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गुप्त नवरात्रि का गुप्त विज्ञान –

अध्यात्म पथ पर प्रगतिशील साधकों के लिए गुप्त नवरात्रि की अनुपम महिमा है। संपूर्ण वर्ष दरमियान आती ‘शिवरात्रि’ साधक के लिए साधना में प्रवेश करने का काल है तो ‘नवरात्रि’ नवीनीकरण के अवसर की नौ रात्रियाँ हैं। यह नौ रात्रियाँ, प्रकृति की मनुष्य को वह भेंट है, जब मनुष्य अपने भीतर रही मलिनता को पहचान कर हटाने का उद्यम करता है। परिणाम स्वरूप मनुष्य के भीतर इन नव-रात्रियों में नव-निर्माण का आध्यात्मिक कार्य गतिशील होता है।
वैदिक विज्ञान के अनुसार यह सृष्टि एक चक्रीय-धारा में चल रही है, किसी सीधी रेखा में नहीं। प्रकृति के द्वारा हर वस्तु का नवीनीकरण हो रहा है। हर रात्रि के बाद दिवस है तो दिवस के बाद रात्रि। हर पतझड़ के बाद बसंत आती है तो बसंत के बाद पतझड़ निश्चित है। यहाँ जन्म और मृत्यु भी चक्राकार में है और सुख के बाद दुःख तो दुःख के पश्चात् सुख भी निश्चित चल रहा है। प्रकृति की स्थूल से सूक्ष्म तक की सभी रचनाएँ पुरातन से नवीन और नवीन से पुरातन के चक्रीय मार्ग (Circular route) का ही अनुशरण कर रही है। नवरात्रि भी मनुष्य के मन (Mind) व बुद्धि (Intellect) को संसार की दौड़ में से लौट कर स्वयं में खोने का निश्चित सुअवसर है।
संसार में भटकते चित्त को स्वयं के स्तोत्र तक वापिस लौटने के लिए मौन, प्रार्थना, सत्संग और ध्यान के मूलभूत आधार चाहिए। मौन हमारे मन की भटकन को दूर करता है तो प्रार्थना से यही मन ईश्वर में एकाग्र होने की चेष्टा करता है। सत्संग में ईश्वर के स्वरुप का सही निर्णय होता है और साधना का संपूर्ण मार्ग श्री गुरु सत्संग के माध्यम से ही उजागर करते हैं। तत-पश्चात् ध्यान की सम्यक् विधियों के द्वारा मनुष्य अपने मूल स्तोत्र (सत्-चित्त-आनंद) की ओर गमन करते हुए परम-रहस्य का साक्षात्कार करता है ।
नवरात्रि मनुष्य के भीतर आंतरिक यात्रा कर के, नवीनीकरण को प्रकट करने का समय है। यह समस्त ब्रह्माण्ड एक ही शक्ति से उत्पन्न हुआ है, संचालित हो रहा है और उस एक ही शक्ति में विलय को प्राप्त होगा। इसी शक्ति को हम ‘आद्य शक्ति’ कहते हैं। इस शक्ति को असंख्य नाम-रूपों से गाया और पूजा गया है। कोई इसे मात्र ‘देवी’ कहता है तो कोई ‘शक्ति’। कोई देवी और शक्ति को दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी, गौरी आदि के नाम और विविध रूप से पूजता है। परंतु हर मान्यता देवी को ‘माँ’ मानती है क्योंकि समस्त जड़ व चेतन पदार्थों की उत्पत्ति इस एक ही शक्ति में से हुई है और महा-विलय के पश्चात् सब कुछ इस एक शक्ति में ही खो जाता है।
नवरात्रि इस एक शक्ति, आद्य शक्ति को उजागर करने का सुअवसर है। वैसे तो यह शक्ति इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में सक्रिय है परंतु मनुष्य इस महा-रहस्य से अपरिचित है क्योंकि तमस-रजस-सत्त्व गुणों की त्रिगुणात्मकता में ही मनुष्य का मन उलझा हुआ है ।
