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वैदिक ऋषियों की सबसे बड़ी खोज है- “द्युलोक”


पुरातन ऋषियों के बारे में हमारी धारणा यह है , कि
वे अरण्य में पर्णकुटी बना कर रहते थे,उनकी जटाएँ
होती थीं , कुछ खेती-बाड़ी करते थे , गायें पालते थे
और यज्ञ करते थे । हमारी इस धारणा के विपरीत वे
ऋषि महान् वैज्ञानिक थे , और उनके आश्रम किसी विश्वविद्यालय से कम नहीं होते थे।उनके आश्रमों में
साधन सीमित होते थे ,किन्तु वे विश्व स्तर की प्रयोग-
शाला की तरह होते थे । एक आश्रम के ऋषि दूसरे
ऋषि के आश्रम में आते-जाते रहते थे , और अपने
विचार साझा भी करते थे । हम बात कर रहे हैं उस
दौर की ,जब ऋचाएँ पवित्र नदी की तरह बहती थीं।
तब स्वच्छ तपोवनों में ऋषिकुमारों के मधुर वेदपाठ
व उसके साथ-साथ उठने वाली अग्निशिखाओं का
समीकरण केवल आसपास के परिवेश को प्रभावित
नहीं करता था,अपितु पृथ्वी से ऊपर भी उसकी गति
निर्बाध हुआ करती थी । एक लोक से दूसरे लोक
तक के यातायात की प्रणाली ऋषियों के पास थी ,
अंतरिक्ष और उससे बहुत ऊपर भी जो कुछ हलचल
है,उसका निनाद वे सुन सकते थे और अपने रहस्य-
पूर्ण शब्दों में व्यक्त भी कर सकते थे ।

वैदिक ऋचाओं और मंत्रों को कर्मकाण्ड के विनियोग
से जोड़ कर देखते रहने का अभ्यास इतना पक्का हो
चुका है,कि हम उन प्रत्यक्ष अनुभवों से लगभग वंचित
ही हैं ,जिसके लिये ऋषियों ने अपने कुल और अपनी
सन्तति को पूरी तरह झोंक दिया था।ये अनुभव मनुष्य
की आदिम उपलब्धियाँ हैं , जो पूरी तरह वैज्ञानिक हैं
और आध्यात्मिक भी हैं , किन्तु सामान्यतः बुद्धिलभ्य
न होने के कारण रहस्यात्मक मान कर बिसरा दी गई
हैं । वैदिक ऋषि मुख्यतः प्रकाश की खोज में निकले
हुए थे । आज की बनिस्बत उस युग में लोक-जीवन
कितने अंधेरे में था,इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं
है । प्रकाश,पानी और भोजन ही मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता थी ,तो इनके समांतर ज्ञान प्राप्त करने की
भूख भी प्रबल थी।बाद की परम्परा में इन ऋषियों की
चेतना को हमेशा ऊर्ध्व की ओर आरोहण करते हुए ही
देखा जाता रहा।आर्यों ने दो अश्मों को टकरा कर जब
पहली बार अग्नि को उत्पन्न किया होगा , तब मानव-
सभ्यता के नये युग की शुरुआत हुई होगी और ऋषियों
ने समवेत गाया होगा – “अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विजं।होतारं रत्नधातमम्।।”पृथ्वी पर अग्नि के इस साक्षात्कार के साथ ही प्रकाश की वह खोज भी शुरू
हुई होगी , जिसके फलस्वरूप वैदिक ऋचाओं का वह
वृहत्तर संसार उपजा होगा , जो ऋषियों की चेतना के
महा-अभियान का ही नतीजा था।

