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भारतीय चांद्रवर्ष (विक्रमी संवत् एवं शक वर्ष) के कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के छठे दिन बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के निवासी जो त्योहार मनाते हैं, उसे ‘सूर्य छठ’ अथवा ‘डाला छठ’ कहा जाता है। रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न महानगरों में बस जाने के कारण इन लोगों ने इस त्योहार को ‘रक्षाबंधन’, ‘विजय दशमी’, ‘दीपावली’ तथा ‘होली’ की तरह देश-व्यापी बना दिया है। तमिलनाडु में इसे ‘स्कंद षष्ठी’ पुकारा जाता है वस्तुत: यह लोकपर्व माता पार्वती और भगवान् शिव के छोटे पुत्र ‘स्कंद’ (कार्तिकेय) तथा उनकी पत्नी ‘षष्ठी’ से संबंधित है।
पौराणिक परिप्रेक्ष्य : महाभारत (अनुशासन पर्व 85/81-82) तथा 86/13-14) के अनुसार स्कंद जी का जन्म ‘कृतिका नक्षत्र’ में होने के कारण उन्हें ‘कार्तिकेय’ पुकारा जाने लगा। देवराज इंद्र को ज्योतिषियों से ज्ञात हुआ कि ‘स्कंद’ बड़ा होकर देवसेना (देवताओं की सेना) का अधिपति होगा और संभवत: उसका राज्य न छीन ले। इसी डर के कारण उसने 27 नक्षत्रों में परिगणित होने वाली छह कृत्तिकाओं को उसे मारने के लिए भेजा। किंतु वे सुंदर बालक पर इतना मोहित हुईं कि उन्होंने बारी-बारी से स्तनपान करवाया। फलत: ‘स्कंद’ और ‘कार्तिकेय’ के अतिरिक्त उसका एक नाम और हो गया ‘षड्मुख।’ अब कार्तिकेय की मूर्तियां छह मुखों वाले देवता की ही मिलती हैं। उनका वाहन मोर है।
महाभारत (वन पर्व; 229/48) में दक्ष प्रजापति की पुत्री ‘देवसेना’ का स्कंद के साथ विवाह होने का प्रसंग आया है। वहीं पर उसके एक अन्य नाम ‘षष्ठी’ का उल्लेख भी हुआ है। ‘देवी भागवत् पुराण’ और ‘ब्रह्मïवैवर्त पुराण’ से भी षष्ठी देवी की स्कंद जी की पत्नी बताते हुए ‘सप्त मातृकांओं’ में प्रमुख माना गया है। इन ग्रंथों में ‘षष्ठी’ के नाम की व्याख्या इस प्रकार की गई है—’प्रकृति की षष्ठांश रूपिणी’। इन्हीं पुराणों में ‘षष्ठी’ को बालकों की ‘अधिष्ठात्री देवी’, ‘बालदा’ (बालक प्रदान करने वाली), उनकी धात्री, संरक्षिका और सदैव उनके पास रहने वाली (सिद्धयोगिनी) भी माना गया है। वहीं पर यह भी उल्लिखित है कि षष्ठी का वर्ण (रंग) श्वेत चम्पक पुष्प के समान है तथा वह ‘सुस्थिर यौवना’, रत्नाभूषणों से सुशोभित, कृपामयी एवं भक्तानुग्रहकत्र्री भी है। वहीं पर बालक के जन्म के बाद सूतिका गृह में छठे दिन, इक्कीसवें दिन तथा आगे भी बालक के अन्न प्राशन एवं शुभ कार्यों के समय ‘ऊं ह्री षष्ठीदेव्यै स्वाहा’ (अष्टाक्षर मंत्र जप करते हुए षष्ठी-पूजन किया जाता है। एतदर्थ शालिग्राम शिला, वृट वृक्ष की जड़, किसी घड़े अथवा घर की दीवार पर षष्ठी माता की आकृति गेरु अथवा हलदी से बनाई जाती है।
भगवान् कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्णाष्टमी को हुआ था। किंतु मथुरा में ‘श्रीकृष्ण छठी’ का उत्सव भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी को मनाने की प्रथा इस पौराणिक संदर्भ से संबंधित है, जिसका उल्लेख भक्त सूरदास, भक्त परमानंद और भक्त कुंभनदास नामक कृष्ण भक्त कवियों के काव्य ग्रंथों में मिलता है। अब तो यह उत्सव पंजाब के मंदिरों में भी मनाया जाने लगा है।
