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: 💐🕉श्री परमात्मने नमः💐

🌷आशा और विश्वास🌷

🌹आशा ही जीवन है….🌹

  💐वेदों का ऐसा मत है कि मनुष्य! बीते समय की स्मृतियों से निराश न हो, ऐसे विचार जो तुम्हें निराश करें उन्हें अपने मन में न आने दें। "आरोह तमसो ज्योतिः" निराश के अंधेरे से आशा के उजाले की ओर चल। परमात्मा तेरे सहायक हैं।

    जीवन आशा और विश्वास का नाम है। जीवन को अगर एक नदिया कहा जाये तो आशा और निराशा दो किनारे हैं। व्यक्ति कभी निराश-हताश हो जाता है, कभी आशा, उत्साह से युक्त ।
    हरी-हरी पत्तियों और तीखे शूलों के बीच मुस्काती मदकाती कलियों के होठों पर कल पूर्ण सुमन बनने की आशा होती है। कमल की कोमल पंखुडि़यों में बंद भौंरे कल तक जाने का स्वर्णिम अवसर का सहारा आशा ने ही तो दिया है। वसंत के गीत गाती कोयल के स्वर और आशा की मधुर तानें भरी हुई हैं। लहलहाती प्रकृति के हरित पट में आशा का गहरा रंग भरा है। ऊँची सुदूर उड़ान के पक्षियों में जो मस्ती दिखाई पड़ती है उसमें आशा ही बलवती है। निराशा जीवन का बंधन है, दुःख है, एक जंजीर है।

हम लोगों में से अधिकांश तो ऐसे हैं जो सांस लेने वाले मुर्दे हैं। क्योंकि उनमें कोई आशा नहीं, कोई आकांक्षा नहीं। जीवन वास्तव में एक गति है, लाश प्रतीक है जड़ता की, गतिहीनता की। जीवन प्रतीक है जागरण का, प्रगति का। हमारा अस्तित्व ये शरीर नहीं है हमारा अस्तित्व हमारी आत्मा है। मैं आत्मा हूं, इन्द्र हूं, हम सब इन्द्र हैं। हमारे अस्तित्व में सिमटे हैं जीवन के कार्यकलाप, उदात्त भावनाएं और अपनी परिस्थितियों से ऊपर उठने की कामना । आप इन्द्र हैं, राजा हैं, अमर आत्मन हैं, तो क्या मौत तुम्हें मार देगी? परिस्थितियां तुम्हें गला देंगी। जला देंगी? डूबा देंगी? बिल्कुल नहीं जिसने यह विश्वास कर लिया मैं इन्द्र हूं, किसी से परजित नहीं हो सकता, उसे यह आत्मविश्वास ही जितायेगा।

 बजिसकी जिन्दगी कमजोर है उसे बीमारी खा जायेगी। उसका अस्तित्व आंधी में पड़े पीले पत्ते की तरह है जिसे बहा कर परिस्थितियां जहां चाहे ले जा सकती है। शक्तिहीन, दुर्बल, निराशावान् कभी एकनिष्ठ नहीं हो सकता। और न ही वह स्थिर रह सकता है। कभी उसे दुष्ट और उदण्ड शक्तियां अपनी ओर खींचेगी तो कभी वह देवत्व की ओर आकर्षित होगा। इसी खींचातानी में उसका अस्तित्व बिखर जायेगा। आशा और स्वप्न में यही अंतर है, स्वप्न का कोई आधार नहीं होता, और आशा का आधार होता है। आशा विश्वास को जन्म देती है। विश्वास बल के भरोसे पर ही टिका है। नैराश्य दृष्टिकोण शक्तिहीनता और अस्वस्थता का द्योतक है। जवानी आशा को जन्म देती है क्योंकि उसमें शक्ति है। बुढ़ापा नैराश्य को जन्म देता है क्योंकि उसमें अपने ऊपर भरोसा नहीं। शक्तिहीन टूटे खण्डहरों में ही निराशा की खाक उड़ा करती हैं वहां सदा मौत की उदास और काली छाया ही मंडराया करती है।
  आज हर क्षेत्र में निराशा के भयावह घनघोर बादल छाये हुए हैं। सारा वातावरण आतंक के पंजे में समाया हुआ है। राष्ट्र की सीमाओं की ओर काली छाया बढ़ती जा रही है। अपने ही घर के अंदर ज्वालामुखी फूट रहे हैं। रक्षक और शासक जनता जनार्दन का विश्वास खो बैठे हैं। हर तरफ से शैतानियत की गंदी चीखें सुनाई पड़ रही है। चरित्र का गला घोंट दिया गया है। ईमानदारी मुंह छुपाये बैठी है। देशभक्तों और प्रहरियों का उत्साह सो गया है। निराशा की गहरी रात्रि जवान होती जा रही है। तो क्या सूरज अब नहीं उगेगा? सूरज जरूर उगेगा और जब उगेगा तो अपने असंख्य तीरों से इस रात्रि रूप दैत्य का सीना चीर देगा। दूर-दूर तक कहीं अंधेरा नजर नहीं आयेगा।
   यदि निराशा ने आपके मन में घर कर लिया तो जान जाइये कि आपका बुढ़ापा आ गया है, आपकी शक्ति आपका साथ छोड़ रही है। अगर आपको जिन्दा रहना है तो उदास अंधेरी जिन्दगी को आशा की लाठी दिखाइये और फिर देखिये आपकी तरूणाई नृत्य कर उठेगी। बिना आशा के जिन्दगी बिना तारों की वीणा जैसी है, जिन्दगी के तारों को सजाइये और छेडि़ए एक मीठी रागिनी, जिससे वातावरण चहक उठे। आसमान के सितारे झूम उठें। सच मानिए, आपका सजीव व्यक्तित्व आशा के मनोहारी संगीत पर थिरक उठेगा। जीवन की डोर है आशा और विश्वास इसे कभी मत छोडि़ए।💐


