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: आज का संदेश विशेष रूप से उन लोगों के लिए है , जो अध्यात्म में विशेष उन्नति करना चाहते हैं ।
आत्मा सदा सुख चाहता है। हर समय सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी करता रहता है । उसे 3 प्रकार से सुख मिल सकता है ।
एक – इंद्रियों से वह रूप रस आदि विषयों का सुख लेवे ।
दूसरा – सेवा परोपकार दान दया यज्ञ ईश्वरोपासना इत्यादि शुभ कर्म करके वह, मन से आध्यात्मिक सुख को भोगे ।
तीसरा – ईश्वर की उच्च स्तर की उपासना अर्थात समाधि प्राप्त करके वह ईश्वर का आनंद प्राप्त करे। तो जिस व्यक्ति का जितना स्तर होता है , वह व्यक्ति ऊपर बताए 3 सुखों में से एक सुख सदा भोगता ही रहता है ।
इन तीनों में से पहला सुख तो अच्छा नहीं है । यह राग द्वेष को बढ़ाने वाला तथा संसार के बंधन में बांधने वाला है।
दूसरा सुख अच्छा है । यदि व्यक्ति शुभ कर्मों का आचरण करता जाए , तो ईश्वर उसे अंदर से बहुत सा सात्विक सुख प्रदान करता है । यह सुख व्यक्ति का वैराग्य बढ़ाएगा तथा मोक्ष की ओर ले जाएगा ।
इसी दूसरे सुख को भोगते भोगते जब पूर्ण वैराग्य हो जाता है , तब समाधि प्राप्त होने पर , ईश्वर अपना आनंद उस साधक जीवात्मा को देता है।
इसी तीसरे आनंद को प्राप्त करके आगे चलकर अविद्या का नाश हो जाता है , और तब उस आत्मा का मोक्ष हो जाता है ।
*तो पहला सुख न भोगें। यह हानिकारक है। दूसरा भोगें, और धीरे-धीरे तीसरे सुख तक पहुंचने का प्रयत्न करें – *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक*
: वैदिक मनोविज्ञान कहता है कि जैसा आप मन में सोचते हैं , वैसा ही आप बोलते हैं , और वैसा ही शरीर से आचरण करते हैं, अर्थात आप की वाणी और आप का आचरण इस बात का प्रमाण है कि आप मन में कैसा सोचते हैं .
इसी प्रकार से जो आपको माता पिता एवं गुरुजनों आदि ने सिखाया , उनसे आपने जो कुछ सीखा , उस के आधार पर भी आप सोचते, बोलते तथा आचरण करते हैं।
तो आप की वाणी को सुनकर तथा आपके आचरण को देखकर लोग आपकी वास्तविक मनःस्थिति का पता लगा सकते हैं, और आपके शिक्षकों का भी आकलन कर सकते हैं , कि उन्होंने आपको कैसा प्रशिक्षण दिया है ।
इसके अतिरिक्त आपके पूर्व जन्म के भी संस्कार हैं , जिनके आधार पर आप सोचते बोलते और आचरण करते हैं । समाज के लोग, शिक्षा पद्धति, सिलेबस, प्रेस और मीडिया आदि से भी आप बहुत कुछ सीखते ,सोचते , बोलते तथा आचरण करते हैं ।
इन सब चीजों को मिलाकर ही आपका व्यक्तित्व बनता है।
यदि आप अपने व्यक्तित्व को निखारना चाहते हैं , तो इन सब कारणों में से अच्छी बातें ग्रहण करें , खराब बातों को छोड़ देंवें। यह जिम्मेदारी आपकी है । क्योंकि आपके कर्म के अंतिम उत्तरदाई आप ही हैं । आपके कर्म का जो फल मिलेगा , वह भी आपको ही भोगना होगा ।
इसलिए सावधानी से सोचें , बोलें, तथा आचरण करें । स्मरण रहे – सावधानी हटी और दुर्घटना घटीस्वामी विवेकानंद परिव्राजक
जो व्यक्ति परिवार समाज और राष्ट्र अपने भूतकाल से शिक्षा लेता है कि मैंने भूतकाल में क्या-क्या गलतियां की , अब आगे नहीं करूंगा । इस प्रकार से वह भूतकाल में की गई गलतियों से सावधान हो जाता है । अपने वर्तमान काल को प्रसन्नता से आनंद पूर्वक जीता है । और भविष्य के लिए दूरदर्शिता से विचार करता है , कि मुझे आगे क्या करना है जिससे मेरा भविष्य सुखमय हो ।
इस प्रकार से जो व्यक्ति परिवार समाज और राष्ट्र चिंतन करता है , और ठीक चिंतन करके उसके अनुसार उत्तम आचरण करता है । वह व्यक्ति परिवार समाज और राष्ट्र सदा सुखी रहता है । गलतियों से बचता है । उसकी सदा उन्नति समृद्धि खुशहाली बढ़ती रहती है ।
जो व्यक्ति इस प्रकार से चिंतन नहीं करता , वह निश्चित रूप से चिंताओं में डूबा रहेगा । उस व्यक्ति परिवार समाज और राष्ट्र का भविष्य खतरे में है , सुरक्षित नहीं है।
इसलिए इस वैदिक पद्धति से चिंतन करें, चिंता ना करें . बुद्धिमत्ता पूर्वक दूरदर्शिता पूर्वक उत्तम चिंतन करके अपने वर्तमान और भविष्य को सुखमय बनाएं – : तनाव में रहना अच्छी बात नहीं है । परंतु फिर भी जीवन में अनेक अवसरों पर व्यक्ति के मन में तनाव हो ही जाता है। उसके अनेक कारण हैं। अविद्या का होना, काम में जल्दबाजी करना , बुद्धिमत्ता से काम न करना, दूरदर्शिता का अभाव, लोभ क्रोध आदि दोषों से ग्रस्त होना इत्यादि ; अनेक कारण हैं जिनसे व्यक्ति को तनाव हो जाता है।
फिर भी जब तनाव हो ही जाता है, तो उसे दूर भी करना चाहिए । ऊपर जो कारण बताए हैं , इन कारणों को दूर करना चाहिए, जिससे कि तनाव समाप्त हो जाए । इस प्रकार से जीवन में अनेक बार तनाव हो जाता है ।
और अनेक बार जब कार्यों में सफलता मिलती है , तब प्रसन्नता आनंद भी होता है। जीवन में ये दोनों स्थितियाँ लगातार चलती रहती हैं। आपको दोनों स्थितियों का सामना करना होगा । यदि आप सुख आनंद प्राप्त होने पर तो फूले नहीं समाते , तो निश्चित रूप से समझ लेवें, कि जब तनाव की स्थिति आएगी , तब आप उसे भी नहीं झेल पाएंगे, और आपका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। यही बात अब उलटकर देखिए । यदि आप तनाव को नहीं सहन कर पाते, तो खुशी आनंद को भी नहीं झेल पाएंगे ।
इसलिए अपनी क्षमता को बढ़ाएं । धीरता गंभीरता बुद्धिमत्ता को बढ़ाएं । दूरदर्शिता को बढ़ाएं । संयम से काम लेवें। तनाव को भी सहन करने की क्षमता बढ़ाएं , और सफलता मिलने पर आनंद को भी सहजता से स्वीकार करें । बहुत उछल-कूद न करें। दोनों का संतुलन बनाने का प्रयास करें। तभी जीवन सुखमय होगा।स्वामी विवेकानंद परिव्राजक
: जीवन में सब प्रकार की घटनाएं होती रहती हैं । कभी आपके साथ न्याय होता है , कभी अन्याय होता है । यदि आप न्याय पूर्वक हुई, अच्छी घटनाओं को याद रखते हैं । तो आपको मन में शांति रहती है, आनंद होता है, उत्साह बना रहता है , आप प्रसन्न रहते हैं, और अच्छी उन्नति करते हैं ।
परंतु ही जब आप के साथ अन्याय होता है, और आप उन अन्याय की घटनाओं को मन में बार-बार दोहराते हैं , अथवा दूसरे लोगों को बार-बार बताते हैं , तो इससे आपका सुख नहीं बढ़ता, बल्कि दुख बढ़ता है । चिंता तनाव अशांति खिन्नता आदि स्थितियां बनती हैं । ये स्थितियां अच्छी नहीं हैं। इसलिए अच्छी सुखदायक घटनाओं को तो बीच-बीच में याद करते रहना चाहिए। परंतु जो दुखदायक या अन्यायपूर्ण घटनाएं आपके साथ हुई , उनको शीघ्र ही भूल जाना चाहिए, बार-बार नहीं दोहराना चाहिए ।
हाँ, अन्यायपूर्ण घटनाओं से इतना लाभ तो उठा सकते हैं कि जो भी घटना हुई इसमें आपकी क्या गलती रही , और यदि कोई आपकी गलती हुई हो तो उसे दूर करेंगे । आगे और सावधानी रखेंगे , कि आप दोबारा गलती ना करें , और जो दूसरे व्यक्ति ने आपके साथ अन्याय किया , उससे अपनी सुरक्षा रखेंगे , ताकि वह फिर दोबारा आप पर अन्याय न कर सके। बस इतनी शिक्षा तो ले सकते हैं, इससे अधिक नहीं । अर्थात उसे बार-बार न दोहराएं , शीघ्र ही भूल जाएं , तो आपका जीवन सुखमय तथा दुख रहित होगा –

     *मानव जीवन में ना तो समस्याएं कभी खत्म हो सकती हैं और ना ही संघर्ष। समस्या में ही समाधान छिपा होता है। समस्या से भागना उसका सामना ना करना यह सबसे बड़ी समस्या है। छोटी- छोटी परेशानियां ही एक दिन बड़ी बन जाती हैं।*
      *कुछ लोग सुबह से शाम तक परेशानियों का रोना ही रोते रहते हैं साथ ही ईश्वर को भी कोसते रहते हैं। जितना समय वो रोने में लगाते हैं उतना समय यदि बिचार करके कर्म करने में लगा दें तो समस्या ही हल हो जायेगी।* 
     *ईश्वर ने हमें बहुत शक्तियाँ दी हैं, बस उनका प्रयोग करने की जरुरत है। सोई हुई शक्तियों को कोई जगाने वाला चाहिए। कृष्ण आकर अर्जुन को ना समझाते तो वह कभी भी ना जीत पाता। सब कुछ उसके पास था पर वह समस्या से भाग रहा था तुम्हारी तरह।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏


: सब में सद्भाव रखो। जगत के किसी भी जीव के प्रति कुभाव रखोगे तो वह जीव तुम्हारे प्रति भी कुभाव ही रखेगा। प्रभु सर्वव्यापी हैं। इसलिए किसी भी जीव के प्रति कुभाव रखना ईश्वर के प्रति कुभाव रखने के बराबर है।

   *किसी जीव के साथ क्या किसी जड़ वस्तु के प्रति भी कुभाव नहीं रखना चाहिए। जड़ पदार्थों के साथ भी प्रेम करना है। सद्भावना के अभाव में किया गया धर्म सफल नहीं होता।*

  *कोई भी क्रिया सद्भाव के बिना सफल नहीं होती। ईश्वर का भाव जो मन में प्रत्यक्ष सिद्ध करे उसी का धर्म पूर्णतः सफल होता है। अतः संत के साथ जुड़े रहने का प्रयास करते रहिये।*

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏

🔥दुख और आंनद🔥
मनुष्य को दुःख का ऋण कभी नहीं भूलना चाहिए क्योकि यह दुःख ही था, जिसने उसे विनम्र बनाया, दुसरो की पीड़ा को समझना सिखाया, ममता का पाठ पढाया, सांसारिक सत्य को समझने के काबिल मानव बनाया और सबसे श्रेष्ठ यह की दुःख ने ही उसे परमात्मा का सुमिरन करवाया
और दुख तो संसार की देन है, आनंद स्वयं का होना चाहिए। अगर आप आनंदित होना चाहते हैं तो अकेले भी हो सकते हैं।
दुखी होने के लिए तो दूसरो की जरूरत पडती है। किसी ने आपका अपमान किया, कोई आपके अनुकूल नहीं चलता सब दुख दूसरो से जुड़े हूए होते हैं और आनंद का दूसरे से कोई संबंध है ही नहीं। आनंद अंतर मे स्थित। दूख तो बाहर से आता है, और आनंद आपके भीतर से आता है।
अगर आनंद चाहिए तो अपने भीतर डूबकी लगाईये।



राधे राधे ॥
जीवन में कोई भी चीज इतनी खतरनाक नहीं जितना भ्रम में और डांवाडोल की स्थिति में रहना है। आदमी स्वयं अनिर्णय की स्थिति में रहकर अपना नुकसान करता है। सही समय पर और सही निर्णय ना लेने के कारण ही व्यक्ति असफल भी होता है।
यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं ? महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं ? स्वयं के प्रति एक क्षण के लिए नकारात्मक ना सोचें और ना ही निराशा को अपने ऊपर हावी होने दें।
सफ़ल होने के लिए 3 बातें बड़ी आवश्यक हैं। सही फैसले लें, साहसी फैसले लें और सही समय पर लें। आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि प्रयास की अंतिम सीमाओं तक पहुंचा जाए।

🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏
कई बार प्राप्ति से नहीं अपितु आपके त्याग से आपके जीवन का मूल्यांकन किया जाता है। माना कि जीवन में पाने के लिए बहुत कुछ है मगर इतना ही पर्याप्त नहीं क्योंकि यहाँ खोने को भी बहुत कुछ है। बहुत चीजें जीवन में अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहियें मगर बहुत सी चीजें जीवन में त्याग भी देनी चाहियें।
प्राप्ति ही जीवन की चुनौती नहीं, त्याग भी जीवन के लिए एक चुनौती है। अतः जीवन दो शर्तों पर जिया जाना चाहिए। पहली यह कि जीवन में कुछ प्राप्त करना और दूसरी यह कि जीवन में कुछ त्याग करना ।
एक जीवन को पूर्ण करने के लिए आपको प्राप्त करना ही नहीं अपितु त्यागना भी है। और आत्म-चिन्तन के बाद क्या प्राप्त करना है और क्या त्याग करना है ? यह भी आप सहज ही समझ जाओगे। एक फूल को सबका प्रिय बनने के लिए खुशबू तो लुटानी ही पड़ती है।

 जय जय श्री राधे

: आज का अनमोल विचार
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इस दुनिया मे दो प्रकार के लोग पाए जाते है एक वह जो कर सकते है और दूसरा जो नही कर सकते है,कर सकने नकारात्मक वृति से दूर रहकर सदैव सकारात्मक सोच रख के चलते है और सदा ही अच्छा होने के उम्मीद उनके मन मे बसी रहती है,

सकारात्मक सोच वाले व्यक्तियों में आत्मबल होता है विचलित परिस्थितियों में घबराते नही है बल्कि उसका सामना करके आगे बढ़ते है और दुसरो के लिए प्रेरणा बन कर प्रेरणादायक कार्य करते है,

वही न कर सकने वाले लोग सदा नकारात्मकता का शिकार होकर सदा ही नकारात्मक बाते करते है न खुद कुछ करते है और दूसरों को कुछ न करने की सलाह देते है इनके मन मस्तिष्क सदा ही घृणित विचारों से भरे होते है और ये ईर्ष्या की भावना मन मे पाल के रखते है आप भी नकारात्मक पन छोड़ कर सदा ही सकारात्मक सोच वाले बनिये और जिंदगी में आगे बढ़िए…
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आपका दिन शुभ हो
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मानसिक शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए प्राणायाम ,ध्यान, अच्छा वांचन, सत्संग, दर्शन व मनोरंजन के साधन से energy युक्त करना ।

(3)बौद्धिक शक्ति की योग्यता बढ़ाने के लिए reasoning वाले प्रश्न, उल्टी गिनती गिनना या पहेलियाॅ बुझाना ।और साथ ही हर कार्य के दौरान देखना कि कार्य सही दिशा में हो रहा है या नहीं ।

(4) आर्थिक व (5) सामाजिक शक्ति । ये दोनों शक्तियाँ प्रारब्ध अनुसार मिल भी सकती हैं और बाकी हमें स्वयं generate करनी होगी ।अपने प्रयास से सुदृढ़ व सम्पन्न कर और मजबूत कर सकते है, तथा समय आने पर कर्म के दौरान उपयोग करें ।
: पंच कोष क्या है?????

मानीवय सरंचना को सामान्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जाता है पहला स्थूल शरीर दूसरा सुक्ष्म शरीर। यदि अधिक गहरार्इ में मानवीय संरचना का विवेचन करना हो तो तीन शरीर कहे जाते है पहला-स्थूल शरीर दूसरा सूक्ष्म शरीर तीसरा कारण शरीर। यदि मानवीय संरचना का और अधिक गहन अध्ययन करना चाहे तो ऋषि पंच कोष की बात करते हैं इन पंच कोषों से मिलकर ही तीन शरीर बनते है।

स्थूल शरीर के अर्तगत अन्नमय कोष आता है। सूक्ष्म शरीर के अर्तगत प्राणमय व मनोमय कोष आते है। कारण शरीर के अर्तगत विज्ञानमय व आन्दमय कोष आते है।

प्राणमय कोष,,,, प्राणि जगत का अर्थ प्राणमय कोष से है प्राणमय कोष होने के कारण ही वो प्राणी या प्राणधारी कहलाते है। अंत समय में प्राण निकलने का अर्थ है प्राणमय कोष का अन्नमय कोष से संबध टूट जाना। प्राणमय कोष का कार्य है अन्नमय कोष का संचालन। जब प्राणमयकोष अन्नमय कोष का संचालन बंद कर देता है तो अन्नमयकोष की सारी गतिविधियाँ रूक जाती है क्योंकि प्राणमय कोष एक प्रकार की उर्जा का भण्डार है जो स्थूल शरीर को चलाती है।

जिस प्रकार विद्युत प्रवाह रूकने पर बिजली का उपकरण कार्य करना बंद कर देते है उसी प्रकार प्राणशक्ति के अभाव में स्थूल शरीर के विभिन्न अंग उर्जा विहिन होकर बेकार हो जाते है। जो लोग प्राणमय कोष को ध्यान के माध्यम से देख सकते है अथवा अनुभव कर सकते है उन्हे बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है।

प्राणमय कोष पर नियन्त्रण करना जो लोग जानते है वो तरह-तरह के चमत्कार दिखा सकते है जैसे इच्छा मृत्यु का वरण, रोगमुक्ति, जमीन के भीतर जड़ समाधि में चले जाना आदि-2।

हृदय गति, नाडी गति, रक्तचाप आदि को तिब्बत के लामा कम ज्यादा करने के चमत्कार दिखाते है वह इसी प्राणमय कोष को सिद्धि से सम्भव है।

प्राणमय कोष को सशक्त, संतुलित बनाना प्रत्येक प्राणधारी का कर्तव्य है। विविध प्रकार के श्वास-प्रश्वास के प्रयोग बन्ध मुद्राए, अस्वाद व्रत इत्यादि से प्राणमय कोष को जाग्रत किया जा सकता है।

मनोमय कोष,,,,,, जिसमें मनोमय कोष विकसित हो उसे मानव कहा जाता है प्रत्येक प्राणी के गुण धर्म स्वभाव मनोमय कोष के अंर्तगत आते है यदि पाश्चात्य विचारधार अथवा आधुनिक मनीषियों के अनुसार मनोमय कोष का विवेचन किया जाए तो मनोमयकोष के दो भाग है पहला अवचेतन मन व दूसरा चेतन मन।

अवचेतन मन तीन प्रकार की, (सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी) व्रत्तियों, संस्कारों का सग्रह है। व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके अवचेतन मन पर निर्भर करता है यदि अवचेतन मन में भय भरा है तो व्यक्ति व्यर्थ में भयभीत होता रहेगा यदि लालच भरा है तो लालची होगा, यदि करूणा भरी है तो दयालु होगा। व्यक्ति की प्रकृति का निर्धारण व्यक्ति के अवचेतन मन के आधार पर होता है।

चेतन मन के आधार पर वह सही या गलत का निर्णय लेता है, सोचता, समझता है विभिन्न प्रकार के ज्ञान विज्ञान का अध्ययन करता है। इस प्रकार चेतन-अवचेतन दोनों के आधार पर व्यक्ति जीवन व्यतीत करता है अवचेतन भीतर के संस्कारों के आधार पर विनिर्मित है तो चेतन बाहारी वातावरण, बाहारी ज्ञान पर आधरित है यदि भीतर के व्यक्ति के संस्कार गंदे हो व बाहर की संगति भी खराब मिल जाए तो जीवन नरक बन जाता है।

भीतर के संस्कार तो प्रारब्ध अथवा भाग्य से आए है जिनको काटना काफी कठिन हो जाता है व मनुष्य के सीधे नियन्त्रण में भी नहीं है परंतु बाहारी वातावरण को व्यक्ति काफी हद तक नियन्त्रित कर सकता है स्ंवय को अच्छी पुस्तकों अच्छे लोगो के सम्पर्क में रखने का अधिकाधिक प्रयास करें। गलत विचारो,विषयों का चिन्तन बिल्कुल न करने का प्रयास करें। मन में कुछ न कुछ तो चलता रहेगा जितना हम अच्छा चिन्नत बनाएगे उतना ही अच्छा चलेगा इससे अवचेतन मन भी धीरे-2 शुद्ध होता रहेगा।

मनोमय कोष एक ओर प्राणमय कोष का नियन्त्रक है। यदि मनोमय कोष अच्छा नहीं है तो प्राणमयकोष भी अच्छा नहीं होगा। यदि प्राणमय कोष अच्छा नहीं है तो अन्नमयकोष अच्छा नहीं होगा अर्थात व्यक्ति रोगी होगा। प्राणमय कोष को सही करने के कर्इ बार बहुत से प्रयास बेकार चले जाते है क्योंकि रोग की जड़ मनोमय कोष में स्थित है। यही कारण है कि बहुत से लोग खाने पीने का ध्यान बहुत रखते है ढेर सारे आसन प्राणायाम भी करते है इसके उपंरात भी रोगी बने रहते है मनोमय कोष को समझ पाना बहुत जटिल कार्य है बहुत से रैकी मास्टर तेजोवलय, अनुभवी प्राणमयकोष का ज्ञान कर पाते है पंरतु मनोमयकोष की जानकारी ले पाना इनकी सामथ्र्य के बाहर की बात होती है।

मनोमयकोष जाग्रत विकसित कर व्यक्ति वैज्ञानिक, मनीषी, नेता, लेखक दार्शानिक बन सकता है लौकिक जीवन की सभी सफलताँए मनोमयकोष के उपर निर्भर करती है भारतीय ऋषि मुनियों ने मनोमयकोष के तीन भाग किए है मन, बुद्धि, चित्त्ा मनोमयकोष का यह अधिक विस्तृत विवेचन है। बुद्धि निर्णय लेने की क्षमता को कहते है जो विचार व्यक्ति के भीतर चलते रहते है जो वर्तमान काल की मनुष्य की प्रवृति व इच्छाएँ है वो मन के अंर्तगत आती है। चित्त्ा में पुराने जन्मों के संस्कारो का संचय रहता है। व्यक्ति का अचानक हृदय परिर्वतन चित्त्ा के आधार पर होता है। लाहिडी महाशय 32 वर्ष तक सामान्य गृहस्थ का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब उनका स्थानान्तरण रानीखेत हुआ तो अचानक ही वे सामान्य गृहस्थ से महायोगी बन गए, क्योंकि पुर्व जन्म के संस्कार चित्त्ा में योगीयों वाले भरे हुए थे।

कर्इ बार व्यक्ति का मन प्रबल होता है। जैसे बुद्धि यह निर्णय दे कि ज्वर में मिठार्इ नहीं खानी है पंरतु मन प्रबल इच्छा करता है व व्यक्ति बिना मीठे खाए नहीं रह पाता क्योंकि मन में त्याग की प्रवृति की कमी है व भोग की प्रबलता है।

मनोमयकोष के कमजोर, विकृत होने पर मानव अपना लोकिक जीवन दुख, निराशा, असफलता, रोग, शोक में व्यतीत करता है। अत: मनोमयकोष को निष्काम कर्म, योग, श्रेष्ठ, चिन्तन, मनन आत्म विशेलषण, स्वाध्यय, शुद्ध अन्न, उच्च व दिव्य वातावरण के माध्यम से सशक्त, जाग्रत बनाए रखना बहुत आवश्यक है।

