श्रीराम द्वारा दी गई शिक्षाए
●निर्मर्यादस्तु पुरुष: पापाचारसमन्वित:।
मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शन:।।
जो मनुष्य मर्यादारहित,पापचरण से युक्त
और साधु-सम्मत शास्त्रो के विरूध आचरण
करनेवाला हैं व सज्जन पुरूषो में सम्मान प्राप्त
नहीं कर सकता।
●कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम्।
चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाऽ
शुचिम्।।
कुलीन अथवा अकुलिन,वीर हैं अथवा
भीरु,पवित्र हैं अथवा अपवित्र-इस बात
का निर्णय चरित्र ही करता हैं।
●ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेंव हि मेनिरे।
सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन परमं गच्छति
क्षयम।।
ऋषि और विद्वान लोग सत्य ही उत्कृष्ट
मानते हैं,क्योकि सत्यवादी पुरुष ही इस
संसार में अक्षय[परान्तकाल तक]मोक्ष
सुख को प्राप्त होते हैं।
●उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिन:।
धर्म: सत्यं परो लोके मूलं स्वर्गस्य चोच्यते।।
मिथ्यावादी पुरुष से लोग वैसे ही डरते हैं,जैसे
सर्प से।संसार में सत्य ही सबसे प्रधान धर्म माना
गया हैं।स्वर्ग प्राप्ति का मूल साधन भी सत्य ही हैं।
●सत्यमेवेश्वरो लोके सत्यं पद्माश्रिता सदा।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।
संसार में सत्य ही ईश्वर है।सत्य ही लक्षमी=धन धान्य का निवास हैं।सत्य ही सुख-शान्ति एवं ऐश्वर्य का मूल हैं।संसार में सत्य से बढकर और कोई वस्तु नही
है।
●दत्तामिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च।
वेदा: सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात्सत्यपरो भवेत्।।
दान,यज्ञ,हवन,तपश्चर्या द्वारा प्राप्त सारे तप
और वेद-ये सब सत्य के आश्रय पर ही ठहरे
हुए हैं,अत: सभी को सत्यपरायण होना चाहिए
●राजभिर्धतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवा:।
निर्मला: स्वर्गमायान्ति सन्त: सुकृतिनो यथा।।
जो मनुष्य पापकर्म करने पर राजा द्वारा दण्डित
किये जाते हैं,वे पाप से मुक्त होकर पुण्यात्मा पुरुषो
की भाँति स्वर्गवासी होते हैं।
●शासनाद्वा विमोक्षाद्वा स्तेन: स्तेयाद्विमुच्यते।
राजा त्वशासन्पापस्य तदवाप्नोति किब्लिषम्।।
जो चोर अथवा पापी स्वयं राजा के पास जाकर अपते पाप को स्वीकार कर लेता हैं और दण्ड चाहता है उसे राजा चाहे दण्ड दे अथवा क्षमा कर
दे-दोनो अवस्थाओ मे वह पापी पाप से मुक्त हो
जाता हैं,परन्तु पापी को पाप का दण्ड न देने से
राजा स्वयं उस पाप का भागी हो जाता हैं।