नवरात्रि के यह नौ दिन हमारे मन में रहे तीन गुणों का शुद्धिकरण करने के दिन हैं। तमस-रजस-सत्त्व से गुंथी हुई मनुष्य की प्रकृति अज्ञानता और मोह के कारण परिभ्रमण में उलझी हुई है। इन नौ- दिनों में क्रमशः इन तीन प्रकृतियों में शुद्धिकरण कर के मनुष्य के भीतर नव-निर्माण की संभावना को दृढ़ करना है।
प्रथम तीन दिवस — तमस का विसर्जन
धर्म संस्कृति में नवरात्रि के प्रथम तीन दिवस ‘देवी दुर्गा माँ’ की पूजा होती है। अध्यात्म संस्कृति में इन प्रतीकों का महत्व होने से ‘देवी दुर्गा माँ’ के रहस्य को समझ कर अपने भीतर शुद्धि करने के यह तीन दिवस हैं। ‘दुर्ग’ का अर्थ होता है पहाड़, पर्वत, शैल। मनुष्य के भीतर पहाड़ जैसा ही अहंकार, अज्ञान और आसक्ति का भण्डार पड़ा है। प्रथम तीन दिवस में मौन-प्रार्थना-सत्संग व ध्यान के चतुर्विध आयाम से मन के भीतर पड़े इस ‘तमस’ को जान कर इससे मुक्त होने की ‘आद्य-शक्ति’ को प्रार्थना करनी है। साथ ही साथ अध्यात्म पथ पर हम सद्गुरू व उनके बताए मार्ग के प्रति पर्वत की तरह अकंप श्रद्धा व निष्ठा से भरे रहे — ऐसी भाव-समृद्ध याचना करनी है।
“ प्रार्थना का यह अटूट नियम है कि जब हम जान बूझ कर किए हुए दोषों से मुक्त होने की याचना करते हैं तो अनजाने में हुए विस्मृत दोषों से भी मुक्त हो जाते हैं।”
द्वितीय तीन दिवस — रजस में विवेक पूर्ण प्रवृति
चौथी-पाँचवी-छठी नवरात्रि में परंपराएँ ‘देवी लक्ष्मी माँ’ की पूजा करती हैं। अध्यात्म संस्कृति में यह ‘रजस’ का प्रतीक है। देवी लक्ष्मी धन का प्रतीकात्मक चित्रण है और मनुष्य जीवन चार प्रकार के धन से संपन्न है। यह धन ज्ञान, समय, शक्ति और संपत्ति के रूप में होता है। नवरात्रि के इन तीन दिनों में मौन-प्रार्थना-सत्संग व ध्यान के माध्यम से अपने जीवन को इन चार प्रकार के धन से समृद्ध करने की याचना हम ‘आद्य शक्ति’ से करते हैं। साथ-ही-साथ इन चार प्रकार की लक्ष्मी का हम विवेक पूर्वक उपयोग कर पाएं ऐसी विनती हम अनंत शक्ति पुंज से करते हैं।
‘देवी लक्ष्मी माँ’ से कुछ इस प्रकार से प्रार्थना होती है –
हे दिव्य आद्य शक्ति! इस मनुष्य जीवन में
ज्ञान का उपयोग स्वयं को जानने में हो,
संसार को जानने मात्र में नहीं।
समय का उपयोग वर्तमान में रहने के लिए हो,
भूत-भविष्य में भटकने के लिए नहीं।
शक्ति का उपयोग दूसरों को धर्म में प्रवृत करने के लिए हो,
अधर्म प्रवृति में सहायक होने के लिए नहीं।
संपत्ति का उपयोग शुभ स्थान व शुभ कारणों में हो,
अशुभ स्थान व कारण में नहीं ।
अंतिम तीन दिवस — सत्त्व में प्रवृत्ति व वृद्धि
नवरात्रि के अंतिम तीन दिवस ‘देवी सरस्वती माँ’ की पूजा होती है जो अध्यात्म संस्कृति में ‘सत्त्व’ का प्रतीक है। सत्त्व यानि मनुष्य के भीतर वह शुभ गुणों का प्रवाह जो उसे शुद्ध अस्तित्व की ओर सतत बहाता जाए।