विज्ञानमय कोष,,,,,

भारतवर्ष में छठी इन्द्रिय अथवा दशम द्वार के बारे में भाँति-2 की ऋद्धि-सिद्धियों के बारे में बहुत सुना जाता है ये सब विज्ञानमय कोष के अन्र्तगत आते है। कुण्डलिनी शक्ति का जागरण भी विज्ञानमय कोष के जागरण का ही खेल है लौकिक मनुष्य का विज्ञानमय अल्प विकसित होता है क्योंकि इसको विकसित करना दुष्कर कार्य है लौकिक सफलताँए अर्जित करना इसकी तुलना में आसान होता है क्योकि विज्ञानमय कोष को जाग्रत करने के लिए अधिक संयम, अधिक पुरूषार्थ, तप शक्ति, दिव्य गुणो की आावश्यकता होती है।

विज्ञानमय कोष को जाग्रत करने वाले व्यक्ति को साधक, तपस्वी, देवमानव, सिद्ध पुरूष, योगी, ऋषि आदि उपाधि से विभूषित किया जाता है। विज्ञानमय कोष के साधक में प्रज्ञा अर्थात पराज्ञान उपलब्ध होना प्रारम्भ हो जाता है वह अपना जीवन दैवी प्रेरणा के आधार पर जीता है। न तो वह अपनी चित्त्ा वृ​ित्त्ायों का दास होता है न वह बाहारी वातावरण से प्रभावित हो पाता है अपितु अपनी अन्तरात्मा के द्वारा उपलब्ध विशेष ज्ञान द्वारा वह नियन्त्रित, संचालित होता है। सामान्य मानव जहाँ चित्त्ा वृ​ित्त्ायों का गुलाम होकर रोग, शोक, भोग में लिप्त रहता है वहाँ विज्ञानमय कोष का धनी विभिन्न परालौकिक शक्तियों का स्वामी होता है व दूसरे व्यक्तियों को भी अनुदान वरदान देने की सामथ्र्य रखता है।

विज्ञानमय कोष को जाग्रत करने के अधिकारी कम व्यक्ति होते है इसको जाग्रत करने के लिए पहले व्यक्ति किसी बाहारी स्तोत्र जैसे सदगुरू से प्रेरणा लेकर मनोमय कोष को शुद्ध करने का प्रयास करता है चित्त्ा की वृ​ित्त्ायों की गुलामी छोड़कर अन्तरात्मा की आवाज को सुनने का प्रयास करता है।

मानव के भीतर विभिन्न प्रकार के शक्ति के स्त्रोत, ज्ञान के स्त्रोत भरे पड़े है उन सभी का अनावरण कर ज्ञानवान, शक्तिवान बनना ही विज्ञानमय कोष के अन्तर्गत आता है। पुस्तकों द्वारा उपलब्ध ज्ञान व्यक्ति को भटका सकता है परंतु अन्तरात्मा द्वारा उपलब्ध यह ज्ञान बहुत ही पवित्र होता है व साधक को बहुत सन्तुष्ठि, तृष्ठि प्रदान करता है।

इस कोष के जागरण से विशेष ज्ञान, सात लोको, “सटचक्रों व समस्त ऋद्धियों-सिद्धियों का विज्ञान प्रकट हो जाता है इसी कारण इस कोष का नाम विज्ञानमय कोष रखा गया है। लौकिक ज्ञान विज्ञान का अर्जन मनोमय कोष के अनावरण से सम्भव है जबकि परालौकिक ज्ञान विज्ञान विज्ञानमय कोष द्वारा सम्भव है।

आनंदमय कोष,,,,,,

यह कोष परमब्रह्म परमात्मा के सबसे समीप है। परमब्रह्म परमात्मा की तीन विशषताँए है सत् ,चित्त्ा व आंनद। सत् अर्थात सदा आस्तित्व में रहने वाला, चित्त्ा अर्थात चैतन्य अर्थात विभिन्न प्रकार की शक्तियों का मूल तथा आनंद। अपनी इसी तीसरी विशेषता आनन्दमय रहने की प्रवृति के कारण ही वह निर्गुण निराकार माया प्रकृति के साथ सयुंक्त होकर इस सृष्टि की रचना करता है। एकोहं बहुस्यामि के संकल्प में बधकर इस विचित्र संसार के रूप में स्वंय को प्रकट करता है।

अपनी इसी प्रतृति से वशीभूत ही योगी मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य लेकर ब्रह्मनंद में निमग्न होकर पुन: उसी तत्व में विलिन हो जाता है। कैसी अद्भूत लीला है उस परमप्रभु की जो कि बुद्धि की समझ से पूर्णत: बाहर है। निम्न दृष्टांत से हमको समझने में कुछ सहायता अवश्य मिलती है। एक व्यक्ति खाली बैठा बोर हो रहा था। उसने सोचा चलो खेलते है। उसने मुहल्ले के अन्य व्यक्तियों को एकत्र किया व सभी कबड्डी खेलने लगे। उसमें चोट भी लगी, कपउे भी फटे पर आनंद बहुत आया। दो घण्टे खेलने के पश्चात् वह पुन: जहाँ-2 से आए थे वहीं चले गए।

कुछ इसी प्रकार का रहस्य नजर आता है सृष्टि की रचना में। प्रत्येक प्राणी वहीं से प्रकट होता है और चाहे न चाहे अंत में उसी में विलीन हो जाता है। सैदव उत्साहित, उल्लासित, प्रसन्न रहना ही आत्मा का मूल स्वभाव है।

उसकी लीला उसी को समर्पित कर सदैव आनंदमय रहना चाहिए। सृष्टि के अधिकाँश रहस्य व विज्ञान मानव मन की समझ से बाहर है। इनमें उलझकर यही मन बनाना चाहिए कि जो कुछ उसने रचा है वह उत्त्ाम है उसी के अनुसार हमें अपना जीवनक्रम बनाना है जीवनोउदे्श्य बनाना है।

जो भी उस तक पहुँचता है वही उसकी लीला को ठीक से समझ पाता है अत: व्यर्थ की माथा पच्ची में न पड़कर एक जीवन का उदे्दश्य बनाकर व्यस्त रहे मस्त रहे वाले सिद्धांत पर चलना चाहिए।

योगी अथवा साधक अन्नमय कोष को शुद्ध करके प्राणमय कोष को सन्तुलित करते हुए मनोमय कोष को नियन्त्रित करके विज्ञानमय कोष को जाग्रत कर लेता है तब वह आनंदमय कोष में स्वत: ही पहुँच जाता है इस स्थिति ब्रह्मनंद की संज्ञा देते है इसे अन्य सभी लौकिक आनंद की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक बताया गया है। जब योगी को सृष्टि के सारे रहस्य स्पष्ट हो जाते है, वह अनेक प्रकार की शक्तियों का स्वामी हो जाता है तो उसके जीवन में किसी प्रकार का कोर्इ दुख, कष्ट, अभाव नहीं रह जाता। इस स्थिति को ही शास्त्रों में मोक्ष की संज्ञा दी गयी है व इस स्थिति को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है।

वैज्ञानिकों ने आनंदमय कोष के संबंध में चुहो पर एक प्रयोग किया था। उनका मानना है कि प्राणियों के मस्तिष्क में एक pleusar centar होता है यदि इसको उत्त्ोजित किया जा सके तो सदा आनंदमय स्थिति में बने रहा जा सकता है इलैक्ट्राड लगाकर इस केंद्र को उत्त्तेजित किया गया तो वो बहुत ही आनंदमय हो गए। इस स्थिति में रहने पर वो कुछ भी खाना पीना नहीं चाहता केवल इसी स्थिति में बने रहना चाहता है। संभव है योगी मस्तिष्क के इस केंद्र को उत्त्तेजित कर सदैव आनंदमय स्थिति में रहते हो।

उपरोक्त विवरण मात्र कोषों के दार्शानिक पक्ष पर प्रकाश डालता है। इन कोषों सशक्त, जाग्रत, अनावरत करने का विशेष साधना विज्ञान भी है जिसका विवरण देना यहां संभव नहीं है।
: नव ग्रहों के मंत्र, व्रत और दान इस प्रकार हैं-

सूर्य मंत्र- ऊँ घृणि सूर्याय नम:, जप संख्या 7,000
दान- माणिक्य, लाल वस्त्र, लाल पुष्प, लाल चंदन, गुड़, केसर अथवा तांबा।
व्रत- किसी भी माह के शुक्लपक्ष के प्रथम रविवार से व्रत आरंभ करके 1 वर्ष तक अथवा 30 या 12 व्रत करें। सूर्यास्त से पूर्व भोजन करें तथा नमक का प्रयोग नहीं करें। बुजुर्ग व्यक्तियों का सम्मान करें। पिता या पिता समान व्यक्ति की सेवा करे |

चंद्र मंत्र- ऊँ सों सोमाय नम:, जप संख्या- 11,000
दान- बांस की टोकरी, चावल [साबुत], कपूर, मोती, श्वेत वस्त्र, श्वेत पुष्प, घी से भरा पात्र, चांदी, मिश्री, दूध, दही, खीर, स्फटिक माला इत्यादि।
व्रत- कुल 10 या 54 सोमवार के व्रत करें। भोजन में प्रथम 7 ग्रास दही, चावल या खीर के खाएं फिर, अन्य भोजन सामग्री ग्रहण करें। मातृ तुल्य महिलाओं का सम्मान करें और सेवा करे।

मंगल मंत्र- ऊँ अं अंगारकाय नम:, जप संख्या- 10,000
दान- मूंगा, गेहूं, मसूर, लाल वस्त्र, कनेर पुष्प, गुड़, तांबा, लाल चंदन, केसर।
व्रत- 21 या 45 मंगलवार के व्रत करें। भोजन में प्रथम 7 ग्रास गेहूं, गुड़ तथा घी से बना हलुआ या लड्डू के खाएं। पश्चात यथेच्छा पदार्थ का सेवन करें। विधवा महिलाओं का सम्मान करें, उनका आशीर्वाद लें। चांदी का चौकोर टुकड़ा हमेशा साथ रखें। गले में चांदी की माला धारण करें।

बुध मंत्र- ऊँ बुं बुधाय नम:, जप संख्या- 9,000
दान- हरे मूंग, हरा वस्त्र, हरा फल, पन्ना, केसर, कस्तूरी, कपूर, शंख, घी, मिश्री, धार्मिक पुस्तकें तथा पूजा में मरगज के गणेशजी रखें।
व्रत- 21 या 45 बुधवार के व्रत करें। भोजन के पूर्व 5-7 पत्ते तुलसी के गंगाजल के साथ ग्रहण करें, इसके बाद व्रत खोलें।

गुरू मंत्र- ऊँ बृं बृहस्पतये नम:, जप संख्या 19,000
दान- घी, शहद, हल्दी, पीत वस्त्र, पीत धान्य, शास्त्र पुस्तक, पुखराज, लवण, कन्याओं को भोजन, वृद्धजन, विद्वान एवं गुरूओं की सेवा करें।
व्रत- 1 या 3 वर्ष अथवा 16 गुरूवार व्रत रखें। गुरूवार को केले के वृक्ष के दर्शन करें तथा पूजा करके हल्दी एवं सरसों मिलाकर जल प्रदान करें। ध्यान रखें जब गुरू अकारक हो तो स्वयं गुरूवार को केला नहीं खाएं, बल्कि केले के फल का दान दें।

शुक्र मंत्र- ऊँ शुं शुक्राय नम:, जप संख्या 16,000
दान- सफेद छींटदार वस्त्र, सजावट- श्रृंगार वस्तुएं, çस्त्रयों का आदर- सम्मान, तुलसी पूजा, श्वेत स्फटिक, चावल, सुगंधित वस्तु, कपूर, श्वेत चंदन अथवा पुष्प, घी- शक्कर- मिश्री-दही गौ की सेवा।
व्रत- 21 या 31 शुक्रवार के व्रत करें। व्रत के दिन सफेद रंग की गाय या कन्या के दर्शन करें। çस्त्रयों का आदर-सम्मान करें। अंतिम व्रत के दिन 6 कन्याओं को भोजन कराएं। भोजन में खीर हो।

शनि मंत्र- ऊँ शं शनैश्चराय नम:, जप संख्या- 23,000
दान- उड़द, तिल, सभी तेल, भैंस, लोहा धातु, छतरी, काली गाय, काला कपड़ा, नीलम, जूता-चप्पल, सोना, कंबल आदि का दान दें।
व्रत- 19, 31, 51 शनिवार के व्रत करें। काले कुत्ते, भिखारी या अपाहिज को उड़द, दाल, केला तथा तेल से बना भोजन कराएं या इन्हीं वस्तुओं का दान दें।

राहु मंत्र- ऊँ रां राहवे नम:, जप संख्या- 18,000
दान- गेहूं, उड़द, काला घोड़ा, खड़ग, नीला वस्त्र, कंबल, तिल, लौह, सप्त धान्य, अभ्रक आदि
व्रत- शनिवार का व्रत करें।

केतु मंत्र- ऊँ कें केतवे नम:, जप संख्या- 17,000
दान- तिल, कंबल, कस्तूरी, काला वस्त्र तथा पुष्प, सभी तेल, उड़द, काली मिर्च, सप्तधान्य, बकरा, लौह धातु, छतरी, सीसा, रांगा इत्यादि।
व्रत- शनिवार का व्रत करें।

विशेष- कुंडली के कारक ग्रह अर्थात केंद्र त्रिकोण के स्वामी भी यदि नीचगत हों तो उक्त उपाय करें।

अकारक अथवा नीचगत ग्रह का रत्न कदापि धारण नहीं पहनें, बल्कि इनसे संबंधित नगों [रत्नों] का दान करें। इससे ग्रहों की शुभता बढ़ेगी।

आरोग्य के लिए सूर्य देव का जप असंख्य रोगों को ऐसे भागता है । जैसे सूर्योदय होते ही रात्रि के अंधकार स्वाहा हो जाते हैं ।

“” पॉजिटिव सोच की शक्ति- Positive Attitude “”

दोस्तो ,

क्या हमने कभी सोचा है, एक महान – सफल मनुष्य में और एक ऑर्डिनरी मनुष्य में क्या मुख्य फर्क होता है। मुख्य जो फर्क पड़ता है वो है उनकी सोच और नजरिए का। प्रॉब्लम तो सबकी जिंदगी में आती है। लेकिन हम उसे किस तरह से लेते है ये मुख्य बात है। जिंदगी में सब कुछ हमारी चाहना के अनुसार सदा अच्छा ही होता रहे, ये तो कभी सम्भव नही हो सकता है।

प्रॉब्लम भी आएंगी और एक दिन चली भी जाएगी, स्थाई तो कुछ रहेगा नहीं। लेकिन जिंदगी में जब हमारे साथ कुछ गलत होता है। दुखद होता है। तो उस समय पर हमे जो सबसे बड़ी शक्ति काम मे आती है वो है, हमे उस समस्या से बाहर निकालने में हमे जो मदद करती है वो है- हमारा सकारात्मक दृष्टिकोण। जितनी हमारी सोच पावरफुल है अर्थात समर्थ है पॉजिटिव है, तो वो हमारे लिए किसी भी कार्य के लिए या प्रॉब्लम में शक्ति का काम करती है। और ये किसी भी कार्य में हमे सफल बना देती है, हमारे सामने आने वाली समस्याओं को हल्का कर देती है।

इसलिए जीवन को खुशहाल बनाने के लिए पॉजिटिव सोच के आलावा और कोई दवाई नही है।

आप जो भी काम कर रहे हो, या किसी समस्या में हो तो खुद के लिए पॉजिटिव ही सोचें। ये आपकी सबसे बड़ी शक्ति है जिसे यूज़ करें, जिसके आगे कैसी भी समस्या आपके सामने है या कैसा भी कार्य आपको करना है वो सब कुछ सहज सम्भव है।
साथ मे अपने आस पास वालो के लिए भी समर्थ अच्छी सोच रखें। तो मन बहोत हल्का रहने लगेगा, मन हल्का है तो जीवन खुशनुमा बन जायेगा।
ये हैबिट पॉजिटिव सोच पॉजिटिव दृटिकोण रखने की खुद में develope करें।

आंतरिक खुशी ना चीज़ों से मिलती है ना धन से, ये खुशी मिलती है हमारी सोचने के तरीके से। की हम पॉजिटिव रहते है या नेगेटिव।


: व्यर्थ और नेगटिव संकल्पो के प्रभाव से कैसे मुक्त रहे_

व्यर्थ और नकारात्मक संकल्पों के प्रभाव से बचने के लिए, पहले यह जान लेना आवश्यक है, कि कोई भी व्यर्थ व नकारात्मक संकल्पों के आने का कारण क्या है_ आज विश्व का परिदृश्य तो व्यर्थ और नकारात्मकता की चपेट में है_

मन में व्यर्थ और नकारात्मक संकल्प तभी आते, जब हमारे आसपास होने वाली घटनाओं व पारिस्थितिकी के प्रति हमारे मन में क्यों, कैसे, कब, कहाँ इस तरह के प्रश्न उठते हैं_ जिसका मूल कारण है, ड्रामा व आत्मा का ज्ञान न होना, इसमें भी मुख्य है, कर्म सिद्धांत का ज्ञान न होना_

नेगेटिव विचार आने का एक कारण ओवर थिंकिंग भी है_ ओवर थिंकिंग का कारण है – ओवर इन्फॉर्मेशन ओवर थिंकिंग को हम कभी नहीं रोक पायेंगे, जब तक हम ओवर इन्फॉर्मेशन नहीं रोकेगें सारे दिन हमारे पास मीडिया, सोशल मीडिया, न्यूजपेपर आदि से जो इन्फॉर्मेशन आ रही है सारा दिन, जिस क्वालिटी का, जो कुछ हम देखेगें, पढ़ेगें, सोचेगें, हमारा चित्त वैसा ही बनता जाएगा_ हमारे संस्कार भी, वैसे ही बनते जायेगें_ इसलिए वो ही सुने, पढ़े, देखे, जैसा अपना भाग्य हम चाहते हैं_

जितना अपने को व्यर्थ और नकारात्मक संकल्पों से बचाएगें, एनर्जी फील्ड उतना ही व्हाइट रहेगा_ इसके लिए निम्न स्वमानों का अभ्यास आवश्यक है:

◼ साक्षी दृष्टा बनो – इस नश्वर दुनिया मे रहते हुए भी, सब कुछ देखते सुनते हुए भी, सर्व आत्माओं के पार्ट व प्रकृति की हलचल को देख स्थिर रहो_ मन-बुद्धि से कोई भी हलचल में नही आओ, बिल्कुल साक्षी बन सब देखते चलो और मन-बुद्धि से निराकार परमात्मा को याद करते रहो इस अभ्यास से, हम व्यर्थ व नकारात्मक फीलिंग के प्रभाव से मुक्त रह सकेंगे__

◼ विचारों का ट्रेफिक कंट्रोल – जैसे भौतिक संसार में सिग्नल द्वारा यातायात ट्रेफिक को कंट्रोल किया जाता है, उसी प्रकार दिन में एक-एक घंटे के बाद, एक मिनट के लिए, अपने मन में आने वाले विचारों को स्केन करे_ एक दम शांत हो जाए, और मन में चल रहे विचारों को देखे पॉज़िटिव इन करे, और नेगेटिव आउट करे___

◼ रहमदिल बने – यदि किसी ने कोई बात कही जो जो दिल में लगी हुई है, तो ड्रामा के ज्ञान और आत्मा के ज्ञान को जानते हुए, जब हम साक्षी होकर देखते हैं तो हमे समझ आता है, कि हर आत्मा अपना किरदार निभा रही हैं_ उस आत्मा के प्रति, मन में वह फिलिंग नहीं रहेगी_

◼ आत्मिक स्तिथि का अभ्यास – आत्मा जितनी भरपूर होगी, उतना ही व्यर्थ संकल्पों से बची रहेगी_ निराकार परमात्मा ने सबसे पहला और सबसे मुख्य व अंतिम अभ्यास, यही सिखाया की अपने को देह नही, आत्मा समझो और निरंतर इसके अभ्यासी बनो, क्योंकि यही हमे वर्तमान समय की हलचल और सभी परीक्षाओं में, सफलता दिलाएगी यही अभ्यास, हमे निराकार परमात्मा से निरंतर जोड़े रखेगा, जिसके द्वारा हम व्यर्थ व नकारात्मक फीलिंग के प्रभाव से मुक्त रह सकते है_

◼ बिजी रहो, सरल रहो – अपने समय को ज्ञान व योग में सफल करें, कभी खाली न बैठें_ मन- बुद्धि को आत्मिक चिन्तन और परमात्म चिंतन में बिजी करो अपना स्वभाव, संस्कार, कर्मो को सरल बनाओ स्वयं को व्यर्थ व नकारात्मक बातों में उलझाओ मत, समाधान स्वरूप बनो_

◼ सकारात्मक चिन्तन – मन को सदा शुभ चिंतन व मनन में व्यस्त रखने से भी, व्यर्थ फिलिंग से मुक्त रह सकते हैं_ बिना कारण ही, हम व्यर्थ फिलिंग में आ जाते है इसका कारण हमारे ही पूर्व में किये पापकर्म हैं, जिन्हें योगबल चुकतू करना आवश्यक है_

◼ निराकार परमात्मा की याद में रहे – नकारात्मक फिलिंग से बचने के लिए, खुद को आत्मा समझ, निराकार परमात्मा की याद में रहो_ जब हम निराकार परमात्मा की याद में रहेंगे, तो हमेशा सकारात्मक फिलिंग ही आएगी_

व्यर्थ व नकारात्मक ऊर्जा से बचने के, अन्य उपाय :

▪ हमें हर एक से, आत्मिक स्नेह का ही सम्बन्ध रखना चाहिए , हर आत्मा मेरा भाई है_ मोह और उम्मीदों का सम्बन्ध, व्यर्थ को ही जन्म देता है__

▪ किसी की विशेषता या कमजोरी से प्रभावित हुए बिना, हर आत्मा से आत्मिक स्नेह का सम्बन्ध ही, व्यर्थ और नकारात्मक फीलिंग से मुक्त रख सकता है_

▪ ​जो सदा निर्माण रह, स्वमान में मस्त रहता वही नकारात्मक फीलिंग्स से मुक्त रह सकता है_

▪​जो स्वयं को और सर्व को, बहुत जल्द ही क्षमा करना जनता हो वही नकारात्मक फीलिंग से भी, जल्द ही मुक्त हो जाता है_

▪जो दूसरों की सदा अच्छाई देखता, और धैर्यता का गुण रखता, वह नकारात्मक फीलिंग्स से सहज ही मुक्त रह सकता है_

👉 दोष तो अपने ही ढूँढ़ें

दोष दृष्टि रखने से हमें हर वस्तु दोषयुक्त दीख पड़ती है। उससे डर लगता है, घृणा होती है। जिससे घृणा होती है, उसके प्रति मन सदा शंकाशील रहता है, साथ ही अनुदारता के भाव भी पैदा होते हैं। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति या वस्तु से न तो प्रेम रह सकता है और न उसके गुणों के प्रति आकर्षण उत्पन्न होना ही सम्भव रहता है।

दोष दृष्टि रखने वाले व्यक्ति को धीरे-धीरे हर वस्तु बुरी, हानिकारक और त्रासदायक दीखने लगती है। उसकी दुनियाँ में सभी विराने, सभी शत्रु और सभी दुष्ट होते है। ऐसे व्यक्ति को कहीं शान्ति नहीं मिलती।

दूसरों की बुराइयों को ढूँढ़ने में, चर्चा करने में जिन्हें प्रसन्नता होती है वे वही लोग होते हैं जिन्हें अपने दोषों का पता नहीं है। अपनी ओर दृष्टिपात किया जाय तो हम स्वयं उनसे अधिक बुरे सिद्ध होंगे, जिनकी बुराइयों की चर्चा करते हुये हमें प्रसन्नता होती है। दूसरों के दोषों को जिस पैनी दृष्टि से देखा जाता है। यदि अपने दोषों का उसी बारीकी से पता लगाया जाय तो लज्जा से अपना सिर झुके बिना न रहेगा और किसी दूसरे का छिद्रान्वेषण करने की हिम्मत न पड़ेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1961 मई Page 19

फलित ज्योतिष के कुछ अनुभवीय सूत्र

किसी भी कुंडली की मजबूती के लिए लग्न स्वामी अथवा लग्नेश का मजबूत होना ज़रूरी होता हैं लग्नेश का 3,6,8,12 भावो मे होना अशुभ माना जाता हैं क्यूंकी यह भाव हमेशा अशुभता प्रदान करते हैं लग्नेश भले ही पाप ग्रह हो उसका इन अशुभ भावो मे होना अशुभ ही होता हैं जबकि पाप ग्रहो का इन भावो मे होना शुभ माना जाता हैं लग्नेश का किसी भी प्रकार से 3,6,8,12 भावो से अथवा उनके स्वामियों से संबंध अशुभ ही होता हैं |