: गुरु का आदेश

एक शिष्य था समर्थ गुरु रामदास जी का जो भिक्षा लेने के लिए गांव में गया और घर-घर भिक्षा की मांग करने लगा। 

समर्थ गुरु की जय ! भिक्षा देहिं….
समर्थ गुरु की जय ! भिक्षा देहिं….
एक घर के भीतर से जोर से दरवाजा खुला ओर एक बड़ी-बड़ी दाढ़ी वाला तान्त्रिक बाहर निकला और चिल्लाते हुए बोला – मेरे दरवाजे पर आकर किसी दूसरे का गुणगान करता है। कौन है ये समर्थ??
शिष्य ने गर्व से कहा– मेरे गुरु समर्थ रामदास जी… जो सर्व समर्थ है।
तांत्रिक ने सुना तो क्रोध में आकर बोला कि इतना दुःसाहस कि मेरे दरवाजे पर आकर किसी और का गुणगान करे .. तो देखता हूँ कितना सामर्थ्य है तेरे गुरु में !
मेरा श्राप है कि तू कल का उगता सूरज नही देख पाएगा अर्थात् तेरी मृत्यु हो जाएगी।
शिष्य ने सुना तो देखता ही रह गया और आस-पास के भी गांव वाले कहने लगे कि इस तांत्रिक का दिया हुआ श्राप कभी भी व्यर्थ नही जाता.. बेचारा युवावस्था में ही अपनी जान गवा बैठा….
शिष्य उदास चेहरा लिए वापस आश्रम की ओर चल दिया और सोचते-सोचते जा रहा था कि आज मेरा अंतिम दिन है, लगता है मेरा समय खत्म हो गया है।
आश्रम में जैसे ही पहुँचा। गुरु सामर्थ्य रामदास जी हँसते हुए बोले — ले आया भिक्षा?
बेचार शिष्य क्या बोले—!