जब शुभ करना और सोचना मनुष्य की बुद्धि का चुनाव नहीं उसका स्वभाव बन जाए तब सत्त्व प्रकृति में प्रवृति हुई ऐसा माना जाता है। इसी प्रकृति से हम ईश्वर की परा-अनुभूति में प्रवेश कर सकते हैं। तो अंतिम तीन दिवस में हमारे भीतर सत्त्व में प्रवृति, वृद्धि और परा की अनुभूति की प्रार्थना ‘आद्य शक्ति’ से होनी चाहिए।
विजय दशमी — तमस-रजस-सत्त्व पर विजय
जब इस प्रकार से नवरात्रि के नौ-दिनों में संपूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ तमस का विसर्जन होता है, रजस में विवेकपूर्ण प्रवृति होती है और सत्त्व की शुद्धि व वृद्धि होती है तब अंत में विजय-दशमी (दशहरा) का त्यौहार मनाया जाता है। नवरात्रि शुभ की अशुभ पर विजय और शाश्वत की क्षणिक पर विजय का प्रतीक है।
इस प्रकार प्रतीकों और प्रतीक- चिन्हों में गुंथी हमारी संस्कृति हर उत्सव को अनंत शक्ति की शाश्वत सत्ता से जोड़ती है। परंतु अज्ञान व अहंकार की आड़ में, सांसारिक विलास और भौतिक सुख तक ही हमने इन उत्सवों को सीमित कर दिया है। आइये, नवरात्रि के इस दिव्य उत्सव से स्वयं में नवीनीकरण की संभावनाओं को उजागर करें …
हिन्दू धर्म में मोक्ष को एक लक्ष्य के रूप में निरुपित किया गया है, किन्तु मोक्ष की अवधारणा में पर्याप्त मतभेद है । अद्बैतवाद के मोक्ष के साथ बौद्ध दर्शन के मोक्ष में इतनी दूरी है कि दोनों सत्य रहते हुए भी अबोध तथा दुरुह हो जाता है । मोक्ष एक सत्य है । सत्य दो नहीं हो सकता है । सत्य पहुंच हो सकता है वह रास्ता नहीं हो सकता है । रास्ते दो हो सकते हैं, किन्तु स्थान दो नहीं । भारतीय दर्शनशास्त्रियों के विवेचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि मोक्ष पहुंच नही होकर एक रास्ता है । अतः अभ्यासी के लिए यह एक पहेली के समान है ।
समस्त सृष्टि का स्रष्टा शक्ति ( मातृ ) है । वह अव्यक्त , कालातीत, शाश्वत सत्य एवं व्यापक है ।उनकी इच्छा से ही सृष्टि और प्रलय दोनों होती है । समस्त सृष्टि मे संभवतः दुर्गासप्तशती ने ईश्वर की महत्ता को स्वीकार किया है । सृष्टि और स्रष्टा की अलग अलग सत्ता है , किन्तु सृष्टि और स्रष्टा का यह सामंजस्य द्बैतवाद या विशिष्टाद्वैतवाद से नहीं किया जा सकता है । द्बैतवाद या विशिष्टाद्वैतवाद की अवधारणा से दुर्गासप्तशती का द्बैतवाद भिन्न है । मोक्ष के बिना जन्म – मरण से छुटकारा नहीं मिल सकता है और मनुष्य कष्ट से मुक्ति भी नहीं पा सकता है । दुर्गासप्तशती के अनुसार भोग और मोक्ष की प्राप्ति का आधार ईश्वरीय कृपा है और उसके लिए धर्माचरण जरूरी है । धर्म एक साधन है साध्य नही । इसलिए दुर्गासप्तशती को धर्म के परिपेक्ष्य में देखा जाना खोज ( अन्वेषण ) का विषय है । स्मृति से पारिभाषित धर्म की व्यापक परिभाषा के अंतर्गत दुर्गासप्तशती का पाठ या आचरण आ सकता है , किन्तु दुर्गासप्तशती में निहित धर्म धर्मशास्त्रीय परिभाषा से परे है । दुर्गासप्तशती में धर्म की परिभाषा आचरण की दृष्टि से न्यून है. किन्तु इसका प्रभाव व्यापक है ।
विद्याः समस्तास्तव देवी ! भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकलाजगत्सु ।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्वव्यपराः परोक्तिः ।।
