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‘लोहस्तंभ’

दक्षिण दिल्ली से मेहरोली की दिशा में जाते समय दूर से ही हमें ‘क़ुतुब मीनार’ दिखने लगती हैं. २३८ फीट ऊँची यह मीनार लगभग २३ मंजिल की इमारत के बराबर हैं. पूरी दुनिया में ईटों से बनी हुई यह सबसे ऊँची वास्तु हैं. दुनियाभर के पर्यटक यह मीनार देखने के लिए भारत में आते हैं.

साधारणतः ९०० वर्ष पुरानी इस मीनार को यूनेस्को ने ‘विश्व धरोहर’ घोषित किया हैं. आज जहां यह मीनार खड़ी हैं, उसी स्थान पर दिल्ली के हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान की राजधानी ‘ढिल्लिका’ थी. इस ढिल्लिका के ‘लालकोट’ इस किले नुमा गढ़ी को ध्वस्त कर, मोहम्मद घोरी के सेनापति ‘कुतुबुद्दीन ऐबक’ ने यह मीनार बनाना शुरू किया था. बाद में आगे चलकर इल्तुतमिश और मोहम्मद तुघलक ने यह काम पूरा किया. मीनार बनाते समय लालकोट में बने मंदिरों के अवशेषों का भी उपयोग किया गया हैं, यह साफ़ दिखता हैं.

किन्तु इस ‘ढिल्लिका’ के परिसर में इस क़ुतुब मीनार से भी बढकर एक विस्मयकारी स्तंभ अनेक शतकों से खड़ा हैं. क़ुतुब मीनार से कही ज्यादा इसका महत्व हैं. क़ुतुब मीनार से लगभग सौ – डेढ़ सौ फीट दूरी पर एक ‘लोहस्तंभ’ हैं. क़ुतुब मीनार से बहुत छोटा… केवल ७.३५ मीटर या २४.११ फीट ऊँचा. क़ुतुब मीनार के एक दहाई भर की ऊँचाई वाला..! लेकिन यह स्तंभ क़ुतुब मीनार से बहुत पुराना हैं. सन ४०० के आसपास बना हुआ. यह स्तंभ भारतीय ज्ञान का रहस्य हैं. इस लोहस्तंभ में ९८% लोहा हैं. इतना लोहा होने का अर्थ हैं, जंग लगने की शत प्रतिशत गारंटी..! लेकिन पिछले सोलह सौ – सत्रह सौ वर्ष निरंतर धूप और पानी में रहकर भी इसमें जंग नहीं लगा हैं. विज्ञान की दृष्टि से यह एक बड़ा आश्चर्य हैं. आज इक्कीसवी सदी में, अत्याधुनिक तकनिकी होने के बाद भी ९८% लोहा जिसमे हैं, ऐसे स्तंभ को बिना कोटिंग के जंग से बचाना संभव ही नहीं हैं.

फिर इस लोहस्तंभ में क्या ऐसी विशेषता हैं की यह स्तंभ आज भी जैसे था, वैसे ही खड़ा हैं..?

आई आई टी कानपुर के ‘मटेरियल्स एंड मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग’ विभाग के प्रमुख रह चुके प्रोफेसर आर. सुब्रमणियम ने इस पर बहुत अध्ययन किया हैं. इन्टरनेट पर भी उनके इस विषय से संबंधित अनेक पेपर्स पढने के लिए उपलब्ध हैं.

प्रोफेसर सुब्रमणियम के अनुसार लोह-फॉस्फोरस संयुग्म का उपयोग इसा पूर्व ४०० वर्ष, अर्थात सम्राट अशोक के कालखंड में बहुत होता था. और उसी पध्दति से इस लोहस्तंभ का निर्माण हुआ हैं. प्रोफ़ेसर सुब्रमणियम और उनके विद्यार्थियों ने अलग अलग प्रयोग कर के यह बात साबित कर के दिखाई हैं. उनके अनुसार लोहे को जंग निरोधी बनाना, आज की तकनिकी के सामने एक बड़ी चुनौती हैं. भवन निर्माण व्यवसाय, मशीनी उद्योग, ऑटोमोबाइल उद्योग आदि में ऐसे जंग रोधक लोहे की आवश्यकता हैं. उसके लिए इपोक्सी कोटिंग, केडोडिक प्रोटेक्शन पध्दति आदि का प्रयोग किया जाता हैं. लेकिन इस प्रकार की पध्दति लोहे को पूर्णतः जंग से मुक्त नहीं कर सकती. वह तो उसे कुछ समय के लिए जंग लगने से बचा सकती हैं. अगर लोहा पूर्णतः जंग निरोधक चाहिए हो तो उस लोहे में ही ऐसी क्षमता होनी चाहिए.