यदि कुंडली मे सूर्य बली होतो जातक सामान्य कद काठी वाला,प्रभावी,सात्विक,सम्मानित परंतु चिड़चिड़े स्वभाव का होता हैं |

यदि चन्द्र बली होतो जातक मीठा बोलने वाला,वात स्वभाव का रजोगुणी होता हैं |

मंगल बली होतो साहसी,लड़ाकू,अस्थिर मानसिकता वाला,लाल आँखों वाला तमोगुणी होता हैं |

बुध बली होतो जातक मनोहर रंग रूप वाला,बातुनी,बुद्दिमान,अच्छी याददाश्त वाला,पढ़ा लिखा व ज्योतिष से प्रेम करने वाला किन्तु तमोगुणी होता हैं |

गुरु बली होतो जातक धार्मिक विचारो वाला,सदाचारी,वेदपाठी,पढ़ा लिखा व अच्छे चरित्रवाला सदगुणी होता हैं |

शुक्र बली होतो जातक सांसारिक वस्तुओ व सांसारिक कलाओ की चाह रखने वाला,शौकीन मिजाज व रजोगुणी होता हैं |

शनि बली होने पर जातक पतला,आलसी,क्रूर,खराब दाँतो वाला,रूखा,जिद्दी,निष्ठुर,तमोगुणी होता हैं |

सूर्य व मंगल के प्रभाव मे होने पर जातक बात करते समय ऊपर की और देखता हैं |

शुक्र व बुध के प्रभाव मे जातक बात करते समय इधर उधर देखता हैं |

गुरु व चन्द्र के प्रभाव मे होने पर जातक साधारण दृस्टी से देखने वाला होता हैं |

शनि राहू केतू की प्रभाव मे होने पर जातक आधी आँखें खोलकर अपनी बाते करते हैं |

ग्रहो को अपनी मजबूती हेतु सही भावो मे होना चाहिए | लग्नेश का 12वे भाव मे होना व द्वादशेश का 10वे भाव मे होना जातक का जीवन गरीबी,अशांति व उपद्रव से भरा बताता हैं |

ग्रहो को लग्न से व अपने नियत भावो से 6,8,12 भावो मे नहीं होना चाहिए | ऊंच और नीच के ग्रह जब संग होतो ज्यादा शक्तिशाली होते हैं जैसे शुक्र व बुध मीन राशि मे होतो बुध का नीचभंग हो जाएगा जो बुध व शुक्र दोनों के भावो के लिए शुभता प्रदान करेगा इसी प्रकार नीच ग्रह जिस राशि मे हो उसका स्वामी यदि ऊंच राशि मे होतो यह नीच ग्रह भी ताकतवर हो शुभ फल प्रदान करेगा | 

शुभ ग्रहो को समान्यत: त्रिकोण भाव का स्वामी होकर केन्द्रीय भावो मे होना चाहिए जबकि अशुभ ग्रहो को केंद्र का स्वामी होकर त्रिकोण मे होना चाहिए | 3,6,8,12 भावो के स्वामी कमजोर होने चाहिए और 2,4,5,7,9,10,11 भावो के स्वामी बली होने चाहिए | चन्द्र गुरु व शुक्र केंद्र स्वामी होकर शुभ फल नहीं देते | लग्न जो पूर्व का प्रतिनिधित्व करता हैं उसमे बुध व गुरु दिग्बली होते हैं चतुर्थ भाव (उत्तर) मे शुक्र व चन्द्र,सप्तम भाव (पश्चिम) मे शनि तथा दसम भाव (दक्षिण) मे सूर्य व मंगल बली होते हैं |

जो जातक रात मे जन्म लेते हैं उनके लिए चंद्र,मंगल व शनि तथा जो दिन मे जन्म लेते हैं उनके लिए सूर्य,गुरु व शुक्र बली होते हैं जबकि बुध दोनों हेतु बली होता हैं |

स्वग्रही ग्रह शुभता देते हैं मुलत्रिकोण मे स्थित ग्रह भी ऊंच ग्रह की तरह ही शुभ फल देते हैं केंद्र मे स्थित ग्रह लग्नानुसार शुभाशुभ फल देते हैं 2,5,8,11 मे ग्रह अपना कम प्रभाव तथा 3,6,9,12 मे बहुत कम प्रभाव देते हैं |

अंतर्दशा नाथ जब दशानाथ से 2,4,5,9,10,11 भाव मे होतो शुभफल,यदि 3,6,8,12 भाव मे होतो अशुभफल तथा 1-7 होने पर साधारण फल और एक दूसरे से 6/8 होने पर बहुत बुरा फल देते हैं |

शनि सूर्य से 6,शुक्र चन्द्र से 5,बुध मंगल से 12,गुरु बुध से 4,मंगल गुरु से 6,सूर्य गुरु से 12 वे भावो मे होतो शत्रुता रखते हैं | शुक्र से शनि 4 तथा गुरु 12 होतो शत्रुता रखते हैं जबकि गुरु शनि से 6 होने पर शत्रुता रखता हैं |

त्रिकोण व केंद्र स्वामियों की युति राजयोग बनती हैं दसवा भाव मजबूत केंद्र व नवा भाव मजबूत त्रिकोण होता हैं यदि नवमेश व दसमेश मे किसी भी प्रकार का संबंध हो,परिवर्तन तो यह एक बड़ा राजयोग होता हैं और यदि यह युति नवम या दसम भाव मे होतो बहुत ही शुभ फल मिलता हैं |

चन्द्र से 6,7,8, भावो मे शुभ ग्रह का होना भी राजयोग प्रदान करता हैं और यदि यह तीनों ग्रह लग्नेश के मित्र भी होतो जातक को ऊंच सफलता मिलती हैं |

लग्नेश का पंचम मे होना पंचमेश का नवम मे होना तथा नवमेश का लग्न मे होना एक बहुत ही बड़ा राजयोग देता हैं | यदि पाप प्रभाव ना होतो 3,6,8,12 भावो के स्वामियो की युति भी राजयोग देती हैं |

गुरु शुक्र युति राजाओ से मान सम्मान,अच्छी शिक्षा व बुद्दि तथा समाज मे बड़ा रुतबा देती हैं |

लग्न मे चन्द्र,गुरु छठे भाव मे,शुक्र दसवे भाव मे हो,शनि ऊंच अथवा स्वग्रही होतो जातक निर्विवाद रूप से राजा होता हैं |
: कमाल की बात है "महाकाल" से शिव ज्योतिर्लिंगों के बीच कैसा सम्बन्ध है......??
उज्जैन से शेष ज्योतिर्लिंगों की दूरी भी है रोचक-
उज्जैन से सोमनाथ- 777 किमी
उज्जैन से ओंकारेश्वर- 111 किमी
उज्जैन से भीमाशंकर- 666 किमी
उज्जैन से काशी विश्वनाथ- 999 किमी
उज्जैन से,मल्लिकार्जुन- 999 किमी
उज्जैन से केदारनाथ- 888 किमी
उज्जैन से  त्रयंबकेश्वर- 555 किमी
उज्जैन से बैजनाथ- 999 किमी
उज्जैन से रामेश्वरम- 1999 किमी
उज्जैन से घृष्णेश्वर - 555 किमी

हिन्दु धर्म में कुछ भी बिना कारण के नही होता था ।
उज्जैन पृथ्वी का केंद्र माना जाता है । जो सनातन धर्म में हजारों सालों से केंद्र मानते आ रहे है इसलिए उज्जैन में सूर्य की गणना और ज्योतिष गण ना के लिए मानव निर्मित यंत्र भी बनाये गये है करीब 2050 वर्ष पहले ।
और जब करीब 100 साल पहले पृथ्वी पर काल्पनिक रेखा (कर्क) अंग्रेज वैज्ञानिक द्वारा बनायी गयी तो उनका मध्य भाग उज्जैन ही निकला। आज भी वैज्ञानिक उज्जैन ही आते हैं, सूर्य और अंतरिक्ष की जानकारी के लिए ।.    *🌹जय श्री महाकाल 🌹*
 क्यों बढ़ रही है अविवाहितों की संख्या?
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जल्दी शादी के लिए क्या करें उपाय
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आज देश में हर समाज व समुदाय बड़ी संख्या में विवाह योग्य युवक-युवतियों का विवाह न हो पाने की समस्या से जूझ रहा है। कुछ दशक पहले तक यह समस्या इतनी बड़ी नहीं थी लेकिन अब यह समस्या दिन ब दिन गहराती जा रही है। इस समस्या के सामाजिक पहलू पर चर्चा करना समाज विज्ञानियों का काम हो सकता है लेकिन इसके ज्योतिषीय पहलू पर चर्चा करना भी जरूरी है। जिस देश में विवाह को धार्मिक संस्कार मानकर विवाह पूर्व कुंडली मिलान को जरूरी माना गया हो वहां अविवाहितों की संख्या बढऩे के ज्योतिषीय कारण व समाधान पर चर्चा निहायत जरूरी है।

जीवन साथी और जन्म कुंडली?
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जन्म कुंडली में जब सप्तम भाव, सप्तमेश तथा शुक्र या गुरु (पुरुष के लिए शुक्र और स्त्री के लिए गुरु) निर्बल अथवा पीडि़त हो तथा उन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि या युति न हो तो पुरुष या स्त्री को जीवन साथी की प्राप्ति नहीं होती।

विवाह न होने के योग
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-सप्तमेश शुभ युक्त न होकर कुंडली के 6, 8 या 12वें भाव में हो या नीच राशि, अस्तगत या बहुत कम या 28 या 29 डिग्री लेकर स्थित हो। 
-सप्तमेश द्वादश भाव में स्थित हो व लग्नेश या चंद्र राशीश सप्तम भाव में हो।
-षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश सप्तम भाव में स्थित हो व सप्तमेश छ, 8,12वें भाव में स्थित हो। 
-यदि शुक्र व चंद्रमा दोनों किसी भाव में स्थित हो व शनि एवं मंगल से दृष्ट हो। 
-लग्न, सप्तम एवं द्वादश भाव में पाप ग्रह स्थित हो व चंद्रमा पंचम भाव में निर्बल हो।
-शुक्र व बुध सप्तम भाव में एक साथ हो व पापग्रह युक्त या दृष्ट हो तो विवाह नहीं होता। यदि शनि दृष्ट हो तो विवाह बड़ी आयु में होता है। 
-शुक्र व मंगल दोनों 5,7 या 9वें भाव में हो तो स्त्री सुख नहीं होता।
-शुक्र व सूर्य पंचम, सप्तम या नवम् भाव में स्थित हो। 
-चंद्रमा से सप्तम में मंगल, शनि व शुक्र हो।
-शुक्र पापयुक्त हो या शुक्र से सप्तम पाप ग्रह हो।

विवाह में देरी के ज्योतिषीय कारण
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सप्तम भाव में बुध और शुक्र दोनों के होने पर विवाह में लगातार देरी होती जाती है, विवाह प्राय: आधी उम्र में होता है। 
-चौथा भाव या लग्न भाव मंगल युक्त हो, सप्तम में शनि हो तो कन्या की रुचि शादी में नहीं होती।
-सप्तम भाव में शनि और गुरु शादी देर से करवाते हैं। 
-चंद्रमा से सप्तम भाव में स्थित गुरु शादी देरी से करवाता है। यही बात चंद्रमा की राशि कर्क से भी लागू होती है।
-सप्तम में त्रिक भाव का स्वामी हो, कोई शुभ ग्रह योगकारक न हो, तो पुरुष का विवाह देरी से होता है।
-जब सूर्य, मंगल या बुध लग्न या राशिपति को देखता हो और गुरु बारहवें भाव में बैठा हो तो आध्यात्मिकता अधिक होने से विवाह में देरी होती है।
- लग्न, सप्तम या बारहवें भाव में गुरु या शुभ ग्रह योगकारक नहीं हो, कुटुम्ब भाव में चंद्रमा कमजोर हो तो विवाह नहीं होता, अगर हो गया तो संतान नहीं होती।
-कन्या की कुंडली में सप्तमेश या सप्तम भाव शनि से पीडि़त हो तो विवाह देर से होता है। 
-राहु की दशा में शादी हो, या राहु सप्तम भाव को पीडि़त कर रहा हो, तो शादी होकर टूट जाती है, यह सब दिमागी भ्रम के कारण होता है। 

हस्तरेखाओं में विवाह में बाधक लक्षण
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हाथ की सबसे छोटी अंगुली यानी कनिष्ठिका अंगुली के नीचे स्थित विवाह रेखा जब ऊपर की ओर मुड़ी हो तब ऐसा जातक यह तय नहीं कर पाता कि उसे विवाह करना चाहिए या नहीं। कभी वह कल्पना के आधार पर तो कभी अपने विवाह में कुछ और अधिक पाने की लालसा में विलंब करता जाता है। 
 यदि विवाह रेखा मुड़ कर कनिष्ठिका अंगुली के मूल तक पहुंच जाती है तो ऐसा जातक जीवन भर अविवाहित रहता है। 
यदि विवाह रेखा हृदयरेखा की ओर झुकाव लिए हुए मुड़ी हुई प्रतीत होती है तो ऐसे जातक की विवाह में कम रुचि रहती है। ऐसे जातक की विषय-भोग में आसक्ति कम होती है तथा उसमें नैराश्य या वैराग्य की भावना अधिक रहती है।

विवाह बाधा दूर करने के आसान व अनुभूत उपाय
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1. हल्दी के प्रयोग से उपाय
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विवाह योग लोगों को शीघ्र विवाह के लिये प्रत्येक गुरुवार को नहाने वाले पानी में एक चुटकी हल्दी डालकर स्नान करना चाहिए। भोजन में केसर का सेवन करने से विवाह शीघ्र होने की संभावनाएं बनती है।

2. पीला वस्त्र धारण करना
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ऐसे व्यक्ति को सदैव शरीर पर कोई भी एक पीला वस्त्र धारण करके रखना चाहिए।

3. वृृद्धों का सम्मान करना
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उपाय करने वाले व्यक्ति को कभी भी अपने से बड़ों व बूढ़ों का अपमान नहीं करना चाहिए।

4. गाय को रोटी देना
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जिन व्यक्तियों को शीघ्र विवाह की कामना हों उन्हें गुरुवार को गाय को दो आटे के पेड़े पर थोडी हल्दी लगाकर खिलाना चाहिए तथा इसके साथ ही थोडा सा गुड़ व चने की पीली दाल का भोग गाय को लगाना शुभ होता है।

5. शीघ्र विवाह प्रयोग
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इसके अलावा शीघ्र विवाह के लिये एक प्रयोग भी किया जा सकता है. यह प्रयोग शुक्ल पक्ष के प्रथम गुरुवार को किया जाता है। इस प्रयोग में गुरुवार की शाम को पांच प्रकार की मिठाई, हरी इलायची का जोड़ा तथा शुद्ध घी के दीपक के साथ जल अर्पित करना चाहिये। यह प्रयोग लगातार तीन गुरुवार को करना चाहिए।

6. केले के वृृक्ष की पूजा
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गुरुवार को केले के वृ़क्ष के सामने गुरु के 108 नामों का उच्चारण करने के साथ शुद्ध घी का दीपक जलाना चाहिए तथा जल भी अर्पित करना चाहिए।

7. सूखे नारियल से उपाय
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एक अन्य उपाय के रूप में सोमवार रात 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता, इस उपाय के लिये जल भी ग्रहण नहीं किया जाता। इस उपाय को करने के लिये अगले दिन मंगलवार को प्रात: सूर्योदय काल में एक सूखा नारियल लें, सूखे नारियल में चाकू की सहायता से एक इंच लम्बा छेद कर लें। अब इस छेद में 300 ग्राम बूरा (चीनी पाउडर) तथा 11 रुपये का पंचमेवा मिलाकर नारियल को भर देवें। यह कार्य करने के बाद इस नारियल को पीपल के पेड़ के नीचे गड्ढा करके दबा देवें। इसके बाद गड्ढे को मिट्टी से भर देवें तथा कोई पत्थर उसके ऊपर रख देवें। 
यह क्रिया लगातार 7 मंगलवार तक करने से व्यक्ति को लाभ प्राप्त होता है। यह ध्यान रखना है कि सोमवार की रात 12 बजे के बाद कुछ भी ग्रहण नहीं करना है।

8. मांगलिक योग का उपाय 
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अगर किसी का विवाह कुंडली के मांगलिक योग के कारण नहीं हो पा रहा है, तो ऐसे व्यक्ति को मंगलवार के दिन चण्डिका स्तोत्र का पाठ और शनिवार व मंगलवार को सुन्दर काण्ड का पाठ करना चाहिए। इससे भी विवाह के मार्ग की बाधाओं में कमी होती है।

9. छुआरे सिरहाने रख कर सोना
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यह उपाय उन व्यक्तियों को करना चाहिए जिन व्यक्तियों की विवाह की आयु हो चुकी है परन्तु विवाह सम्पन्न होने में बाधा आ रही है। इस उपाय को करने के लिये शुक्रवार की रात आठ छुआरे जल में उबाल कर जल के साथ ही अपने सोने वाले स्थान पर सिरहाने रख कर सोयें तथा शनिवार प्रात: स्नान करने के बाद किसी भी बहते जल में इन्हें प्रवाहित कर दें।

कन्या करे कात्यायनी मंत्र का पाठ
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जिस कन्या के विवाह में लगातार बाधा आ रही हो तो उस कन्या को देवी कात्यायनी मंत्र का जाप रोज 108 बार करना चाहिए। 
यह मंत्र निम्न प्रकार है-

ओम् कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरी। 
नन्द गोप सुतं देवी पतिं मे कुरुते नम:।।

कन्या करे बृहस्पति की पूजा
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कन्या की कुंडली में विवाह सुख के कारक ग्रह बृहस्पति हैं। शीघ्र विवाह के लिए बृहस्पति का मंत्र जाप, दान, व्रत, पूजादि से विशेष लाभ होता है। बृहस्पति का दिन गुरुवार है और केले का पौधा इन्हें प्रिय है। बृहस्पति का रंग पीला है। शीघ्र विवाह और वैवाहिक सुख के लिए कन्या को बृहस्पतिवार के दिन पीले वस्त्र धारण करने चाहिए, केले की पूजा करनी चाहिए और यदि संभव हो तो व्रत भी रखना चाहिए। केले का सेवन बृहस्पतिवार को नहीं करना चाहिए। बृहस्पति मंत्र ओम् बृं बृहस्पति नम: का पाठ करने से लाभ होता है। 

पुरुष करे यह मंत्र पाठ
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पुरुष जातक को शीघ्र विवाह के लिए दुर्गा सप्तशती के इस मंत्र का जाप अवश्य करना चाहिए-

पत्नी मनोरमां देहि मनोवृतानुसारिणीं, 
तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।

ऐसे लड़के जिनका विवाह नहीं हो रहा हो या वे जिससे प्रेम करते हैं उससे प्रेम विवाह में लगातार विलंब हो रहा हो, उन्हें शीघ्र मनपसंद विवाह के लिए श्रीकृष्ण के इस मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए-

क्लीं कृष्णाय गोविंदाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

शाबर मंत्र भी है उपयोगी
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इस शाबर मंत्र का जाप करने से विवाह होने में किसी भी प्रकार की आ रही रुकावट, अड़चन अथवा समस्या का समाधान हो जाता है-

ओम्  नम: शिवाय नम: महादेवाय...
जैसे गोरा को तुम, जैसे सीता को राम,
जैसे इंद्र को शची, जैसे राधा को श्याम।
ऐसी ही जोड़ी हमारी बने महादेव,
तुझे इस गुरु मंत्र की आन।।

इस मंत्र को भगवान शंकर के चित्र के सामने धूप, दीप प्रज्ज्वलित कर नियमित रूप से एक निश्चित समय पर 108 बार करने से विवाह होने में आ रही सभी बाधाएं नष्ट हो जाती हैं। यह मंत्र स्त्री-पुरुष कोई भी कर सकता है। इस मंत्र का प्रभाव छह माह में प्राप्त होता है।

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: कुण्‍डली में ग्रहों के प्रभाव दिखाने का समय ।

कुण्‍डली में नौ ग्रह अपना समय आने पर पूरा प्रभाव दिखाते हैं। वैसे अपनी दशा और अन्‍तरदशा के समय तो ये ग्रहअपने प्रभाव को पुष्‍ट करते ही हैं लेकिन 22 वर्ष की उम्र से इन ग्रहों का विशेष प्रभाव दिखाई देना शुरू होता है। जातककी कुण्‍डली में उस दौरान भले ही किसी अन्‍य ग्रह की दशा चल रही हो लेकिन उम्र के अनुसार ग्रह का भी अपना प्रभावजारी रहता है। देखते हैं कि ज्‍योतिष के अनुसार उम्र में कौनसा ग्रह प्रभावी होता है-

22 से 24 वर्ष

इस समय सूर्य का प्रभाव अधिक रहता है। आदमी टीन एज को पार कर वयस्‍क अवस्‍था मेंपहुंचता है। अधिकार बढते हैं और आंखों में सूर्य का तेज झलकने लगता है। इस समय जो व्‍यक्ति झूठ से दूर रहता है औरकिए गए वादे निभाता है सूर्य लम्‍बे समय तक उसके साथ रहता है। यह वय बीत जाने के बाद भी सूर्य का प्रभाव बना रहता है। सूर्य प्रभावी लोगों के लिए जहां यह उत्‍तम काल होता है वहीं शनि एवं राहू प्रभावी लोगों के लिए कष्‍टकारीसमय होता है।

24 से 25 वर्ष

यह चंद्रमा का काल होता है। नए आइडिया आते हैं। दिमाग अधिक उपजाऊ हो जाता है। जातक अपनाविस्‍तार करता है। पढाई, नौकरी, परिवार या अन्‍य उन क्षेत्रों में जिन में वह पहले से लगा होता है। इस समय जातककी आंखों में शीतल चमक आने लगती है। ये शुद्ध प्रेम का काल होता है।

25 से 28 वर्ष

यह शुक्र का काल है। इस काल में जातक में कामुकता बढती है। शुक्र चलित लोगों के लिए स्‍वर्णिमकाल होता है और गुरू और मंगल चलित लोगों के लिए कष्‍टकारी। मंगल प्रभावी लोग काम से पीडित होते हैं और शुक्रवाले लोगों को अपनी वासनाएं बढाने का अवसर मिलता है। इस दौरान जो लव मैरिज होती है उसे टिके रहने की संभावना अन्‍य कालों की तुलना में अधिक होती है। शादी के लिहाज से भी इसे उत्‍तम काल माना जा सकता है।

28 से 32 वर्ष

यह मंगल का काल है। हालांकि मंगल को उग्र बताया गया है लेकिन यह 28 वर्ष की उम्र के बाद अपनेसर्वाधिक शानदार परिणाम देताह है। गौर करें कि वास्‍तव में मंगल सेनापति होता है। यानि पराक्रम और बुद्धि कौशलसाथ-साथ ऐसे में गधिया पच्‍चीस (25 साल की उम्र तक जवान लोग काफी बेवकूफियां करते हैं कभी जोश में तो कभीअज्ञान में इसलिए इसे गधिया पच्‍चीसी कहता हूं।) का समय बीत जाने के बाद जातक सेनापति बनने के लिए तैयारहोता है। अपने परिवार के लिए, कैरियर के लिए या फिर आपदाओं पर नियं‍त्रण के लिए।

32 से 36 वर्ष

यह बुध का काल होता है। जातक अपने भले बुरे के अलावा आगामी जीवन के बारे में अधिक कुशलतासे सोचने लगता है। बच्‍चों और संबंधों पर अधिक गौर किया जाता है। बुध का काल इतना अधिक प्रभावी औरमहत्‍वपूर्ण है कि इसे छोटे पैराग्राफ में समेटा नहीं जा सकता। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि यह परिवर्तन कासबसे महत्‍वपूर्ण काल होता है। इसके बारे में चर्चा बाद में विस्‍तार से करूंगा।

36 से 42 वर्ष

शनि का काल। यह रुककर देखने का समय है कि चल क्‍या रहा है। बाकी लोग क्‍या कर रहे हैं। लम्‍बीप्‍लानिंग बनती है। व्‍यवस्‍थाएं स्थिरता की ओर जाती है। लम्‍बे एग्रीमेंट होते हैं जो जीवन को स्‍थाई बनाने का प्रयासकरते हैं। जातक इस काल में घर भी बना लेता है। परिवार को जमाने का काम किया जाता है।