गुरुदेव हँसते हुए बोले कि भिक्षा ले आया।
शिष्य– जी गुरुदेव! भिक्षा में मैं अपनी मौत ले आया हूँ ! और सारी घटना सुना दी और एक कोने में चुप-चाप बैठ गया।
गुरुदेव बोले अच्छा चल भोजन कर ले।
शिष्य– गुरुदेव! आप भोजन करने की बात कर रहे है और यहाँ मेरा प्राण सूख रहा है। भोजन तो दूर एक दाना भी मुँह में न जा पाएगा।
गुरुदेव बोले— अभी तो पूरी रात बाकी है अभी से चिंता क्यों कर रहा है, चल ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा। ओर यह कहकर गुरुदेव भोजन करने चले गए।
फिर सोने की बारी आई तब गुरुदेव शिष्य को बुलाकर आदेश किया – हमारे चरण दबा दे!
शिष्य मायूस होकर बोला! जी गुरुदेव जो कुछ क्षण बचे है जीवन के, वे क्षण मैं आपकी सेवा कर ही प्राण त्याग करूँ यहिं अच्छा होगा। ओर फिर गुरुदेव के चरण दबाने की सेवा शुरू की।
गुरुदेव बोले– चाहे जो भी हो जाय चरण छोड़ कर कहीं मत जाना ।
शिष्य– जी गुरुदेव कही नही जाऊँगा।
*गुरुदेव ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया कि *चरण मत छोड़ना, चाहे जो हो जाए।*
यह कह कर गुरुदेव सो गए।
शिष्य पूरी भावना से चरण दबाने लगा।
रात्रि का पहला पहर बीतने को था अब तांत्रिक अपनी श्राप को पूरा करने के लिए एक देवी को भेजा जो धन से सोने-चांदी से, हीरे-मोती से भरी थाली हाथ में लिए थी।
शिष्य चरण दबा रहा था। तभी दरवाजे पर वो देवी प्रकट हुई और कहने लगी – कि इधर आओ ओर ये थाली ले लो। शिष्य भी बोला– जी मुझे लेने में कोई परेशानी नही है लेकिन क्षमा करें! मैं वहाँ पर आकर नही ले सकता। अगर आपको देना ही है तो यहाँ पर आकर रख दीजिए।
तो वह देवी कहने लगी कि– नही !! नही!! तुम्हे यहाँ आना होगा। देखो कितना सारा माल है। शिष्य बोला– नही। अगर देना है तो यही आकर रख दो।
तांत्रिक ने अपना पहला पासा असफल देख दूसरा पासा फेंका रात्रि का दूसरा पहर बीतने को था तब तांत्रिक ने भेजा….

शिष्य समर्थ गुरु रामदास जी के चरण दबाने की सेवा कर रहा था तब रात्रि का दूसरा पहर बीता और तांत्रिक ने इस बार उस शिष्य की माँ का रूप बनाकर एक नारी को भेजा।
शिष्य गुरु के चरण दबा रहा था तभी दरवाजे पर आवाज आई — बेटा! तुम कैसे हो?
शिष्य ने अपनी माँ को देखा तो सोचने लगा अच्छा हुआ जो माँ के दर्शन हो गए, मरते वक्त माँ से भी मिल ले।
वह औरत जो माँ के रूप को धारण किये हुए थी बोली – आओ बेटा गले से लगा लो! बहुत दिन हो गए तुमसे मिले।
शिष्य बोला– क्षमा करना मां! लेकिन मैं वहाँ नही आ सकता क्योंकि अभी गुरुचरण की सेवा कर रहा हूँ। मुझे भी आपसे गले लगना है इसलिए आप यही आ कर बैठ जाओ।
फिर उस औरत ने देखा कि चाल काम नही आ रहा है तो वापिस चली गई।
रात्रि का तीसरा पहर बीता ओर इस बार तांत्रिक ने यमदूत रूप वाला राक्षस भेजा।
राक्षस पहुँच कर उस शिष्य से बोला कि चल तुझे लेने आया हूँ तेरी मृत्यु आ गई है। उठ ओर चल…
शिष्य भी झल्लाकर बोला– काल हो या महाकाल मैं नही आने वाला ! अगर मेरी मृत्यु आई है तो यही आकर मेरे प्राण ले लो,लेकिन मैं गुरु के चरण नही छोडूंगा!
फिर राक्षस भी उसका दृढ़। निश्चय देख कर वापिस चला गया।
सुबह हुई चिड़ियां अपनी घोसले से निकलकर चिचिहाने लगी। सूरज भी उदय हो गया।
गुरुदेव रामदास जी नींद से उठे और शिष्य से पूछा कि – सुबह हो गई क्या ?
शिष्य बोला– जी! गुरुदेव सुबह हो गई
गुरुदेव – अरे! तुम्हारी तो मृत्यु होने वाली थी न, तुमने ही तो कहा था कि तांत्रिक का श्राप कभी व्यर्थ नही जाता। लेकिन तुम तो जीवित हो…!! गुरुदेव ने मुस्कराते हुए ऐसा बोला।
शिष्य भी सोचते हुए कहने लगा – जी गुरुदेव, लग तो रहा हूँ कि जीवित ही हूँ। अब शिष्य को समझ में आई कि गुरुदेव ने क्यों कहा था कि — चाहे जो भी हो जाए चरण मत छोड़ना। शिष्य गुरुदेव के चरण पकड़कर खूब रोने लगा बार बार मन ही मन यही सोच रहा था – *जिसके सिर उपर आप जैसे गुरु का हाथ हो तो उसे काल भी कुछ नही कर सकता है।
*मतलब कि गुरु की आज्ञा पर जो शिष्य चलता है उससे तो स्वयं मौत भी आने से एक बार नही अनेक बार सोचती है।*
करता करें न कर सके, गुरु करे सो होय
तीन-लोक,नौ खण्ड में गुरु से बड़ा न कोय

