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कटपयादी संख्या का रहस्य

एक विशाल सरोवर हैं. सरोवर के किनारे एक बड़ा वृक्ष हैं. सरोवर में गोपियाँ नहा रही हैं. और उनके कपड़े संभलते हुए, वृक्ष पर, बांसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं. यह दृश्य हमने अनेक चित्रों मे, अनेक फिल्मों में देखा होगा. अब इस दृश्य में नारद मुनि का आगमन होता हैं. वे गोपियों से बाते करते हैं. उनसे पुछते हैं की ‘क्या उन्हे श्रीकृष्ण, छेडखानी करनेवाला, कष्ट देनेवाला कोई बदमाश लगता हैं क्या..?’

हर एक गोपी से अलग अलग बाते करते समय नारद जी को लगता हैं की गोपियों को श्रीकृष्ण से कोई समस्या नहीं हैं. उन्हे वो बदमाश नहीं लगता हैं. प्रत्येक गोपी कहती हैं, की श्रीकृष्ण उनके बहुत करीब हैं. कितने करीब..? तो श्रीकृष्ण की, प्रत्येक गोपी से निकटता समान हैं. बीच में खड़ा हुआ श्रीकृष्ण और उसके चारो ओर, समान अंतर पर खड़ी हुई सारी गोपियाँ. अर्थात, गोपिकाएं गोलाकार खड़ी हैं, और बीच मे, केंद्र बिन्दु में श्रीकृष्ण हैं. इस रचना के लिए संस्कृत में एक श्लोक हैं. ऐसी मान्यता हैं, की यह श्लोक, महाभारत के जो श्लोक लापता हैं, या नहीं मिल पाये हैं, उनमे से एक हैं.
“गोपीभाग्य मधुव्रातः श्रुंगशोदधि संधिगः |
खलजीवितखाताव गलहाला रसंधरः ||”

अनुष्टुभ छंद में रचा यह श्लोक पढ़कर ऐसा लगता हैं, की इसमे श्रीकृष्ण भगवान की स्तुति की गई हैं. किन्तु इसमे शंकर भगवान की भी स्तुति हैं. प्राचीन काल में शैव और वैष्णवों को लेकर जिस विवाद की बाते होती हैं, उस संदर्भ में यह श्लोक महत्वपूर्ण हैं.

परंतु इससे भी एक बड़ी महत्वपूर्ण बात इस श्लोक में छिपी हैं. श्रीकृष्ण और गोपियों के बीच में जो केंद्र और वृत्त का संबंध दर्शाया गया हैं, उस संबंध की गणितीय परिभाषा इस श्लोक में छिपी हुई हैं. इस परिभाषा के कारण ही, गणितीय सूत्र में मुख्य भूमिका निभाने वाले पाई π (pi) की बिलकुल शुध्द और सही कीमत मिल रही हैं. गोपियों ने निर्माण किए हुए वृत्त की परिधि निकालना हो तो आज गणित में निम्नानुसार सूत्र हैं –
परिधि = २ π r
r = वृत्त की त्रिज्या. अर्थात गोपियों और श्रीकृष्ण के बीच समसमान अंतर. इसमे पाई π की निश्चित संख्या अनेक वर्षों तक मालूम नहीं थी. π को २२/७ ऐसा भी लिखा जाता था. अर्थात ३.१४. लेकिन इस श्लोक के अनुसार π की कीमत, दशमलव के आगे ३१ संख्यातक मिलती हैं.

अब इस श्लोक में छिपी हुई π की संख्या कैसे दिखेगी ? इसका उत्तर हैं – ‘कटपयादी संख्या’. कटपयादी यह प्राचीन काल से संख्या को कूटबध्द (encrypt) करने की पध्दति हैं. संस्कृत वर्णमाला में जो अक्षर हैं, उन्हे १ से ० संख्या के साथ जोड़ने से कटपयादी संख्या तैयार होती हैं.

