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——-:प्रेतयोनि को कौन उपलब्ध होता है ?:——-


 आम तौर पर स्वस्थ मनुष्य कीआयु 100 वर्ष मानी गयी है। लेकिन वास्तव में यदि  विचार पूर्वक देखा जाय तो मनुष्य की प्रकृति प्रदत्त आयु 110 वर्ष है। इसमें से 55 वर्ष रात्रि में कट जाती है, बचती है 55 वर्ष। यदि शरीर स्वस्थ रहा और भयंकर रोग-व्याधि का आक्रमण नहीं हुआ तो मनुष्य 55 वर्ष से अधिक समय भी व्यतीत कर सकता है।

 *अकाल मृत्यु किसे कहते हैं ?*

 परामनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रकृतिक आयु भोग कर मरने वाला व्यक्ति प्रेतयोनि को उपलब्ध नहीं होता। वह स्थूल शरीर के मृत होते ही तत्काल सूक्ष्म शरीर को उपलब्ध हो जाता है और यथासमय कहीं जन्म भी ले लेता है। 55 वर्ष की आयु के भीतर भूत-प्रेत बाधा के कारण, किसी रोग-व्याधि के कारण, अस्त्र-शस्त्र के कारण, पानी में डूबने के कारण, ऊंचाई से 

गिरने के कारण, विष खा लेने के कारण, जलकर मरने के कारण, आत्महत्या करने के कारण, क़त्ल किये जाने के कारण या अचानक ह्रदय-गति रुक जाने के कारण यदि मृत्यु होती है तो उसे ‘अकाल मृत्यु’ कहते हैं।
अकाल मृत्यु को उपलब्ध मृतक को अपनी ‘शेष आयु की चौगुनी आयु’ प्रेत शरीर में भोगनी पड़ती है। यदि उस निर्धारित अवधि के भीतर उसकी ‘अतृप्त इच्छा’ समाप्त न हुई या ‘वासना का वेग’ समाप्त न हुआ तो तबतक वह प्रेतयोनि में पड़ा रहेगा जबतक कि उसकी अतृप्त इच्छा तृप्त नहीं हो जाती या उसकी वासना का वेग समाप्त नहीं हो जाता–भले ही उसके लिए सैकड़ों-हज़ारों वर्ष का समय लग जाय।
सारांश यह है कि प्रेतयोनि की आयु मनुष्य की अतृप्त कामना, वासना की क्षीणता पर निर्भर है। जबतक यह बिलकुल समाप्त नहीं हो जाती है तबतक मृतक प्रेतयोनि में ही दीर्घकाल तक भटकता रहता है।
प्रेतलोक के कई स्तर हैं। प्रथम दो स्तरों की प्रेतात्माएँ या तो अपनी अतृप्त कामनाओं-वासनाओं के अनुरूप मानसिक सृष्टि कर लेती हैं या अपने अनुकूल किसी व्यक्ति के माध्यम से उनका क्षय करती हैं। मानसिक सृष्टि प्रेत की योग्यता, संकल्प या विचारशक्ति पर निर्भर है। जैसे–किसी व्यक्ति की इच्छा सुन्दर मकान बनाकर उसमें रहने की थी और वह पूरी नहीं हुई। वह मर गया, मरने के बाद वह उस मकान की मानसिक सृष्टि कर उसमें रहेगा। वही उसका स्वर्ग होगा। इसी प्रकार किसी व्यक्ति का अध्ययन या लेखन कार्य पूरा नहीं हुआ तो वह उसी के अनुरूप मानसिक सृष्टिकर अपने अध्ययन और लेखन का कार्य पूरा करेगा। यदि ऐसा न कर सका तो उसके अनुकूल किसी जीवित व्यक्ति के मस्तिष्क कोे माध्यम बनाकर अपना कार्य पूरा करेगा।
प्रेतयोनि के निचले दो स्तरों की प्रेतात्माएँ अपनी वासना के प्रबल वेग की यातना को या तो झेलकर क्षय करती है या फिर अपने सगे संबंधी या अपने संस्कार के अनुकूल किसी जीवित व्यक्ति के माध्यम से भोगकर उसका क्षय करती हैं। वासनाजन्य जो यातना है, उसी को नरक यातना कहते हैं। ऐसी प्रेतात्माओं का वही नर्क है।

——:मृत्यु के समय की स्थिति:——
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यदि हम आत्मा की सत्यता पर विश्वास करते है तो प्रश्न यह उठता है कि मृत्यु के बाद आखिर आत्मा कहाँ जाती है?
मानव स्वभाव है के अनुसार उसकी जिज्ञासा सहज ही उस दुनियां को जानने की हो उठती कि जिसमें आत्मा मृत्योपरांत भौतिक जगत को छोड़ कर जाती है।
मृत्यु दो प्रकार की होती है–प्राकृतिक और अप्राकृतिक। प्राकृतिक मृत्यु का आभास मनुष्य को पहले से ही हो जाता है और आभास होते ही उसके मानस में जीवन की वे तमाम घटनाएं सजीव हो उठती हैं जिनका उसके जीवन में भारी मूल्य रहा है। सारे पाप-पूण्य, अच्छाई-बुराई याद आने लगती है। एक प्रकार की घबराहट-सी होने लगती है। सारा शरीर फटने लगता है। खून की गति कम होने लगती है। साँस उखड़ने लगती है। धीरे-धीरे बाहरी चेतना लुप्त होने लगती है जो बाद में एक गहरी मूर्च्छा में बदल जाती है। इसी मूर्च्छा की दशा में खुली हुई किसी भी इन्द्रिय के मार्ग से एक झटके के साथ आत्मा शरीर छोड़ कर बाहर आ जाती है।
अप्राकृतिक मृत्यु में ‘चेतना- शून्यता’ और ‘मूर्च्छा’ प्रायः एक ही समय होती है और उसी स्थिति में आत्मा शरीर से अलग हो जाती है। चेतनाशून्यता और मूर्च्छा दो भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। चेतनाशून्यता के बाद और मूर्च्छा से पहले की स्थिति में मनुष्य को उपचार के द्वारा बचाया भी जा सकता है। दोनों स्थितियों के बीच दो घंटे से बारह घंटे का अन्तराल समझना चाहिए। इस अन्तराल में मनुष्य को अपना जीवन उसके साथ घटित घटनाएं और उसके द्वारा किये गए सारे कर्म स्वप्न की तरह अनुभव होते हैं।
जो लोग मरकर पुनः जीवित हो उठते हैं, वे इसी अन्तराल से निकल कर बाहर आते है।
ऐसे लोग मृत्यु के बाद हुए अनुभव का वर्णन उसी प्रकार करते हैं जैसे जागने पर लोग सपने का वर्णन करते हैं। अज्ञानी जन इसी अन्तराल में पड़े हुए मनुष्य को मरा हुआ मान कर उसका अंतिम संस्कार कर डालते हैं–यह भारी भूल है।
दूसरी स्थिति को मूर्च्छा कहते हैं। साधारण मूर्च्छा में चेहरा विकृत नहीं होता है। मृत्यु की मूर्च्छा में उसका चेहरा विकृत हो जाता है–यही मूर्छा की पहचान है। जबतक चेहरा विकृत न होकर शान्त, निर्विकार रहता है, तबतक मृत्यु की मूर्च्छा नहीं समझनी चाहिए। और ऐसी स्थित में व्यक्ति को उपचार के द्वारा बचाया जा सकता है।

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