वैदिकयुग का आरम्भ कब हुआ , यह तो इतिहास का
विषय है । सब तरह के लोग तब भी थे , लेकिन उनमें
एक वर्ग ऐसा जरूर था जो सपरिवार श्रम करता था ,
समाज के साथ जीता था,और किसी न किसी अन्वेषण
में लगा हुआ था । वे उस चीज को ढूँढ रहे थे , जिसकी
वजह से यह आकाश है , सूर्य है , पृथ्वी है , चंद्रमा है ,
प्राणियों का संसार है ,वनस्पतियाँ हैं ,जन्म है और मृत्यु
है । वे यह जानना चाहते थे कि इस दृश्य और अदृश्य
संसार का उत्स क्या है ? खोजते-खोजते वे अंतरिक्ष के
पार उस द्युलोक तक जा पहुँचे थे ,जहाँ पर प्रकाश के
वे देवता रहते हैं , जिन्हें सविता , मित्र , वरुण , पूषा ,
अर्यमा , विष्णु सहित कई नाम भी उन्होंने ही दिये थे।
द्युलोक कल्पना की उड़ान नहीं है। वह उतना ही सत्य
है , जितना दृश्यमान सूर्य ,नक्षत्रमंडल और यह जगत।
हमारे अंतर्जगत और बाह्यजगत को प्रकाशित करने
वाली द्युलोक की शक्तियाँ स्वयं प्रकाशमान है , द्युमान्
हैं , इसीलिये वे देव हैं ,और उनसे प्रकाशित सब छोटी-
बड़ी सत्ताएँ भी देव-कोटि में आती हैं । वैदिक ऋषियों
में भी कुछ ऐसे थे,जो द्युलोक में बैठ कर नीचे के लोकों
को, इस पृथ्वी को देख सकते थे।इन ऋषियों में अंगिरा , वामदेव , वशिष्ठ,विश्वामित्र , गृत्समद , और भी कई रहे
होंगे। इन ऋषियों ने यह भी देखा कि द्युलोक में शाश्वत
युद्ध और शाश्वत प्रकाश छाया हुआ है । पृथ्वी के अनंत
विस्तार में उसी की चहल-पहल है । पर्वत के शृंगों पर,
समुद्र में , निर्झर में , नदियों में उसी के चित्र चल रहे हैं।

वैदिक ऋषियों ने जो कुछ भी देखा या अनुभव किया ,
वह सब गायत्री , अनुष्टुप , त्रिष्टुभ , जगती आदि छंदों
की रक्षा में है और आश्चर्यजनक तरीके से हजारों हजार
बरस तक श्रुति परम्परा में रहा है।शब्द किस तरह ब्रह्म
का कवच बन जाता है , किस तरह वह देश-काल की
सीमा को भेदता हुआ अखंड और अजेय बना रहता है ,
इसका प्रमाण आर्षवाणी के अतिरिक्त कौन दे सकता
है।अपने प्रत्यक्ष अनुभवों को अभिव्यक्त करने के लिये
प्रयुक्त हुई भाषा इतनी गूढ और रहस्यपूर्ण थी ,कि स्वयं
ऋषि ही उसे ‘निण्या वचांसि’ कहते हैं । यह भाषा तब
भी कुछ ही समझ पाते थे,बाद के युगों में न समझ पाने
की वजह से विवश हो कर सिर धुनते हुए व्याख्याकारों
ने मन चाहे अर्थ किये ,और हम मूल उद्गम से दूर ,बहुत
दूर निकल आये।

वैदिक ऋषियों की सबसे बड़ी खोज तो वह द्युलोक ही
है,जो स्वर्ग की कल्पना से भी परे उन ज्योति-पुरुषों का
लोक है ,जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अनवरत ज्योति-स्नान
कराते रहते हैं। ज्योति-कलश वहीं से छलकता है । सूर्य
अपने प्रकाश के लिये द्युलोक पर ही निर्भर है।भूरिशृंगा
धेनुएँ उस द्युलोक में ही विचरती हैं , जो प्रकाश से भरी
हुई हैं । ये धेनुएँ वे अभीप्साएँ हैं , जो निबिड़ अंधकार
को भेदते हुए स्वर्णिम रश्मियों की तरह धरती पर उतर
आना चाहती हैं।इन्द्र इसलिये सर्वशक्तिमान् है ,क्योंकि
उसी ने इन धेनुओं के लिये अंतरिक्ष में रास्ता बनाया ।
ऋषियों ने अपने हाथ फैला कर इस प्रकाश को झेला ,
और वैदिक मंत्रों में भर कर सुरक्षित कर दिया है।