सृष्टि एक सहज प्रक्रिया नही है, इसके साथ आनंद भी जुड़ा हुआ है । वह आनंद रचना सृष्टि से पूर्व सम्मेलन के लिए भी है । इस सम्मेलन को नियंत्रित करने के लिए ही नीतिशास्त्र-कल्पसूत्र-स्मृति इत्यादि शास्त्रों में विवाह के साथ जोड़ा गया है । यद्यपि विवाह के साथ जोडें जाने पर भी विवाहेत्तर पुरुष एवं स्त्री में संबंध की चर्चा पुराण एवं इतिहास में दृष्टिपथ पर आती है , भले ही वह गर्हित ( निंदनीय ) है स्मृतियों में विवाहेत्तर संबंध की कौन बात, पति पत्नी के मध्य भी काम पर नियंत्रण करने का विधान किया गया है । अतः साहचर्य के लिए मुहूर्त तक तय किये गया , जिससे सृष्टि उचित समय पर ( अनुकूल ग्रह रहने पर ) हो ।
समस्त धार्मिक संप्रदाय में संभवतः तंत्र एक संप्रदाय है, जिसने “काम” को ईश्वरीय सृष्टि के साथ जोड़कर उत्कृष्ट रचना-क्रम माना । तंत्र ने “काम” को मानवीय संवेदना का एक हिस्सा माना । ‘ काम ‘ प्रकृति प्रदत्त है ।उससे आनंद को हटाया नहीं जा सकता है । काम में सर्वथा पृथक् जीवन की कल्पना नही की जा सकती है और न ही काम के प्रति आसक्त होकर व्यक्ति कुछ कर सकता है । अतः उसकी एक आचार पद्धति में समस्त काम को ईश्वरीय आश्रम में छोड़ दिया गया है ।
हम इस जगत् में प्रकृति के ही दो रुप हैं । सांख्य हमें परब्रह्म का मूर्तिमान संकल्प मानता है । उत्पति, स्थिति और प्रलयमूला त्रिगुणात्मिका प्रकृति के प्रधान अष्टतत्व और निर्माण के लिए अपेक्षित पंचतत्व आदि हम से उत्पन्न होते हैं । नारी पीयूषवर्षिणी आनंदकारिणी और प्रभा-प्रस्विनी साक्षात् प्रकृति है और पुरूष परमात्मा है । दोनों सहज का अखण्ड आधार है क्योंकि ‘ सहज ‘ तत्व पुष्टि में कहीं प्रकृति ( नारी ) से पृथक है तो कहीं उसमें अंतर्भूत है । नारी ही पुरूष को सृष्टि के मूल कारणभूत साहचर्य से हटाकर उसे विजितेन्द्रिय बनाने की क्षमता रखती है । इस प्रकार पुरूष की प्रकृति पर विजीगीषा अथवा उसकी आकांक्षा स्त्री के योग से हीं संभव है । नारी कामदेव का प्रबलतम शस्त्र है । नारी में प्रविष्ट होकर मनोज उसे नवनीता बनाता है और नवनीता की स्निग्धता पाकर नारी पुरूष को पाशबद्ध कर उसे अपना ‘ प्रणयी ‘ बनाती है । शक्ति स्वरूपा नारी ही अपने इस ‘ प्रणय ‘ को समुन्नत अवस्था में पहूँचाकर उसके भीतर के असुर को देवत्व में परिवर्तित करती है । महादेव शिव जब अपने पौरुष को पहचान कर अपना तृतीय नेत्र खोलते हैं तो प्रकृति (नारी ) में स्थिति मन्मथ भष्म होकर ‘ अतनु ‘ हो जाता है । इसलिए प्रकृति पूज्या है क्योंकि पुरुष उसके आलोक से पृथक नहीं है ।
यदि इसे साधना या आध्यात्मिक अथवा मनोवैज्ञानिक प्रभाव से न दबाया जाय तो वह अनैतिक संबंध का कारक बनता है ।
पुत्री शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कारयित्री शक्ति का एक रुप है । तंत्रशास्त्र में इसकी महत्ता सर्वाधिक है । उक्त पुत्री आगे काम्यरूप में उपस्थित है ।