42 से 48 वर्ष

राहू का समय। यह विशुद्ध रूप से चिंता का काल होता है। इस समय आदमी चिंतन करता है। हर बातपर। चाहे वह उससे संबंधित हो या न हो। इन्‍हें थिंक टैंक की बजाय चिंता का टैंक कहा जा सकता है। कई लोग इसदौरान डूम शोवर हो जाते हैं। यानि उन्‍हें लगता है कि बस बहुत हो गया अब तो प्रलय आ ही जाएगी।

48 से 54 वर्ष

यह सक्रिय जीवन का लगभग अंतिम काल है। यह केतू का समय है। इस समय जातक जिस काम को अब तक करता आया है उसे लगातार करता रहता है। उससे पीडित भी रहता है और उसे ढोता भी है। यानि रो धो करयह काल निकालता है। विकास कितना होता है यह तो स्‍पष्‍ट नहीं होता लेकिन काम बहुत रहता है। जो लोग 48 सेपहले खाली बैठे होते हैं उनके इस काल के दौरान खाली बैठे रहने की संभावना अधिक होती है। कार्यशील लोग नयाकाम करने की बजाय जिस काम में लगे हैं उसी में लगे रहते हैं।

इसके बाद का समय प्रभावी नहीं माना गया है। ऊपर बताए गए ग्रह और समय अन्‍य ग्रहों की दशा में भी अपना प्रभावदिखाते हैं। यह एक सामान्‍य नियम है हर कहीं लागू नहीं होता लेकिन अन्‍य ग्रहों की गणना के दौरान ज्‍योतिषी इसकाभी ध्‍यान रखते हैं इससे प्रॉब्‍लम सॉल्‍व करने में मदद मिलती है: त्रिफला रसायन कल्प त्रिदोषनाशक, इंद्रिय बलवर्धक विशेषकर नेत्रों के लिए हितकर, वृद्धावस्था को रोकने वाला व मेधाशक्ति बढ़ाने वाला है। दृष्टि दोष, रतौंधी (रात को दिखाई न देना), मोतियाबिंद, काँचबिंदु आदि नेत्ररोगों से रक्षा होती है और बाल काले, घने व मजबूत हो जाते हैं। डेढ़ माह तक इस रसायन का सेवन करने से स्मृति, बुद्धि, बल व वीर्य में वृद्धि होती है। दो माह तक सेवन करने से चश्मा भी उतर जाता है।
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विधिः- 500 ग्राम त्रिफला चूर्ण, 500 ग्राम देसी गाय का घी व 250 ग्राम शुद्ध शहद मिलाकर शरदपूर्णिमा की रात को चाँदी के पात्र में पतले सफेद वस्त्र से ढँक कर रात भर चाँदनी में रखें। दूसरे दिन सुबह इस मिश्रण को काँच अथवा चीनी के पात्र में भर लें।

सेवन-विधिः- बड़े व्यक्ति10 ग्राम छोटे बच्चे 5 ग्राम मिश्रण सुबह-शाम गुनगुने पानी के साथ लें दिन में केवल एक बार सात्त्विक, सुपाच्य भोजन करें। इन दिनों में भोजन में सेंधा नमक का ही उपयोग करे। सुबह शाम गाय का दूध ले सकते हैं।सुपाच्य भोजन दूध दलिया लेना उत्तम है कल्प के दिनों में खट्टे, तले हुए, मिर्च-मसालेयुक्त व पचने में भारी पदार्थों का सेवन निषिद्ध है। 40 दिन तक मामरा बादाम का उपयोग विशेष लाभदायी होगा। कल्प के दिनों में नेत्रबिन्दु का प्रयोग अवश्य करें।

मात्राः- 4 से 5 ग्राम तक त्रिफला चूर्ण सुबह के वक्त लेना पोषक होता है जबकि शाम को यह रेचक (पेट साफ़ करने वाला) होता है। सुबह खाली पेट गुनगुने पानी के साथ इसका सेवन करें तथा एक घंटे बाद तक पानी के अलावा कुछ ना खाएं और इस नियम का पालन कठोरता से करें ।

सावधानीः- दूध व त्रिफला के सेवन के बीच में दो ढाई घंटे का अंतर हो और कमजोर व्यक्ति तथा गर्भवती स्त्री को बुखार में त्रिफला नहीं खाना चाहिए। घी और शहद कभी भी सामान मात्रा में नहीं लेना चाहिए यह खतरनाख जहर होता है । त्रिफला चूर्णके सेवन के एक घंटे बाद तक चाय-दूध कोफ़ी आदि कुछ भी नहीं लेना चाहिये। त्रिफला चूर्ण हमेशा ताजा खरीद कर घर पर ही सीमित मात्रा में (जो लगभग तीन चार माह में समाप्त हो जाये ) पीसकर तैयार करें व सीलन से बचा कर रखे और इसका सेवन कर पुनः नया चूर्ण बना लें।

त्रिफला से कायाकल्प :-
कायाकल्प हेतु निम्बू लहसुन ,भिलावा,अदरक आदि भी है। लेकिन त्रिफला चूर्ण जितना निरापद और बढ़िया दूसरा कुछ नहीं है। आयुर्वेद के अनुसार त्रिफला के नियमित सेवन करने से कायाकल्प हो जाता है। मनुष्य अपने शरीर का कायाकल्प कर सालों साल तक निरोग रह सकता है, देखे कैसे ?

एक वर्ष तक नियमित सेवन करने से शरीर चुस्त होता है।
दो वर्ष तक नियमित सेवन करने से शरीर निरोगी हो जाता हैं।
तीन वर्ष तक नियमित सेवन करने से नेत्र-ज्योति बढ जाती है।
चार वर्ष तक नियमित सेवन करने से त्वचा कोमल व सुंदर हो जाती है।
पांच वर्ष तक नियमित सेवन करने से बुद्धि का विकास होकर कुशाग्र हो जाती है।
छः वर्ष तक नियमित सेवन करने से शरीर शक्ति में पर्याप्त वृद्धि होती है।
सात वर्ष तक नियमित सेवन करने से बाल फिर से सफ़ेद से काले हो जाते हैं।
आठ वर्ष तक नियमित सेवन करने से वर्ध्दाव्स्था से पुन: योवन लोट आता है।
नौ वर्ष तक नियमित सेवन करने से नेत्र-ज्योति कुशाग्र हो जाती है और शुक्ष्म से शुक्ष्म वस्तु भी आसानी से दिखाई देने लगती हैं।
दस वर्ष तक नियमित सेवन करने से वाणी मधुर हो जाती है यानी गले में सरस्वती का वास हो जाता है।
ग्यारह वर्ष तक नियमित सेवन करने से वचन सिद्धि प्राप्त हो जाती है 🙏🏻🙏🏻🕉🕉🌹🌹💐💐

योग सामान्य कसरत नही एक विज्ञान है योग 

 आसन दूसरे शारीरिक आसनों  निर्मित किए गए हैं। ऋषि-मुनियों ने योगासन का अविष्कार रोगों को दूर कर लम्बी आयु के लिए किया था, क्योंकि वे स्वस्थ रहकर ज्यादा से ज्यादा जीना चाहते थे ताकि मोक्ष पाया जा सके।

योग के आसनों द्वारा कोई सा भी रोग दूर किया जा सकता है। किसी भी व्यक्ति को रोगी बनाकर जल्दी ही मृत्यु की ओर धकेलने वाले शारीरिक मल और जहर को दूर कर योग एक स्वस्थ और शक्तिशाली जीवन प्रदान करता है। यह काया को सुंदर और कांतिमय बनाता है। इसीलिए योग चिकित्सा का महत्व बढ़ा है।

योग चिकित्सा के लाभ :

1.हड्डियां : रीढ़ की हड्डी शरीर की महत्वपूर्ण हड्डी है। इसी पर शरीर की सभी हड्डियां निर्भर रहती है। निरंतर योग करते रहने से रीढ़ की हड्डी लचीली और मजबूत हो जाती है जिसके कारण व्यक्ति को कभी बुढ़ापा नहीं आता।

इसके अलावा हाथ और पैरों की हड्डियां भी लचकदार बनी रहती है जिसके कारण छोटी-मोटी जगह से गिरने या छुटपुट दुर्घटना होने से कभी फ्रेक्चर की नौबत नहीं आती। हड्डियों के मजबूत और लचीले बने रहने से मांसपेशियों को भी ताकत मिलती है।

2.मांसपेशियां : आसनों को करते रहने से शरीर की मांसपेशियों को ताकत मिलती है। इससे जहां कमजोर व्यक्ति हष्ट-पुष्ट हो जाते हैं वही मोटे लोग दुबले पतले होकर स्वस्थ बने रहते हैं। मांसपेशियों का मजबूत और स्वस्थ रहना जरूरी है क्योंकि इससे भीतरी अंगों को ताकत मिलती है और रक्त वाहिनियां भी दुरुस्त होती है।

3.धमनियां : योग के आसनों को करने से रक्त वाहिनियां भी लचीली बनी रहती है जिसके कारण हृदय तक आसानी से रक्त पहुंचता है और वह स्वस्थ बना रहता है। इस क्रिया से खून भी साफ बना रहता है। रक्त वाहिनियों के अलावा अन्य प्रकार की नाड़ियां और धमनियां भी मजबूत रहकर फेंफड़ों, मस्तिष्क और आंखों को लाभ पहुंचाती रहती है।

4.भीतरी अंग : योग के आसनों को निरंतर करते रहने से शरीर के भीतरी अंगों में जमा मल और जहर बाहर निकल जाता है जिससे कि वह पुन: सुचारू रूप से कार्य करने लगते हैं। इस क्रिया से वे लम्बे काल तक स्वस्थ बने रहते हैं।

5.बाहरी अंग : जबकि शरीर भीतर से स्वस्थ और ताकतवर बनेगा तो स्वाभाविक रूप से ही बाहरी अंगों और चमड़ी को इसका लाभ मिलेगा। संपूर्ण देह कांतिमय, सुंदर और स्वस्थ नजर आएगी। आसनों के द्वारा शरीर को एक सुंदर शेप दिया जा सकता है।
🙏🏻🙏🏻🕉 *प्रश्न:मैं नकारात्मक विचारों से बहुत परेशान हूँ। निषेधात्मक विचार बेचैन कर देते हैं। कृपया नकारात्मक सोच से मुक्त होने का उपाय बताएं?*


उत्तर:मन नकारात्मक होता है, हृदय सकारात्मक होता है। मन की भाषा की जडें ना में होती हैं;मन ना कहने का बहुत मजा लेता है। जितना तुम ना कहते हो उतना ही तुम सोचते हो कि तुम बहुत महान विचारक हो। यह ऐसा ही है:मन ना में जीता है, यह ना कहने वाला है:इसका पोषण हर बात को ना कहने से आता है। मौलिक रुप से मन नास्तिक है, नकारात्मक है। विधायक मन जैसी कोई चीज नही होती है। हृदय विधायक होता है;जैसे मन ना कहता है,हृदय हां कहता है। निश्चित ही ना कहने से अधिक शुभ हां कहना है क्योंकि नहीं से जिंदगी नहीं चलती है। जितना अधिक तुम नहीं कहते हो उतना ही तुम सिकुडते हो, बंद हो जाते हो। उतना ही कम जीते हो। '
"The mind divides itself into subject and object, into the seer and the seen. "
मन स्वयं को द्रष्टा, दृश्य दो भागों में बांट लेता है। द्रष्टा बना मन, दृश्य बने मन को ना कहेगा तो क्या होगा, द्रष्टा बना मन, दृश्य बने मन को हां कहेगा तो क्या होगा-पता लगाने की बात है। मतलब स्वयं, स्वयं को ना कहेगा तो क्या होगा और स्वयं, स्वयं को हाँ कहेगा तो क्या होगा? जीवन द्रष्टा, दृश्य में विभाजित होकर भी आसानी से प्रवाहित होता रह सकता है यदि ना का अवरोध नहीं है। यदि स्वयं रागद्वेष, पसंद नापसंद के वश में नहीं है, समझ साफ है तो यह आसान हो जाता है। 
हमारे भीतर से नकारात्मक विचार, संचित रजोगुणी, तमोगुणी वृत्तियों के साथ आते रहते हैं। क्या हम उन्हें हां कह सकते हैं? 
किसीको लग सकता है यह तो हानिकारक बात हो सकती है जबकि सच यह है कि स्वीकार से वे सभी विचार व वृत्तियाँ हृदय मे समा जाते हैं जिससे सकारात्मक, रचनात्मक कार्यों का पथ प्रशस्त हो जाता है। 
कोई ईर्ष्यालु, झगडालू, उग्र तथा द्वेषी है और मुझसे शत्रुता करता है यदि मै इसे हां कहता हूँ तो ये सब मेरे हृदय में विलीन हो जाता है, ना कहता हूँ तो विलीन नहीं होता परिणाम आंतरिक संघर्ष भी और बाहरी संघर्ष भी। 
कभी कभी बल प्रयोग करके बाहरी कारण को कुचलने का प्रयास भी किया जाता है पर यह कोई स्थायी हल नहीं है। स्थायी हल हमारे भीतर संभव है, न कि बाहर। 
यह हर स्थिति में संभव है। मान लीजिए मेरे पास धन की कमी है, सुख की कमी है, लोगों के सहयोग, सम्मान की कमी है, कोई कार्य नहीं हो रहा है,सफलता नहीं मिल रही है तो क्या मै अपने अभाव बोध (रुपी अपने आप)को हां कह सकता हूँ? 
यदि मै रागद्वेष वश अहं बुद्धि से चला तो यह कभी संभव नहीं होगा। मन, मन को ना कहेगा और खंडों में संघर्ष बना रहेगा, वह स्थिति नहीं बनेगी जब मन, मन को हां कहकर हृदय में विलीन हो जायेगा। सत्ता हृदय की है, मन की नहीं। टुकडों में मन बंटता है, हृदय नहीं। हृदय की अखंडता जहाँ प्रकट होती है वहां सब कुछ बदलने लगता है, रचनात्मक होने लगता है। 
बात समझ साफ होने की है। मन शंकाओं से भरा है। उसे संघर्ष ही दिखता है जबकि हृदय शुभ है,और आत्मश्रद्धा से भरा है।मन को हां कहने पर जब मन नहीं रहता, हृदय प्रधान हो जाता है।हृदय पूर्ण है। एक तरफ मन की अपूर्णता है, दूसरी तरफ हृदय की पूर्णता है। इनमें चुनाव करना हो तो हृदय की पूर्णता का ही करना चाहिए।
"यदि तुम्हें नकारात्मकता और सकारात्मकता में से एक चुनना ही है तो कहूंगा:सकारात्मकता को चुनो-क्योंकि हां, से बाहर होना, नहीं से बाहर होने से आसान है। नहीं से बाहर आना कठिन है: तुम्हारे पास अधिक अवकाश नहीं होता। तुम हर तरफ से बंद हो। नकारात्मकता में जीना महान मूढता का काम है, लेकिन लाखों लोग नकारात्मकता में जी रहे हैं। विशेष रुप से आधुनिक मानव नकारात्मकता में जी रहा है।अहंकार के कैदखाने की ईंटें नहीं से बनी होती हैं, नकारात्मकता उसका भोजन है। "
 आदमी समस्या से,आगमन की आशंका से भी घबराता है।पहले से भाग जाने के लिए तैयार खडा रहता है फिर सकारात्मकता का चुनाव और उसकी समझ कैसे साफ हो?
चाहे जो समस्या हो आंतरिक या बाहरी उसे ना कहकर उस समस्या से संघर्ष कीजिये या उसी समस्या को हां कहकर (उसे अपनाकर) उसका सामना कीजिये। फर्क मालूम पडेगा। समस्या आपका हिस्सा बन जायेगी, न कि आपसे दूर खड़ा आपका कोई दुश्मन। यदि आत्म विभाजन और आत्म दूरी के स्थान पर अपने में अविभाजन और अखंडता है तो उससे परिणाम अवश्य प्रभावित होंगे। बस हम इसे समझें और समस्या समाधान के लिए अत्यधिक अधीर, उतावले न हों। शांत रहें और अपने आपके साथ बने रहें। मन की ना की जगह हृदय की हां को अपनाएं। आपकी समस्या आपमें समा जायेगी जिससे बाकी सब आसान हो जायेगा। समस्या को नकारना स्वयं को(हृदय को)  नकारना है;समस्या को स्वीकारना, स्वयं को(हृदय को) स्वीकारना है। असली ताकत उसीमें है, आधार भूत आत्मविश्वास(total self-confidence) की जडें उसीमें हैं, अहं पूर्ण रागद्वेष, पसंद नापसंद, स्वीकार अस्वीकार में कभी नहीं।अपनी आत्मा का सम्मान करना ही चाहिए। 
Respect yourself.

           **: *प्रश्न: ब्रह्म का अनुभव कैसे होता है?*
*समाधान: प्रिय मित्रों, चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है, जब शुद्ध होती है तब शून्य होती है।*
 *जब तक दर्पण मे प्रतिकृति(स्वम् का प्रतिभिम्ब) बनती है तब तक विजातीय दर्पण पर छाया रहती है। जब कोई प्रितिकृति नहीँ बनती और दर्पण कोरा होता है, तब दर्पण शून्य होता है।* 
*चेतना के दर्पण पर कभी राग, कभी द्वेष, कभी कुछ और कभी कुछ बनता रहता है, तब चेतना अशुद्ध होती है। जब कोई प्रितिकृति नही बनती, चेतना द्वंद के बाहर होती है तो इस अवस्था मे केवल चैतन्यता रहती है। वह जो चैतन्य की शून्य प्रतीति है, वह ही ब्रह्म का अनुभव है।*
*।। जय सनातन ।।*
: कौन सी धातु के बर्तन में भोजन करने से क्या क्या लाभ और हानि होती है।
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  सोना
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सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।

 चाँदी
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चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है  इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।

 कांसा
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काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में  शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल ३ प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

 तांबा
🔸🔹🔸
तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है. तांबे के बर्तन में दूध नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।

पीतल
🔸🔹🔸
पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल ७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

 लोहा
🔸🔹🔸
लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से  शरीर  की  शक्ति बढती है, लोह्तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और  पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है. लेकिन लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।

 स्टील
🔸🔹🔸
स्टील के बर्तन नुक्सान दायक नहीं होते क्योंकि ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसलिए नुक्सान नहीं होता है. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा नहीं पहुँचता तो नुक्सान भी  नहीं पहुँचता।

 एलुमिनियम
🔸🔹🔹🔸
एल्युमिनिय बोक्साईट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुक्सान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम के प्रेशर कूकर से खाना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।

  मिट्टी
🔸🔹🔸
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते थे। इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त हैमिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे १०० प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।

पानी पीने के पात्र के विषय में 'भावप्रकाश ग्रंथ' में लिखा है....

*जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम्।*
*पवित्रं शीतलं पात्रं रचितं स्फटिकेन यत्।*
*काचेन रचितं तद्वत् वैङूर्यसम्भवम्।*
(भावप्रकाश, पूर्वखंडः4)

अर्थात् पानी पीने के लिए ताँबा, स्फटिक अथवा काँच-पात्र का उपयोग करना चाहिए। सम्भव हो तो वैङूर्यरत्नजड़ित पात्र का उपयोग करें। इनके अभाव में मिट्टी के जलपात्र पवित्र व शीतल होते हैं। टूटे-फूटे बर्तन से अथवा अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।
🔹🔸🔸🔹🔸🔸
 🌀 *हम व्रत क्यों करते हैं, और क्या भूखे रहने से ही भगवान का भजन होता है.?*🌀

🙏 *व्रत का अर्थ होता है संकल्प।*🙏

🌀वैष्णव तन्त्र नामक ग्रन्थ में शरणागति के जो लक्षण दिये हैं, उसमें पहला ही लक्षण है- 'आनुकूलस्य संकल्पः' अर्थात् जिन जिन क्रियायों से भक्त और भगवान प्रसन्न होते हैं, उन सभी कार्यों को करने का संकल्प लेना।

🌀एकादशी का व्रत रखने से भगवान श्रीकृष्ण बड़े प्रसन्न होते हैं, तो मैं भगवान की प्रसन्नता के
लिए एकादशी व्रत करूंगा म/करूंगी, इस प्रकार का संकल्प ही एकादशी का उपवास कहलाता है।

🌀व्रत का एक और पर्यायवाची शब्द होता है - उपवास।
उप् + वास = उप् का अर्थ होता है नज़दीक, तथा वास का अर्थ होता है रहना।

🌀तो व्रत का एक और अर्थ हुआ, भगवान के अधिक से अधिक नज़दीक रहना।
यानि की व्रत के दिन अधिक से अधिक समय भगवान के भक्तों के साथ, भगवान की चर्चा सुनते हुए, बोलते हुए, अथवा स्मरण करते हुए, व्यतीत करना चाहिये।

🌀इसलिए भक्त लोग, एकादशी आदि व्रत के दिन, तुलसी की माला पर अधिक हरे कृष्ण महामन्त्र का जाप करते हैं, व भक्तों के साथ अधिक समय तक संकीर्तन करते हैं।

🌀केवल मात्र भूखा रहना व्रत का तात्पर्य नहीं है। व्रत का मुख्य तात्पर्य अपने आप को भगवान से
जोड़ना है।

🌀हमारे शास्त्रों में एकादशी आदि व्रत में अनुक्ल्प की व्यवस्था दी गयी है। अनुक्ल्प का अर्थ होता है विकल्प यानि कि व्रत में दाल, चावाल, रोटी इत्यादि नहीं खाते हैं।(किसी प्रकार अन्न )

🌀फिर यदि भूख लगे तो उसका विकल्प क्या है?

