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मित्रो,अज्ञानी मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह सब कुछ कैसे घटित होता है, लेकिन भगवान् ने यहाँ पर जो कुछ बतलाया है, उसे समझ कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, प्रत्येक व्यक्ति सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि तथा बिजली देखता है, उसे यह समझने का प्रयास करना चाहिये कि चाहे सूर्य का तेज हो या चन्द्रमा, अग्नि अथवा बिजली का तेज, ये सब भगवान् से ही उदभूत है, भगवद्भक्ति का प्रारम्भ इस भौतिक जगत् में बद्धजीव की उन्नति के लिये काफी अवसर प्रदान करता है।

जीव मूलत: परमेश्वर के अंश हैं और भगवान् यहाँ इंगित कर रहे हैं कि जीव किस प्रकार भगवद्धाम को प्राप्त कर सकते हैं, इस श्लोक से हम यह समझ सकते हैं कि सूर्य सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित कर रहा है, ब्रह्माण्ड अनेक है और सौर मण्डल भी अनेक है, सूर्य, चन्द्रमा तथा लोक भी अनेक है, लेकिन प्रत्येक ब्रह्माण्ड में केवल एक सूर्य है, दसवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में कहा गया है “नक्षत्राणामहं शशी” यानी चन्द्रमा भी एक नक्षत्र है।

सूर्य का प्रकाश परमेश्वर के आध्यात्मिक आकाश में आध्यात्मिक तेज के कारण है, सूर्योदय के साथ ही मनुष्य के कार्यकलाप प्रारम्भ हो जाते हैं, वे भोजन पकाने के लिये अग्नि जलाते है और फैक्टरीयाँ चलाने के लिये भी अग्नि जलाते है, अग्नि की सहायता से अनेक कार्य किये जाते हैं, इसलिये सूर्योदय, अग्नि तथा चन्द्रमा की चाँदनी जीवों को अत्यन्त सुहावने लगते है, उनकी सहायता के बिना कोई जीव नहीं रह सकता।

मनुष्य यदि यह जान ले कि सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि का प्रकाश तथा तेज भगवान् श्रीकृष्ण से उदभूत हो रहा है, तो उसमें भगवद्भक्ति का सूत्रपात हो जाता है, चन्द्रमा के प्रकाश से सारी वनस्पतियाँ पोषित होती है, चन्द्रमा का प्रकाश इतना आनन्दप्रद है लोग सरलता से समझ सकते हैं कि वे भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही जी रहे हैं, श्रीकृष्ण की कृपा के बिना न तो सूर्य होगा, न चन्द्रमा, न अग्नि और इन सबके बिना हमारा जीवित रहना असम्भव है, बद्धजीव में भगवद्भक्ति जगाने वाले ये ही कतिपय विचार है।

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।।

मैं प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हूँ और मेरी शक्ति से सारे लोक अपनी कक्षा में स्थित रहते हैं, मैं चन्द्रमा बनकर समस्त वनस्पतियों को जीवन-रस प्रदान करता हूँ।

सज्जनों! ऐसा ज्ञात है कि सारे लोक केवल भगवान् की शक्ति से वायु में तैर रहे हैं, भगवान् प्रत्येक अणु, प्रत्येक लोक तथा प्रत्येक जीव में प्रवेश करते हैं, इसकी विवेचना ब्रह्मसंहिता में विस्तार से की गई है, उसमें कहा गया है कि परमेश्वर का एक अंश प्रत्येक लोक में, प्रत्येक ब्रह्माण्ड में, प्रत्येक जीव में तथा अणु तक में प्रवेश करता है, इसलिये उनके प्रवेश करने से प्रत्येक वस्तु ठीक से दिखती है, ठीक ढंग से कार्य करती है।

जीवित मनुष्य पानी में तैर सकता है, क्योंकि उसमें आत्मा है, लेकिन जब जीवित स्फुर्लिंग इस देह से निकल जाता है और शरीर मृत हो जाता है तो शरीर डूब जाता है, निस्सन्देह सड़ने के बाद यह शरीर तिनके तथा अन् वस्तुओं के समान तैरता है, लेकिन मरने के तुरन्त बाद शरीर पानी में डूब जाता है, इसी प्रकार ये सारे लोक शून्य में तैर रहे हैं और यह सब उनमें भगवान् की परम शक्ति के प्रवेश के कारण है, भगवान् की शक्ति प्रत्येक लोक को उसी तरह थामे रहती है, जिस प्रकार धूल को मुट्ठी।