पुत्री शब्द से यह बोध होता है कि उसके जनक और जानकी हैं । मनुष्य रूप में जो उसकी जनक या जानकी होती है , उसकी वह बेटी कहलाती है और वह बेटी शेष लोगों के लिए कुमारी है । तंत्रशास्त्र में कुमारी पूजा का विधान किया गया है । एक ओर ‘ ‘ पत्नी मनोरमां देहि ” और दूसरी ओर ” विद्या समस्तास्तव देवी ” से ध्वनित होता है कि दुर्गासप्तशती में कुमारी पूजा को स्वीकार किया गया है ।
शक्ति पूजा के अनुष्ठान में किसी कुमारी के पूजा संपन्न होने के बाद लोग उसे प्रणाम करते हैं । उसमें उस कन्या के माता – पिता दोनों सम्मिलित होते हैं । सामान्य शिष्टाचार मे पुत्र की भाँति पुत्री को भी माता पिता सहित अपने श्रेष्ठ जनों को पाँव छूकर प्रणाम करना है । उसी ( कुमारी ) पुत्री को विशेष स्थान में श्रेष्ठ जनों के द्बारा प्रणाम किया जाता है एक ही समय में पुत्री की दो स्थिति, सोचने का विषय है ।लेकिन, ” विद्या समस्तास्तव ” से उक्त स्थिति बनती है , जिसे तंत्राचार की दृष्टि से देखा जा सकता है । वृहत् तंत्रसार में कुमारी पूजा का विस्तृत विधान है । किन्तु सामान्यतया दृष्टि-पथ पर आता है कि पूजान्त उसे भोजन करा कर दक्षिणा प्रदान की जाती है । इसी कुमारी का देवी रूप शक्ति रुपिणी देवियों का विस्तार है , जो सृष्टिकर्तृ, सृष्टिरक्षक और सृष्टि संहारिका है । शक्ति का वह रूप लक्ष्मी और दरिद्रा के रूप में भी विस्तारित होती है ।शक्ति या कुमारी के इस रूप को समझने वाला तथा उसके साथ आचरण करने वाला लक्ष्मी को प्राप्त करता है और उसके साथ कलह करनेवाला या शोषण करनेवाला या घृणा करनेवाला दरिद्रा को प्राप्त करता है । इसलिए तंत्राचार पद्धति का पूर्ण विकसित रूप दुर्गासप्तशती है , जिसमें मानवीय रूप में जो स्त्री का स्वरूप बनता है, वह दैवी रूप का ही प्रतिरूप है । वही कुमारी समय आने पर परिणीता बनती है । जिसकी वह परिणीता होती है, उसके साथ उसका रक्तजनित संबंध न हो यानि वह भाई बहन न हो । इसीलिए हिन्दू शास्त्र में सम गोत्र में विवाह नही होता है । विवाह होने के पश्चात वह भैरवी रूप होकर एक भैरव के लिए हो जाती है ।
दुर्गासप्तशती के अनुसार एक भैरव और एक भैरवी की कल्पना है , जो कभी भी नही बदला जा सकता है । ठीक उसी प्रकार जिस तरह एक मंत्र और उसके देवता का परिवर्तन नहीं हो सकता है । एक मनुष्य के लिए एक इष्टदेवी , उसका मंत्र और भैरव – भैरवी का परिवर्तन नही होगा ।, वह एक ही रहेगा । दुर्गासप्तशती की ” विद्या समस्तास्तव ” का यही आधार है । यहाँ तक कि चतुःषष्ठीयोपचार पूजा में भैरव-भैरवी के परस्पर होनेवाले आनंद को धूप- दीप के समान समर्पित किया जाता है और उस प्राणीद्बय के स्रष्टा देवी उसी प्रकार प्रसन्न होती है , जैसी एक मानवीय माँ अपने पुत्र-पुत्री के साथ जमाता या पुत्रवधु की क्रीड़ा से प्रसन्न होती है । प्राणी के प्रसन्न होने से देवी प्रसन्न होती है । पुनः देवी के प्रसन्न होने के उपरांत आशीष मिलता है । दुर्गासप्तशती का काम के संबंध में उक्त विचार आचरणीय और अनुष्ठेय है ।