🌀उसका विकल्प है कि हम फल, दूध, दही, पानी , इत्यादि ले सकते हैं, बिमार होने पर दवाई भी ले सकते हैं।

🌀कहने का अर्थ केवल मात्र भूखे रहने से ही भगवान का भजन नहीं होता है, भगवान को प्रसन्न करने की चेष्टाओं को करने से ही भजन होता है।

🌀अन्त में हम इतना अवश्य कहना चाहेंगे की इस युग में शुद्ध भक्तों के साथ हरे कृष्ण महामन्त्र का संकीर्तन करने से तथा विभिन्न प्रकार के व्रतों में अपने मन को ना उलझा कर, पूरी निष्ठा के साथ एकादशी का व्रत करने से, तथा भगवान के प्रेमी भक्तों की सेवा करने से भगवान जितना प्रसन्न होते हैं, और क्रियाओं से उतना प्रसन्न नहीं होते।

🌀अतः शुद्ध भक्तों के साथ हरे कृष्ण महामन्त्र का संकीर्तन करना, एकादशी व्रत करना, तथा भगवान के उच्च कोटी के भक्तों की सेवा करना ही सर्वोत्तम हरि भजन है।

*🍋हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे!*
*हरे राम हरे राम ,राम राम हरे हरे..!!🍋*🙏☝🙏☝🙏☝🙏☝🙏☝

*एकादशी से अगले दिन एक भिखारी  एक सज्जन की दुकान पर भीख मांगने पहुंचा। सज्जन व्यक्ति ने 1 रुपये का सिक्का निकाल कर उसे दे दिया।*
*भिखारी को प्यास भी लगी थी,वो बोला बाबूजी एक गिलास पानी भी पिलवा दो,गला सूखा जा रहा है। सज्जन व्यक्ति गुस्से में तुम्हारे बाप के नौकर बैठे हैं क्या हम यहां,पहले पैसे,अब पानी,थोड़ी देर में रोटी मांगेगा,चल भाग यहां से।*

*भिखारी बोला:-*
*बाबूजी गुस्सा मत कीजिये मैं आगे कहीं पानी पी लूंगा।पर जहां तक मुझे याद है,कल इसी दुकान के बाहर मीठे पानी की छबील लगी थी और आप स्वयं लोगों को रोक रोक कर जबरदस्ती अपने हाथों से गिलास पकड़ा रहे थे,मुझे भी कल आपके हाथों से दो गिलास शर्बत पीने को मिला था।मैंने तो यही सोचा था,आप बड़े धर्मात्मा आदमी है,पर आज मेरा भरम टूट गया।*
*कल की छबील तो शायद आपने लोगों को दिखाने के लिये लगाई थी।*
*मुझे आज आपने कड़वे वचन बोलकर अपना कल का सारा पुण्य खो दिया। मुझे माफ़ करना अगर मैं कुछ ज्यादा बोल गया हूँ तो।*
*सज्जन व्यक्ति को बात दिल पर लगी, उसकी नजरों के सामने बीते दिन का प्रत्येक दृश्य घूम गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। वह स्वयं अपनी गद्दी से उठा और अपने हाथों से गिलास में पानी भरकर उस बाबा को देते हुए उसे क्षमा प्रार्थना करने लगा।*

*भिखारी:-*
*बाबूजी मुझे आपसे कोई शिकायत नही,परन्तु अगर मानवता को अपने मन की गहराइयों में नही बसा सकते तो एक दो दिन किये हुए पुण्य व्यर्थ है।*
*मानवता का मतलब तो हमेशा शालीनता से मानव व जीव की सेवा करना है।*
*आपको अपनी गलती का अहसास हुआ,ये आपके व आपकी सन्तानों के लिये अच्छी बात है।*
*आप व आपका परिवार हमेशा स्वस्थ व दीर्घायु बना रहे ऐसी मैं कामना करता हूँ,यह कहते हुए भिखारी आगे बढ़ गया।*

*सेठ ने तुरंत अपने बेटे को आदेश देते हुए कहा:-*
*कल से दो घड़े पानी दुकान के आगे आने जाने वालों के लिये जरूर रखे हो।उसे अपनी गलती सुधारने पर बड़ी खुशी हो रही थी।*
🌹🌹

*सिर्फ दिखावे के लिए किये  गए पुण्यकर्म निष्फल हैं, सदा हर प्राणी के लिए आपके मन में शुभकामना शुभ भावना हो यही सच्चा पुण्य है*

*दोस्तो  ,*

*ज्यादा पैसा, जल्दी पैसा, जितना भी हो पैसा । और जीवन ही पैसा है, यही जीवन शैली अपनाने में अब हम अपना स्वास्थ्य बेचने में लगे हैं। यूँ तो हमने धन का अम्बार लगा दिया है, मगर स्वास्थ्य को दाँव पर लगाकर। हमने यह नही सोचा कि वो धन किस काम का जो हमसे जीवन ही छीन रहा है।*

*आज का आदमी बड़ी नासमझी में जीवन यापन कर रहा है। आज आदमी पहले पैसा कमाने के लिए सेहत बिगाड़ता है फिर सेहत वापस पाने के लिए पैसे बिगाड़ता है। स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है।*

*स्वास्थ्य रहने पर आप धन अवश्य कमा सकते हैं मगर धन रहते हुए भी स्वास्थ्य नहीं कमाया जा सकता है। धन जीवन की आवश्यकता हो सकती है उद्देश्य कदापि नहीं। धन साधन है साध्य नहीं। इसलिये धन अर्जित जरुर किया जाए मगर स्वास्थ्य की बलि देकर नहीं।*

।। राधे राधे 

     क्रोध को भी हम जीतें । क्रोध अपने से कमजोरपर आता है । हमारा रोष निकलेगा बच्चोंपर, नौकरोंपर तथा जिनसे हमें हानि की सम्भावना नहीं है, उनपर । किंतु जिसके निमित्त से क्रोध निकला हो; उसकी उस बुराई को तो वह दूर करने से रहा, उलटे वह बुराई एक बार दबकर अन्तश्चेतना में वापस जाकर गहरी बन जायगी  अतएव क्रोध से अपना और दूसरे का अनिष्ट ही होता है सोचें, क्या हमने सबके मंगल का ठेका ले रखा है और हमारे क्रोध करने से ही उसका मंगल हो जायगा  उसकी बुराई मिट जायगी  किंतु यह भ्रम है कि मैं डाँट-डपटकर किसी को सुधार लूंगा । अपने बच्चोंपर हम प्यारभरा शासन कर सकते हैं, पर उसमें क्रोध की गंध भी नहीं आनी चाहिये । हम जान भी नहीं पाते, उन-उन अवसरोंपर उन बच्चों का, नौकरों का सुधार तो होता नहीं, उलटे हमारी आस्तिकता की नींव भूकम्प की भांति हिलने लगती है, जो अभी-अभी आगे आनेवाली विपत्तियों में हमें और भी खिन्न बना देती है । इस दोष को सर्वथा सर्वांश में जितना शीघ्र-से-शीघ्र हम कुचल सकें, कुचल डालें । नहीं तो, उपासना का प्रासाद इस वर्तमान नींवपर निर्मित नहीं हो सकेगा । क्रोध की गंध भी उस उपासना के महल की दीवालों में दरार डाल ही देती है । अतएव खूब सावधानी से व्रत लेकर इस दोषपर हम काबू पावें ।  

          ।। जय श्री राधे कृष्णा ।।
 ज्योतिष के कुछ अचूक सूत्र 

1)जब गोचर में शनि ग्रह धनु, मकर, मीन व कन्या राशियों में गुजरता है तो भयंकर अकाल रक्त सम्बन्धी विचित्र रोग होते हैं। 
2)"स्त्री की कुंडली में यदि चन्द्र वृष कन्या या सिहं राशी में स्थित हो तो स्त्री के कम पुत्र होते हैं "। 
3)"जन्म लग्न में चन्द्र व शुक्र हो तो स्त्री क्रोधिनी परन्तु सुखी होती है "। 
4)"किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष सोमवार ,बुध या गुरूवार को शपथ ले तो उसे प्रजा एवं राष्ट्राध्यक्ष के लिए शुभ माना जाता है"।। 
5)"सप्तमेश शुभ युक्त न होकर षष्ठ ,अष्टम,या द्वादश भाव में हो और नीच या अस्त हो तो जातक के विवाह में बाधा आती है" 
6)"चन्द्र से सम्बंधित चार विभिन्न योग बनते हैं जब कोई ग्रह चन्द्र से 10वें 7वें, 4थे, ओर पहले हो तो क्रमश:उत्तम,मध्यम, अधम ओर अधमाधम योग बनता है। यदि इनमें अंतिम योग बनता हो तो कुंडली के अन्य योग कमजोर और निष्फल हो जाते हैं"!! 
7)जन्म कुंडली में मंगल को भूमि का मुख्य कारक माना गया है. जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव या चतुर्थेश से मंगल का संबंध बनने पर व्यक्ति अपना घर अवश्य बनाता है. जन्म कुंडली में जब एकादश का संबंध चतुर्थ भाव से बनता है तब व्यक्ति एक से अधिक मकान बनाता है लेकिन यह संबंध शुभ व बली होना चाहिए. 
8)जन्म कुंडली में लग्नेश, चतुर्थेश व मंगल का संबंध बनने पर भी व्यक्ति भूमि प्राप्त करता है अथवा अपना मकान बनाता है. जन्म कुंडली में चतुर्थ व द्वादश भाव का बली संबंध बनने पर व्यक्ति घर से दूर भूमि प्राप्त करता है या विदेश में घर बनाता है। 
9)जन्म कुंडली का चतुर्थ भाव प्रॉपर्टी के लिए मुख्य रुप से देखा जाता है. चतुर्थ भाव से व्यक्ति की स्वयं की बनाई हुई सम्पत्ति को देखा जाता है. यदि जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव पर शुभ ग्रह का प्रभाव अधिक है तब व्यक्ति स्वयं की भूमि बनाता है. 
10)कोई भी ग्रह पहले नवाँशा में होने से जातक को एक प्रगतिशील और साहसिक नेता बनाता है ऐसे ग्रह की दशा /अन्तर्दशा के समय में जातक सक्रिय होता है।। और अपने सम्वन्धित क्षेत्र में सफलता पाता है।। 
11)"सूर्य चन्द्र मंगल और लगन से गर्भाधान का विचार किया जाता है वीर्य की अधिकता से पुरुष तथा रक्त की अधिकता से कन्या होती है। रक्त और रज का बरावर होने से नपुंसक का जन्म होता है"। 
12)जन्म से चार वर्ष के भीतर बालक की मृत्यु का कारण माता के कुकर्मों, चार से आठ वर्ष के बीच मृत्यु पिता के पाप कर्मों और आठ से बारह वर्ष की आयु के मध्य मृत्यु स्वयं के पूर्वजन्म के पापों के कारण मानी गई है. 
13)शनि वायु का कारक और लिंग में नपुंसक है. वायु का प्रभाव वैचारिक भटकाव की आशंका उत्पन्न करता है.शनि तैलार्पण शनि से उत्सर्जित हो रही वैराग्यात्मक ऊर्जा का (तेल) द्वारा शमन है. पुरुषों को अनुमति है की वे अपना कुछ बृहस्पति अंश (धन एवं ज्ञान) इस प्रक्रिया हेतु व्यय कर सकते हैं.लेकिन सनातन व्यवस्था स्त्रियों को इसकी अनुमति कदापि नहीं देती. स्त्रियों की प्रकृति पृथ्वी के समान ग्राहीय है और उन पर जन्म देने की जिम्मेदारी है. उनके लिए वैराग्य की अपेक्षा भक्ति पर जोर दिया गया है। 
14)राशिचक्र के २७ नक्षत्रों के नौ भाग करके तीन-तीन नक्षत्रों का एक-एक भाग माना गया है। इनमें प्रथम 'जन्म नक्षत्र', दसवाँ 'कर्म नक्षत्र' तथा उन्नीसवाँ 'आधान नक्षत्र' माना गया है। शेष को क्रम से संपत्, विपत्, क्षेम्य, प्रत्वर, साधक, नैधन, मैत्र और परम मैत्र माना गया है। 15)किसी भी प्रकार का रिसाव राहु के अंतर्गत आता है.रिसाव किसी भी चीज का हो सकता है द्रव , शक्ति , धन , मान सम्मान या ओज का.। 
16)बुध के निर्बल होने पर कुंडली में अच्छा शुक्र भी अपना प्रभाव खो देता है क्योंकि शुक्र को लक्ष्मी माना जाता है और विष्णु की निष्क्रियता से लक्ष्मी भी अपना फल देने में असमर्थ हो जाती हैं. 
17)शनि वचनबद्धता , कार्यबद्धता और समयबद्धता का कारक ग्रह है. जिस भी व्यक्ति के जीवन में इन तीनो चीजों का अभाव होगा तो समझना चाहिए की उसकी पत्रिका में शनि की स्थिति अच्छी नहीं है। 
18)नीलम को शनि रत्न माना जाता रहा है. लेकिन इस रत्न की तुरंत प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति मन में संदेह उत्पन्न करती है की क्या यह वास्तव में शनि रत्न है. क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया शनि का स्वभाव नहीं है. शनि एक मंदगामी ग्रह है. इसीलिये इसे शनैश्चर भी कहा गया है. जबकि तुरंत और अचानक प्रतिक्रिया राहु का स्वाभाव है. राहु नीलवर्णी माना गया है. सभी प्रकार के विषों का अधिपत्य राहु कोप्राप्त है.। इधर ज्योतिष की अपेक्षाकृत ‘लाल किताब’ भी नीलम को राहु की कारक वस्तु मानती है.। यह बात नीलम के स्वभाव से मेल खाती है. फिर नीलम रत्न का अधिपति कौन है. शनि या राहु.?????? 19)ज्योतिष में व्यवस्था है की पीड़ित ग्रहों की वस्तुएं दान की जाएं. यह ग्रहपीड़ा शांति के लिए किया जाने वाला महत्वपूर्ण उपाय है. इस उपाय में ग्रह की कारक वस्तु को मंदिर , डाकोत , अपाहिजों और गरीबों में दान किया जाता है. इससे अनिष्टकारक ग्रह के प्रकोप में कमी आ जाती है. इस उपाय में कुंडली विवेचना उपरांत ही तय किया जाता है की अमुक वस्तु कितनी बार दान करनी है. कई बार यह उपाय केवल एक बार करना होता है तो कभी कई बार दोहराना होता है. 
20)"लड़कों जैसे छोटे बाल रखने वाली स्त्रियां दुखी रहती हैं.वे भले ही उच्च पदस्थ अथवा धनी हों उनके जीवन में सुख नहीं होता. खासतौर पर पति सुख या विपरीत लिंगी सुख. ऐसी स्त्रियों को पुरुषों के प्यार और सहानुभूति की तलाश में भटकते देखा जा सकता है. यदि वे विवाहित हैं तो पति से नहीं बनती और अलगाव की स्थिति बन जाती है और अधिकांश मामलों में पति से संबंध विच्छेद हो भी जाता है."। 
21)"व्यक्ति तीन प्रकार से मांगलिक दोष से ग्रस्त होता है – पहला लग्न से, दूसरा जन्मस्थ चंद्र से और तीसरा जन्मस्थ शुक्र से. इनमे शुक्र वाली अवस्था सबसे उग्र और चंद्र वाली सबसे हल्की मानी जाती है. यदि व्यक्ति तीनों ही स्थितियों में मांगलिक हो तो वह प्रबल मांगलिक माना जायेगा"".।                विचार शक्ति का महत्व समझिये
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व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही व्यवहार करता है। विचारों का प्रभाव हमारे आचार पर अवश्यंभावी रूप से पड़ता है। अतएव मानव जीवन की सफलता के लिये स्वस्थ एवं उन्नत विचार परमावश्यक हैं। शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौंदर्य भी स्वस्थ एवं प्रसन्न मन पर ही निर्भर है अतएव स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन का होना अनिवार्य है।

जैसी हमारी मानस कल्पनाएं तथा विचार होंगे, वैसा ही जीवन भी ढल जायेगा। वस्तुतः हम जो सोचते हैं, उससे शरीर की ग्रन्थियों में एक प्रकार का रस द्रवित होता है। यदि विचार सुखदाय, स्फूर्तिवान तथा आशाप्रद होंगे तो शरीर के नन्हें-नन्हें कोषों तथा रोमों को भी नूतन स्फूर्ति एवं चैतन्यता प्राप्त होगी। 

इसके विपरीत भय, चिन्ता, द्वेष एवं मनोमालिन्य की भावनाएं शरीर के घटकों में अज्ञात विष उड़ेलती रहती हैं जिससे जीवन शक्ति तथा कार्यक्षमता नष्ट होती है तथा अनगिनत रोग और पीड़ाएं उत्पन्न होती हैं। स्वस्थ रहने के लिये यह परमावश्यक है कि हमारे मन में निराशा, चिन्ता, दुर्बलता और अवसाद के विचार न आने पायें। रोगों की जड़ें शरीर में नहीं अपितु मन में होती हैं।

अनेकों व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपने भाव संस्थान को निर्बल तथा कायर भावनाओं से विकृत बनाये रहते हैं। वे स्वयं को संसार के दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों में गिनने हैं इस बात में विश्वास रखते हैं कि उन्हें किसी कार्य में सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती।

 परिणामतः या तो वे कार्य ही नहीं करते, यदि प्रारम्भ भी करते हैं तो असफलता के भय से या बाधायें आ जाने पर, बीच में ही छोड़ बैठते हैं। बिना दृढ़ निश्चय एवं संकल्प शक्ति के कोई कार्य पूरा नहीं हो सकता।

ऐसे कापुरुषों की भी संसार में कमी नहीं है जो मानव जीवन का मूल्य न समझकर मृत्यु के दिन गिनते रहते हैं। यह भ्रम उन्हें खाये डालता है कि वे बीमार हैं, शक्ति हीन हैं। काल्पनिक दुःख एवं चिन्ताएं हर समय उन पर सवार रहती हैं।

 वस्तुतः इन्हें शारीरिक रूप से कोई बीमारी नहीं होती परन्तु मानसिक निर्बलता के कारण उनकी शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही प्रकार की शक्ति तथा सामर्थ्य पंगु बन जाती हैं। अनेक प्रकार के शारीरिक रोग इन्हें घेरे रहते हैं। जीवन के आनन्द से वंचित कर देते हैं। निर्बल एवं- रोगी शरीर व्यक्ति सुखों से सदैव वंचित ही रहता है।

मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि अनेक शारीरिक रोग मानसिक निर्बलता तथा संवेगों से उत्पन्न होते हैं। शरीर विज्ञान-शास्त्रियों का भी मत है कि केवल मानसिक चित्रों के आधार पर ही अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

 इस सम्बन्ध में डॉ. टुके ने अपनी पुस्तक ‘इन्फ्लूएन्स आफ दी माइण्ड अपान दी बॉडी’ में लिखा है- ‘पागलपन, मूढ़ता, अंगों का निकम्मा हो जाना, पित्त पाण्डु रोग, बालों का शीघ्र गिरना, रक्तहीनता, घबराहट, मूत्राशय के रोग, गर्भाशय में पड़े हुए बच्चे का अंग भंग हो जाना, चर्म रोग, फुन्सियाँ-फोड़े तथा एक्जिमा आदि कितने ही स्वास्थ्यनाशक रोग केवल मानसिक क्षोभ तथा भाव से ही पैदा होते हैं।’

यदि आप स्वस्थ रहना चाहते हैं, सुख तथा समृद्धि पाना चाहते हैं, सफलता का वरण करना चाहते हैं तो विचारों को निर्मल, पवित्र तथा उदात्त बनाइये। यदि कोई ऐसा विचार मन में आये कि आप बीमार हैं, दुर्बल हैं, तो तुरन्त उसे दबा दें।

 यदि मस्तिष्क से कोई ऐसी ध्वनि निकले जो सफलता में बाधक बने-तो फौरन उसे बाहर निकाल दीजिये। विश्वास रखिये आप संसार के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं तथा ईश्वरीय प्रयोजनों में सहयोग देने के लिये संसार में जन्में हैं। अनेक महत्वपूर्ण कार्य आपको पूरे करने हैं।

 उठिये, आगे बढ़िये-मंजिल पर तीव्रता से कदम बढ़ाइये, जीवन के किसी मोड़ पर खड़ी सफलता आतुरता से आपकी प्रतीक्षा कर रही है।
: 🌞                                           
इस संसार में काफ़ी  लोग शरीर से थोड़ा ऊपर उठ पाते है  पर वो मन पर अटक पर जाते है ये शुरुआत है भीतर की यात्रा की, मन से ही विचारों से ही बहुत कम लोगों में समझ पैदा होती है की विचारो से कुछ नहीं होगा तो फिर उन थोडे से लोगों में से बहुत कम लोग मन से भी ऊपर उठ पाते है मन के पार चले जाते 
मन के पार जाने का नाम ध्यान है 
ध्यान से आत्मा मिलेगी
आत्मा में बहुत सुख है 
लोग इसी सुख में ही अटक के रह गए  परन्तु बहुत ही बहुत ही कम लोगों में अपने गुरु के साथ रह कर ये समझ पैदा हुई की शरीर और मन के पार गए तो इतना सुख पाया 
क्यों ना   आत्मा के  भी पार 
जाया जाए बड़े साहस की बात है 
पर जो लोग ये साहस कर पाते है वही आत्मा के पार जा कर बुद्धत्व को पाते है
बुद्धत्व में परमात्मा मिलता है 
परमात्मा में महा आनन्द है 
बहुत से साधक इसी महा आनन्द अटक गए 
बहुत ही बहुत ही कम साधक 
एक कदम और बढ़ पाए 
परमात्मा के भी पार 
बहुत खतरनाक  कदम है 
परमात्मा को भी छोड़ देना 
जिसे पाने के लिए बरसों  इतनी  साधना, ध्यान विधियां  की थी 
उसे भी एक दिन छोड़ना  पड़ता है बहुत हिम्मत चाहिए  गुरु का साथ चाहिए 
जैसे ही साधक परमात्मा को भी छोड़ पाते है 
वही निर्वाण को पाते है...!!   🙏🏻          
Hare krishna🌹
: भक्ति का बीज प्रत्येक जीव मे होता है। पर उस बीज का पोषण इन भगवदियो द्वारा ही संभव है। इनके हृदय मे श्री आचार्यजी सदा बिराजते है और इन्ही के द्वारा आपश्री जीव पर अनुग्रह करते है। "तिनके संग प्रताप ते, होत श्याम सो रंग"।

जैसे दुध मे माखन होता है पर दीखता नहीं। जैसे समुद्र मे सारे रत्न थे, अमृत था, परंतु जब तक उसका मंथन नहीं हुआ तब तक कोई भी उसे प्राप्त नहीं कर पाया। वैसे ही भगवदियो के हृदय मे श्री आचार्यजी अहर्निश  वास करते है। इन भगवदियो के मंथन (सत्संग) द्वारा ही श्री आचार्यजी कृपा विचारते है।

हरि, गुरु, वैष्णव मे सदा एक समान भाव रखना। उन्हें भिन्न स्वरुप से नहीं जानना। जैसे अग्नि और उसमे से निकलते हुए तिनखे भी अग्नि रूप ही होते है। एक छोटी सी चिंगारी भी विराट अग्नि स्वरुप धारण कर सकती है, वैसे भगवदीय मे भी श्री महाप्रभुजी की कृपा का सामर्थ्य  होता है।

इसी लिये भगवदियों के भाव का  रंग जरूर लगता है। जिसके हृदय में भगवद् भाव होता है उनके नेत्रो से प्रवाह रूप से भगवद् रस सदा बहता है, और ऐसे भगवदीय के सान्निध्य में आते ही जीव उस रस से भीग जाता है।भगवदीय का संग अति दुर्लभ है। केवल ग्रंथो को पान करने से ज्ञान जरूर से प्राप्त होगा, पर भक्ति का उदय नहीं होगा। जब तब किसी भगवदीय का संग प्राप्त नहीं होता तब तक भगवद् भाव स्फुरित नहीं होता, और संग प्राप्त होते ही भक्ति का उदय होता है। किसी दिये से हम एक और दिया प्रगटाये तो पहले दिये की ज्योत कम नहीं होती, परंतु दूसरा दिया भी उतनी ही ज्योत देगा। और भगवदीय भी वही जो यह भावना रखे की यह मेरे संग मे आया है, तो भक्तिके पंथ मे मुझसे भी आगे कैसे निकले। भाव देख कर प्रसन्न हो, ना की उसकी इर्षा करे।
ऐसे भवदीय का संग करना की 'जिनके संग प्रताप से होत श्याम सो  रंग ।
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जो अति सरल है, उसी के हृदय में प्रभु का प्रवेश होता है l जैसा मन में हो वैसा ही बोलो l मन ,वाणी और क्रिया में एक बनो l भगवान का श्री मुख वाक्य है -

    *मोहि कपट छल छिद्र न भावा*


कपट करने से , दम्भ करने से हृदय कुटिल होता है l जो हृदय कुटिल है उस हृदय में प्रभु का प्रवेश नहीं होता l सरल हृदय में रमण करना ही प्रभु को सुहाता है l


जिसका हृदय सरल है उसको कभी दूसरों के दोष नहीं दिखाई देते और कदाचित दीखे भी तो उसे घृणा नहीं होती l सरल हृदय जीव किसी का तिरस्कार नहीं करता l हम सबको भी सरल हृदय बनने का प्रयास करना चाहिए l
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*संगत का असर*
एक बार एक राजा शिकार के उद्देश्य से अपने काफिले के साथ किसी जंगल से गुजर रहा था। दूर-दूर तक शिकार नजर नहीं आ रहा था। वे धीरे-धीरे घनघोर जंगल में प्रवेश कर गए। अभी कुछ ही दूर गए थे कि उन्हें कुछ डाकुओं के छिपने की जगह दिखाई दी। जैसे ही वे उसके पास पहुंचे कि पास के पेड़ पर बैठा तोता बोल पड़ा, ‘‘पकड़ो-पकड़ो एक राजा आ रहा है, इसके पास बहुत सारा सामान है। लूटो-लूटो जल्दी आओ, जल्दी आओ।’’
तोते की आवाज सुन कर सभी डाकू राजा की ओर दौड़ पड़े। डाकुओं को अपनी ओर आते देख कर राजा और उसके सैनिक भाग खड़े हुए और कोसों दूर निकल गए। सामने एक बड़ा-सा पेड़ दिखाई दिया। कुछ देर सुस्ताने के लिए वे उस पेड़ के पास चले गए। जैसे ही पेड़ के पास पहुंचे कि उस पेड़ पर बैठा तोता बोल पड़ा, ‘‘आओ राजन, हमारे साधु-महात्मा की कुटी में आपका स्वागत है। अंदर आइए पानी पीजिए और विश्राम कर लीजिए।’’
तोते की इस बात को सुनकर राजा हैरत में पड़ गया और सोचने लगा कि एक ही जाति के दो प्राणियों का व्यवहार इतना अलग-अलग कैसे हो सकता है। राजा को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह तोते की बात मानकर अंदर साधु की कुटिया की ओर चला गया। साधु-महात्मा को प्रणाम कर उनके समीप बैठ गया और अपनी सारी कहानी सुनाई और फिर धीरे से पूछा, ‘‘ऋषिवर इन दोनों तोतों के व्यवहार में आखिर इतना अंतर क्यों है?’’
साधु-महात्मा ने धैर्य से सारी बात सुनी और बोले, ‘‘यह कुछ नहीं राजन, संगति का असर है। डाकुओं के साथ रह कर तोता भी डाकुओं की तरह व्यवहार करने लगा है और उनकी ही भाषा बोलने लगा है अर्थात जो जिस वातावरण में रहता है वह वैसा ही बन जाता है।’’
शिक्षा: मूर्ख भी विद्वानों के साथ रह कर विद्वान बन जाता है और अगर विद्वान भी मूर्खों की संगत में रहता है तो उसके अंदर भी मूर्खता आ जाती है। इसलिए हमें संगति सोच-समझकर करनी चाहिए।

