योग शास्त्र के अनुसार ह्रदय स्थित कमल कोष से प्राण का उदय होकर नासिका मार्ग से निकलकर बारह उंगुल चलकर अंत मे आकाश में बिलीन हो जाता है।
प्राण की इस बाह्य गति को रेचक कहा जाता है तथा इस बाह्य आकाश से अपान का उदय होता है। तथा नासिका मार्ग से चलकर यह ह्रदय स्थित कमल कोष में विलीन हो जाता है।
अपान की इस स्वाभाविक आंतर गति को पूरक कहा जाता है।
जब द्वादशान्त में तथा अपान वायु ह्रदय में क्षण भर के लिए रुक जाती है उसे योग शास्त्र में कुम्भक कहा जाता है। यह कुम्भक अवस्था दो तरह की होती है
1 बाह्य कुम्भक
2 आंतर कुम्भक
जब यह स्वाश चलते चलते मध्य में ही किसी कारण से रुक जाती है तो उसे मध्य कुम्भक कहते है। इन सभी रेचक कुम्भक तथा पूरक अवस्थाओं का निरंतर ध्यानपर्वक निरीक्षण करते रहने से योगी जीवन मीरतु से मुक्त हो जाता है।
पातंजल योग दर्शन में प्राणयाम की विधियां बताई गई है किंतु जुसमे कहा गया है कि आसन की सिद्धि होने पर स्वास परस्वाश की गति का रुक जाना ही प्राणायाम है।
यह अपने आप होता है। हट योग में बिभिन्न प्रकार के प्राणयाम का वर्णन है।
योग वाशिस्ट में भी प्राणों के निरोध के उपाय वताये है इस प्रकार प्राणों का निरोध होने पर ही ईस्वर अनुभूति होती है।
किन्तु तंत्र की विधि सहज योग विधि है जिससे प्राणों की गति को रोकना नही है बल्कि जो स्वाभविक रूप से चल रही हैं उसे देखते रहना मात्र है।
इसी से प्राणों का स्पंदन रुक जाता है व साधक ध्यान में प्रवेश कर जाता है। इस ध्यान की स्थिति में ही साधक को शिवनुभूति हो जाती है।
शिव की शक्ति के कारण ही शरीर मे प्राण व अपान की क्रिया निरंतर चलती है किंतु प्राण के लीन होने व अपान के उदय होने के मध्य थोड़े समय के लिए यह प्राण रुकता है जिसे मध्य दशा कहते है।
इसी प्रकार अपान के ह्रदय में लीन होने व प्राणों के उदय होने के मध्य यह अपान थोड़े समय रुकता है जिसे आंतर मध्य दशा कहते है। यही वे स्थान है जहाँ शक्ति का कोई स्पंदन नही होता।
इस शांत अवस्था मे ही शिव स्वरूप चेतन शक्ति का अनुभव होता है। यह मध्य दशा आरम्भ में थोड़े समय के लिए ही होती है एक क्षण के लिए किन्तु योग अभ्याश द्वारा इसे बढ़ाया जा सकता है। यह मध्य दशा इतनी बढ़ जाती है कि वायु रूप यह प्रणात्मक और अपान आत्मक शक्ति न तो ह्रदय में द्वादशांत से ह्रदय तक वापस लौटती है ।
इस अवस्था मे पहुँचा योगी बाह्य पदार्थ को तथा आंतरिक भावो को अर्थात समस्त विकल्पों को ध्यान रूपी अग्नि में भस्म कर देता है। वह अपने समस्त इन्द्रिय समहू को आलम्बन के अभाव में अपना स्वरूप में विस्तीर्ण कर देता है।
उस समय ऐसी प्रतीती होती है जैसे ये इन्द्रिय अपने अद्भुत स्वरूप को आंख फाड़कर देख रही हो यह उसकी निर्विकल्प अवस्था है जिसमे प्रवेश करने पर साधक स्वयम शिव स्वरूप हो जाता है।
अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा का उसे ज्ञान हो जाता है। इस समय प्राण और अपान का स्पंदन बहुत कम हो जाता है।
यही समाधि है।
श्रीगुरु चरणों मे समर्पित
जय गुरुदेव
ॐ नमः शिवाय