इस कटपयादी संख्या को समझने के लिए एक श्लोक का उपयोग करते हैं –
का दि नव,
टा दि नव
पा दि पंचक,
या दि अष्टक
क्ष शून्यम्.

इसका अर्थ हैं – सब अक्षरों के लिए एक एक अंक दिया हैं. इसका कोष्ठक हैं –
‘क’ से आगे नौ संख्या (अर्थात क्रम से १ से ९)
क = १ ख = २ ग = ३ घ = ४ ङ = ५ च = ६ छ = ७ ज = ८ झ = ९
‘ट’ से आगे नौ – ट = १ ठ = २ ड = ३ ढ = ४ ण = ५ त = ६ थ = ७ द= ८ ध = ९
‘प’ से आगे पांच – प = १ फ = २ ब = ३ भ = ४ म = ५
‘य’ से आगे आठ – य = १ र = २ ल = ३ व = ४ स = ५ श = ६ ष = ७ ह = ८
‘क्ष’ = ०
इसको आधार मानते हुए, अब अपने श्लोक की संख्या आएगी –
गोपीभाग्यमधुव्रात – गो – ३, पी – १, भा – ४, ग्य (इसमे मूल अक्षर ‘य’ हैं) – १, म – ५, धु – ९ . . . . अर्थात ३.१४१५९ . . . यह कीमत हैं, π की.
थोड़ा विस्तार से समझते हैं-

Pi (π) और #भारतीय संस्कृति ।

संस्कृत में एक श्लोक है,

गोपीभाग्यमधुव्रात-श्रुग्ङिशोदधिसन्धिग ॥
खलजीवितखाताव गलहालारसंधर ॥

देखने में बिलकुल बाकी सभी श्लोकों जैसा लगता है। अर्थ के हिसाब से भी ये अन्य श्लोको की तरह कृष्ण की वंदना करता है…
आइये देखें इसमें क्या विशेषता है.
“कटपयदि” एक सिस्टम है जिसमें अक्षरों को अंक रूप में लिखा जाता है (अधिक जानने के लिए विकिपीडिया का लिंक दे रहा हूँ https://en.wikipedia.org/wiki/Katapayadi_system )

सारांश में ये की यदि क ख ग घ । … को हम 1 , 2 , 3 , 4 … लिखें |
जब इस श्लोक को आप “कटपयदि संख्या” में लिखें तो आएगा 31415926535897932384626433832792

ये pi (π ) का दसवां हिस्सा है जो 30 दशमलव तक सही है।

वैसे ये तो आपको पता ही होगा की आर्यभट्ट ने भी pi क वर्णन अपनी रचनाओ में किया हुआ है

चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त- परिणाहः।।
(आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)

अर्थात
“add 4 to 100, multiply by 8, and add to 62000. this is approximately circumference of the circle whose diameter is 20000.
( 100+4 )* 8 + 62000 = (Pi) * 20000 .
On solving we get Pi = 3.1416

अपनी #संस्कृति पर #गर्व कीजिये

वैसे दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत के रागों के नामकरण और रचना में भी #कटपयदि संख्या काम आती है। #Pi

अर्थात सैकड़ों वर्ष पूर्व, वृत्त की परिधि निकालने के लिए, π के अनुपात (ratio) की कीमत इतने विस्तार से कैसी निकाली गई होगी, यह प्रश्न शेष रहता ही हैं…!

पृथ्वी की परिधि और व्यास, चंद्रमा की परिधि और व्यास, पृथ्वी से चंद्रमा का अंतर… आदि जानकारी हजारों वर्ष पूर्व के भारतीय ग्रन्थों में मिलती हैं. आज के अत्याधुनिक तकनीकी से निकाले गए परिधि की संख्या और प्राचीन वेद ग्रन्थों में वर्णित विभिन्न श्लोकों से / सूक्तों से निकाले गए परिधि की संख्या लगभग समान हैं. उदा – आर्यभट्ट के अनुसार पृथ्वी की परिधि ४९६७ योजन, अर्थात ३९,९६८ किलोमीटर हैं. (आर्यभट्ट का कार्यकाल था – सन ४७६ से सन ५५० तक.) आधुनिक तकनीक के अनुसार, यह ४०,०७५ किलोमीटर हैं. मात्र ०.२७% का अंतर. इतनी यथार्थता प्राचीन गणना में हमे मिलती हैं.