जय श्री राधे कृष्ण 🙏🏻: *"जगतगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से"*

*जब तक हम जीवित हैं तब तक कोई अपने को मनुष्य कहता है, कोई रामदेव कहता है, और जब मर जाता है कोई, तो क्या कहता है? रामदेव चला गया। और उसका शरीर है ? हाँ!... सब इन्द्रियाँ भी हैं ? हाँ!... दिख तो रहा है। फिर कौन चला गया ? वो चेतन चला गया, जड़ पड़ा है। इसका मतलब हम दो हैं । एक चेतन हम, एक जड़ हम। यानि शरीर जड़ है, इसमें कोई चेतन है! जब तक वो था! तो शरीर भी चेतन था, और वो तो था ही और जब वो चला गया, तो शरीर जड़ हो गया, माने अपने ओरिजिनल (original) रूप में आ गया । शरीर ने ये हमको ज्ञान कराया कि देखो तुमने अब तक हमको चेतन माना था मूर्खराज मै जड़ हूं। सबसे बडा मूर्ख वो हे जो अपने को देह मानता है । ये देखते हुए आंख से अंधा है । रोज लोग मर रहे हैं, चेतन निकल रहा है और जड़ पड़ा है। फिर भी ज्ञान नहीं, और अपने को देह मान रहा है। बाकि जो बचे हुए लोग। देह के बाप को बाप, देह के माँ को माँ, देह के बेटा-बेटी को अपना बेटा-बेटी, और ये बाहर के मकान, प्रोपर्टी को अपनी प्रोपर्टी। ये सब मान रहा है। क्या प्रमाण ? उसके छिन जाने से रोता है । क्यों रो रहे हो ? मेरा चला गया आज, मेरा बाप, मेरी मां, मेरा बेटा, मेरा पति । ये तुम्हारा है ? तुम शरीर हो क्या ?  और क्या हूं?.... अच्छा-अच्छा, बहुत समझदार हो।*
*तो हम लोग इतने बड़े मूर्ख हैं कि दिन-रात देखते हुए भी अपने को देह मानते हैं। जब कि फैक्ट (fact) देह जड़ है, इसमें एक चेतन आया है उसको जीव कहते हैं। जीव माने जो स्वयं जीवित रहे और दूसरों को भी जीवित रखे। ये जीव स्वयं भी जीवित है और शरीर में जब तक हैं, शरीर को भी जीवित किये है, और जीव जब गया तो शरीर भी अचेतन हो गया। जड़ हो गया, सड़ गया। और ये बात मान लिया हम लोगों ने।*
*ये भी कमाल देखो। क्या लोग कहते हैं, कालीदास एक मूर्ख थे। हम तो उनसे हजार गुणा बड़े मूर्ख हैं। गधे कि अक्ल से समझो! एक कमरा है, उसमें अंधेरा है, हमने बाहर से दीपक जला कर के कमरे में रख दिया, तो दीपक स्वयं प्रकाश है और उसने कमरे में भी प्रकाश कर दिया। दीपक को हमने दूसरे कमरे में ले जा के रख दिया तो। तो कमरे में अंधेरा हो गया। ऐसे ही ये जीव है बाहर से माँ की पेट में आया। आया और फिर चला गया। क्यों जी? जो चला गया, यानि मर गया, शरीर छोड़ गया यूं कहो, वो मैं है। नहीं वो भी मैं नहीं है। क्यों ? इसलिए, जब ये जीव जाता है बाहर तो अकेले नहीं जाता अपने साथ इन्द्रिय, मन-बुद्धि शरीर ले के जाता है। अभी आप लोग एक प्रश्न करेंगे कि आप तो कह रहे थे शरीर यहां पड़ा है , इन्द्रिय यहीं पड़ी हैं। आपका दिमाग तो नॉर्मल चल रहा है ? जी हां! इसका उत्तर सुनिये।* 
*एक सूक्ष्म शरीर होता है, तीन शरीर होते हैं हम लोगों के।*
*इसका नाम स्थूल शरीर, और एक होता है सूक्ष्म शरीर, और एक होता है कारण शरीर। तो सूक्ष्म शरीर पहले मिल जाता है जीव को, उसमें इन्द्रियां भी होती है, मन भी होता है, बुद्धि भी होती है । आप लोग ये सुनकर तुरंत कहेंगे कि कुछ जम नहीं रहा है आप जो बोल रहे हैं। अच्छा मैं अभी जमाता हूं। आप लोग सोते हैं ? हां!... तो आप लोग सपना देखते हैं ? हां!...  तो आप लोग जब सपना देखते हैं, तो आपका शरीर और इन्द्रियां सब पलंग पे रहता है न ? हां...लेकिन आप पलंग से उठ के जाते हैं इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा, आसमान में पाताल में ? हां जाते हैं। कैसे जाते हैं ? देखते भी हैं आप सपने में ? हां जी बिल्कुल ऐसे ही जैसे जाग्रत अवस्था में देख रहे हैं सुनते भी हैं ? हां! हां! रसगुल्ला भी खाते होंगे कभी-कभी ? और कभी मार भी खाते होंगे ? अरे! बड़ी मार खाते हैं और कभी-कभी मर भी जाते हैं सपने में हां...जी सबकुछ। तो वो इन्द्रियां कहां से लाया ? वो मन कहां गया ? और कहां-कहां पहुंचा और शरीर आपका यहीं है, आप मरे नहीं हैं। सांस चल रहा है, जरा सा किसने हिला दिया, हां! क्यों जगाया।*
*हां!... तो इसलिए जब हम शरीर छोड़ते हैं तो हमारे साथ शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि  साथ जाते हैं । इसलिए केवल मैं वो नहीं है। फिर कौन है वो? महाप्रलय जब होता है तो महाप्रलय में सूक्ष्म शरीर भी नहीं जाता। क्योंकि सूक्ष्म शरीर प्रकृति का सामान है, माया का है। ये मन, इन्द्रियां सब माया के बने हैं। तो भगवान के राज्य में माया नहीं जा सकती । माया का साम्राज्य ब्रह्मांड के अंतर्गत है। भगवान के लोक, माया नहीं जा सकती, सामने नहीं खड़ी हो सकती। वो जो कारणार्णव में भगवान के महोदर में केवल जीव अपने संस्कारों को लेकर  जाता है, रहता है, पेडिंग (pending) में पड़ा रहता है, महाप्रलय में। वहां सूक्ष्म शरीर मन-बुद्धि कोई नहीं जाते। तो वो कारणार्णव में भगवान के महोदर में जीव गया महाप्रलय में वो है मै! बाकि जो सूक्ष्म शरीर युक्त इँद्रिय मन-बुद्धि, अथवा स्थूल शरीर युक्त इँद्रिय मन-बुद्धि ये सब मैं नहीं। ये मैं से युक्त हैं, केवल मैं नहीं है। तो मैं नाम का तत्व क्या है एक तो मोटी अक्ल से समझ लो। जो मेरा न हो वो मैं । मेरा ! ये मेरा मकान है, लिखा-पढ़ी है अच्छा-अच्छा ! तुम तो मकान नहीं हो ? अरे ! मैं कैसे मकान हो सकता हूं। ये मेरा शरीर है, अच्छा-अच्छा, तुम शरीर नहीं हो ? अरे! ये मेरा है तो फिर मैं कैसे हो जाऊंगा। मेरा मन नहीं लगता, हां!...मन तुम्हारा है तुम मन नहीं हो सकते। मेरी बुद्धि काम नहीं करती। ये जहां-जहां तुम मेरा लगा रहे हो वो मैं नहीं हो सकता क्योंकि वो सम्बन्ध कारक है। वो मैं का है, मैं का को मेरा कहते हो। मैं का ये, मैं से भिन्न वस्तु है। जहां तक तुम मेरा-मेरा बोलते हो वहां तक तुम मैं नहीं हो सकते। जब सब मेरा खत्म हो जाए, वो तुम हो मैं॥*

 *समझ-समझ कर श्याम को समझ सके नहीं कोई।*
*समझ मिली जब श्याम की, समझ सके बस सोई ॥* 

 *भक्तियोग रसावतार*
 *जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय*  
🙌🙇🙏🙌🙇🙏🙌
 *🌸 "प्रतिकुलता में प्रसन्नता" 🌸💐👏🏻*

       प्रहलाद की माँ को विष का प्याला देकर हिरणयकशिपू प्रहलाद के पास भेजता है कि प्रहलाद को विष देकर मार दे, वह मेरे शत्रु से प्रेम करता है। प्रहलाद की माँ प्रहलाद के पास जाती है, रोने लगती है कि आज मेरे पुत्र को विष पिलाना पड़ रहा है। प्रहलाद माता की भय-शोकपूर्ण मुद्रा देखकर पिता की करनी को समझ गया। माता से कहा- माँ तू जरा भी भय मत कर। पिताजी ने मेरे लिये जो आदेश दिया है उसका पालन करना चाहिये। प्रहलाद उस विष को पी गये। वह विष भी उनके लिये अमृत बन गया। भक्तिरस में पगी मीराजी के पास राणाजी ने विष का प्याला भेजा। मीरा उस विष को पी गयी। विष भी मीरा के लिये अमृत बन गया। यह भक्ति की महिमा है। जिसको मन की प्रतिकूलता में दुःख या क्रोध आता है, वह भगवान् का भक्त नहीं हो सकता। भगवान् के भक्त की पहचान यही है कि उसका मन की प्रतिकूलता में, काम, क्रोध, लोभ, दुःख, चिन्ता, भय शोक आदि की कठिन परिस्थिति में सर्वदा समभाव रहता है। उसको दुःख, चिन्ता, क्रोध ईर्ष्या आदि कुछ भी नहीं हो सकते। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीतामें अपने भक्तके लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं:-
    "जिससे किसी भी प्राणी को उद्वेग नहीं होता, जिसको किसी भी प्राणी के प्रति उद्वेग नहीं होता, ऐसा हर्ष-अमर्ष, भय उद्वेग से जो रहित है वह भगवान् का भक्त है, भगवान् को प्यारा है। भगवान् ने भक्त के ये लक्षण बतलाये। जिसमे ईर्ष्या, द्वेष एवं भय, उद्वेगादि विद्यमान हैं, वह भगवान् का भक्त नहीं है। वह किसका भक्त है। वह तो माया का भक्त यानी माया का दास है। उसको भगवान् का दास नहीं समझना चाहिये। जब तक मन के प्रतिकूल की प्राप्ति में ईर्ष्या, भय, दुःख, द्वेष, उद्वेग, चिन्ता, द्वेषबुद्धि आदि का भाव पैदा हो जाता है, तब तक वह भगवान् का भक्त नहीं कहला सकता। जो भी कुछ होता है वह सब कुछ भगवान् की इच्छा से होता है। इस प्रकार मान लेने पर, भय, शोक, क्रोध, चिन्ता एवं द्वेषभाव भक्त के निकट भी नहीं आ सकते। इस बात को आप अपने विषय में घटा लीजिये।"

"जय जय श्री राधे"🙏🏻💫
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  वैदिक मंत्र से धातु उत्पादन शक्ति
क्या आप जानते है

 आयुर्वेद में वर्णित है स्वर्ण (सोना) बनाने की कला ?

आयुर्वेद, सोना बनाने की विधि, 

भारत को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था ! भारत पर लगभग 1200 वर्षों तक मुग़ल, फ़्रांसिसी, डच, पुर्तगाली, अंग्रेज और यूरोप एशिया के कई देशों ने शासन किया एवं इस दौरान भारत से लगभग 30 हजार लाख टन सोना भी लूटा ! यदि यह कहा जाए कि आज सम्पूर्ण विश्व में जो स्वर्ण आधारित सम्रद्धि दिखाई दे रही है वह भारत से लुटे हुए सोने पर ही टिकी हुई है तो गलत न होगा ! यह एक बड़ा रहस्यमय सवाल है कि आदिकाल से मध्यकाल तक जब भारत में एक भी सोने की खान नहीं हुआ करती थी तब भी भारत में इतना सोना आता कहाँ से था ?
शास्त्रों से 
सबसे रहस्यमय प्रश्न यह है कि आखिर भारत में इतना स्वर्ण आया कहाँ से ? इसका एकमात्र जवाब यह है कि भारत के अन्दर हमारे ऋषि मुनियों ने जो आयुर्वेद विकसित किया उसमे औषधिय उपचार के लिए स्वर्ण भस्म आदि बनाने के लिए वनस्पतियों द्वारा स्वर्ण बनाने की विद्या विकसित की थी ! 
आयुर्वेद में स्वर्ण बनाने की विधि 

पवित्र हिन्दू धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद पर ही पूरे विश्व का सम्पूर्ण विज्ञान आधारित है ! ऋग्वेद के उपवेद आयुर्वेद में स्वर्ण बनाने की विधि बताई गयी है ! राक्षस दैत्य दानवों के गुरु जिन्हें शुक्राचार्य के नाम से भी संबोधित किया जाता है उन्होंने ऋग्वेदीय उपनिषद की सूक्त के माध्यम से स्वर्ण बनाने की विधि बतायी है ! श्री सूक्त के मंत्र व प्रयोग बहुत गुप्त व सांकेतिक भाषा में बताया गया है ! 
सम्पूर्ण सूक्त में 16 मंत्र है !

श्रीसूक्त का पहला मंत्र

ॐ हिरण्य्वर्णां हरिणीं सुवर्णस्त्र्जां।
चंद्रां हिरण्यमणीं लक्ष्मीं जातवेदो मआव॥

शब्दार्थ – हिरण्य्वर्णां- कूटज, हरिणीं- मजीठ, स्त्रजाम- सत्यानाशी के बीज, चंद्रा- नीला थोथा, हिरण्यमणीं- गंधक, जातवेदो- पाराम, आवह- ताम्रपात्र.

श्रीसूक्त का दूसरा मंत्र

➡तां मआवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीं।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहं॥
शब्दार्थ – तां- उसमें, पगामिनीं- अग्नि, गामश्वं- जल, पुरुषानहं- बीस.

श्रीसूक्त का तीसरा मंत्र

अश्व पूर्णां रथ मध्यां हस्तिनाद प्रमोदिनीं।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीजुषातम॥
शब्दार्थ – अश्वपूर्णां- सुनहरी परत, रथमध्यां- पानी के ऊपर, हस्तिनाद- हाथी के गर्दन से निकलने वाली गंध, प्रमोदिनीं- नीबू का रस, श्रियं- सोना, देवी- लक्ष्मी, पह्वये- समृद्धि, जुषातम- प्रसन्नता.

(विशेष सावधानियां - इस विधि को करने से पहले पूरी तरह समझ लना आवश्यक है ! इसे किसी योग्य वैद्याचार्य की देख रेख में ही करना चाहिए ! स्वर्ण बनाने की प्रक्रिया के दौरान हानिकारक गैसें निकलती है जिससे असाध्य रोग होना संभव है अतः कर्ता को अत्यंत सावधान रहना आवश्यक है !)

एक दिन में 100 किलो सोना बनाते थे 

महान रसायन आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन 

नागार्जुन का जन्म सन 931 में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था ! नागार्जुन एक प्रसिद्द रसायनज्ञ थे ! 
उनके बारे में लोगों में यह विश्वास था कि वह ईश्वर के सन्देशवाहक है ! नागार्जुन ने रस रत्नाकर नामक पुस्तक लिखी ! इस पुस्तक की ख़ास बात यह है कि नागार्जुन ने यह पुस्तक उनके और देवताओं के बीच बातचीत की शैली में लिखी थी ! इस पुस्तक में रस (पारे के यौगिक) बनाने के प्रयोग दिए गए है !
 इस पुस्तक में देश में धातु कर्म और कीमियागिरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था ! इस पुस्तक में सोना, चांदी, टिन और ताम्बे की कच्ची धातु निकालने और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए है !

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं, वनस्पति तत्वों, अम्ल और खनिजों का भी उपयोग किया !
 पुस्तक में विस्तार पूर्वक दिया गया है कि अन्य धातुएं सोने में कैसे बदल सकती है ! यदि सोना न भी बने तो रसागम विशमन द्वारा ऐसी धातुएं बनायी जा सकती है जिनकी पीली चमक सोने जैसी ही होती है ! 

नागार्जुन ने "सुश्रुत संहिता" के पूरक के रूप में "उत्तर तंत्र" नामक पुस्तक भी लिखी ! इसके अलावा उन्होंने कक्षपूत तंत्र, योगसर एवं गोपाष्टक पुस्तकें भी लिखी !
कहा जाता है कि नागार्जुन एक दिन में 100 किलो सोना बनाया करते थे और उनको सोना बनाने में इस स्तर की महारत थी कि वह वनस्पतियों के अलावा अन्य पदार्थों तक से सोना बना देते थे ! लेकिन दुर्भाग्य है कि मूर्ख मुग़ल लुटेरों ने तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के रहस्यपूर्ण ग्रंथों को जला दिया !
These things need research 

हिन्दूधर्मका_इतिहास

हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। उसके बाद इसे लिपिबद्ध करने का काल भी बहुत लंबा रहा है। हिन्दू धर्म के सर्वपूज्य ग्रन्थ हैं वेद। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ 2000 ई.पू. से माना है। यानि यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद जि‍से वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया। वहीं एक अन्य मान्यता अनुसार कृष्ण के समय में वेद व्यास ने वेदों का विभाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया था।

हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो ४५०० ई.पू. मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे। आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म दो हजार ई.पू., बौद्ध धर्म पाँच सौ ई.पू., ईसाई धर्म सिर्फ दो हजार वर्ष पूर्व, इस्लाम धर्म आज से १४०० वर्ष पूर्व हुआ।

धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और भी धारणाएँ हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों में सूर्य और चंद्रवंशी राजाओं की वंश परम्परा का उल्लेख उपलब्ध है। इसके अलावा भी अनेक वंशों की उत्पति और परम्परा का वर्णन आता है। उक्त सभी को इतिहास सम्मत क्रमबद्ध लिखना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि पुराणों में उक्त इतिहास को अलग-अलग तरह से व्यक्त किया गया है जिसके कारण इसके सूत्रों में बिखराव और भ्रम निर्मित जान पड़ता है, फिर भी धर्म के ज्ञाताओं के लिए यह भ्रम नहीं है।

असल में हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रृंगारिक होता गया जिसे आधुनिक लोग इतिहास मानने को तैयार नहीं हैं। वह समय ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर।

हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ें तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: १४ मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वयंभू मनु था और प्रथम ‍स्त्री सतरुपा थी महाभारत में आठ मनुओं का उल्लेख है। इस वक्त धरती पर आठवें मनु वैवस्वत की ही संतानें हैं। आठवें मनु वैवस्वत के काल में ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ था।

पुराणों में हिंदू इतिहास का आरंभ सृष्टि उत्पत्ति से ही माना जाता है। ऐसा कहना कि यहाँ से शुरुआत हुई यह ‍शायद उचित न होगा फिर भी हिंदू इतिहास ग्रंथ महाभारत और पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का उल्लेख मिलता है।

इतिहास

हिन्दू धर्म लगभग 5000 साल से व्यवस्थित विकसित हुआ है और सात चरणों के रूप में देखा जा सकता है कि दूरबीन एक-दूसरे में है। कुछ हिंदुत्व के अधिवक्ताओं का मानना होगा कि 12,000 साल पहले हिमयुग के अंत तक हिंदू धर्म को अपने संपूर्ण रूप में ऋषियों के लिए प्रकट किया गया था। हिंदुत्व के इतिहास में, पौराणिक कथाएं सिर्फ समय-समय पर इतिहास है, इतिहासकार गणना नहीं कर सकते या नहीं। हाल के दिनों में, हिंदू धर्म को “खुला स्रोत धर्म” के रूप में वर्णित किया गया है, अनोखा है कि इसमें कोई परिभाषित संस्थापक या सिद्धांत नहीं है, और ऐतिहासिक और भौगोलिक वास्तविकताओं के जवाब में इसके विचार लगातार विकसित होते हैं। यह कई सहायक नदियों और शाखाओं के साथ एक नदी के रूप में सबसे अच्छा वर्णित है, हिंदुत्व शाखाओं में से एक है, और वर्तमान में बहुत शक्तिशाली है, कई लोग स्वयं को नदी के रूप में मानते हैं।

पहला_चरण

लगभग 5000 साल पहले, कांस्य युग में, जिसे अब हड़प्पा सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाता है, जो ईंट शहरों की विशेषता है, जो लगभग एक हजार वर्षों से सिंधु नदी घाटी के विशाल क्षेत्र में गंगा के ऊपर तक पहुंचे। समतल इन शहरों में, हम उन चित्रों के साथ मिट्टी की जवानों को खोजते हैं जो वर्तमान हिंदू प्रकृति की बहुत अधिक हिस्सा हैं जैसे पाइपल वृक्ष, बैल, स्वस्तिका, सात दासी, और एक आदमी जो योग मुद्रा में बैठा है। हम इस चरण के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते क्योंकि भाषा को समझने के लिए बना रहता है।

दूसरा_चरण

3,500 साल पहले, लौह युग में, वैदिक भजनों और अनुष्ठानों से पता चला जा सकता है जिसमें हड़प्पा के विचारों के निशान होते हैं, लेकिन एक स्थाई शहरी जीवन शैली की बजाय एक खानाबदोश और ग्रामीण जीवन शैली के लिए डिजाइन किया गया है। कुछ हिंदुत्व के अधिवक्ताओं पूरी तरह असहमत हैं और जोर देते हैं कि दो चरणों वास्तव में एक हैं। इस चरण में, हमें एक विश्वदृष्टि मिलती है जो भौतिक दुनिया का जश्न मनाती है, जहां ईश्वरों को अनुष्ठानों के साथ पेश किया जाता है, और स्वास्थ्य और धन, समृद्धि और शांति प्रदान करने को कहा जाता है। देवताओं को आमंत्रित करने और उनसे अनुग्रह प्राप्त करने का यह पहलू आज भी जारी है, हालांकि ये रस्में अलग-अलग हैं। वेदों ने सिंधु (अब पंजाब) से अपर गंगा (अब आगरा और वाराणसी) और निचले गंगा (अब पटना) मैदानों में एक क्रमिक फैलाव प्रकट किया है। कुछ हिंदुत्व विद्वान इस तरह के भौगोलिक फैलाव का खंडन करते हैं और उपमहाद्वीप पर जोर देते हैं कि प्राचीन समय से पूरी तरह से विकसित, समरूप, शहरी वैदिक संस्कृति, प्लास्टिक की सर्जरी और यहां तक ​​कि हवाई जहाज जैसे उन्नत प्रौद्योगिकी के लिए।

तीसरा_चरण

तीसरे चरण में 2,500 साल पहले उपनिषद के रूप में जाना जाता ग्रंथों के साथ, जहां अनुष्ठानों की तुलना में आत्मनिरीक्षण और ध्यान पर अधिक महत्व दिया गया था, और हम पुनर्जन्म, मठवाद, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति जैसे विचारों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। इस चरण में बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे शमन (मठवासी) परंपराओं का उदय देखा गया, इसके अनुयायियों ने पाली और प्राकृत में बात की और वेदिक रूप और वैदिक भाषा, संस्कृत का भी खारिज कर दिया। इसमें ब्राह्मण पुजारियों ने भी धर्म-शास्त्रों की रचना के माध्यम से वैदिक विचारों को पुनर्गठित किया, किताबें जो कि शादी के माध्यम से सामाजिक जीवन को विनियमित करने और पारित होने के अनुष्ठान पर ध्यान केंद्रित करती हैं, और लोगों के दायित्वों को उनके पूर्वजों, उनकी जाति और विश्व पर निर्भर करता है। विशाल। कई शिक्षाविद वैदिक विचारों के इस संगठन का वर्णन करने के लिए ब्राह्मणवाद का प्रयोग करते हैं और इसे एक मूल रूप से पितृसत्तात्मक और मागासीवादी बल के रूप में देखते हैं जो समतावादी और शांतिवादी मठों के आदेशों के साथ हिंसक रूप से प्रतिस्पर्धा करते हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म, वैदिक प्रथाओं और विश्वासों के साथ, उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक फैल गया, और अंततः उपमहाद्वीप से मध्य एशिया तक और दक्षिण पूर्व एशिया तक फैल गया। दक्षिण में, तमिल संगम संस्कृति का सामना करना पड़ता था, उस जानकारी के बारे में जो प्रारंभिक कविताओं के संग्रह से आते हैं, जो वैदिक अनुष्ठानों के कुछ ज्ञान और बौद्ध धर्म और जैन धर्म के ज्ञान के साथ बाद में महाकाव्यों का पता चलता है। कुछ हिंदुत्व विद्वानों का कहना है कि कोई अलग तमिल संगम संस्कृति नहीं थी। यह पूरी तरह से विकसित, समरूप, शहरी वैदिक संस्कृति का हिस्सा था, जहां सभी ने संस्कृत को बोला था।