वेदों में जो देवता कहे गये हैं , वे सबके सब प्रकाश के
वाचक है । उनके पास प्रकाश ही है , जो वे दे सकते
हैं । प्रकाश ही है ,जिसे वे फैला सकते हैं। वह प्रकाश
परब्रह्म का है ,अनंत आत्मा का है , चिदाननंद का है ,
ओंकार का है ,ऋत और सत्य का है ,वैवस्वत मनु का
है , वह श्रवण-मनन-निदिध्यासन का है , वह चत्वारि
वाक्-पदानि का है , वह भूर्भुव: स्व: का है , इसीलिये
वह चिरंतन है ,अव्यय है और सर्वत्र व्याप्त है।प्रकाश
के देवता हमें अंधकार से प्रकाश में ले चलने के लिये
प्रतिबद्ध हैं। जहाँ प्रकाश है ,वहाँ असत्य नहीं है,मृत्यु
भी नहीं है । ऋषि हमें कहता है कि “तुम एक ज्योति
हो ।इससे ऊपर एक और ज्योति है तुम्हारे पास , जो
तुम्हें अज्ञानान्धकार से बाहर ज्ञान के निर्मल प्रकाश
में ले आती है। इन ज्योतियों से परे तीसरी ज्योति भी
है- आनंद की ज्योति।तुम उसके साथ जीवन में प्रवेश
करो । तब तुम दिव्य प्रकाश में जन्म लोगे।” यह एक
ज्योतिर्विज्ञान है ,जिसे ऋषियों ने तपस्यापूर्वक खोज
निकाला । ऋषियों ने रात्रि को भी प्रकाश से परिपूर्ण
देखा और निर्जन अरण्य में भी प्रकाश के सोते झरते
हुए देखे।असत् में सत् को देखा ,मृत्यु में अमरता को
देखा ।

वेद का महत्व इसलिये नहीं कि वहाँ असंख्य देवताओं
का स्तवन है।स्तवन एक शैली है , प्रकाश के देवताओं
से हमें जोड़ने की प्रणाली है । ‘यज्ञ’ भी तो एक संस्था
है , एक जाग्रत प्रयोगशाला है , जहाँ ब्रह्म के तेज और
बल का आह्वान ही इसलिये किया जाता है कि प्रकाश
के देवता आ कर हमें और हमारे पर्यावरण को सुरक्षित
कर लें। मनुष्य कितना भी हिंसक क्यों न हो जाए, वह
कितना भी अशान्त क्यों न हो , कितना भी अज्ञान के
अंधेरे में क्यों न डूबा हो,अंततः वह निर्वैर होना चाहता
है , शान्ति चाहता है , और सब तरह के घेरों को तोड़
कर आत्मा के प्रकाश में लौट आना चाहता है । भूख-
प्यास से छटपटाते रहने वाले,रोग-शोक-मोह में उलझे
रहने वाले और काम-क्रोध-मद-लोभ से लिपट कर
सोये पड़े रहने वाले हम लोगों के लिये ही ऋषियों ने
द्युलोक की खोज की थी । ऋषियों ने हमें बताया कि
प्रत्येक मनुष्य का अपना द्युलोक है,अपना पृथ्वीलोक
है , अपना अंतरिक्षलोक भी है । हमारे जीवन के सब
सूत्र द्युलोक में हैं । आरम्भ वहीं से होता है , समापन
भी वहीं होता है। यदि हमारे द्युलोक में शान्ति नहीं है,
तो कभी न तो हमारा चित्त शान्त रह सकता है , और
न ही वह यात्रा आरम्भ हो सकती है ,जो हमारे तमस्
को छिन्न-भिन्न कर प्रकाश के वृत्त में ले जा सके।इसी
लिये ऋषियों ने “द्यौ: शान्ति: अंतरिक्ष शान्ति: पृथिवी
शान्ति:” की बात कही थी।

द्युलोक और उसके दिव्य प्रकाश की खोज ऋषियों का
पराक्रम है,और वह मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धियों
में से एक है । स्मरण कीजिए , द्युलोक की कन्या उषा
जब प्रतिदिन नृत्य करती हुई पृथ्वी पर उतरती है , तब
सभ्यता का नवोदय होता है ,पृथ्वी रोमांचित हो उठती
है और हमारा जैसे नया जन्म होता है।हमारी बुद्धि को
प्रकाशित करने वाली शक्तियाँ द्युलोक से ही उतरती हैं,
इसीलिये विश्वामित्र के स्वर द्युलोक तक उठते हैं , और
सविता का प्रेरणा-पुंज हमारे लिये इस धरती पर उतार
लाते हैं-“तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो
न: प्रचोदयात्।।”

           

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