमें ऐन्द्रिक आनंद,संहार
और सृजन के दर्शन तत्व हैं।

इन्हीं विषयों से चमत्कृत भारतीय शिल्पकारों
ने ‘तांडव’ नृत्य की कई मुद्राओं को मंदिरों और
प्रस्तरखण्डों पर उकेर इस गरिमा को अमरत्व
प्रदान किया।

दक्षिण भारत में,शैवमत के प्रति बहुजनों
की आस्था है,उन क्षेत्रों में निर्मित विशाल
भव्य मंदिर इस तथ्य के असंख्य साक्षी हैं।

प्रसिद्ध कला समीक्षक आनंद कुमारस्वामी
भी इस तथ्य को स्वीकार करते यह टिप्पणी
की थी कि नृत्य के बहुरूपों में यह निश्चिंतभाव
से कहा जा सकता है कि असीम ऊर्जा और
ईश्वरीय सत्ता को साक्षी मान इस नृत्य की
रचना की गयी, जो उस भावातीत संसार
की सारगर्भित व्याख्या थी।

भार्या पार्वती के संग भी जिस नृत्य की
अत्यधिक चर्चा है,उसे ‘लास्य’ कहा जाता है।

माना जाता है कि लास्य नृत्य देवी पार्वती
ने प्रारंभ किया। इसमें नृत्य की मुद्राएं बेहद
कोमल स्वाभाविक और प्रेमपूर्ण होती हैं।

यह जीवन के शृंगारिक पक्ष उसके कई
प्रतीकों, भावों से सज्जित और रूपायित हैं।

‘तांडव’ नृत्य का यह प्रारूपिक विकास है।

बुद्धिजीवियों का मानना है कि लास्य नृत्य
शिव के तांडव का स्त्री रूप होता है।

वैसे लास्य और तांडव शास्त्रीय नृत्य की
दो भिन्न शैलियां हैं।

यह भी विश्वास किया जाता है कि ताल
शब्द की व्युत्पत्ति तांडव और लास्य से
मिल कर हुई है।

प्राचीन कथाओं के अनुसार देवी
और देवता अक्सर गीत और संगीत
का आयोजन किया करते थे।

हालांकि शिव नृत्य सम्राट कहे जाते हैं पर
लास्य नृत्य का ज्ञान उन्होंने हिमालय की
कन्या पार्वती से प्राप्त किया।

जहां शिव तांडव संपूर्ण ब्रह्मांड के बनने
और मिटने का प्रतीक है,वहीं लास्य नृत्य
मोह,स्नेह, सौंदर्य और प्रेम का प्रतीक है।

आज के सभी शास्त्रीय नृत्य या तो तांडव
से प्रेरणा प्राप्त हैं या लास्य से।

तांडव में नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है लास्य
वहीं मंथर और सौम्य है।

💐#भरतनाट्यम,कुचिपुडि,ओडिसी और
💐#कत्थक लास्य शैली से निकले हैं।

कथकली तांडव से प्रेरित है।

लास्य के दो प्रकार हैं ।
१-जरिता लास्य
२-वायुका लास्य

भगवान शिव ने भिन्न विषय वस्तुओं पर
आधारित तांडव का विकास किया।

इसमें रुद्र तांडव प्रलयंकारी है।
रुद्रदेव इस नृत्य के साथ तब प्रकट होते
हैं जब सृष्टि का अंत करना होता है।

जो तांडव प्रसन्नता के लिए होता है उसे
आनंद तांडव कहते हैं।

एक बार शिव तांडव के लिए प्रस्तुत हुए।

देवशिल्पी विश्वकर्मा ने उनके लिए सुंदर
नाट्यशाला का निर्माण किया।

नंदी ने मृदंग,नारद ने तानपूरा और विष्णु
ने मंजीरा उठा लिया।

देवी सरस्वती वीणा बजा रही थीं और
लक्ष्मी जी अपने सुंदर गायन से वातावरण
को मोहक बनाए दे रही थीं।