तारिणी मार्कण्डेयपुराण प्रसिद्धया मदालसया वासिष्ठरामाय प्रसिद्धया चूड़ालया च तुल्याम् ।
आद्यया पुत्रस्तारितोन्यया पतिरेव तारित इति तत्राख्यानात ।।
सूत्र, स्मृति, निबंध आदि में पुत्रार्थ पत्नी की आवश्यकता है अर्थात् पत्नी का प्रायोजन संतान ( पुत्र विशेष ) की प्राप्ति के लिए है , किन्तु अर्गला में संसाररूपी भवसागर से त्राण दिलाने के लिए पत्नी की आवश्यकता मानी गयी है , केवल वह संतान के द्बारा ही न हो, अपितु समस्त दैवी उपासना में साथ रहे । पत्नी संसार से त्राण दिला सकती है ।
सूत्र, निबंध, स्मृति आदि में जो पत्नी की कल्पना की गई है , उससे दुर्गासप्तशती का विरोध प्रतीत होता है । अर्गला एवं सप्तसती के ऋषि तंत्रवाद से प्रभावित हैं, जहाँ पुरूष से ऊपर स्त्री की महत्ता प्रदान की गई है । उसे मातृ शक्ति ( देवी ) के रूप में देखा गया है , जो सृष्टिकर्तृ है। प्राधानिक रहस्य में मातृ शक्ति का विस्तार संपूर्ण सृष्टि है ।सृष्टि के लिए मातृ शक्ति (देवी) ने मातृ रुप का ध्यान किया है । एक ही शक्ति, माँ, बेटी, भगिनी, और बहन के रुप में विस्तारित होती है ।
पति को परमेश्वर की संज्ञा दी गई है , किन्तु पत्नी की पूजा संभवतः दृष्टिपथ पर कम आती है, फिर भी देवी ( शक्ति या स्त्री रुप में ) के एक रुप में पत्नी की पूजा को देखा जा सकता है । रामकृष्ण परमहंस के द्बारा अपनी पत्नी की पूजा करने की बात कही जाती है ।
संप्रति शक्ति के एक रुप (नारी ) को एक विशिष्ट क्रिया के लिए पत्नीत्व प्रदान करना तंत्रशास्त्र का विलक्षण प्रयोग है । उसी प्रयोग का एक रुप दुर्गासप्तशती के अर्गलास्तोत्रम् में है जिससे सुलक्षणा, मनोनुकूल, भवतारिणी पत्नी की प्राप्ति के लिए सप्तसती के मंत्रों को संपुटित किया जाता है । ” विद्या समस्तास्त देवी ” से समस्त स्त्री शक्ति का बोध होता है । उसी मातृत्व शक्ति से पत्नी को प्राप्त करना है । गोरखपंथी भिक्षु ( गुदरिया ) को अंतिम भिक्षा माँ, बहन और पत्नी से लेने की पद्धति के पीछे यही बीज सिद्ध होता है । –
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसार सागरस्य कुलोद्भवाम् ।।
संपूर्ण चित्त शक्ति से पत्नीत्व की प्राप्ति और उससे मिलकर रचना करते हुए वैराग्य की प्राप्ति दुर्गासप्तशती का मूल आधार है । निरुत्तर तंत्र के अनुसार- जहाँ कहीं किसी नारी का दर्शन हो जाय , तत्क्षण उसे काली के रूप में देखें । वह निर्जन स्थान हो , वन हो अथवा श्मशान ।
[साल में चार नवरात्र होते हैं, जिनमें से दो गुप्त नवरात्र होते हैं. गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय होता है. आमतौर पर लोग दो नवरात्रों के बारे में जानते हैं- चैत्र या वासंतिक नवरात्र और आश्विन या शारदीय नवरात्र. इसके अलावा दो और नवरात्र भी हैं. जिनमें विशेष कामनाओं की सिद्धि की जाती है. कम लोगों को इसका ज्ञान होने के कारण या इसके छिपे हुए होने के कारण इसको गुप्त नवरात्र कहते हैं.
