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देवशयनी एकादशी बुधवार जुलाई 1 विशेष
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आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इस दिन से भगवान विष्णु चार महीने तक पाताल में शयन करते हैं। ये चार महीने चातुर्मास कहलाते हैं। चातुर्मास को भगवान की भक्ति करने का समय बताया गया है। इस दौरान कोई मांगलिक कार्य भी नहीं किए जाते।

इसके दौरान जितने भी पर्व, व्रत, उपवास, साधना, आराधना, जप-तप किए जाते हैं उनका विशाल स्वरूप एक शब्द में ‘चातुर्मास्य’* कहलाता है। चातुर्मास से चार मास के समय का बोध होता है और चातुर्मास्य से इस समय के दौरान किए गए सभी पर्वों का समग्र बोध होता है।

पुराणों में इस चौमासे* का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। भागवत में इन चार माहों की तपस्या को एक यज्ञ की संज्ञा दी गई है। वराह पुराण में इस व्रत के बारे में कुछ उदारवादी बातें भी बताई गई हैं।

शास्त्रों व पुराणों में इन चार माहों के लिए कुछ विशिष्ट नियम बताए गए हैं। इसमें चार महीनों तक अपनी रुचि व अभीष्ठानुसार नित्य व्यवहार की वस्तुएं त्यागना पड़ती हैं। कई लोग खाने में अपने सबसे प्रिय व्यंजन का इन माहों में त्याग कर देते हैं। चूंकि यह विष्णु व्रत है, इसलिए चार माहों तक सोते-जागते, उठते-बैठते ‘ॐ नमो नारायणाय’ के जप की अनुशंसा की गई है।

इन चार माहों के दौरान शादी-विवाह, उपनयन संस्कार व अन्य मंगल कार्य वर्जित बताए गए हैं। चार मास की अवधि के पश्चात देवोत्थान एकादशी को भगवान जागते हैं।

पौराणिक महत्त्व
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पुराणों के अनुसार बलि नाम के राजा ने तीनो लोकों पर अधिकार कर लिया था। इसलिए इंद्र घबरा कर विष्णु जी के पास गए और उनसे सहायता मांगी। देवराज इंद्र के विनती करने पर व‌िष्‍णु ने वामन अवतार ल‌िया और राजा बल‌ि से दान मांगने पहुंच गए। उन्होंने बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी। बलि ने उन्हें तीन पग भूमि दान में देने के लिए हाँ कर दी। परन्तु भगवान वामन ने विशाल रूप धारण कर के दो पग में धरती और आकाश नाप ल‌िया और तीसरा पग कहां रखे जब यह पूछा तो बल‌ि ने कहा क‌ि उनके स‌िर पर रख दें। इस तरह विष्णु जी ने बलि का अभिमान तोड़ा तथा तीनो लोकों को बलि से मुक्त करवा दिया।

राजा बलि की दानशीलता और भक्त‌ि भाव देखकर भगवान ‌व‌िष्‍णु बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने बल‌ि से वर मांगने के ल‌िए कहा। बलि ने वरदान मांगते हुए विष्णु जी से कहा कि आप मेरे साथ पाताल चलें और हमेशा वहीं न‌िवास करें। भगवान विष्णु ने बलि को उसकी इच्छा के अनुसार वरदान दिया तथा उसके साथ पातल चले गए। यह देखकर सभी देवी देवता और देवी लक्ष्मी चिंतित हो उठे।

देवी लक्ष्मी भगवान व‌िष्‍णु को पाताल लोक से वापिस लाना चाहती थी। इसलिए उन्होंने एक चाल चली। देवी लक्ष्मी ने एक गरीब स्त्री का रूप धारण किया तथा राजा बलि के पास पहुँच गयी। राजा बलि के पास पहुँचने के बाद उन्होंने राजा बलि को राखी बाँध कर अपना भाई बना लिया और बदले में भगवान व‌‌िष्‍णु को पाताल से मुक्त करने का वचन मांग ल‌िया।

भगवान विष्णु अपने भक्त को निराश नही करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बलि को वरदान दिया कि वह हर साल आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्त‌िक शुक्ल एकादशी तक पाताल लोक में न‌िवास करेंगे।

यही कारण है कि इन चार महीनो में भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं और उनका वापन रूप में भगवान का अंश पाताल लोक में होता है।

देवशयनी एकादशी व्रत विधि
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देवशयनी एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठें। पहले घर की साफ-सफाई करें, उसके बाद स्नान आदि कर शुद्ध हो जाएं। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थान पर भगवान विष्णु की सोने, चांदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति स्थापित करें। इसके उसका षोडशोपचार (16 सामग्रियों से) पूजन करें। भगवान विष्णु को पीतांबर (पीला कपड़ा) अर्पित करें। व्रत की कथा सुनें। आरती कर प्रसाद वितरण करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा दक्षिणा देकर विदा करें। अंत में सफेद चादर से ढंके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्रीविष्णु को शयन कराएं तथा स्वयं धरती पर सोएं। धर्म शास्त्रों के अनुसार, यदि व्रती (व्रत रखने वाला) चातुर्मास नियमों का पूर्ण रूप से पालन करे तो उसे देवशयनी एकादशी व्रत का संपूर्ण फल मिलता है।

देवशयनी एकादशी व्रत कथा
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एक बार देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी से देवशयनी एकादशी का महत्व जानना चाहा। तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती राजा थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। एक बार उनके राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई। राजा मांधाता यह देखकर बहुत दु:खी हुए। इस समस्या का निदान जानने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए।

वहां वे एक दिन ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे। अंगिरा ऋषि ने उनके जंगल में घूमने का कारण पूछा तो राजा ने अपनी समस्या बताई। तब महर्षि अंगिरा ने कहा कि सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है, जबकि आपके राज्य में एक अन्य जाति का व्यक्ति तप कर रहा है। इसीलिए आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक उसका अंत नहीं होगा, तब तक यह अकाल समाप्त नहीं होगा।

किंतु राजा का हृदय एक निरपराध तपस्वी को मारने को तैयार नहीं हुआ। तब महर्षि अंगिरा ने राजा को आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने के लिए कहा। राजा के साथ ही सभी नागरिकों ने भी देवशयनी एकादशी का व्रत विधिपूर्वक किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।

भगवान जगदीश जी की आरती
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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥ ॐ जय जगदीश…

जो ध्यावे फल पावे, दुःख बिनसे मन का।
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय जगदीश…

मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी॥ ॐ जय जगदीश…

तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी॥ ॐ जय जगदीश…

तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय जगदीश…

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय जगदीश…

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे।
करुणा हाथ बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय जगदीश…

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय जगदीश…


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