π यह संकल्पना कितनी प्राचीन हो सकती हैं…? ईसा पूर्व १९०० वर्ष में बेबीलोनियन्स और इजीप्शियन लोगों ने इसका उपयोग किया ऐसे उल्लेख मिलते हैं. पश्चिम के देशों में विज्ञान का अधिकतम इतिहास जतन कर के रखा हैं. इसलिए वहां प्रमाण मिलते हैं. वहां पर आक्रांताओं ने इस इतिहास को नष्ट नही किया था. हमारे यहां परिस्थिति बिलकुल विपरीत हैं. आनेवाले हर आक्रांता ने यहां के ज्ञान के साधन ही नष्ट किए. इसलिए प्राचीन समय के प्रमाण मिलना अत्यंत कठिन हैं. किन्तु फिर भी ईसा पूर्व ८०० वर्ष, बोधायन के शल्ब सूत्रों में π इस संख्या का उल्लेख मिलता हैं.

सन ५०० के आसपास आर्यभट ने π की कीमत दशमलव के आगे ४ संख्या तक निकाली थी. इसलिए, उस समय π का शुध्द मान (सही कीमत या संख्या) निकालनेका श्रेय आर्यभट को ही जाता हैं. उसके बाद, कटपयादी संख्या वाले श्लोकों की सहायता से π का मान दशमलव के आगे ३१ संख्या तक मिलता हैं.

कटपयादी संख्या का उपयोग केवल गणित में ही नहीं, अपितु भारतीय संगीत रागदारी, खगोलशास्त्र आदि अनेक विषयों में भी हुआ हैं. दाक्षिणात्य संगीत, विशेषतः कर्नाटक संगीत में इसका उपयोग विशेष रूप से किया गया हैं. कटपयादी के माध्यम से अलग अलग राग और रागों की स्वर मालिका याद रखना आसान हो जाता हैं.

ईसा पूर्व ४०० वर्ष पिंगलाचार्य ने कटपयादी का उपयोग अलग पध्दति से किया. पिंगलाचार्य, व्याकरण महर्षि पाणिनी के बंधु थे. उन्होने वेद मंत्रों के ‘छंद’ का अभ्यास करने के लिए ‘छन्दशास्त्र’ की रचना की. इसमे आठ अध्याय हैं. इस ‘पिंगलसूत्र’ के नाम से भी जाना जाता हैं.

वेदों के ‘वृत्त’ में ‘लघु – गुरु’ पध्दति का उपयोग होता हैं. यह पध्दति, आज के विज्ञान युग मे, कम्प्युटर में उपयोग में लायी जाने वाली ‘बाइनरी’ पध्दति के समान हैं. इसमे लघु १ और गुरु ० संख्या से दर्शाया जाता हैं. इसकी सहायता से पिंगलाचार्य मुनि ने तैयार किए हुए कटपयादी सूत्र हैं –
म ००० य १००
र ०१० स ११०
र ०१० स ११०
म ००० य १००१

अर्थात कटपयादी के माध्यम से हमारे देश में हजारों वर्षों से गणित, खगोलशास्त्र, छन्दशास्त्र, संगीत आदि विषयों में अध्ययन हुआ हैं. इस सूत्र के द्वारा π का मान, दशमलव के आगे ३१ आकड़ों तक निकालना और उसे किसी श्लोक में छिपकर रखना (embedded करना), यह सब अद्भुत ही हैं…!