साल में दो बार गुप्त नवरात्रि आती हैं- माघ शुक्ल पक्ष में और आषाढ़ शुक्ल पक्ष में इस प्रकार कुल मिलाकर साल में 4 बार नवरात्रि आती है. ये चारों ही नवरात्रि ऋतु परिवर्तन के समय मनाई जाती हैं. महाकाल संबिता और तमाम शाक्त ग्रंथों में इन चारों नवरात्रों का महत्व बताया गया है. इनमें विशेष तरह की इच्छा पूर्ति और सिद्धि प्राप्त करने के लिए पूजा और अनुष्ठान किया जाता है. इस बार आषाढ़ महीने के गुप्त नवरात्र 24 जून से आरंभ हो रही हैं.
सामान्य नवरात्रि में आमतौर पर सात्विक और तांत्रिक पूजा की जाती है. लेकिन गुप्त नवरात्रि में आमतौर पर ज्यादा प्रचार प्रसार नहीं किया जाता अपनी साधना को गोपनीय रखा जाता है. गुप्त नवरात्रि में पूजा मनोकामना जितनी ज्यादा गोपनीय होगी, सफलता उतनी ज्यादा मिलेगी.
गुप्त नवरात्रि में मां की पूजा विधि के लिए नौ दिनों तक कलश की स्थापना की जा सकती है. अगर कलश की स्थापना की है, तो दोनों वेला मंत्र जाप करें, चालीसा या सप्तशती का पाठ करना चाहिए. दोनों समय आरती भी करना अच्छा होगा. मां को दोनों वेला भोग भी लगाएं, सबसे सरल और उत्तम भोग हैं लौंग और बताशा मां के लिए लाल फूल सर्वोत्तम होता है, पर मां को आक, मदार, दूब और तुलसी बिल्कुल ना चढ़ाएं पूरे नौ दिन अपना खान-पान और आहार सात्विक रखें.
अगर विवाह में कोई बाधा आ रही है तो पूरे 9 दिन देवी को पीले फूलों की माला अर्पित करें.
इस मंत्र का जाप करें-
कात्यायनी महामाये, महायोगिनयधीश्वरी नन्दगोपसुतं देवी, पति में कुकू ते नम:.
अगर संतान प्राप्ति में कोई समस्या आ रही है तो 9 दिन देवी को पान का पप्ता अर्पित करें. पान का पत्ता टूना नहीं होना चाहिए. इस मंत्र का जाप करें-
नन्दगोपगृह जाता यशोदागर्भ सम्भवा ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी.
इस मंत्र का जाप करने से आपकी मनोकामना पूरी होगी.
अगर नौकरी में किसी भी तरह की समस्या आ रही है तो इसके लिए 9 दिन तक देवी को बताशे पर रखकर लौंग अर्पित करें. इस मंत्र का जाप करें-
सर्वबाधा विनिर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वित: मनुष्यो मत्प्रसादेने भविष्यति ना संशय:.
गुप्त नवरात्रि पर खराब सेहत से भी छुटकारा पाया जा सकता है. 9 दिन देवी को लाल फूल अर्पित करें और इस मंत्र का जाप करें-
ऊं क्रीं कालिकायै नम:.
मुकदमे शत्रु और कर्जे की समस्या से छुटकारा पाने के लिए 9 दिन के समक्ष गुग्गल की सुगंध वाला धूप जलाएं और इस मंत्र का जाप करें
ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे.
ऐसा करने से आपकी समस्या दूर होगी. सभी तरह की समस्यों को दूर करने के लिए 9 दिन देवी के सामने अखंड दीपक जलाएं
इस मंत्र का जाप करें-
ऊं दुं दुर्गाय नम:

        

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