चौथा_चरण

चौथे चरण में 2,000 साल पहले शुरू हुए रामायण, महाभारत और पुराण जैसे लेखों का उदय हुआ, जहां कहानियों को घरेलू और विश्व सम्बन्धों की विश्वदृष्टि का समाधान करने के लिए उपयोग किया जाता है और अब परिचित हिंदू विश्वदृष्टि का निर्माण किया जाता है। हमें एक पूरी तरह से विकसित पौराणिक कथाओं के लिए पेश किया जाता है जहां विश्व की कोई शुरुआत नहीं है (अंतदी) या अंत (अनंत), कई आकाश और कई हेल्लो के साथ, क्रिया और प्रतिक्रिया (कर्म) द्वारा नियंत्रित, जहां सभी समाज जन्म और मृत्यु के चक्रों के माध्यम से जाते हैं, बस सभी जीवित प्राणियों की तरह इस चरण में मंदिरों और मंदिर अनुष्ठानों का उदय हुआ। हम मठवासी वेदांतिक आदेशों का उदय भी देखते हैं जो शरीर और सबकुछ संवेदनात्मक, साथ ही जाप तन्त्रिक आदेशों से शरीर को भ्रष्ट करते हैं और शरीर और सभी चीजों की खोज करते हैं। हम पुराने निगामा परम्परा के मिंगलिंग भी देख सकते हैं, जहां दिव्यता को नए अग्मा परम्पारा के साथ निराकार माना जाता है, जहां परमात्मा शिव और उसके पुत्रों, विष्णु और उनके अवतार, और देवी और उसके कई रूपों का रूप लेते हैं। नए आदेशों और परंपराओं के उभरने के साथ, हम जाति प्रणाली (या जाति, एक यूरोपीय शब्द) के समेकन को भी देखते हैं, जो व्यवसायों के आधार पर समुदाय समूह नहीं है, जो अंतरिमारी न होने से खुद को अलग करता है। कई शिक्षाविदों ने जाति को हिंदू धर्म की एक आवश्यक विशेषता के रूप में देखा है जो उच्च जातियों के पक्ष में है, जिस पर आरोप है कि हिंदुत्व अस्वीकार करते हैं। कई हिंदुत्व के विद्वानों का कहना है कि जाति के पास एक वैज्ञानिक और तर्कसंगत आधार है, और उसके पास राजनीति या अर्थशास्त्र के साथ कुछ भी नहीं है।

पांचवां_चरण

पांचवां चरण 1,000 वर्ष पुराना है, और यह एक सिद्धांत के रूप में भक्ति का उदय देखा, जहां भक्त भावुक गीतों के माध्यम से देवताओं से जुड़े हुए हैं, जो क्षेत्रीय भाषाओं में बना है, अक्सर मंदिर प्रणाली को दरकिनार करते हैं। यह वह समय था जब एक कठोर जाति के पदानुक्रम ने खुद को दृढ़तापूर्वक लगाया था, जो पवित्रता के सिद्धांत पर आधारित थी और कुछ जातियों को अशुभ और अयोग्य रूप में देखा जा रहा था। उन्हें भी समुदाय से अच्छी तरह से वंचित नहीं किया जा सकता है यह भी वह समय है जब इस्लाम भारत में प्रवेश करता है, शांतिपूर्वक समुद्र के व्यापारियों के माध्यम से दक्षिण में और मध्य एशियाई सरदारों के माध्यम से हिंसक रूप से उत्तर में जाता है, जो बौद्ध मठों और हिंदू मंदिरों को नष्ट करते हैं, जो राजनीतिक सत्ता के केंद्र भी होते हैं और अंततः उनके शासन की स्थापना करते हैं, अक्सर हिंदू राजाओं जैसे उत्तर में राजपूत, पूरब में अहोम्स, मराठों और दक्कन में विजयनगर साम्राज्य का विरोध करते थे। हिंदुत्व ने इस्लाम के आगमन और दिल्ली और डेक्कानी सल्तनतों के उत्थान को देखते हुए, बाद में मुगल शासन को महान हिंदू संस्कृति के अंत के रूप में चिह्नित किया, यह एक विषय है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने पागल सांप्रदायिक प्रचार किया है। बाद में केवल हिंदू-इस्लामी सहयोग को उजागर किया गया, जो अन्य चरम पर जा रहा है, गैर-मार्क्सवादी इतिहासकारों का तर्क है

छठी_चरण

छठे चरण 300 वर्ष का है जब हिंदू धर्म उपमहाद्वीप में यूरोपीय शक्ति के उदय को उत्तर देते हैं, और ईसाई मिशनरियों के परिणामस्वरूप आगमन और तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्यान। कुछ हिंदुत्व विद्वान, दोनों के बीच अंतर नहीं करते हैं। इस युग में यूरोपीय विद्वानों ने वैज्ञानिक विधियों और जूदेव-ईसाई लेंस दोनों का उपयोग करके हिंदू धर्म की भावना बनाने की कोशिश की। उनके लिए, एकेश्वरवाद सच्चा धर्म और वैज्ञानिक था; बहुदेववाद मूर्तिपूजक पौराणिक कथाओं था उन्होंने हिंदू जीवन शैली के अनुवाद और दस्तावेजीकरण का एक विशाल अभ्यास शुरू किया। उन्होंने एक पवित्र किताब, एक नबी, और अधिक महत्वपूर्ण बात, एक उद्देश्य की तलाश की। आखिरकार, जटिलता को व्यवस्थित करने के लिए, उन्होंने हिंदू धर्म को ब्राह्मणवाद के रूप में परिभाषित करना शुरू किया, यह बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म से भिन्न था। यह ओरिएंटलिस्ट ढांचा विद्यालयों, कॉलेजों और मीडिया के माध्यम से पूर्वी धर्मों की वैश्विक समझ को सूचित करता रहा है।

एक तरल मौखिक संस्कृति को 1 9वीं शताब्दी तक तय किया गया था। पश्चिमी तरीकों से पढ़े हुए हिंदुओं ने अपने रिवाज़ और विश्वासों के बारे में पूछे जाने पर उन्हें शर्म की बात और शर्मिंदगी का गहरा असर महसूस किया। कुछ ने औपनिवेशिक देखने के लिए हिंदुत्व को सुधारने का फैसला किया। दूसरों ने हिंदू धर्म के “सच्चे सार” की खोज करने और “बाद में भ्रष्ट” प्रथाओं को खारिज कर दिया। फिर भी दूसरों ने हिंदू धर्म को ही खारिज कर दिया और सभी धर्मों को एक अंधेरे खतरनाक बल के रूप में देखा, जो तर्कसंगतता और वैज्ञानिक रूप से बदल दिया गया। यह इस चरण में है कि हिंदुत्व एक जवाबी शक्ति के रूप में उभरे जो कि उन्होंने यूरोपियन में हिंदुओं की सभी चीजों के अविनाशी और अनुचित मजाक के रूप में देखा और बाद में अमेरिकी और भारतीय विश्वविद्यालयों में चुनौती दी। हिंदुत्व ने मार्क्सवाद और अन्य सभी पश्चिमी प्रवचनों को ईसाई प्रवचन के एक और रूप के रूप में देखा, जो पिछले शताब्दियों में इस्लाम ने मध्य और दक्षिण पूर्व एशिया में जो किया था, वह हिंदू जीवन शैली के सभी निशानों को मिटा देने की मांग कर रहा था।

सातवें_चरण

सातवीं चरण, आजादी के बाद, इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता, भले ही यह केवल पिछले 70 वर्षों तक फैला हो, क्योंकि यह धार्मिक आधार पर हिंसक और रक्त-लथपथ विभाजन से शुरू होता है और मुसलमानों के लिए पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान का निर्माण। क्या यह भारत को मूल रूप से एक हिंदू राज्य बना देता है? या क्या यह “भारत के विचार” को प्रेरित करता है जहां सभी लोगों को समान सम्मान मिलता है, चाहे धर्म और जाति का? अलग-अलग लोग अलग-अलग जवाब देंगे। हिंदुत्व ने अल्पसंख्यक अनुशासनात्मकता के रूप में धर्मनिरपेक्षता को देखा, विशिष्ट जातियों के प्रतिवाद के रूप में सकारात्मक भेदभाव को देखते हुए समाजवाद सिर्फ क्रोधित पूंजीवाद, सामाजिक न्याय के सिद्धांतों और पारंपरिक हिंदू परिवार के मूल्यों की धमकी देकर लैंगिक समानता का निर्माण, और समान नागरिक संहिता की अनुपस्थिति के रूप में भारत को विभाजित करने का एक और तरीका। कई बुद्धिजीवियों ने जब उनका तर्क दिया कि हिंदू धर्म और भारत जैसी अवधारणाएं ब्रिटिश की रचना थीं, तो कोई वास्तविक प्राचीन जड़ों के साथ, आम जनता की आस्था को कल्पित कल्पनाओं के विपरीत के रूप में अस्वीकार कर दिया गया था। यह बदतर हो गया जब दुनिया भर के शिक्षाविदों ने जातिवाद के साथ हिंदू धर्म को समझाते हुए इस्लाम को आतंकवाद से जुड़ा, या आतंकवादी मिशनरी गतिविधि के साथ ईसाई धर्म से इनकार कर दिया। बहुत से लोगों ने मार्क्सवाद, उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को बहुसंख्य भारतीयों में विफल कर दिया, जिनमें से ज्यादातर गरीबी गरीबी में रह रहे हैं। उचित या नहीं, पीड़ित महसूस हुआ कि हिंदुत्व को आक्रामक रूप से मर्दाना रुख के बावजूद एक मौका देने का समय था, खासकर जब से यह विकास की भाषा, और आकांक्षाओं की बात करता था
: मैहर देवी का मंदिर: ये है माँ शारदा का इकलौता मंदिर, यहाँ आज भी आते हैं आल्हा और उदल
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कहते हैं मां हमेशा ऊंचे स्थानों पर विराजमान होती हैं। उत्तर में जैसे लोग मां दुर्गा के दर्शन के लिए पहाड़ों को पार करते हुए वैष्णो देवी तक पहुंचते हैं। ठीक उसी तरह मध्य प्रदेश के सतना जिले में भी 1063 सीढ़ियां लांघ कर माता के दर्शन करने जाते हैं।

सतना जिले की मैहर तहसील के पास त्रिकूट पर्वत पर स्थित माता के इस मंदिर को मैहर देवी का मंदिर कहा जाता है। मैहर का मतलब है मां का हार। मैहर नगरी से 5 किलोमीटर दूर त्रिकूट पर्वत पर माता शारदा देवी का वास है।

पर्वत की चोटी के मध्य में ही शारदा माता का मंदिर है। पूरे भारत में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है। इसी पर्वत की चोटी पर माता के साथ ही श्री काल भैरवी, भगवान, हनुमान जी, देवी काली, दुर्गा, श्री गौरी शंकर, शेष नाग, फूलमति माता, ब्रह्म देव और जलापा देवी की भी पूजा की जाती है।

आल्हा और उदल करते है सबसे पहले माँ के दर्शन क्षेत्रीय लोगों के अनुसार अल्हा और उदल जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था, वे भी शारदा माता के बड़े भक्त हुआ करते थे।

इन दोनों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में 12 सालों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था। आल्हा माता को शारदा माई कह कर पुकारा करता था। तभी से ये मंदिर भी माता शारदा माई के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और उदल ही करते हैं। मंदिर के पीछे पहाड़ों के नीचे एक तालाब है, जिसे आल्हा तालाब कहा जाता है। यही नहीं, तालाब से 2 किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा और उदल कुश्ती लड़ा करते थे।

क्या है मंदिर से जुड़ी कहानी- माना जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती शिव से विवाह करना चाहती थी। उनकी यह इच्छा राजा दक्ष को मंजूर नहीं थी।

वे शिव को भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे। फिर भी सती ने अपनी जि़द पर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया।

यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से दुखी होकर सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला, तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया।

उन्होंने यज्ञ कुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कर कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे।

ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने ही सती के शरीर को 52 भागों में विभाजित कर दिया। जहां भी सती के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया।

माना जाता है कि यहां मां का हार गिरा था। हालांकि, सतना का मैहर मंदिर शक्ति पीठ नहीं है। फिर भी लोगों की आस्था इतनी अडिग है कि यहां सालों से माता के दर्शन के लिए भक्तों का रेला लगा रहता है।

इसके अलावा, ये भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदि गुरु शंकराचार्य ने 9वीं-10वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। शारदा देवी का मंदिर सिर्फ आस्था और धर्म के नजरिये से खास नहीं है। इस मंदिर का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है।

माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में की गई थी। मूर्ति पर देवनागरी लिपि में शिलालेख भी अंकित है। इसमें बताया गया है कि सरस्वती के पुत्र दामोदर ही कलियुग के व्यास मुनि कहे जाएंगे।

दुनिया के जाने-माने इतिहासकार ए कनिंग्घम ने इस मंदिर पर विस्तार से शोध किया है। इस मंदिर में प्राचीन काल से ही बलि देने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन 1922 में सतना के राजा ब्रजनाथ जूदेव ने पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया।

कैसे पहुंचे मंदिर- राजधानी दिल्ली से मैहर तक की सड़क से दूरी लगभग 1000 किलोमीटर है। ट्रेन से पहुंचने के लिए महाकौशल व रीवा एक्सप्रेस उपयुक्त हैं। दिल्ली से चलने वाली महाकौशल एक्सप्रेस सीधे मैहर ही पहुंचती है।

स्टेशन से उतरने के बाद किसी धर्मशाला या होटल में थोड़ा विश्राम करने के बाद चढ़ाई आरंभ की जा सकती है। रीवा एक्सप्रेस से यात्रा करने वाले भक्तजनों को मजगांवां पर उतरना चाहिए। वहां से मैहर लगभग 15 किलोमीटर दूर है।

त्रिकूट पर्वत पर मैहर देवी का मंदिर भू-तल से छह सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर तक जाने वाले मार्ग में तीन सौ फीट तक की यात्रा गाड़ी से भी की जा सकती है। मैहर देवी मां शारदा तक पहुंचने की यात्रा को चार खंडों में विभक्त किया जा सकता है।

प्रथम खंड की यात्रा में चार सौ अस्सी सीढ़ियों को पार करना होता है। मंदिर के सबसे निकट त्रिकूट पर्वत से सटा मंगल निकेतन बिड़ला धर्मशाला है। इसके पास से ही येलजी नदी बहती है। द्वितीय खंड 228 सीढ़ियों का है।

इस यात्रा खंड में पानी व अन्य पेय पदार्थों का प्रबंध है। यहां पर आदिश्वरी माई का प्राचीन मंदिर है। यात्रा के तृतीय खंड में एक सौ सैंतालीस सीढ़ियां हैं। चौथे और अंतिम खंड में 196 सीढ़ियां पार करनी होती हैं। तब मां शारदा का मंदिर आता है।
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ग्रहों की प्रकृति के अनुसार ज्योतिषीय
उपचार

सूर्य (Sun) : किसी जातक की
कुण्डली में सूर्य खराब परिणाम दे रहा हो तो उस
जातक के मुंह से बोलते समय थूक उछलता रहता है।
शरीर के कुछ अंग आंशिक या पूर्ण रूप से नकारा
(paralysis) होने लगते हैं।
ऐसे जातकों को सुबह उठकर सूर्य देवता को अर्ध्य देना चाहिए
और लाल मुंह के बंदर की सेवा करनी
चाहिए। आठवें का सूर्य होने पर सफेद गाय के बजाय लाल अथवा
काली गाय की सेवा करने के लिए कहा गया
है।

चंद्र (Moon): माता की सेवा करने से चंद्रमा के
शुभ फल मिलने शुरू होते हैं। घर के बुजुर्गों, साधू और ब्राह्मणों
के पांव छूकर आशीर्वाद लेने से चंद्रमा के खराब
प्रभावों को भी दूर किया जा सकता है।
रात के समय सिराहने के नीचे पानी
रखकर सुबह उसे पौधों में डालने से चंद्रमा का असर दुरुस्त होता
है। घर का उत्तरी पश्चिमी (North-
West) कोना चंद्रमा का स्थान होता है। यहां पौधे लगाए जाएं और
सुबह शाम पानी दिया जाए तो चंद्रमा का प्रभाव उत्तम
बना रहता है।

मंगल (Mars): आंख में खराबी हो या संतान
उत्पत्ति में बाधा आ रही हो तो इसे मंगल के खराब
प्रभाव के तौर पर देखा जाता है। भाइयों की सहायता
और ताया और ताई की सेवा करे तो मंगल का अच्छा
प्रभाव मिलता है। लाल रंग का रुमाल पास में रखने से मंगल का
खराब प्रभाव खत्म होता है।
महिलाओं में मंगल का असर बढ़ाने के लिए तो उन्हें लाल चूडि़यां,
लाल सिंदूर, लाल साड़ी, लाल
टीकी लगाने के लिए कहा जाता है। लोक
मान्यता में इन्हें सुहाग (Spouse) से जोड़ा गया है।

बुध (Murcury): गंध का पता न लगे और सामने के दांत गिरने
(Tooth Decay) लगे तो समझ लीजिए कि बुध का
खराब प्रभाव आ रहा है। ऐसे में फिटकरी से दांत
साफ करने से बुध का खराब प्रभाव कम होता है। बुध खराब होने
से व्यापारियों का दिया या लिया धन अटकने लगता है।
गायों को नियमित रूप से पालक खिलाने से यह रुका हुआ धन फिर से
मिलने लगता है। छत पर जमा कचरा भी ऋण
(Loan) को बढ़ाता है। इसे हटाने से ऋण का बोझ कम होता है
और व्यापार सुचारू चलता है।

गुरु (Jupiter): रमते साधू को पीले वस्त्र दान
करने और भोजन कराने से गुरु के अच्छे परिणाम हासिल होते हैं।
जिन जातकों की गुरू की दशा चल
रही हो, अगर वे नियमित रूप से अपने ईष्ट के मंदिर
जाएं और पीपल में जल सींचें तो गुरु
की दशा में अच्छे लाभ हासिल कर सकते हैं।
इसी दशा में स्कूल एवं धर्म स्थान में नियमित अंतराल
में दान करना भी भाग्य को बढ़ाता है।

शुक्र (Venus): चमड़ी के रोग और अंगूठे पर चोट
से शुक्र के खराब प्रभाव का पता चलता है। अगर प्रतिदिन रात के
समय अपने हिस्से की एक रोटी गाय को
दें तो शुक्र का प्रभाव यानी समृद्धि तेजी
से बढ़ती है। शुक्र का खराब प्रभाव हो तो रात के
समय बैठी गाय को गुड़ देना लाभदायक होता है।
सुहागिनों को समय-समय पर सुहाग की वस्तुएं देने
से शुक्र के प्रभाव बढ़ता है

शनि (Saturn): जूते खोने, घर में नुकसान, पालतू पशु मरने
और आग लगने से शनि का खराब प्रभाव देखा जाता है। डाकोत को
नियमित रूप से तेल देने, साधू को लोहे का तवा, चिमटा या
अंगीठी दान करने से शनि का प्रभाव
अच्छा हो जाता है। शनि के अच्छे प्रभाव लेने के लिए नंगे पैर
मंदिर जाना चाहिए।

राहू (Dragon Head): अनचाही समस्याएं
(Unexpected Circumstances) राहू से आती
हैं। घर का दक्षिणी पश्चिमी (South-
West) कोना राहू का है। इस कोने में कभी
गंदगी नहीं रहनी चाहिए।
घर के दक्षिणी पूर्वी (South-East)
कोने में आवश्यक रूप से हरियाली का वास रखना
चाहिए।
परिवार का जो सदस्य राहू से पीडि़त हो उसे
हरियाली के पास रखें। अंधेरे और गंदगी
वाले कोनों में राहू का वास होता है। अगर हर कोने को साफ और
उजला रखेंगे तो राहू के खराब प्रभाव से दूर रहेंगे।

केतू (Dragon Tail): जोड़ों का दर्द (Arthritis) और पेशाब
की बीमारी मुख्य रूप से केतू
की समस्या के कारण आते हैं। कान
बींधना, कुत्ता पालना केतू के खराब प्रभाव को कम
करता है। संतान को कष्ट होने पर काला-सफेद कंबल साधू को देने
से कष्ट दूर होता है।