भद्राम्बुद्धिसिद्धजन्मगणितश्रद्धास्म यद्भूपगीः
केरळा के गणितज्ञ ज्योतिषी शङ्करवर्म्मन ने #सद्रत्नमाला नामक ग्रन्थ की रचना की, और इसकी मळयाळम में टीका भी की।
प्रस्तुत पद्य को उन्हीं की पुस्तक से प्रस्तुत कर रहे हैं, इसमें वृत्त के व्यास और परिधि के सम्बन्ध का कथन किया गया है।
शङ्करवर्म्मन ने पारम्परिक गणित व शैली का प्रयोग करते हुये ही इसे रचा है।
अन्तिम पङ्क्ति में π (पाई) का मान दशमलव के १७ अङ्कों तक #कटपयादि पद्धति से बतलाया है, इसे मलयालम में #परलपेरु के नाम से जाना जाता है । सातवीं शती के हरिदत्त (ये भी सम्भवतः केरळ के ही थे, आर्य्यभटीय के प्रथम टीकाकार माने जाते हैं) ने इस पद्धति की प्रयोगविधि सरल की थी

कटपयादि_पद्धति को इण्टरनेट पर जाना समझा जा सकता है, अस्तु उसका विवरण यहाँ संक्षेप से लिख रहे हैं।

नज्ञावचश्च शून्यानि संख्या: कटपयादय:।
मिश्रे तूपान्त्यहल् संख्या न च चिन्त्यो हलस्वर: ॥

अर्थ: न, ञ तथा अ शून्य को निरूपित करते हैं। (स्वरों का मान शून्य है) शेष नौ अंक क, ट, प और य से आरम्भ होने वाले व्यंजन वर्णों द्वारा निरूपित होते हैं। किसी संयुक्त व्यंजन में केवल बाद वाला व्यंजन ही लिया जायेगा। बिना स्वर का व्यंजन छोड़ दिया जायेगा।

भद्राम्बुद्धिसिद्धजन्मगणितश्रद्धा स्म यद् भूपगी:

bhadrāṃbuddhisiddhajanmagaṇitaśraddhā sma yad bhūpagīḥ

व्यञ्जनों को पृथक् पृथक् करते हुये इस प्रकार लिखा,
भ bha द् d रा rā म् ṃ बु ba द् d धि dh सि sa द् d ध dha ज ja न् n म ma ग ga णि ṇa त ta श् ṣ र ra द् d धा dha स् s म ma य ya द् d भू bha प pa गी gi

स्वररहित व्यञ्जन(हलन्त) एवं मात्राओं से विचार नहीं होता है अतः केवल उस वर्ण का अङ्कमान ग्रहण किया जाता है जो स्वरसहित हो,
अस्तु ग्राह्य वर्ण इस अनुक्रम से प्राप्त हुये-
भ-र-ब-ध-स-ध-ज-म-ग-ण-त-र-ध-म-य-भ-प-ग
4 – 2 – 3 – 9-7 – 9- 8 – 5- 3 -5- 6 – 2 – 9 – 5- 1 – 4 -1 -3
अङ्कानां वामतो गतिः , इस पारम्परिक नियम से सभी अङ्क पलटकर लिख लिये जाते हैं-
314159265358979324 इस प्रकार हमें जो सँख्या/मान प्राप्त हुआ यह #पाई का मान (value of pi (π) ) प्राप्त हुआ जो कि दशमलव के सत्रह अङ्कों तक है।
👉इसे लिखने में जो त्रुटि रह गई हो उसे स्वयं शुद्ध कर लें और साथ ही यह भी बताने का कष्ट करें कि π का मान कितना शुद्ध है!?
⏩इसी प्रकार से एक उदाहरण १४वीं शती में हुये केरळा के ही माधवराया की करणपद्धति से –
അനൂനനൂന്നാനനനുന്നനിത്യൈ-
സ്സമാഹതാശ്ചക്രകലാവിഭക്താഃ
ചണ്ഡാംശുചന്ദ്രാധമകുംഭിപാലൈര്‍-
വ്യാസസ്തദര്‍ദ്ധം ത്രിഭമൗര്‍വിക സ്യാത്‌
अनूननून्नानननुन्ननित्यैस्समाहताश्चक्रकलाविभक्ताः।
चण्डांशुचन्द्राधमकुम्भिपालैर्व्यासस्तदर्द्धं त्रिभमौर्विक स्यात्‌॥
{इसमें अनूननून्नानननुन्ननित्यैः तक का अङ्कमान है 10,000,000,000 (इतना व्यास हो तो)
और चण्डांशुचन्द्राधमकुम्भिपालैः का अङ्कमान है 31415926536(इतनी परिधि होगी)}
इस पद्य के पूर्वार्द्ध से अनायास ही भारवि के
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।
नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्।
का स्मरण हो आया है।

