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: 🌹जीवन से जुड़े वेदों के 15 श्लोक..
।। सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्।। (ऋग्वेद 10.181.2)
अर्थात: साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करो जिस पर पूर्वज चले हैं।
दार्शनिकों, संतों, साहित्यकारों, नीतिज्ञों और वैज्ञानिकों के विचारों को पढ़कर जीवन में बहुत लाभ मिलता है। मौर्यकाल में जहां नीतिज्ञों में चाणक्य का नाम विख्यात था, वहीं दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों में पाणिनी और पतंजलि का नाम सम्मान के साथ लिया जाता था। वैज्ञानिकों में पिङ्गल, वाग्भट्ट, जीवक आदि महान वैज्ञानिक थे। हालांकि इसके पूर्व महाभारत काल में तो और भी महानतम लोग थे।
धर्म, ज्ञान और विज्ञान के मामले में भारत से ज्यादा समृद्धशाली देश कोई दूसरा नहीं। भारत ने दुनिया को सभी तरह का ज्ञान दिया और आज उस ज्ञान के कारण पश्‍चिम और चीन जगत के लोग अपना जीवनस्तर सुधारने में लगे हैं, लेकिन भारत तो अभी विकासशील देश ही बना हुआ है। यहां धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक अपरिपक्वता ही अधिक देखने को मिलती है। फिर भी भारतीय बुद्धि का दुनिया में लोहा माना जाने लगा है तो उसी ज्ञान के बल पर जो हमारे ऋषि और मुनि हमें दे गए हैं। हालांकि हमने वेद और संस्कृत के ऐसे 15 श्लोक संग्रहीत किए हैं, जो आपके जीवन को बदलकर रख देंगे।
श्लोक : ।।ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।। -ऋग्वेद
अर्थ : उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
इस मंत्र या ऋग्वेद के पहले वाक्य का निरंतर ध्यान करते रहने से व्यक्ति की बुद्धि में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाता है। उसका जीवन अचानक ही बदलना शुरू हो जाता है। यदि व्यक्ति किसी भी प्रकार से शराब, मांस और क्रोध आदि बुरे कर्मों का प्रयोग करता है तो उतनी ही तेजी से उसका पतन भी हो जाता है। यह पवित्र और चमत्कारिक श्लोक है। इसका ध्यान करने से पूर्व नियम और शर्तों को समझ लें।
श्लोक : ।।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।14।। -कठोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थ : (हे मनुष्यों) उठो, जागो (सचेत हो जाओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) करके ज्ञान प्राप्त करो। त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लांघने में कठिन) धारा के (के सदृश) दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।
श्लोक : ।।प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।
अर्थ : जिसने प्रथम अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया, तृतीय अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चतुर्थ अर्थात संन्यास आश्रम में क्या करेगा?
श्लोक : ।।विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
रुग्णस्य चौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
अर्थात : प्रवास की मित्र विद्या, घर की मित्र पत्नी, मरीजों की मित्र औषधि और मृत्योपरांत मित्र धर्म ही होता है।
श्लोक : ।।ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।
अर्थात : हे ईश्वर (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो उक्त प्रार्थना करते रहने से व्यक्ति के जीवन से अंधकार मिट जाता है। अर्थात नकारात्मक विचार हटकर सकारात्मक विचारों का जन्म होता है
श्लोक: ।। ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।19।। (कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थात : परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।
उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है।
श्लोक : ।। मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्‌, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।। (अथर्ववेद 3.30.3)
अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
उक्त तरह की भावना रखने से कभी गृहकलय नहीं होता और संयुक्त परिवार में रहकर व्यक्ति शांतिमय जीवन जी कर सर्वांगिण उन्नती करता रहता।
श्लोक : ।।यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा विभेः।।1।।- अथर्ववेद
अर्थ : जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो।
अर्थात व्यक्ति को कभी किसी भी प्रकार का भय नहीं पालना चाहिए। भय से जहां शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं वहीं मानसिक रोग भी जन्मते हैं। डरे हुए व्यक्ति का कभी किसी भी प्रकार का विकास नहीं होता। संयम के साथ निर्भिकता होना जरूरी है। डर सिर्फ ईश्वर का रखें।
श्लोक : ।।अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
अर्थ : आलसी को विद्या कहां, अनपढ़ या मूर्ख को धन कहां, निर्धन को मित्र कहां और अमित्र को सुख कहां।
श्लोक : आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपु:। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही (उनका) सबसे बड़ा शत्रु होता है। परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा) कोई अन्य मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता।
श्लोक : ।।सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
अर्थ : अचानक (आवेश में आकर बिना सोचे-समझे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए, कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है। (इसके विपरीत) जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।
श्लोक : ।।शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद्
अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है।
अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पहला सुख निरोगी काया।
श्लोक : ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। (सामवेद 11.5.19)
अर्थ : ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की।
अर्थात : मानसिक और शारीरिक शक्ति का संचय करके रखना जरूरी है। इस शक्ति के बल पर ही मनुष्य मृत्यु पर
: विजय प्राप्त कर सकता है। शक्तिहिन मनुष्य तो किसी भी कारण से मुत्यु को प्राप्त कर जाता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ और इसके महत्व को समझना जरूरी है।
श्लोक : ।। गुणानामन्तरं प्रायस्तज्ञो वेत्ति न चापरम्। मालतीमल्लिकाऽऽमोदं घ्राणं वेत्ति न लोचनम्।।
अर्थ : गुणों, विशेषताओं में अंतर प्रायः विशेषज्ञों, ज्ञानीजनों द्वारा ही जाना जाता है, दूसरों के द्वारा कदापि नहीं। जिस प्रकार चमेली की गंध नाक से ही जानी जा सकती है, आंख द्वारा कभी नहीं।
श्लोक : ।। येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग।
अर्थात : जिस मनुष्य ने किसी भी प्रकार से विद्या अध्ययन नहीं किया, न ही उसने व्रत और तप किया, थोड़ा बहुत अन्न-वस्त्र-धन या विद्या दान नहीं दिया, न उसमें किसी भी प्राकार का ज्ञान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है। ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार होते हैं। मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के समान जीवन व्यतीत करते हैं।
कुछ प्रचलित महत्वपूर्ण संस्कृत वाक्य…

