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स्वस्तिक

स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो।

स्वस्तिक मंत्र या स्वस्ति मन्त्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है।

स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक् स्वस्तिदक्षिणः।।

   –महाभारत , 13/254/111

स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ ‘सत्ता’ या ‘अस्तित्व’ और ‘क’ का अर्थ ‘कर्त्ता’ या करने वाले से है। इस प्रकार ‘स्वस्तिक’ शब्द का अर्थ हुआ – ‘अच्छा’ या ‘मंगल’ करने वाला। ‘अमरकोश’ में भी ‘स्वस्तिक’ का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं – ‘स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध’ अर्थात् ‘सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।’ इस प्रकार ‘स्वस्तिक’ शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना निहित है।

‘स्वस्तिक’ शब्द की निरुक्ति है –

‘स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः’ अर्थात् ‘कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।

ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते थे तथा यह माना जाता था कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया ‘स्वस्तिवाचन’ कहलाती है।

स्वस्तिक मन्त्र

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

“महान् कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करें, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करें। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरुड़ भगवान् हमारा मंगल करें। बृहस्पति हमारा मंगल करें।”

“स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक् स्वस्तिदक्षिणः।”

      –विष्णुसहस्रनाम

“स्वस्ति भाव का यह प्रणव चैतन्य दुनिया को स्वस्ति दे।”

स्वस्तिदः = परमानन्दरूप मंगल देने वाले,
स्वस्तिकृत् = आश्रितजनों का कल्याण करने वाले,
स्वस्ति = कल्याणस्वरूप,
स्वस्तिभुक् = भक्तों के परम कल्याण की रक्षा करने वाले,
स्वस्तिदक्षिणः = कल्याण करने में समर्थ और शीघ्र कल्याण करने वाले।

मंगल देने वाला, मंगल कारक, मंगल स्वरूप, मंगल की रक्षा करने वाला, मंगल को आगे बढ़ाने वाला- इस प्रकार विष्णु का स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। हिंदू के संप्रदाय में स्वस्तिक चिन्ह की रचाना करना देखा जाता है। स्वस्ति भाव का यह संकेत है।

   

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