यूरोप में बारहवीं शताब्दी तक रोमन अंकों का प्रयोग होता था। रोमन अंक प्रणाली में केवल सात अंक हैं, जो अक्षरों द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। ये अक्षरांक हैं- I (एक), V (पांच), X (दस), L (पचास), C (सौ), D (पांच सौ) तथा M (एक हजार)। इन्हीं अंको के जोड़ ने घटाने से कोई भी संख्या लिखी जाती है। उदाहरण के लिए अगर तीन लिखना है तो एक का चिन्ह तीन बार लिख दिया III। आठ लिखना है तो पांच के दायीं तरफ तीन एक-एक के चिन्ह लिखकर जोड़ दिए और VIII (आठ) हो गया। यह प्रणाली इतनी कठिन और उलझी हुई है कि जब बारहवीं शताब्दी में यूरोप का भारतीय अंक प्रणाली से परिचय हुआ तो उसने उसे स्वीकार ही नहीं किया, अपितु एकदम अपना लिया। यूरोप में कुछ शताब्दियों बाद जो वैज्ञानिक-औद्योगिक क्रान्ति हुई, उसके मूल में भारतीय अंक गणना का ही योगदान है।

भारत ने गणना हेतु नौ अंकों तथा शून्य का अविष्कार किया था। यही नहीं, अंकों के स्थानीय मान (प्लेस वेल्यू) का भी आविष्कार भारत में ही हुआ। शून्य का कोई मान (मूल्य) नहीं है किन्तु उसे अगर एक अंक के दाहिनी ओर लिख दिया जाए तो वह दस इंगित करेगा क्योंकि अब १ का स्थानीय मान दस हो गया। यदि दाहिनी ओर एक और शून्य बढ़ा दिया जाए, तो यह संख्या सौ हो जाएगी। इस तरह अंक के दाहिनी ओर लिखे जाने पर मूल्यहीन शून्य, दूसरे अंकों का मूल्य बढ़ा देता है। संक्षेप में, स्थान के अनुसार अंकों के मूल्य निर्धारण के सिद्धान्त को स्थानीय मान कहते हैं। इस प्रणाली से किसी भी संख्या को लिखना बहुत आसान है। जिस तीन सौ चवालीस को हम रोमन प्रणाली में CCC XL IV लिखते हैं, उसे भारतीय विधि से ३४४ लिख सकते हैं। इस माध्यम से बड़ी से बड़ी संख्या बिना किसी कठिनाई के संक्षेप में लिखी जा सकती है। भारतीय गणित ने दशमलव प्रणाली का भी आविष्कार किया। भारत में दशमलव अंकों का सर्वप्रथम प्रयोग आर्यभट्ट प्रथम (४९९ ई.) द्वारा मिलता है। संभव है कि इसका आविष्कार इससे भी बहुत पहले हुआ हो। किन्त यूरोप में दशमलव अंक का सामान्य प्रचार सत्रहवीं शताब्दी में हुआ, जिसका ज्ञान निश्चित ही उसने भारत से प्राप्त किया था। ये भारतीय गणितीय सिद्धान्त यूरोप को अरब के माध्यम से प्राप्त हुए थे।