पूर्ण सद्गुरु में ही सामर्थ्य है कि वो प्रकृति के नियम को बदल सकते है जो ईश्वर भी नही बदल सकते, क्योंकि ईश्वर भी प्रकृति के नियम से बंधे होते है लेकिन पूर्ण सद्गुरु नही।

🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏
🌷किराये का घर🌷

   *जब हम "किराए का मकान" लेते है तो "मकान मालिक" कुछ शर्तें रखता है !*

1. मकान का किराया समय पर देना होगा।
2. मकान में गंदगी नही फैलाना।
3. मकान मालिक जब चाहे मकान को खाली करवा सकता है !!

 *उसी प्रकार परमात्मा जी (मालिक) ने भी हमें जब ये शरीर दिया था यही शर्ते हमारे लिये देकर भेजा हैः*

1. किराया है। (भजन -सिमरन)
2. गन्दगी (बुरे विचार और बुरी भावनाये) नही फैलानी।
3. जब मर्जी होगी परमात्मा अपनी आत्मा को वापिस बुला लेगा !! मतलब ये है कि ये जीवन हमे बहुत थोड़े समय के लिए मिला है, इसे लड़ाई -झगड़े करके या द्वेष भावना रखकर नही, बल्कि प्रभु जी के नाम का सिमरन करते हुए बिताना चाहिए !

 *हे मेरे प्रभु जी !इतनी कृपा करना कि आपकी आज्ञा  में रहे और भजन -सुमिरन करते रहे!!*

“ए जन्म मानुष का जो मिला।
ईश्वर की कृपा का प्रसाद समझ।*
बे कदरी ना कर परमात्मा की।
जप नाम जीवन का राज समझकर !!”

🕉🌹जय श्री राम🌹🕉
: हम समाज से अलग नही है हम जो करते है वो लौट कर किसी न किसी रूप में हम तक आता है ।
आप जो करते है उसका असर मुझपे पड़ता है और जो मैं करता हूँ उसका असर आप पर पड़ता है।
हम सब एक दूसरे से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए है इस बात का अहसास हमे होना चाहिए।
हम इस धरती पर समान रूप से भागीदार है हमे जिम्मेदारी के साथ आपस में व्यवहार करना सीखना चाहिए।

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏

     *भोग बुरे नहीं हैं अपितु उनकी आसक्ति बुरी है। भोगों को इस प्रकार भोगो कि समय आने पर इन्हें छोड़ा भी जा सके। श्री कृष्ण से बड़ा अनासक्त कोई नहीं हुआ। द्वारिका में राजसी सुखों में रहे तो वहीं जरुरत पड़ने पर अर्जुन का रथ भी हाँकने लगे। कभी सुदामा के चरणों में बैठ गए तो कभी विदुर की झोंपड़ी में डेरा डाल दिया।*
      *जब तक द्वारिका की सत्ता पर आसीन रहे पूरी प्रजा को पुत्रवत पाला पर जब स्थिति, कुल और धर्म दोनों में से किसी एक को चुनने की आ गई तो बिना कुलासक्ति के धर्म को चुन लिया। विवाह किये तो इतिहास ही रच ड़ाला और त्यागने का समय आया तो ऐसे त्याग दिया जैसे उनसे कभी कोई सम्बन्ध ही ना रहा हो।*
    *यह अनासक्ति ही भगवान् श्री कृष्ण की प्रसन्नता का कारण बनी। इस दुनिया में जो भी अनासक्त भाव से कर्म में लिप्त रहते हैं उन्हें आनंद प्राप्ति से कोई नहीं रोक सकता।*

