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योग विद्या के यदि अलग-अलग विषयों पर दृष्टिपात करते है तो पाते है कि हठयोग साधना का उद्देश्य स्थूल शरीर द्वारा होने वाले विक्षेप को जो कि मन को क्षुब्ध करते है, पूर्णतया वष में करना है। स्नायुविक धाराओ एंव संवेगो को वष में करके एक स्वस्थ शरीर का गठन करना है। यदि हम अष्टांग योग के अन्तर्गत आते है तो पाते है कि राग द्वेश, काम, लोभ, मोहादि चिन्ता को विक्षिप्त करने वाले कारको को दूर करना यम, नियम का मूल उद्देश्य है।
स्थूल शरीर से होने वाले विकर्शणों को दूर करना आसन, प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य है। चित्त को विषयो से हटाकर आत्म-दर्शन के प्रति उन्मुख करना प्रत्याहार का उद्देश्य है। धारणा का उद्देश्य चित्त को समस्त विषयों से हटाकर स्थान विशेष में उसके ध्यान को लगाना है। धारणा स्थिर होने पर क्रमश: वही ध्यान कही जाती है, और ध्यान की पराकाष्टा समाधि है। समाधि का उच्चतम अवस्था में ही परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन होता है, जो कि पूर्व विद्वानो के अनुसार मनुष्य मात्र का परम लक्ष्य, परम उद्देश्य है।
कुछ ग्रन्थो मे भी योग अध्ययन के उद्देश्य को समझाते हुए मनीशियों ने कहा है, कि द्विज सेतिल शारवस्य श्रुलि कल्पतरो: फलम्। शमन भव तापस्य योगं भजत सत्तमा:।। गोरखसंहिता अर्थात् वेद रूपी कल्प वृक्ष के फल इस योग शास्त्र का सेवन करो, जिसकी शाख मुनिजनो से सेवित है, और यह संसार के तीन प्रकार के ताप को शमन करता है।
यस्मिन् ज्ञाते सर्वभिंद ज्ञातं भवति निष्यितम्।
तस्मिन् परिप्रम: कार्य: किमन्यच्छास प्रस्य माशितम्।।(शिव संहिता)
जिसके जानने से सब संसार जाना जाता है ऐसे योग शास्त्र को जानने के लिए परिश्रम करना अवश्य उचित है, फिर जो अन्य शास्त्र है, उनका क्या प्रयोजन है? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नही है।
योगात्सम्प्राप्यते ज्ञाने योगाद्धर्मस्य लक्षणम् ।
योग: परं तपोज्ञेयसमाधुक्त: समभ्यसेत्।।
योग साधना से ही वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति होती है, योग ही धर्म का लक्षण है, योग ही परमतप है। इसलिए योग का सदा अभ्यास करना चाहिए संक्षेप में कहा जाए तो जीवात्मा का विराट चेतन से सम्पर्क जोड़कर दिव्य आदान प्रदान का मार्ग खोल देना ही योग अध्ययन का मुख्य उद्देश्य हैं।
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