अरबी भाषा में इन अंकों को हिन्दसा कहते हैं। हिन्दसा अर्थात् ‘हिन्द से प्राप्त’। अरबी लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती है, किन्तु अरबी में अंक बायें से दायें लिखे जाते हैं। यह भी इस बात का प्रमाण है कि अरबी अंकों की उत्पत्ति अरबी भाषा के साथ अरब देश में नहीं हुई, अपितु ये बाहर से आयात किए गए हैं। अरबों के माध्यम से जब यह भारतीय अंक यूरोप पहुँचे तो उन्ह लगा कि ये अंक मूल रूप से अरबों द्वारा ही आविष्कार किए गए हैं। अतएव आज भी यूरोप में एक से नौ एवं शून्य के भारतीय अंकों को ‘एरेबिक न्युमरल’(अरबी गणनांक) कहते हैं।

इस्लाम के पैगम्बर हजरत मोहम्मद के पूर्व अरब देश में जिहालिया अर्थात् ‘अज्ञान का युग’ कहा जाता है। ज्ञान-विज्ञान में वहां कोई प्रगति नहीं हुई थी। पूरे कुरैश कबीले में, जिससे मोहम्मद साहब का संबंध था, केवल सत्रह लोग कुछ लिखना जानते थे। किन्त इस्लाम की स्थापना के साथ अरब साम्राज्य का विस्तार पिश्चम में स्पेन और उत्तरी अफ्रीका तथा पूर्व में भारत की सीमा तक हो गया। जो देश पराजित होकर अरब साम्राज्य में शामिल हुए, उनके आर्थिक प्रशासन के लिए अरबी गणना-प्रणाली, जो कि अत्यन्त प्रारंभिक स्तर की थी, अपर्याप्त सिद्ध हुई। अतएव विवश होकर अरबी शासकों को विजित जातियों के अंकों का प्रयोग करना पड़ा। खलीफा अल मंसूर (सन ७५३-७७४) के राज्यकाल के समय में सिन्ध से कुछ दूत बगदाद गए, जिनमें कुछ विद्वान भी थे। वे अपने साथ ब्रह्मगुप्त रचित ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त एवं खण्डखाद्यक नामक ग्रंथ भी अन्य ग्रंथों के साथ बगदाद ले गए। इन विद्वानों की सहायता से अल-फजारी एवं याकूब खां तारिक ने इनका अरबी में अनुवाद किया, जिसका अरबी गणित पर विशेष प्रभाव पड़ा। अरब लोगों में भारतीय ज्ञान, विज्ञान और कला के प्रति जो उस समय सम्मान था, वह अल जहीज की पुस्तिका- फकिर असम-सूदन अल-ल बिनद में लिखा हैः

जहां तक भारतीयों का संबंध है, वे नक्षत्र ज्ञान और गणित में पहले स्थान पर है। उनकी लिपि दुनिया की सभी भाषाओं की ध्वनियां लिख सकती है, इसी तरह उनके अंक हर प्रकार की संख्या… भारत में ही नक्षत्रों की गणना प्रारम्भ हुई, जिसे बाद में अन्य देशों ने उससे लिया।
पीसा (इटली) नगर के लियोनाडो ने, जिसने किसी मूर (अरबी) से हिन्दू गणित सीखा और सन १२०२ में लिबर एवैकी नामक पुस्तक लिखी, जिसका संशोधित संस्करण सन १२२८ में आया। इसमें उसने हिन्दू अंकों और उनकी उपयोगिता को समझाया। अलेक्जड र डे विलाडी (सन १२४०) और जान आक हेलीफाक्स (सन १२५०) की पुस्तकों ने भी ‘हिन्दू अंक प्रणाली’ का प्रसार किया। प्रारम्भ में इसका विरोध हुआ, किन्त पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक यूरोप के सभी देशों ने इनको स्वीकार कर लिया था।

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