पूर्वांचल की छठ-पूजा—यह उत्सव कार्तिक शुक्ला चतुर्थी से आरंभ हो कर तीसरे दिन षष्ठी की संध्या को संपन्न होता है। वस्तुत: कार्तिकेय का समध्वनि शब्द ‘कार्तिक’ मास है और ‘छठ’ शब्द संस्कृत की ‘षष्ठी’ का अपभ्रंश रूप है। गणेश जी कार्तिकेय जी के बड़े भाई हैं। अत: पूर्वांचल की महिलाएं ‘गणेश चतुर्थी’ को दिन में ‘ठेकुआ’ नाम मिष्टान्न तैयार करती हैं। यह पदार्थ ‘गेहूं’ तथा ‘चने’ का आटा (बेसन) मिलाकर तैयार किया जाता है। वे दिन भर निर्जल व्रत रखती हैं और शाम को बांस की टोकरी—जिसे पूर्वी बोली में ‘डाला’ कहा जाता है—में ठेकुआ के अतिरिक्त चावल, गुड़ की खीर, रोटी तथा केले रखकर सायंकाल के समय किसी नदी अथवा तालाब के किनारे जाकर घर में की गई छठ माता की पूजा के उपलक्ष्य में अस्त होते सूर्य देव को भेंट करती हैं। ‘डाला’ (टोकरी) में रखी सामग्री सूर्यदेव को चढ़ाने के कारण ही, इस लोकोत्सव का नाम ‘सूर्य छठ’ अथवा ‘डाला छठ’ प्रचलित हुआ है। कुछ स्त्रियां ‘टोकरी’ की जगह पूजा की सामग्री ‘छाज’ में ले जाती हैं।
‘षष्ठी माता’ की मूर्ति ‘गोरे रंग’ की होती है और कुछ महिलाएं सूर्यदेव को भेंट किए जाने वाले पदार्थों में गन्ना भी शामिल कर लेती हैं। ‘पंचमी’ और ‘षष्ठी’ को भी वे दिन भर व्रत रखती हैं और दोनों दिन संध्याकाल में सूर्यदेव को यही वस्तुएं भेंट करती हैं। अत्यंत श्रद्धावान स्त्रियां सूर्यदेव को भेंट किए गए पदार्थों का प्रसाद परस्पर बांट लेती हैं और उसी से तृप्त हो जाती हैं। कुछ स्त्रियां सप्तमी के दिन सूर्योदय के समय अपने पतिदेव के साथ किसी जलस्रोत पर जाकर यही वस्तुएं सूर्यदेव को भेंट करने के पश्चात् पतिदेव के चरण स्पर्श करती हैं ।
तमिलनाडु का ‘स्कंद षष्ठी’ पर्व—यह उत्सव तमिल वर्ष के ‘अर्पिसी’ महीने के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर षष्ठी को संपन्न होता है। तिथियों की दृष्टि से यह पूर्वांचल की छठ-पूजा का समानांतर है। भले ही इस त्योहार के नामकरण में ‘स्कंद’ शब्द का प्रयोग हुआ है, फिर भी उसे दक्षिण भारत में ‘सुब्रह्मïण्य’ अथवा ‘मुरुगा’ पुकारा जाता है। इस त्योहार को देवसेना के मुख्य सेनापति द्वारा तारकासुर तथा सुरपद्मन के साथ छह दिन युद्ध करने के पश्चात विजयी होने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। वहां की धार्मिक गाथाओं के अनुसार शिवजी के तृतीय नेत्र से प्रकाश की जो छह किरणें प्रकट हुईं, उससे कार्तिक मास में उनके जिस बालक का जन्म हुआ, उसका एक नाम ‘कार्तिकेय’ भी है।
ये छह किरणें ‘सारावन’ अर्थात् सरकंडे के जंगल में गिरी थीं। इसलिए कार्तिकेय का नाम ‘सरवन बाव’ भी है। ये छह किरणें ‘सारावन’ में गिरते ही छह बालकों के रूप में परिणत हो गईं, जिनका पालन छह सेविकाओं रूपी कृत्तिकाओं ने किया। जब पार्वती जी ने इन बालकों को गोद में उठाया तो यह एक-शरीरी शिशु बन गया। किंतु इसके सिर छह ही रहे, जिसके कारण ‘कार्तिकेय’ का एक अन्य नाम ‘षड्मुख’ प्रचलित हो गया। ये छह चेहरे ज्ञान, वैराग्य, बल, कीर्ति, श्री और ऐश्वर्य प्रदान करने के प्रतीक हैं।