*जय श्री कृष्ण*🙏🙏

: * गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि :*

  • केवल मूर्ति में मेरा दर्शन करने वाला नहीं..*

अपितु सारे संसार में प्रत्येक जीव के भीतर और कण-कण में मेरा दर्शन करने वाला ही मेरा भक्त है।

( दृष्टि भेद मत रखो – सब को सम्मान दो )

प्रत्येक वस्तु परमात्मा की है, अपनी मानते ही वह अशुद्ध हो जाती है।
( इदम तृतीयम सर्वंम – परमात्मा का है )

तुम भी परमात्मा के ही हो, परमात्मा से अलग अपना अस्तित्व स्वीकार करते ही तुम भी अशुद्ध हो जाते हो।
( आस्तिक बनो , परमात्मा के अस्तित्व का स्वीकार करो)

प्रकृति में परमात्मा नहीं, अपितु ये प्रकृति ही परमात्मा है।
( प्रकृति की हर चीज़ – परमात्मा की है )

जगत और जगदीश अलग-अलग नहीं, -एक ही तत्व हैं।
( इसीलिए श्रीकृष्ण जगतगुरु है )

परमात्मा का जो हिस्सा दृश्य हो गया है .. “वह जगत है ..!
( जो कुछ भी हमें नज़र आता है वह सब – परमात्मा की ही मेहरबानी है )

और जगत का जो हिस्सा अदृश्य रह गया .. “वह जगदीश है।”
( जग – जगदीश – जगतेश्वर १ ही है )

संसार से दूर भागकर कभी भी परमात्मा को नहीं पाया जा सकता है।
( सन्यास नही लेना है – वह पलायनवाद है )

संसार को समझकर ही भगवान् को पाया जा सकता है।
( संसार -संस्कृति – समाज – सब ईश्वरीय लीला है )

जगत में कहीं दुःख, अशांति, भय नहीं है।
( दुख – दर्द – दरिद्रता सब मन का भ्रम है)

  • यह सब तो तुम्हें अपने मनमाने – “आचरण, असंयमता और -विवेक के अभाव” के कारण ..
  • प्राप्त हो रहा है।
    ( ये सब यही जन्म का फल है )

प्रेम से बोलो “जय श्री कृष्ण..
विनम्र निवेदन …एक बार श्रीमद्भगवद्गीता अवश्य पढ़े अपने जीवन में । 🙏
परम भगवान श्री कृष्ण सदैव आपकी स्मृति में रहें
श्री कृष्ण शरणं मम
ये महामंत्र नित्य जपें और खुश रहें। 😊
सदैव याद रखें और व्यवहार में आचरण करें। ईश्वर दर्शन अवश्य होंगे।
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मित्रों बताई हुई विधि के अनुसार श्वास पर ध्यान करते रहे
🌹🌹🌹

👉🏿सुखी रहने का सफल मंत्र


दुख पर ध्यान दोगे तोहमेशा दुखी रहोगे, सुख पर ध्यान देना शुरू करो। दअसल, तुम जिस पर ध्यान देते हो वह चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी कुंजी है।


दुख को त्यागो। लगता है कि तुम दुख में मजा लेने वाले हो, तुम्हें कष्ट से प्रेम है। दुख से लगाव होना एक रोग है, यह विकृत प्रवृत्ति है, यह विक्षिप्तता है। यह प्राकृतिक नहीं है, यह बदसूरत है।

पर मुश्किल यह है कि सिखाया यही गया है। एक बात याद रखो कि मानवता पर रोग हावी रहा है, निरोग्य नहीं और इसका भी एक कारण है। असल में स्वस्थ व्यक्ति जिंदगी का मजा लेने में इतना व्यस्त रहता है कि वह दूसरों पर हावी होने की फिक्र ही नहीं करता।

अस्वस्थ व्यक्ति मजा ले ही नहीं सकता, इसलिए वह अपनी सारी ऊर्जा वर्चस्व कायम करने में लगा देता है। जो गीत गा सकता है, जो नाच सकता है, वह नाचेगा और गाएगा, वह सितारों भरे असामान के नीचे उत्सव मनाएगा। लेकिन जो नाच नहीं सकता, जो विकलांग है, जिसे लकवा मार गया है, वह कोने में पड़ा रहेगा और योजनाएँ बनाएगा कि दूसरों पर कैसे हावी हुआ जाए। वह कुटिल बन जाएगा। जो रचनाशील है, वह रचेगा। जो नहीं रच सकता, वह नष्ट करेगा, क्योंकि उसे भी तो दुनिया को दिखाना है कि वह भी है।