मुट्ठी में बन्द रहने पर धूल के गिरने का भय नहीं रहता, लेकिन ज्योंही धूल को वायु में फेक दिया जाता है, वह नीचे गिर पड़ती है, इसी प्रकार ये सारे लोक जो वायु में तैर रहे हैं, वास्तव में भगवान् के विराट रूप की मुट्ठी में बँधे है, भगवान् के बल तथा शक्ति से सारी चर तथा अचर वस्तुयें अपने-अपने स्थानों पर टिकी है, वैदिक मन्त्रों में कहा गया है कि भगवान् के कारण सूर्य चमकता है और सारे लोक लगातार घूमते रहते हैं, यदि ऐसा उनके कारण न तो सारे लोक वायु में धूल के समान बिखर कर नष्ट हो जायें।

इसी प्रकार से भगवान् के ही कारण चन्द्रमा समस्त वनस्पतियों का पोषण करता है, चन्द्रमा के प्रभाव से सब्जियाँ सुस्वादु बनती है, चन्द्रमा के रोशनी के बिना सब्जियाँ न तो बढ़ सकती है और न स्वादिष्ट हो सकती है, वास्तव में मानवसमाज भगवान् की कृपा से काम करता है, सुख से रहता है और भोजन का आनन्द लेता है, अन्यथा मनुष्य जीवित न रहता, इस श्लोक में “रसात्मक:” शब्द इसी लिये प्रयुक्त हुआ है, प्रत्येक वस्तु चन्द्रमा के प्रभाव से परमेश्वर के द्वारा स्वादिष्ट बनती है।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम्‌ ।।

मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचन-अग्नि यानी वैश्वानर हूंँ और मैं श्वास-प्रश्वास यानी प्राणवायु में रह कर चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूंँ।

सज्जनों! आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार आमाशय यानी पेट में अग्नि होती है, जो वहाँ पहुँचे भोजन को पचाती है, जब यह अग्नि प्रज्ज्वलित नहीं रहती तो भूख नहीं जगती और जब यह अग्नि ठीक रहती है तो भूख लगती है, कभी-कभी जब यह अग्नि मन्द हो जाती है तो उपचार की आवश्यकता होती है, जो भी हो, यह अग्नि भगवान् का प्रतिनिधि स्वरूप है, बृहदारण्यक उपनिषद् में इसकी पुष्टि होती है।

“अयमग्निवैश्वानरो योऽयमन्त: पुरूषे येनेदमन्नं पच्यते” यानी परमेश्वर या ब्रह्म अग्निरूप में आमाशय के भीतर स्थित है और समस्त प्रकार के अन्न को पचाते है, चूँकि भगवान् सभी प्रकार के अन्नों को पाचन में सहायक होते हैं, इसलिये जीव भोजन के मामले में स्वतन्त्र नहीं है, जब तक परमेश्वर पाचन में उसकी सहायता नहीं करते, तब तक खाने की कोई सम्भावना नहीं है, इस प्रकार भगवान् ही उत्पन्न करते हैं और वे ही पचाते है और उनकी ही कृपा से हम जीवन का आनन्द उठाते है।

वेदान्तसूत्र में भी इसकी पुष्टि हुई है ‘शब्दादिभ्योऽन्त: प्रतिष्ठानाच्च” यानी भगवान् शब्द के भीतर, शरीर के भीतर, वायु के भीतर तथा यहाँ तक कि पाचन शक्ति के रूप में आमाशय के भीतर भी उपस्थित है, इस श्लोक में अन्न प्रकार के बताये गये है इस प्रकार है- कुछ निगले जाते हैं यानी पेय, कुछ चबाये जाते हैं यानी भोज्य, कुछ चाटे जाते हैं यानी लेह्य तथा कुछ चूसे जाते हैं यानी चोष्य, भगवान् सभी प्रकार के अन्नों की पाचन शक्ति हैं।

जय श्री कृष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

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