अपने यौवन काल में कार्तिकेय ने देवताओं की सेना का अधिपति बनकर युद्ध में सूरपद्मन राक्षस को मारा तो उसका शरीर दो भागों में बदल गया। उनमें से एक मोर बन गया, जिस पर मूर्तियों में कार्तिकेय जी सवार दिखाई पड़ते हैं। राक्षस के शरीर का दूसरा भाग मुरगे के रूप में नज़र आया, जो कि उनके विजय-ध्वज का चिह्न बन गया। इस प्रकार ‘मोर’ तथा ‘मुरगा’ शब्द कार्तिकेय (स्कंद) के तमिल नाम ‘मुरुगा’ को प्रतिध्वनित करता है। तमिल धार्मिक गाथाओं के अनुसार ‘मुरुगा’ की धर्मपत्नी ‘देवयानी’ की माता नाम ‘वल्ली’ और पिता का नाम इंद्र था। इंद्र नामक यह महापुरुष एक कबीले का मुखिया था। इंद्र तथा देवयानी संबंधी ये तथ्य ‘महाभारत’ से भिन्न हैं।
स्कंद (मुरुगा) से संबंधित छह मुख्य स्थल उसकी जीवन-घटनाओं को सूचित करने के कारण तीर्थ-स्थान माने जाते हैं यथा:
(1) तिरुचेंदुर में उसने ‘सुरपद्मन’ नामक राक्षस का वध किया था। (2) मदुरई के समीपस्थ तिरुप्पर्णकुणरम् में देवयानी के साथ उसका विवाह हुआ था। (3) दिंडीगुल के समीपस्थ ‘पलनी’ में वह इंदुम्बन नामक एक राक्षस के सामने एक युवक के रूप में प्रकट हुआ था। (4) कुंबकोणम् के समीपस्थ ‘स्वामीमलई’ में उसने अपने पिता भगवान् शिव को ‘प्रणव (ऊँ) मंत्र’ की गुत्थियों को समझाया था। (5) वेथिस्वर्णकोइल में उसे शक्ति देवी से ‘वेलायुथम’ (अजेय भाला) प्राप्त हुआ था। (6) त्रिचनगोडे में ‘मुरुगा’ (सुब्रह्मïण्यम) की मूर्ति एक सर्प के रूप में स्थापित है, जिसकी पूजा वासुकि, अनंत, तक्षक, संगपालन, गुलिकन, पद्मन, महापद्मन् तथा करकोटाकन नामक आठ सर्पों के प्रतीक के रूप में की जाती है।
इन मंदिरों में श्रद्धालुजन कांवडिय़ों (बहंगी) में किसी जलस्रोत से पानी के दो घड़े भरकर स्कंद-मूर्ति को उसी प्रकार स्नान करवाते हैं, जैसे फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ‘शिवरात्रि’ के दिन ‘शिवलिंग’ को।
मराठी त्योहार : महाराष्ट्र में ‘षष्ठी देवी’ को सटवी, जिवती सटवाई तथा मनसा भी पुकारा जाता है। मराठी महिलाएं श्रावण मास के प्रत्येक मंगलवार और शुक्रवार को उसके चित्र अथवा गोबर से पोती गई दीवार पर सफेदी से बनाए गए उसके चित्र के सामने अपने बालकों को बैठा कर उनकी तथा देवी की आरती उतारती हैं। घर में तैयार की गई ‘पुरणपोली’ को थाली में रखकर उसका थोड़ा-सा अंश चित्र वाली गोरे रंग की ‘षष्ठी माता’ के मुख पर लगाकर शेष प्रसाद के रूप में बच्चों को बांट दिया जाता है। शाम को षष्ठी माता की ये सधवा माताएं आस-पड़ोस में जाकर संतानवती सधवाओं के माथे पर हलदी और कुमकुम की बिंदी लगाकर हाथ में पकड़ी हुई थाली में रखे हुए भुने हुए चने तथा जल-मिश्रित दूध रूपी चरणामृत उन्हें भेंट करके उनके परिवार की सुख-समृद्धि के लिए आशीर्वाद देती हैं।
मराठी समाज ‘स्कंद’ का उच्चारण स्कंध’ करता है। इसका अपभ्रंश रूप ‘खंडोबा बनाते हैं। मार्गशीर्ष (अगहन) मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से षष्ठी तक के छह दिनों वाले त्योहार को महाराष्ट्र में ‘खंडोबा नवरात्र’ पुकारा जाता है। कहते हैं कि इन दिनों में खंडोबा जी ने मणि और मल्ल नामक दो राक्षसों से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था।

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