इस विलक्षण आयोजन के
दर्शक भी देवता ही थे।

भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र का पहला
अध्याय लिखा और अपने शिष्यों को
इसका प्रशिक्षण भी दिया।

गंधर्व और अप्सराएं इसी नाट्यवेद के
आधार पर अपनी प्रस्तुतियां देते थे।

यह सारा आयोजन भगवान शिव के
सामने होता था।

भरत मुनि के दिए ज्ञान और प्रशिक्षण के
कारण उनके नर्तक तांडव और लास्य का
भेद अच्छी तरह जानते थे और उसी तरीके
से अपनी नृत्य शैली परिवर्तित कर लेते थे।

पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर
की पुत्री को सिखाया था।

धीरे-धीरे ये नृत्य युगों और कल्पों
को पार कर सर्वत्र फैल गए।

देखें तो नृत्यों का प्रचलन शिव और पार्वती
के आनंद समारोह से हुआ पर शिव-पार्वती
नृत्य की भंगिमा में एक साथ हों तो इसकी
गरिमा और बढ़ जाती है।

ऐसी जनश्रुति है कि राजा दक्ष के यज्ञ में
अपमान भाव से पीड़ित पार्वती ने यज्ञकुंड
में आत्मदाह कर लिया था।

जब शिव को जानकारी मिली तो,
उन्होंने रौद्र रूप धारण कर लिया।

डमरूवादन करते शिव ‘तांडव’ नृत्य करके
अपने क्रोध और आक्रोश को प्रकट करने लगे।

दग्धभाव और विछोह में शिव को समस्त
संसार मिथ्या और श्मशानभूमि दिखने लगी।

लोकवासी सहम गए और चतुर्दिक
‘त्राहि-त्राहि’ का हाहाकार मचने लगा।

इस घटना विशेष की चर्चा कई पुराणों
और आदिग्रंथों में की गयी है।

चोल राजवंश के काल में ऐसे कई साहित्यिक
और सूत्र लभ्य हैं,जिनमें इस घटना को कई
रूपों में वर्णन किया गया है।

अब बात करें उन वैज्ञानिक मान्यताओं के
बारे में जिनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि
अन्तरिक्ष की खगोलीय घटनायें और
‘श्याम विवर’ भी इस ‘तांडव नृत्य’ की
लीलाएं प्रदर्शित करता है।

नयी मान्यताएं इन घटनाओं को समझने
में इस रूपक नृत्य की कूट लयबद्ध भाषा
को समझ रही है।

संस्कृति,साहित्य और विज्ञानलोक मे
‘तांडव’ नृत्य अब भी एक अबूझ पहेली
बनी हुई है।

भव्य मंदिरों और अथितिकक्ष में सज्जित
‘नटराज’ मुस्करा रहे हैं….!

रावण रचित शिव तांडव स्त्रोत !

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम॥1॥

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं॥2॥

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥3॥

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि॥4॥

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः॥5॥

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः॥6॥

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम॥7॥

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः॥8॥

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे॥9॥

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे॥10॥

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः॥11॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे॥12॥

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌कदा सुखी भवाम्यहम्‌॥13॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः॥14॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌॥15॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम॥16॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः॥17॥

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥

समस्त चराचर प्राणियों एवं सकल विश्व
का कल्याण करो प्रभु श्री नटराज महादेव !

💐#जयतिपुण्यसनातनसंस्कृति💐
💐#जयतिपुण्यभूमिभारत💐 💐#जयतुजयतु_हिंदुराष्ट्रं💐

💐#सदा_सर्वदासुमंगल💐
💐#जयमहाकाल💐

💐#कष्टहरो,💐#कालहरो💐 💐#दुःखहरो💐#दारिद्र्यहरो💐 💐#हरहर_महादेव💐
💐#जयभवानी💐
💐#जयश्रीराम

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