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भीष्मक
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महाराज भीष्मक विदर्भ के सम्राट थे। ये महाराज जरासंध और शिशुपाल के मित्र थे और मगध सदैव इनके राज्य की सुरक्षा के लिए तत्पर रहता था। इनके रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश एवं रुक्ममाली नामक एक पुत्र और रुक्मिणी नामक एक पुत्री थी। उनकी पुत्री रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण से हुआ। इस प्रकार भीष्मक यदुवंश के भी सम्बन्धी बन गए। हालाँकि रुक्मिणी हरण के समय श्रीकृष्ण से पराजित होने के बाद रुक्मी ने विदर्भ छोड़ दिया और भोजकट में अपना राज्य बसाया।
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जब युधिष्ठिर ने राजसू यज्ञ किया और उनके भाई अलग-अलग दिशाओं में दिग्विजय के लिए निकले तब सहदेव अपनी यात्रा के दौरान विदर्भ पहुँचे। तब तक भीम ने जरासंध का वध कर दिया था इसी कारण विदर्भ के ऊपर से मगध का छत्र उठ चुका था। किन्तु उस स्थिति में भी जब सहदेव ने भीष्मक को युधिष्ठिर के समक्ष समर्पण करने को कहा तो भीष्मक ने मना कर दिया। तब सहदेव और भीष्मक में युद्ध हुआ और दो दिन के घोर युद्ध के पश्चात अंततः सहदेव ने उन्हें परास्त कर दिया।
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भीष्मक के जन्म के विषय में एक कथा हमें पुराणों में मिलती है। बहुत काल पहले एक पुजारी थे जो एक शिव मंदिर में रोज पूजा करते थे। जब पूजा के पश्चात वे प्रसाद लेकर बाहर निकलते थे तो एक कुत्ता सबसे पहले उन्हें वहाँ खड़ा दीखता था। इसी कारण वो रोज प्रसाद सबसे पहले पहले उस कुत्ते को ही देते थे। ऐसे करते-करते वर्षों बीत गए और हर बार वो पुजारी मंदिर का प्रसाद बाहर खड़े उस कुत्ते को खिलते रहे। इतने वर्षों के साथ के कारण उनके मन में उस कुत्ते के प्रति प्रेम और करुणा जाग गयी और वो कुत्ता भी उनके प्रति समर्पित हो गया।
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एक दिन अमावस्या की अँधेरी रात थी। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। उसी समय पुजारी प्रसाद लेकर बाहर निकले किन्तु उन्हें कुछ दिख नहीं रहा था। वहीँ दूसरी ओर वो कुत्ता भी मंदिर के बाहर बैठा था किन्तु अंधरे के कारण वो भी पुजारी को देखने में असमर्थ था। जब पुजारी को सदा की तरह वो कुत्ता नहीं दिखा तब वो थोड़ा आगे बढे और गलती से उनका पैर कुत्ते के मुँह पर पड़ गया। कुत्ते को पता नहीं था कि ये वही पुजारी हैं जो उसे रोज भोजन देते हैं इसी कारण उसने भी असावधानी में उस पुजारी को काट लिया।
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उस कुत्ते के द्वारा काटे जाने के बाद भी उन पुजारी को कोई शोक नहीं हुआ। उलटे वो खुश हो गए कि आज भी उनका मित्र वो कुत्ता प्रसाद लेने आया है। ये सोच कर उन्होंने सदा की भांति उस कुत्ते को प्रसाद दिया। लेकिन दूसरी ओर जब उसे कुत्ते को ये पता चला कि उसने गलती से उसी पुजारी को काट लिया है जो इतने वर्षों तक उसे खाना खिलाते रहे तो वह आत्मग्लानि से भर उठा और दुखी होकर वहाँ से चला गया।
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अगले दिन जब पुजारी प्रसाद लेकर बाहर आये तो वो कुत्ता उन्हें नहीं दिखा। इतने वर्षों में ये पहली बार हुआ था कि वो कुत्ता वहाँ नहीं आया। इससे दुखी होकर उन्होंने उस कुत्ते को बहुत खोजा पर वो नहीं मिला। दूसरी ओर उस घटना के बाद वेदना में उस कुत्ते ने अन्न-जल त्याग दिया और अंततः उसी शिव मंदिर के समक्ष आकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। उधर पुजारी को जब ये पता चला कि वो कुत्ता अब नहीं रहा तो उसके वियोग में उन्होंने भी अन्न-जल त्याग कर वहीँ अपने जीवन का अंत कर लिया।
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जब उन दोनों ने महादेव के समक्ष अपने प्राण त्यागे तो दोनों का आपस में इतना सौहार्द्य देख कर महादेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों को मृत्यु पर्यन्त दर्शन दिए और उस कुत्ते को विस्ववान (सूर्य) का पद दे प्रदान किया। और उस पुजारी पुजारी को भी अगले जन्म में राजा बनने का वरदान दिया। और साथ ही उन्होंने उस पुजारी को ये भी वरदान दिया कि अगले जन्म में उन्हें भगवान श्रीहरि के अवतार रूप के दर्शन होने का भी वरदान दिया। वही पुजारी अगले जन्म में भीष्मक के रूप में विदर्भ नरेश के यहाँ जन्मे।
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महाराज भीष्मक के राजा बनने के बाद वो कुत्ता जिसे महादेव ने सूर्य का पद दिया था, भीष्मक से मिलने आये। उन्होंने एक ऋषि का रूप धरा और विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर पहुँचे। तब उनका स्वागत करते हुए महाराज भीष्मक ने अपनी पुत्री रुक्मिणी से उनकी सेवा करने को कहा। रुक्मिणी ने ऋषि रूपी सूर्यदेव की बड़े मन से सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने रुक्मिणी को भगवान शिव के चरणों की पूजा करने को कहा।
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उनकी आज्ञा मान कर रुक्मिणी ने महादेव के श्रीकमलों की पूजा की। उनकी पूजा से महादेव प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान माँगने को कहा। तब रुक्मिणी ने महादेव से नारायण के समान वर प्राप्त करने का वरदान माँगा। ये सुनकर महादेव ने उन्हें श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने का वरदान दिया। इनके वरदान स्वरुप ही जब रुक्मी ने रुक्मिणी का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध शिशुपाल से तय कर दिया तब श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी हरण कर उससे विवाह किया। महाभारत युद्ध में भीष्मक और रुक्मी का युद्ध में भाग लेने का विवरण नहीं है।

     

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