ज्योतिष के कुछ अचूक सूत्र

1)जब गोचर में शनि ग्रह धनु, मकर, मीन व कन्या राशियों में गुजरता है तो भयंकर अकाल रक्त सम्बन्धी विचित्र रोग होते हैं।
2)”स्त्री की कुंडली में यदि चन्द्र वृष कन्या या सिहं राशी में स्थित हो तो स्त्री के कम पुत्र होते हैं “।
3)”जन्म लग्न में चन्द्र व शुक्र हो तो स्त्री क्रोधिनी परन्तु सुखी होती है “।
4)”किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष सोमवार ,बुध या गुरूवार को शपथ ले तो उसे प्रजा एवं राष्ट्राध्यक्ष के लिए शुभ माना जाता है”।।
5)”सप्तमेश शुभ युक्त न होकर षष्ठ ,अष्टम,या द्वादश भाव में हो और नीच या अस्त हो तो जातक के विवाह में बाधा आती है”
6)”चन्द्र से सम्बंधित चार विभिन्न योग बनते हैं जब कोई ग्रह चन्द्र से 10वें 7वें, 4थे, ओर पहले हो तो क्रमश:उत्तम,मध्यम, अधम ओर अधमाधम योग बनता है। यदि इनमें अंतिम योग बनता हो तो कुंडली के अन्य योग कमजोर और निष्फल हो जाते हैं”!!
7)जन्म कुंडली में मंगल को भूमि का मुख्य कारक माना गया है. जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव या चतुर्थेश से मंगल का संबंध बनने पर व्यक्ति अपना घर अवश्य बनाता है. जन्म कुंडली में जब एकादश का संबंध चतुर्थ भाव से बनता है तब व्यक्ति एक से अधिक मकान बनाता है लेकिन यह संबंध शुभ व बली होना चाहिए.
8)जन्म कुंडली में लग्नेश, चतुर्थेश व मंगल का संबंध बनने पर भी व्यक्ति भूमि प्राप्त करता है अथवा अपना मकान बनाता है. जन्म कुंडली में चतुर्थ व द्वादश भाव का बली संबंध बनने पर व्यक्ति घर से दूर भूमि प्राप्त करता है या विदेश में घर बनाता है।
9)जन्म कुंडली का चतुर्थ भाव प्रॉपर्टी के लिए मुख्य रुप से देखा जाता है. चतुर्थ भाव से व्यक्ति की स्वयं की बनाई हुई सम्पत्ति को देखा जाता है. यदि जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव पर शुभ ग्रह का प्रभाव अधिक है तब व्यक्ति स्वयं की भूमि बनाता है.
10)कोई भी ग्रह पहले नवाँशा में होने से जातक को एक प्रगतिशील और साहसिक नेता बनाता है ऐसे ग्रह की दशा /अन्तर्दशा के समय में जातक सक्रिय होता है।। और अपने सम्वन्धित क्षेत्र में सफलता पाता है।।
11)”सूर्य चन्द्र मंगल और लगन से गर्भाधान का विचार किया जाता है वीर्य की अधिकता से पुरुष तथा रक्त की अधिकता से कन्या होती है। रक्त और रज का बरावर होने से नपुंसक का जन्म होता है”।
12)जन्म से चार वर्ष के भीतर बालक की मृत्यु का कारण माता के कुकर्मों, चार से आठ वर्ष के बीच मृत्यु पिता के पाप कर्मों और आठ से बारह वर्ष की आयु के मध्य मृत्यु स्वयं के पूर्वजन्म के पापों के कारण मानी गई है.
13)शनि वायु का कारक और लिंग में नपुंसक है. वायु का प्रभाव वैचारिक भटकाव की आशंका उत्पन्न करता है.शनि तैलार्पण शनि से उत्सर्जित हो रही वैराग्यात्मक ऊर्जा का (तेल) द्वारा शमन है. पुरुषों को अनुमति है की वे अपना कुछ बृहस्पति अंश (धन एवं ज्ञान) इस प्रक्रिया हेतु व्यय कर सकते हैं.लेकिन सनातन व्यवस्था स्त्रियों को इसकी अनुमति कदापि नहीं देती. स्त्रियों की प्रकृति पृथ्वी के समान ग्राहीय है और उन पर जन्म देने की जिम्मेदारी है. उनके लिए वैराग्य की अपेक्षा भक्ति पर जोर दिया गया है।
14)राशिचक्र के २७ नक्षत्रों के नौ भाग करके तीन-तीन नक्षत्रों का एक-एक भाग माना गया है। इनमें प्रथम ‘जन्म नक्षत्र’, दसवाँ ‘कर्म नक्षत्र’ तथा उन्नीसवाँ ‘आधान नक्षत्र’ माना गया है। शेष को क्रम से संपत्, विपत्, क्षेम्य, प्रत्वर, साधक, नैधन, मैत्र और परम मैत्र माना गया है। 15)किसी भी प्रकार का रिसाव राहु के अंतर्गत आता है.रिसाव किसी भी चीज का हो सकता है द्रव , शक्ति , धन , मान सम्मान या ओज का.।
16)बुध के निर्बल होने पर कुंडली में अच्छा शुक्र भी अपना प्रभाव खो देता है क्योंकि शुक्र को लक्ष्मी माना जाता है और विष्णु की निष्क्रियता से लक्ष्मी भी अपना फल देने में असमर्थ हो जाती हैं.
17)शनि वचनबद्धता , कार्यबद्धता और समयबद्धता का कारक ग्रह है. जिस भी व्यक्ति के जीवन में इन तीनो चीजों का अभाव होगा तो समझना चाहिए की उसकी पत्रिका में शनि की स्थिति अच्छी नहीं है।
18)नीलम को शनि रत्न माना जाता रहा है. लेकिन इस रत्न की तुरंत प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति मन में संदेह उत्पन्न करती है की क्या यह वास्तव में शनि रत्न है. क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया शनि का स्वभाव नहीं है. शनि एक मंदगामी ग्रह है. इसीलिये इसे शनैश्चर भी कहा गया है. जबकि तुरंत और अचानक प्रतिक्रिया राहु का स्वाभाव है. राहु नीलवर्णी माना गया है. सभी प्रकार के विषों का अधिपत्य राहु कोप्राप्त है.। इधर ज्योतिष की अपेक्षाकृत ‘लाल किताब’ भी नीलम को राहु की कारक वस्तु मानती है.। यह बात नीलम के स्वभाव से मेल खाती है. फिर नीलम रत्न का अधिपति कौन है. शनि या राहु.?????? 19)ज्योतिष में व्यवस्था है की पीड़ित ग्रहों की वस्तुएं दान की जाएं. यह ग्रहपीड़ा शांति के लिए किया जाने वाला महत्वपूर्ण उपाय है. इस उपाय में ग्रह की कारक वस्तु को मंदिर , डाकोत , अपाहिजों और गरीबों में दान किया जाता है. इससे अनिष्टकारक ग्रह के प्रकोप में कमी आ जाती है. इस उपाय में कुंडली विवेचना उपरांत ही तय किया जाता है की अमुक वस्तु कितनी बार दान करनी है. कई बार यह उपाय केवल एक बार करना होता है तो कभी कई बार दोहराना होता है.
20)”लड़कों जैसे छोटे बाल रखने वाली स्त्रियां दुखी रहती हैं.वे भले ही उच्च पदस्थ अथवा धनी हों उनके जीवन में सुख नहीं होता. खासतौर पर पति सुख या विपरीत लिंगी सुख. ऐसी स्त्रियों को पुरुषों के प्यार और सहानुभूति की तलाश में भटकते देखा जा सकता है. यदि वे विवाहित हैं तो पति से नहीं बनती और अलगाव की स्थिति बन जाती है और अधिकांश मामलों में पति से संबंध विच्छेद हो भी जाता है.”।
21)”व्यक्ति तीन प्रकार से मांगलिक दोष से ग्रस्त होता है – पहला लग्न से, दूसरा जन्मस्थ चंद्र से और तीसरा जन्मस्थ शुक्र से. इनमे शुक्र वाली अवस्था सबसे उग्र और चंद्र वाली सबसे हल्की मानी जाती है. यदि व्यक्ति तीनों ही स्थितियों में मांगलिक हो तो वह प्रबल मांगलिक माना जायेगा””.।
: एकादशी विशेष
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संस्कृत शब्द एकादशी का शाब्दिक अर्थ ग्यारह होता है। एकादशी पंद्रह दिवसीय पक्ष (चन्द्र मास) के ग्यारहवें दिन आती है। एक चन्द्र मास (शुक्ल पक्ष) में चन्द्रमा अमावस्या से बढ़कर पूर्णिमा तक जाता है, और उसके अगले पक्ष में (कृष्ण पक्ष) वह पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र से घटते हुए अमावस्या तक जाता है। इसलिए हर कैलंडर महीने (सूर्या) में एकादशी दो बार आती है, शुक्ल एकादशी जो कि बढ़ते हुए चन्द्रमा के ग्यारहवें दिन आती है, और कृष्ण एकादशी जो कि घटते हुए चन्द्रमा के ग्यारहवें दिन आती हैं। ऐसा निर्देश हैं कि हर वैष्णव को एकादशी के दिन व्रत करना चाहिये, इस प्रकार की गई तपस्या भक्तिमयी जीवन के लिए अत्यंत लाभकारी हैं।

एकादशी का उद्गम
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पद्मा पुराण के चतुर्दश अध्याय में, क्रिया-सागर सार नामक भाग में, श्रील व्यासदेव एकादशी के उद्गम की व्याख्या जैमिनी ऋषि को इस प्रकार करते हैं :

इस भौतिक जगत् की उत्पत्ति के समय, परम पुरुष भगवान् ने, पापियों को दण्डित करने के लिए पाप का मूर्तिमान रूप लिए एक व्यक्तित्व की रचना की (पापपुरुष)। इस व्यक्ति के चारों हाथ पाँव की रचना अनेकों पाप-कर्मों से की गयी थी। इस पापपुरुष को नियंत्रित करने के लिए यमराज की उत्पत्ति अनेकों नरकीय ग्रह प्रणालियों की रचना के साथ हुई। वे जीवात्माएं जो अत्यंत पापी होती हैं, उन्हें मृत्युपर्यंत यमराज के पास भेज दिया जाता है, यमराज ,जीव को उसके पापों के भोगों के अनुसार नरक में पीड़ित होने के लिए भेज देते हैं।

इस प्रकार जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगने लगी। इतने सारी जीवात्माओं को नरकों में कष्ट भोगते देख परम कृपालु भगवान् को उनके लिए बुरा लगने लगा। उनकी सहायतावश भगवान् ने अपने स्वयं के स्वरुप से, पाक्षिक एकादशी के रूप को अवतरित किया। इस कारण, एकादशी एक चन्द्र पक्ष के पन्द्रवें दिन उपवास करने के व्रत का ही व्यक्तिकरण है। इस कारण एकादशी और भगवान् श्री विष्णु अभिन्न नहीं हैं। श्रीएकादशी व्रत अत्यधिक पुण्य कर्म हैं, जो कि हर लिए गए संकल्पों में शीर्ष स्थान पर स्थित है।

तदुपरांत विभिन्न पाप कर्मी जीवात्माएं एकादशी व्रत का नियम पालन करने लगीं और उस कारण उन्हें तुरंत ही वैकुण्ठ-धाम की प्राप्ति होने लगी। श्रीएकादशी के पालन से हुए अधिरोहण से , पापपुरुष (पाप का मूर्तिमान स्वरुप) को धीरे धीरे दृश्य होने लगा कि अब उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ने लगा है। वह भगवान् श्रीविष्णु के पास प्रार्थना करते हुए पहुँचा, “हे प्रभु, मैं आपके द्वारा निर्मित आपकी ही कृति हूँ और मेरे माध्यम से ही आप घोर पाप कर्मों वाले जीवों को अपनी इच्छा से पीड़ित करते हैं। परन्तु अब श्रीएकादशी के प्रभाव से अब मेरा ह्रास हो रहा है। आप कृपा करके मेरी रक्षा एकादशी के भय से करें। कोई भी पुण्य कर्म मुझे नहीं बाँध सकता है, परन्तु आपके ही स्वरुप में एकादशी मुझे प्रतिरोधित कर रही है। मुझे ऐसा कोई स्थान ज्ञात नहीं जहाँ मैं श्रीएकादशी के भय से मुक्त रह सकूं। हे मेरे स्वामी! मैं आपकी ही कृति से उत्पन्न हूँ, इसलिए कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का पता बताईये जहाँ मैं निर्भीक होकर निवास कर सकूँ।”

तदुपरांत, पापपुरुष की स्थिति पर अवलोकन करते हुए श्रीभगवान् विष्णु ने कहा, “हे पापपुरुष! उठो! अब और शोकाकुल मत हो। केवल सुनो, और मैं तुम्हे बताता हूँ कि तुम एकादशी के पवित्र दिन पर कहाँ निवास कर सकते हो। एकादशी का दिन जो त्रिलोक में लाभ देने वाला है, उस दिन तुम अन्न जैसे खाद्य पदार्थ की शरण में जा सकते हो। अब तुम्हारे पास शोकाकुल होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि मेरे ही स्वरुप में श्रीएकादशी देवी अब तुम्हे अवरोधित नहीं करेगी।” पापपुरुष को आश्वाशन देने के बाद भगवान् श्रीविष्णु अंतर्ध्यान हो गए और पापपुरुष पुनः अपने कर्मों को पूरा करने में लग गया। भगवान विष्णु के इस निर्देश के अनुसार, संसार भर में जितने भी पाप कर्म पाए जा सकते हैं वे सब इन खाद्य पदार्थ (अनाज) में निवास करते हैं। इसलिए वे मनुष्य गण जो कि जीवात्मा के आधारभूत लाभ के प्रति सजग होते हैं, वे कभी एकादशी के दिन अन्न नहीं ग्रहण करते हैं।

एकादशी व्रत धारण करना
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सभी वैदिक शास्त्र एकादशी के दिन पूर्ण रूप से उपवास (निर्जल) करने की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिए आयु आठ से अस्सी तक के हर किसी को वर्ण आश्रम, लिंग भेद या और किसी भौतिक वैचारिकता की अपेक्षा कर के एकादशी के दिन व्रत करने की अनुशंसा की गयी है।

वे लोग जो पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक बार भोजन करके एकादशी व्रत करने की भी अनुशंसा की गयी हैं। परन्तु इस दिन किसी भी रूप में, किसी को भी, किसी भी स्थिति में अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये।

एकादशी पर भक्तिमयी सेवा
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एकादशी को उसके सभी लाभों के साथ ऐसा उपाय या साधन समझना चाहिये जो सभी जीवों के परम लक्ष्य, भगवद्-भक्ति, को प्राप्त करने में सहायक हैं । भगवान् की कृपा से यह दिन भगवान् की भक्तिमयी सेवा करने के लिए अति शुभकारी एवं फलदायक बन गया है। पापमयी इच्छाओं से मुक्त हो, एक भक्त विशुद्ध भक्तिमयी सेवा कर सकता है और परमेश्वर का कृपापात्र बन सकता है।

इसलिए, भक्तों के लिए, एकादशी के दिन व्रत करना साधना-भक्ति के मार्ग में प्रगति करने का सशक्त माध्यम है। व्रत करने की क्रिया चेतना का शुद्धिकरण करती है और भक्त को कितने ही भौतिक विचारों से मुक्त करती है। क्योंकि इस दिन की गई भक्तिमयी सेवा का लाभ किसी और दिन की गई सेवा से कई गुना अधिक होता है, इसलिए भक्त जितना अधिक से अधिक हो सके आज के दिन जप, कीर्तन, भगवान् की लीला-संस्मरण पर चर्चाएँ आदि अन्य भक्तिमयी सेवाएं किया करते हैं।

श्रील् प्रभुपाद ने भक्तों के लिए इस दिन कम से कम पच्चीस जप माला संख्या पूरी करने, भगवान् के लीला-संस्मरणों को पढ़ने एवं भौतिक कार्यकलापों में न्यूनतम संलग्न होने की अनुशंसा की है। हालाँकि, वे भक्त जो पहले से ही भगवान् की भक्ति की सेवाओं (जैसे पुस्तक वितरण, प्रवचन आदि) में सक्रियता से लगे हुए हैं, उनके लिए उन्होंने कुछ छूट दी हैं, जैसे उन खाद्यों को वे इस दिन भी खा या पी सकते है जिनमें अन्न नहीं हैं।

एकादशी का महात्म्य
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श्रील जीव गोस्वामी द्वारा रचित, भक्ति-सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में से लिया हुआ एक श्लोक भर्त्सना करते हुए बताता है कि जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करते हैं, वे मनुष्य अपने माता, पिता, भाइयों एवं अपने गुरु की मृत्यु के दोषी होते हैं। वैसे मनुष्य अगर वैकुंठ धाम तक भी पहुँच जाएँ तो भी वे वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। इस दिन किसी भी तरह के अन्न को ग्रहण करना सर्वथा वर्जित है, चाहे वह भगवान् विष्णु को ही क्यों न अर्पित हो।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो कोई भी एकादशी के दिन व्रत करता है वो सभी पाप कर्मों के दोषों से मुक्त हो जाता हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करता है। मूल सिद्धान्त केवल उस दिन भूखे रहना नहीं है, बल्कि अपनी निष्ठा और प्रेम को गोविन्द, या कृष्ण पर और भी सुदृढ़ करना है। एकादशी के दिन व्रत का मुख्य कारण है अपनी शरीर की जरूरतों को घटाना और अपने समय का भगवान् की सेवा में जप या किसी और सेवा के रूप में व्यय करना है। उपवास के दिन सर्वश्रेष्ठ कार्य तो भगवान् श्रीगोविन्द की मंगलमय लीलाओं का ध्यान करना और उनके पावन नामों को निरंतर सुनते रहना है।
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विचार शक्ति का महत्व समझिये

व्यक्ति जैसा सोचता है, वैसा ही व्यवहार करता है। विचारों का प्रभाव हमारे आचार पर अवश्यंभावी रूप से पड़ता है। अतएव मानव जीवन की सफलता के लिये स्वस्थ एवं उन्नत विचार परमावश्यक हैं। शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौंदर्य भी स्वस्थ एवं प्रसन्न मन पर ही निर्भर है अतएव स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन का होना अनिवार्य है।

जैसी हमारी मानस कल्पनाएं तथा विचार होंगे, वैसा ही जीवन भी ढल जायेगा। वस्तुतः हम जो सोचते हैं, उससे शरीर की ग्रन्थियों में एक प्रकार का रस द्रवित होता है। यदि विचार सुखदाय, स्फूर्तिवान तथा आशाप्रद होंगे तो शरीर के नन्हें-नन्हें कोषों तथा रोमों को भी नूतन स्फूर्ति एवं चैतन्यता प्राप्त होगी।

इसके विपरीत भय, चिन्ता, द्वेष एवं मनोमालिन्य की भावनाएं शरीर के घटकों में अज्ञात विष उड़ेलती रहती हैं जिससे जीवन शक्ति तथा कार्यक्षमता नष्ट होती है तथा अनगिनत रोग और पीड़ाएं उत्पन्न होती हैं। स्वस्थ रहने के लिये यह परमावश्यक है कि हमारे मन में निराशा, चिन्ता, दुर्बलता और अवसाद के विचार न आने पायें। रोगों की जड़ें शरीर में नहीं अपितु मन में होती हैं।

अनेकों व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपने भाव संस्थान को निर्बल तथा कायर भावनाओं से विकृत बनाये रहते हैं। वे स्वयं को संसार के दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों में गिनने हैं इस बात में विश्वास रखते हैं कि उन्हें किसी कार्य में सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती।

परिणामतः या तो वे कार्य ही नहीं करते, यदि प्रारम्भ भी करते हैं तो असफलता के भय से या बाधायें आ जाने पर, बीच में ही छोड़ बैठते हैं। बिना दृढ़ निश्चय एवं संकल्प शक्ति के कोई कार्य पूरा नहीं हो सकता।

ऐसे कापुरुषों की भी संसार में कमी नहीं है जो मानव जीवन का मूल्य न समझकर मृत्यु के दिन गिनते रहते हैं। यह भ्रम उन्हें खाये डालता है कि वे बीमार हैं, शक्ति हीन हैं। काल्पनिक दुःख एवं चिन्ताएं हर समय उन पर सवार रहती हैं।

वस्तुतः इन्हें शारीरिक रूप से कोई बीमारी नहीं होती परन्तु मानसिक निर्बलता के कारण उनकी शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही प्रकार की शक्ति तथा सामर्थ्य पंगु बन जाती हैं। अनेक प्रकार के शारीरिक रोग इन्हें घेरे रहते हैं। जीवन के आनन्द से वंचित कर देते हैं। निर्बल एवं- रोगी शरीर व्यक्ति सुखों से सदैव वंचित ही रहता है।

मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि अनेक शारीरिक रोग मानसिक निर्बलता तथा संवेगों से उत्पन्न होते हैं। शरीर विज्ञान-शास्त्रियों का भी मत है कि केवल मानसिक चित्रों के आधार पर ही अनेक शारीरिक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

इस सम्बन्ध में डॉ. टुके ने अपनी पुस्तक ‘इन्फ्लूएन्स आफ दी माइण्ड अपान दी बॉडी’ में लिखा है- ‘पागलपन, मूढ़ता, अंगों का निकम्मा हो जाना, पित्त पाण्डु रोग, बालों का शीघ्र गिरना, रक्तहीनता, घबराहट, मूत्राशय के रोग, गर्भाशय में पड़े हुए बच्चे का अंग भंग हो जाना, चर्म रोग, फुन्सियाँ-फोड़े तथा एक्जिमा आदि कितने ही स्वास्थ्यनाशक रोग केवल मानसिक क्षोभ तथा भाव से ही पैदा होते हैं।’

यदि आप स्वस्थ रहना चाहते हैं, सुख तथा समृद्धि पाना चाहते हैं, सफलता का वरण करना चाहते हैं तो विचारों को निर्मल, पवित्र तथा उदात्त बनाइये। यदि कोई ऐसा विचार मन में आये कि आप बीमार हैं, दुर्बल हैं, तो तुरन्त उसे दबा दें।

यदि मस्तिष्क से कोई ऐसी ध्वनि निकले जो सफलता में बाधक बने-तो फौरन उसे बाहर निकाल दीजिये। विश्वास रखिये आप संसार के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं तथा ईश्वरीय प्रयोजनों में सहयोग देने के लिये संसार में जन्में हैं। अनेक महत्वपूर्ण कार्य आपको पूरे करने हैं।

उठिये, आगे बढ़िये-मंजिल पर तीव्रता से कदम बढ़ाइये, जीवन के किसी मोड़ पर खड़ी सफलता आतुरता से आपकी प्रतीक्षा कर रही है।
: भाग्य आखिर है क्या?
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आज दुनिया में अधिकांश लोग भाग्यवान होने का अर्थ अमीर होना, धनवान होना ही समझते हैं और जिसके पास धन नहीं है वह स्वयं को भाग्यहीन कहकर दिन-रात शोक मनाता है, मगर क्या हमने कभी सोचा कि भाग्य आखिर है क्या?

क्या दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलना, यह भाग्य नहीं है? एक सुसंस्कृत देश की प्रजा के रूप में पहचाने जाना यह भाग्य नहीं है? जीवन के इस विशाल परिदृश्य में कई रंग आते-जाते रहते हैं। किसी व्यक्ति को रिश्तों का सुख मिलता है, उसके आत्मीयजन उससे स्नेह रखते हैं, सर्वत्र प्रेम व स्नेह का आस्वाद वह उठाता है, वहीं किसी व्यक्ति को परिजनों का स्नेह नहीं मिलता, मगर वह संसार में नाम कमाता है, दुनिया उसे प्रेम करती है। यह भी भाग्य का ही एक रूप है।

किसी व्यक्ति के भाग्य में अथाह धन-संपत्ति आती है, मगर वह उसका उपभोग करने में असमर्थ होता है। शारीरिक बीमारियाँ उसे घेरे रहती हैं, वहीं शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति धन की कमी का शोक मनाता है। वह यह नहीं सोचता कि स्वस्थ शरीररूपी नियामत पास होना ही उसका सौभाग्य है।

वास्तव में सौभाग्य-यश, प्रेम, धन, स्वास्थ्य- इन सभी रूपों में या किसी एक रूप में आपके पास हो सकता है। ईश्वर सभी को योग्यता व कर्मानुसार भाग्य प्रदान करता ही है। अतः जरूरत है कि हम हमारे हिस्से में आए आशीर्वाद को सस्नेह ग्रहण करें और ईश्वर से संतोषरूपी धन की याचना करें, क्योंकि हर स्थिति में संतुष्ट रहने से ही सुख प्राप्त होता है।
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समृद्धिकारक पौधा – मनी प्लांट अत्यन्त महत्वपूर्ण जानकारी

ऐसी मान्यता है कि जिसके घर में मनी प्लांट का पौधा लगा होता है उसके उसके घर में न केवल सुख-समृद्धि में इजाफा होता है बल्कि घर में धन का भी आगमन होता है| इसी वजह से कुछ लोग घरों में मनी प्लांट का पौधा लगाते हैं| घर में मनी प्लांट लगाने पर सुख-समृद्धि में होने के साथ धन का आगमन बढ़ता है। इसी के चलते लोग अपने घरों में मनीप्लांट दक्षिणपूर्व एशिया मूल (मलेशिया, इण्डोनेशिया) का लता रूप में पसरने वाला पौधा है। इसकी पत्तियाँ सदा हरी रहतीं हैं। ये तने पर एकान्तर क्रम में लगी होती हैं और हृदय जैसी आकृति वाली होती हैं। वैसे तो घर में रखने के लिए आपको कैक्टस, बोनसाई जैसे कई इंडोर प्लांट मिल जाएँगे, लेकिन कम खर्च और अच्छी ग्रोथ के कारण जो रंग मनी प्लांट आपके इंटीरियर में भरता है, वह किसी अन्य इंडोर प्लांट से संभव नहीं।
मनी प्लांट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि घर हो या आँगन यह प्लांट कहीं भी आसानी से लग जाता है। साथ ही यह केवल पानी में भी लगाया जा सकता है और इसके रखरखाव के लिए भी ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है। इसे घर के अंदर व बाहर दोनों जगह ही रखा जा सकता है।
जिस कोने में यह होता है उसकी ओर बरबस ही निगाहें चली जाती हैं। आप चाहें तो इसकी इन सुनहरी पत्तियों को काँट-छाँट कर इसे और भी आकर्षक बना सकते हैं।रखें सावधानियां…
वास्तु के अनुसार, यदि सही दिशा और सही जगह में मनी प्लांट का पौधा नहीं लगाया गया तो धनलाभ के बजाय हानि का सामना करना पड़ता है| वास्तु शास्त्रीयों का मानना है कि मनी प्लांट के पौधे के घर में लगाने के लिए आग्नेय दिशा सबसे उचित दिशा है। इस दिशा में यह पौधा लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का भी लाभ मिलता है।
मनी प्लांट को आग्नेय यानि दक्षिण-पूर्व दिशा में लगाने का कारण ये है इस दिशा के देवता गणेशजी है जबकि प्रतिनिधि शुक्र हैं। गणेश जी अमंगल का नाश करने वाले हैं जबकि शुक्र सुख-समृद्धि लाने वाले। यही नहीं बल्कि बेल और लता का कारण शुक्र को माना गया है। इसलिए मनी प्लांट को आग्नेय दिशा में लगाना उचित माना गया है।
कभी करें यह गलती
मनी प्लांट को कभी भी ईशान यानि उत्तर पूर्व दिशा में नहीं लगाना चाहिए, यह दिशा इसके लिए सबसे नकारात्मक मानी गई है। क्योंकि ईशान दिशा का प्रतिनिधि देवगुरू बृहस्पति को माना गया है। और शुक्र तथा बृहस्पति में शत्रुवत संबंध होता है। इसलिए शुक्र से संबंधित यह पौधा ईशान दिशा में होने पर नुकसान होता है। हालांकि इस दिशा में तुलसी का लगाया जा सकता है।
मनी प्लांट को घर के अंदर गमले में अथवा बोतल में पानी भरकर भी लगाया जा सकता है। इससे सुख-समृद्धि प्रदान करने वाले सकारात्मक उर्जा को आकर्षित किया जा सकता है।

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