जो रोगी है, अस्वस्थ है, बदसूरत है, प्रतिभाहीन है, जिसमें रचनाशीलता नहीं है, जो घटिया है, जो मूर्ख है, ऐसे सभी लोग वर्चस्व स्थापित करने के मामले में काफी चालाक होते हैं। वे हावी रहने के तरीके और जरिए खोज ही निकालते हैं। वे राजनेता बन जाते हैं। वे पुरोहित बन जाते हैं। और चूँकि जो काम वे खुद नहीं कर सकते, उसे वे दूसरो को भी नहीं करने दे सकते। इसलिए वे हर तरह की खुशी के खिलाफ होते हैं।

जरा इसके पीछे का कारण देखो। अगर वह खुद जिंदगी का मजा नहीं ले सकता तो वह कम से कम तुम्हारे मजे में जहर तो घोल ही सकता है। इसीलिए सभी तरह के विकलांग एक जगह जमा होकर अपनी बुद्धि लगाते हैं ताकि जोरदार नैतिकता का ढाँचा खड़ा कर सकें और फिर उसके आधार पर हर चीज की भर्त्सना कर सकें। बस कुछ न कुछ नकारात्मक खोज निकालना है, वह तुम्हें मिल ही जाएगा, क्योंकि वह तो समस्त सकारात्मकता के अंग के रूप में होता ही है।

जब तुम प्रेम करते हो, तो नफरत भी कर सकते हो। जो व्यक्ति नपुंसक है और प्रेम नहीं कर सकता, वह हमेशा नकारात्मक पर ही जोर देगा। वह हमेशा नकारात्मक को ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा। वह हमेशा तुमसे कहेगा- अगर तुम प्रेम में पड़े तो दुख उठाओगे। तुम जाल में फँस जाओगे, तुम्हें तकलीफें भोगनी होंगी। और, स्वाभाविक रूप से जब भी घृणा के क्षण आएँगे और तुम दुख का सामना करोगे तो तुम्हें वह व्यक्ति याद आएगा कि वह सही कहता था।

फिर, घृणा के क्षण तो आने ही हैं। फिर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि मनुष्य रोगों के प्रति ज्यादा सचेत होता है न कि स्वास्थ्य के प्रति। जब स्वस्थ होते हो तो तुम अपने शरीर के बारे में भूल जाते हो। लेकिन, जैसे ही सिर दर्द होता है या और कोई दर्द, या फिर पेट का दर्द तो देह को नहीं भूल पाते। देह होती है तब, प्रमुखता से होती है, बड़े जोर से होती है, वह तुम्हारा दरवाजा खटखटाती है। वह तुम्हारा ध्यान खींचती है।

जब तुम प्रेम में होते हो और खुश होते हो तो भूल जाते हो। लेकिन, जब संघर्ष, नफरत और गुस्सा होता है तो तुम उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हो। ऊपर से वे विकलांग लोग, वे नैतिकतावादी, वे पुरोहित, वे राजनेता, वे मिल कर चिल्लाते हैं एक स्वर से कि देखो, हमने तुमसे पहले ही कहा था, और तुमने हमारी नहीं सुनी। प्रेम को त्यागो। प्रेम दुख बनाता है। इसे त्यागो, उसे त्यागो, जीवन को त्यागो। इन बातों को अगर बार-बार दोहराया जाता रहता है तो उनका असर होने लगता है। लोग उनके सम्मोहन में फँस जाते हैं।

तुम कहते हो कि तुम उपवास करते रहे हो, तुमने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है। उपवास का भला बुद्धत्व से क्या ताल्लुक हो सकता है? ब्रह्मचर्य का बुद्धत्व से कोई संबंध नहीं हो सकता? बेतुकी बात है। जो भी तुम करते हो जैसे कि तुम कहते हो कि मैं बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए रात-रात भर जागता रहता हूँ। दिन में बुद्धत्व प्राप्त करने की कोशिश क्यों नहीं करते? रात भर जागने की क्या जरूरत है? ये कुदरत के विरोध में तुम कयों खड़े हुए हो?