  • अति सर्वत्र वर्जयेत्। अर्थात : अधिकता सभी जगह बुरी होती है।
  • कालाय तस्मै नमः।।
    *कालेन समौषधम्।। समय सबसे बेहतर मरहम लगाने वाला है।
    *जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।। अर्थात: जहां आपने जन्म लिया है वह स्वर्ग से भी बड़ी भूमि है। उसके प्रति वफादारी जरूरी है।
    *दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।। अर्थात मनुष्यों के लिए भारत में जन्म लेना सबसे दुर्लभ है। भाग्यशाली है जिन्होंने भारत में जन्म लिया।
  • नास्ति सत्यसमो धर्मः।। अर्थात: सत्य के बराबर कोई दूसरा धर्म नहीं।
    *बुद्धिः कर्मानुसारिणी।। अर्थात बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है।
    *बुद्धिर्यस्य बलं तस्य।। बुद्धि तलवार से अधिक शक्तिशाली है।
  • पितृदेवो भव।।
    *आचार्यदेवो भव।।
    *अतिथिदेवो भव।।
    *मूढः परप्रत्यनेयबुद्धिः।।
    *विनाशकाले विपरीतबुद्धि।।
    🍎🍎🍎🍎🍎🍎🍎🍎🍎
    : नवग्रह बीजमंत्र / जप संख्या और जप समय

कष्ट निवारण और ग्रहपीड़ा शांति हेतु हिन्दू परंपरा में नवग्रहों के बीजमंत्र जप का विधान है. कष्टों और पीड़ा का संबंध जिस ग्रह से हो उसके बीजमंत्र जप बहुत लाभ देते हैं. विधिपूर्वक जप पूर्ण कर लेने पर संबंधित ग्रह की कृपा प्राप्त होती है और कष्टों का निवारण सहज ही हो जाता है.

नवग्रह मंत्र और जप संख्या इस प्रकार से हैं –

सूर्य – ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नमः
जप संख्या – 7000
जप समय – सूर्योदय काल

चंद्रमा – ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चंद्राय नमः
जप संख्या – 11000
जप समय – संध्याकाल

मंगल – ॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नमः
जप संख्या – 10000
जप समय – दिन का प्रथम प्रहर

बुध – ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नमः
जप संख्या – 9000
जप समय – मध्याह्न काल

बृहस्पति – ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नमः
जप संख्या – 19000
जप समय – प्रात:काल

शुक्र – ॐ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नमः
जप संख्या – 18000
जप समय – ब्रह्मवेला

शनि – ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नमः
जप संख्या – 23000
जप समय – संध्याकाल

राहु – ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नमः
जप संख्या – 18000
जप समय – रात्रिकाल

केतु – ॐ स्रां स्रीं स्रौं स: केतवे नमः
जप संख्या – 17000
जप समय – रात्रिकाल

जप संकल्प करने पर प्रतिदिन कम से कम एक माला (108 बार) जप आवश्यक है।
: ……….नक्षत्रों के नाम और देवता —-

