Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

सोलह संस्कार

   जब हम कहते है हम हिन्दू है , तो सोलह संस्कारों द्वारा हमारे स्थूल ओर सूक्ष्म शरीर पर विधान ओर मंत्रो द्वारा सुसंकृत किया जाता है और वो कही जन्मो के संस्कार जीव के साथ सूक्ष्म शरीर से आता है । अगर ये सारे विधान आधुनिक समाज नही करता है तो फिर बिनहिन्दू ओर हमारेमे फर्क क्या रहा ? मनुष्य देह तो सबको एक समान ही दिए है ईश्वर ने ।

  जब हम कहते है हमारे शास्त्र महान है । तब हमें ये भी पता है कि किस किस ग्रंथ को शास्त्र कहा जाता है ? हर कोई धर्म ग्रंथ हिन्दू धर्म शास्त्र नही है । बड़े बड़े धर्म प्रवचन करने वाले वक़्ता बोलते है शास्त्रोंमें ये कहा है ,पर उन्हें खुदको ये पता भी नही होता कि शास्त्र मतलब कौन ग्रंथ । ओर उन शास्त्रने हमे क्या क्या पालन करने को कहा है । शायद यही कलियुग प्रभाव है कि वेदों की आज्ञासे बिल्कुल विरुद्ध वाणी वर्तन करनेवाले पूजे जा रहे है , क्योंकि आम प्रजा को ये पता ही नही है कि हिन्दू धर्म शास्त्र आज्ञा क्या है । इसलिए ही हमारे पूर्वजो ने परिवारमे कुलगोत्र पूजा तथा कुलगोत्र के ब्राह्मण की परंपरा बनाई थी । हमे नही तो हमारे कुल ब्राह्मण को पता होता है किस समय क्या करना है । हमारे जीवन का मुख्य मार्गदर्शक ही कुल का ब्राह्मण होता था । पर आजकल आधुनिकता ओर अल्पज्ञान वश हम उन्हें सन्मान देने के बजाय बाहर के गुरुओ ओर तांत्रिक मंत्रिको ओर संप्रदायों के जाकमजाल में बहने लगे और जिस कारण हम हिन्दू कहलाते है वो परम्परा ही भूल गए । 

अगर बच्चे को इंजीनियर बनाना हो तो उन्हें प्राथमिक से लेकर स्नातक होने तक उन विषयों को पढ़ाना पड़ता है ऐसे ही विविध उपासना या सिद्धिया केलिए भी उनके अनुरूप बनना पड़ता है । मशीन की तरह कुत्रिम क्रिया करनेसे सिर्फ समय का व्यय होता है परिणाम कभी नही । हमारे जीवनके अति महत्वपूर्ण सोलह संस्कार पूजा हमारा कुल का ब्राह्मण करवाता है । कोई साधु या सम्प्रदाय नही । इसलिए कुलगोत्र का ब्राह्मण ही हमारे किये प्रथम देव है । आजके समय मे स्थल काल के हिसाब से थोड़ा बहोत कम ज्यादा हो वो ठीक है पर बिल्कुल विरुद्ध वर्तन करे तो फिर स्वजात को हिन्दू कहना भी एक धोखा ही है ।

सनातन धर्म के 16 संस्कारों के बारे में बता रहे हैं। शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हमारे लिए आवश्यक माना गया है। मनुष्य जीवन में हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से सोलह संस्कारों का पालन करना चाहिए। यह संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं। प्राचीन काल से इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है।

  1. गर्भाधान संस्कार

गर्भाधान संस्कार शास्त्रों में मान्य संस्कारों में पहला संस्कार गर्भाधान है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद पहले कर्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान के लिए अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।

  1. पुंसवन संस्कार

पुंसवन संस्कार गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाए। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार कराया जाता है। हिन्दू धर्म में संस्कार परंपरा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें। गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है।

  1. सीमन्तोन्नयन संस्कार

सीमन्तोन्नयन संस्कार सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण या सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का तात्पर्य है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मकसद है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भावस्था से गुजर रही महिला का मन प्रसन्न रखने के लिए सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे या आठवें महीने में होता है।यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।

  1. जातकर्म संस्कार
    जातकर्म संस्कार
    नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। दुनिया से प्रत्यक्ष संपर्क में आने वाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद मां बालक को स्तनपान कराती है। बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
  2. नामकरण संस्कार
    नामकरण संस्कार
    शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार नामकरण को कहा जा सकता है। वैसे जन्म के तुरंत बाद तो जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में जातकर्म संस्कार व्यवहार में दिखाई नहीं देता। अपनी पद्धति में उसके तत्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहुंचाने का प्रयास किया जाता है। शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है।
  3. निष्क्रमण संस्कार
    निष्क्रमण संस्कार निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को पहली बार सूर्य और चंद्रमा की रोशनी दिखाने का विधान है। इस संस्कार के पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी और विनम्र बनाना उद्देश्य होता है। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन और उससे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिए आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने में इस संस्कार का विधान है। निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।

अन्नप्राशन संस्कार

  1. अन्नप्राशन संस्कार शिशु को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अलावा अन्न देना शुरू किया जाता है तो इस प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। बालक के दांत निकलने पर उसे पेय पदार्थ के अलावा अतिरिक्त खाद्य पदार्थ दिये जाने का का संकेत होता है। यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
  2. मुंडन संस्कार

मुंडन संस्कार
इसमें बच्चे के सिर से बालों को पहली बार उतारा जाता है। हिन्दु धर्म में यह रिवाज प्रचलित है कि मुंडन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक या दो वर्ष या फिर तीन वर्ष पूरे होने तक अवश्य करा लें। जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।

  1. विद्यारंभ संस्कार
    विद्यारंभ संस्कार
    जब शिशु की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाए तो उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के जरिये बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा होता है। दूसरी तरफ अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है।
  2. कर्णवेध संस्कार
    कर्णवेध संस्कार
    कर्णवेध संस्कार का वैज्ञानिक आधार है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा करना इस संस्कार का मकसद है। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इस संस्कार में कान छेदे जाते है । इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।
  3. यज्ञोपवीत संस्कार
    यज्ञोपवीत संस्कार यज्ञोपवीत यानी उपनयन संस्कार। इसमें जनेऊ पहना जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। यज्ञोपवीत सूत से बना वह पवित्र धागा है जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर और दाईं भुजा के नीचे पहनता है। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।
  4. वेदारम्भ संस्कार

वेदारम्भ संस्कार यह संस्कार ज्ञानार्जन से संबंधत है। शास्त्रों में ज्ञान को सर्वोपरि माना गया है। प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यों के पास भेजा जाता था।इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।

  1. केशान्त संस्कार
    केशान्त संस्कार गुरुकुल में वेद का ज्ञान प्राप्त करने के बाद आचार्य के सम्मुख यह संस्कार संपन्न किया जाता था। यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था।

समावर्तन संस्कार

  1. समावर्तन संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशांत संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था।समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
  2. विवाह संस्कार

विवाह संस्कार हिन्दू धर्म में परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं है। यहां दाम्पत्य को श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है। यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।

  1. अन्त्येष्टि संस्कार

अन्त्येष्टि संस्कार हिन्दूओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्अि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार यह सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है। अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है।

    

Recommended Articles

Leave A Comment