बुद्धत्व प्रकृति के खिलाफ नहीं होता। वह प्रकृति की परितृप्ति है। वह तो प्रकृति की चरम अभिव्यक्ति है। वह तो जितना संभव हो सकता है, उतनी प्रकृति है। प्रकृति के खिलाफ होने पर नहीं, बल्कि साथ होने पर ही तुम बुद्धत्व तक पहुँचते हो। वह बहाव के खिलाफ तैरने से नहीं, बल्कि उसके साथ बहने से मिलता है। नदी की यात्रा तो पहले से ही समुद्र की तरफ है। तुम्हें उसके खिलाफ तैरना शुरू करने की कोई जरूरत नहीं, जबकि तुम करते यही रहे हो।

अब तुम पूछोगे कि तो मुझे क्या करना चाहिए? मैं कहूँगा कि दुख के प्रति अपनी आसक्ति त्याग दो। तुम बुद्धत्व की खोज नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम तो दुख की खोज में लगे हुए हो। बुद्धत्व तो सिर्फ एक बहाना है।

जीवन से प्रेम करो, और अधिक खुश रहो। जब तुम एकदम प्रसन्न होते हो, संभावना तभी होती है, वरना नहीं। कारण यह है कि दुख तुम्हें बंद कर देता है, सुख तुम्हें खोलता है। क्या तुमने यही बात अपने जीवन में नहीं देखी? जब भी तुम दुखी होते हो, बंद हो जाते हो, एक कठोर आवरण तुम्हें घेर लेता है। तुम खुद की सुरक्षा करने लगते हो, तुम एक कवच-सा ओढ़ लेते हो। वजह यह है कि तुम जानते हो कि तुम्हें पहले से काफी तकलीफ है और अब तुम और चोट बर्दाश्त नहीं कर सकते। दुखी लोग हमेशा कठोर हो जाते हैं। उनकी नरमी खत्म हो जाती है, वे चट्टानों जैसे हो जाते हैं।

एक प्रसन्न व्यक्ति तो एक फूल की तरह है। उसे ऐसा वरदान मिला हुआ है कि वह सारी दुनिया को आशीर्वाद दे सकता है। वह ऐसे वरदान से संपन्न है कि खुलने की जुर्रत कर सकता है। उसके लिए खुलने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी कुछ कितना अच्छा है, कितना मित्रतापूर्ण है। पूरी प्रकृति उसकी मित्र है। वह क्यों डरने लगा? वह खुल सकता है। वह इस अस्तित्व का आतिथेय बन सकता है। वही होता है वह क्षण जब दिव्यता तुममें प्रवेश करती है। केवल उसी क्षण में प्रकाश तुममें प्रवेश करता है, और तुम बुद्धत्व प्राप्त करते हो।

साभार: दि रिवोल्यूशन पुस्तक से
सौजन्य: ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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: वृद्धावस्था की स्थिति का वर्णन करते हुए कपिल भगवान कहते हैं कि बुढ़ापा सरस बनना चाहिए। आजकल लोग बुढ़ापे को एक शाप मानते हैं, जबकि बुढ़ापा तो दैवी उपहार (डिवाइन गिफ्ट) है:- आँखों से दिखाई नहीं देता तो अपने अन्दर झांक कर ईश्वर का दर्शन करना चाहिए। कानों से कुछ सुनाई नहीं देता तो कृष्ण की वंशी की मधुर आवाज़ सुननी चाहिए। जब बुढ़ापे में दाँत उखड़ जाते हैं तो मुख से बोलना कुछ चाहते हैं और निकलता कुछ और है, क्योंकि दाँतों के न होने से हवा निकल जाती है। अतः बुढ़ापे में कम बोलना चाहिए और मौन रहकर साधना करनी चाहिए। बुढ़ापे में पैरों से चला नही जाता इसलिये एकांत में बैठकर ठाकुर का भजन करना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि हमें सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए क्योंकि ईश्वर के विधान के पीछे कोई न कोई हितपूर्ण कारण होता है। यानी कि बाल्यावस्था में जैसे-जैसे जिन चीजों की आवश्यकता होती गई, मेरे ठाकुर देते जाते हैं और जब बुढ़ापे में जरुरत नहीं है तो हटाते जाते हैं। यह ईश्वर का अनुग्रह है।

जय श्री कृष्ण🙏🙏

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