१-अश्विनी नक्षत्र के देवता अश्विनी कुमार जी और
स्वामी केतु हैं !
२-भरणी नक्षत्र के देवता यमराज जी और स्वामी
शुक्र हैं !
3-कृत्तिका नक्षत्र के देवता अग्नि देव जी और
स्वामी सूर्य है !
४-रोहिणी नक्षत्र के देवता ब्रह्मा जी और स्वामी
चन्द्रमा है !
५-मृगशिरा नक्षत्र के देवता चन्द्रमा जी और स्वामी
मंगल है !
६-आर्द्रा नक्षत्र के देवता शिव जी और स्वामी राहु
हैं !
७-पुनर्वसु नक्षत्र के देवता अदिति माता जी और
स्वामी गुरु हैं !
८-पुष्य नक्षत्र के देवता बृहस्पति देव जी और स्वामी
शनि हैं !
९-आश्लेषा नक्षत्र के देवता नागदेव जी और स्वामी
बुध हैं !
१०-मघा नक्षत्र के देवता पितृदेव जी और स्वामी केतु
हैं !
११-पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के देवता भग देव जी और
स्वामी शुक्र हैं !
१२-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के देवता अर्यमा देव जी
और स्वामी सूर्य हैं !
१३-हस्त नक्षत्र के देवता सूर्य देव जी और स्वामी
चन्द्रमा हैं !
१४-चित्रा नक्षत्र के देवता विश्वकर्मा जी और
स्वामी मंगल हैं !
१५-स्वाति नक्षत्र के देवता पवन देव जी और स्वामी
राहु हैं !
१६-विशाखा नक्षत्र के देवता इन्द्र देव एवं अग्नि देव
जी और स्वामी गुरु हैं !
१७-अनुराधा नक्षत्र के देवता मित्र देव जी और
स्वामी शनि हैं !
१८-ज्येष्ठा नक्षत्र के देवता इन्द्र देव जी और स्वामी
बुध हैं !
१९-मूल नक्षत्र के देवता निरिती देव जी और स्वामी
केतु हैं !
२०-पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के देवता जल देव जी और
स्वामी शुक्र हैं !
२१-उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के देवता विश्वेदेव जी और
स्वामी सूर्य हैं !
२२-श्रवण नक्षत्र के देवता विष्णु जी और स्वामी
चन्द्र हैं !
२३-धनिष्ठा नक्षत्र के देवता अष्टवसु जी और स्वामी
मंगल हैं !
२४-शतभिषा नक्षत्र के देवता वरुण देव जी और
स्वामी राहु हैं !
२५-पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के देवता अजैकपाद देव जी
और स्वामी गुरु हैं !
२६-उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के देवता अहिर्बुध्न्य देव
जी और स्वामी शनि हैं !
२७-रेवती नक्षत्र के देवता पूषा [सूर्य ]देव जी और
स्वामी बुध है !
: महत्वपूर्ण

  1. पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन
    करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं |
  2. पंचामृत – दूध , दही , घृत , मधु { शहद ] तथा शक्कर इनके
    मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं |
  3. पंचगव्य – गाय के दूध , घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें
    सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं |
  4. षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन ,
    स्नान , वस्त्र , अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप ,
    नैवैध्य , ,अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन
    करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं |
  5. दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र ,
    आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने
    की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं |
  6. त्रिधातु – सोना , चांदी और लोहा |कुछ आचार्य सोना ,
    चांदी , तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं |
  7. पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा और जस्ता |
  8. अष्टधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा ,
    कांसा और पारा |
  9. नैवैध्य – खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुये |
  10. नवग्रह – सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र ,
    शनि , राहु और केतु |
    : हमारे पापकर्म और हमारी पीडाएं
    〰️〰️🌼〰️🌼🌼〰️🌼〰️〰️
    हम अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि मैंने कभी कोई बुरा काम नहीं किया फिर
    भी मैं बीमारियों से परेशान हूँ. ऐसा मेरे साथ
    क्यों हो रहा हैं. क्या भगवान बहुत कठोर और
    निर्दयी हैं ?
    पहली बात तो हमें ये समझ लेनी चाहिए
    कि हमारे कार्यों और भगवान का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए हमें अपनी परेशानियों और पीडाओं के लिए ईश्वर को दोषी नहीं मानना चाहिए।
    यदि आप सह्गुनी हैं तो आप जीवन में
    संपन्न और सुखी रहते हैं. यदि आप लोगों को सताते हैं या पाप कर्म करते हैं तो आप पीड़ित होते हैं और तरह तरह की बीमारियाँ कष्ट
    देती हैं. हमारे कार्यों का हम पर निश्चित रूप से
    असर होता है. कभी हमारे कर्मों का प्रभाव
    इसी जन्म में तो कभी अगले जन्म में मिलता हैं लेकिन मिलता जरुर है. आशय है कि हम अपने कर्मों के प्रभाव से कभी मुक्त नहीं होते यह
    बात अलग है कि इसका प्रभाव तुरंत दिखाई न दे।
    इस लेख में इस बात का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है कि हमारे पाप हमें किस रूप में लौटकर मिलते हैं और पीड़ित करते हैं. यदि आप किसी रोग से पीड़ित है तो ये समझें कि आपने अवश्य ही कोई पाप पूर्व जन्म में किया है. आपके पाप कर्म द्वारा होने वाली कुछ बीमारियों को साकेंतिक रूप में नीचे दिया जा रहा
    है।

👉 लोगों का धन लूटने वाले गले की
बीमारी से पीड़ित होते हैं।

👉 पढ़े लिखे ज्ञानी जन के प्रति दुर्भावना से काम करने वाले व्यक्ति को सिरदर्द की शिकायत रहती है।

👉 हरे पेड़ काटने वाले और सब्जियों की
चोरी करने में लगे व्यक्ति अगले जन्म में
शरीर के अन्दर अल्सर (घाव)से पीड़ित
होते हैं।

👉 झूठे और धोखाधड़ी करने वाले लोगों को
उल्टी की बीमारी होती है।

👉 गरीब लोगों का धन चुराने वाले लोगों को कफ और खांसी से कष्ट होता है।

👉 यदि कोई समाज के श्रेष्ठ पुरुष (विद्वान) की हत्या कर देता है तो उसे तपेदिक रोग होता है।

👉 गाय का वध करने वाले कुबड़े बनते हैं।

👉 निर्दोष व्यक्ति का वध करने वाले को कोढ़ होता है।

👉 जो अपने गुरु का अपमान करता है उसे मिर्गी का रोग होता है।

👉 वेद और पुराणों का अपमान और निरादर करने वाले व्यक्ति को बार बार पीलिया होता है।

👉 झूठी गवाही देने वाले व्यक्ति गूंगे हो
जाते हैं।

👉 पुस्तकों और ग्रंथो की चोरी करने वाले
व्यक्ति अंधे हो जाते हैं।

👉 गाय और विद्वानों को लात मरने वाले व्यक्ति अगले जन्म में लगड़े बनते हैं।

👉 वेदों और उसके अनुयायियों का निरादर करने वाले व्यक्ति को किडनी रोग होता है।

👉 दूसरों को कटु वचन बोलने वाले अगले जन्म में हृदय रोग से कष्ट पाते हैं।

👉 जो सांप, घोड़े और गायों का वध करता है वह संतानहीन होता है।

👉 कपड़े चुराने वालों को चर्म रोग होते हैं।

👉 परस्त्रीगमन करने वाला अगले जन्म में कुत्ता बनता है।

👉 जो दान नहीं करता है वह गरीबी में जन्म लेता है।

👉 आयु में बड़ी स्त्री से सहवास करने से
डायबिटीज़ रोग होता है

👉 जो अन्य महिलाओं को कामुक नजर से देखता है उसकी आंखें कमजोर होती हैं।

👉 नमक चुराने वाला व्यक्ति चींटी बनता है।

👉 जानवरों का शिकार करने वाले बकरे बनते हैं।

👉 जो ब्राह्मन होकर भी गायत्री मंत्र नहीं पढ़ता वो अगले जन्म में बगुला बनता है।

👉 जो ज्ञानी और सदाचारी पुरुषों को दिए गए
अपने वचन से मुकर जाता है वह अगले जन्म में
गीदड़ बनता है।

👉 जो दुकानदार नकली माल बेचते हैं वे अगले जन्म में उल्लू बनते हैं।

👉 जो अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते वो खच्चर बनते है।

👉 जो व्यक्ति अपने माता पिता और गुरुजनों का निरादर करता है उसकी गर्भ में ही हत्या हो
जाती है।

👉 मित्र की पत्नी से सम्बन्ध बनाने
की इच्छा रखने वाला अगले जन्म में गधा बनता है।

👉 मदिरा का सेवन करने वाला व्यक्ति भेड़ियाँ बनता है.

👉 जो स्त्री अपने पति को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ भाग जाती है वह घोड़ी बन जाती है।

पूर्व जन्म में किये गए पापों से उत्त्पन्न रोग कैसे दूर हों ?

पूर्व जन्मार्जितं पापं व्याधि रूपेण व्याधिते,
तछंती: औषधनैधान्ने: जपाहोमा क्रियादिभी:
पूर्व जन्म के जो पाप हमें रोग के रूप में आकर पीड़ित
करते हैं उनका निराकरण करने के लिए दवाइयां, दान, मंत्र जप, पूजा,
अनुष्ठान करने चाहिए. केवल यह ही
नहीं हमें गलत काम करने से भी बचना
चाहिए. तभी हम पूर्वजन्म कृत पापों के दुष्प्रभाव से मुक्त हो सकेगें।

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