आज इक्कीसवी सदी में भी इस प्रकार का जंग निरोधी लोहा निर्मित नहीं हो पाया हैं. लेकिन भारत में इसा पूर्व से इस प्रकार का लोहा निर्माण होता था, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह दिल्ली का लोहस्तंभ हैं. वास्तव में यह स्तंभ दिल्ली के लिए बना ही नहीं था. चन्द्रगुप्त मौर्य ने यह स्तंभ सन ४०० के आसपास मथुरा के विष्णु मन्दिर के बाहर लगाने के लिए बनवाया था. इस स्तंभ पर पहले गरुड़ की प्रतिमा अंकित थी, इसलिए इसे ‘गरुड़ स्तंभ’ नाम से भी जाना जाता हैं. यह स्तंभ विष्णु मंदिर के लिए बनाया गया था, इसका प्रमाण हैं, इस स्तंभ पर ब्राम्ही लिपि में कुरेदा गया एक संस्कृत श्लोक..! ‘चन्द्र’ नाम के राजा की स्तुति करता हुआ यह श्लोक विष्णु मन्दिर के सामने के लोह स्तंभ का महत्व बताता हैं. चूँकि इस श्लोक में ‘चन्द्र’ नाम के राजा का उल्लेख हैं तथा चौथे शताब्दी में इसका निर्माण हुआ था, इसलिए यह माना गया की इसका निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया होगा. इस श्लोक की लेखन शैली गुप्त कालीन हैं. इस कारण से भी इस स्तंभ का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा ही हुआ होगा, इस मान्यता को बल मिलता हैं. मथुरा के निकट स्थित ‘विष्णुपद’ पहाड़ी पर बसे हुए विष्णु मंदिर के सामने रखने के लिए इस स्तंभ का निर्माण किया हैं इसकी पुष्टि उस संस्कृत श्लोक से भी होती हैं. (किन्तु अनेक इतिहासकार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके अनुसार इस स्तंभ का निर्माण इसा के पूर्व सन ९१२ में किया गया था.)

७ मीटर ऊँचाई वाला यह स्तंभ, ५० सेंटिमीटर (अर्थात लगभग पौने दो फीट) जमीन के नीचे हैं. नीचे ४१ सेंटीमीटर का व्यास हैं, जो बिलकुल ऊपर जाकर ३० सेंटीमीटर का रह जाता हैं. सन १९९७ तक इस को देखने के लिए आने वाले पर्यटक इसको पीछे से दोनो हाथ लगाकर पकड़ने का प्रयास करते थे. दोनों हाथों से अगर इसे पकड़ने में सफल हुए तो वांछित मनोकामना पूरी होती हैं, ऐसी मान्यता थी. लेकिन स्तंभ को पकड़ने के चक्कर में उसपर कुछ कुरेदना, ठोकना, नाम लिखना आदि बाते होने लगी, जो इस वैश्विक धरोहर को क्षति पहुचाने लगी. इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए आर्चिओलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने इसके चारों और संरक्षक फेंसिंग लगा दिया. अब कोई भी इस स्तंभ को छू नहीं सकता.

यह एक मात्र लोहस्तंभ अब शेष हैं, ऐसा नहीं हैं. भारत में यह कला इसा के पूर्व ६०० – ७०० वर्ष से विकसित थी, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. सोनभद्र जिले का ‘राजा-नाल-का-टीला, मिर्जापुर जिले में मल्हार और पश्चिम बंगाल के पांडुराजार, धिबी, मंगलकोट आदि जिलों में सर्वोत्तम गुणवत्ता के लोहे के अवशेष प्राप्त हुए हैं. इससे यह साबित होता हैं की लोहे का, ऊँची गुणवत्ता का धातुकर्म भारत में ढाई-तीन हजार वर्ष पहले से मौजूद था. अत्यंत ऊँचे दर्जे का लोहा भारत में होता था, यह अनेक प्राचीन विदेशी प्रवासियों ने भी लिख रखा हैं.

अत्यंत प्राचीन काल से भारत में लोहा बनाने वाले विशिष्ट समूह / समाज हैं. उनमे से ‘आगरिया लुहार समाज’ आज भी आधुनिक यंत्र सामग्री को नकारते हुए जमीन के नीचे की खदानों से लोहे की मिट्टी निकालता हैं. इस मिट्टी से लोहे के पत्थर बीन कर उन पत्थरों पर प्रक्रिया करता हैं, और शुध्द लोहा तैयार करता हैं. लोहा बनाने की, आगरिया समाज की यह पारंपरिक पध्दति हैं.

‘आगरिया’ यह शब्द ‘आग’ इस शब्द से तैयार हुआ हैं. लोहे की भट्टी का काम याने आग का काम होता हैं. ‘आग’ में काम करने वाले इसलिए ‘आगरिया’. मध्यप्रदेश के मंडला, शहडोल, अनुपपुर और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और सरगुजा जिलों में यह समाज पाया जाता हैं, जो गोंड समाज का ही एक हिस्सा हैं. इस समाज की दो उपजातियां हैं – पथरिया और खुंटिया. लोहे की भट्टी तैयार करते समय ‘पत्थर’ का जो उपयोग करते हैं, उन्हें पथरियां कहा जाता हैं. और भट्टी तैयार करते समय ‘खूंटी’ का उपयोग करने वाले ‘खुंटिया’ कहलाते हैं. आज भी यह समाज लोहा तैयार करके उसके औजार और हथियार बनाने का व्यवसाय करता हैं.

भोपाल के एक दिग्दर्शक संगीत वर्मा ने आगरिया समाज पर एक वृत्तचित्र बनाया हैं. इसमें जंगल की मिट्टी से लोहे के पत्थर बीनने से लेकर लोहे के औजार बनाने तक का पूरा चित्रण किया गया हैं.

ढाई – तीन हजार वर्ष पूर्व की यह धातुशास्त्र की परंपरा इस आगरिया समाज ने संवाहक के रूप में जीवित रखी हैं. प्राचीन काल में जब इस परंपरा को राजाश्रय और लोकाश्रय था, तब धातुशास्त्र की इस कला का स्वरुप क्या रहा होगा, इस कल्पना मात्र से ही मन विस्मयचकित होता हैं..!

लौहस्तम्भ : अद्भुत धातु मिश्रण

हमारे यहां लौह कितने प्रकार का रहा और उसको भी कितने प्रकार से काम में लिया गया? यह कम रोचक विषय नहीं है। धार में जब मैंने विजय मन्दिर में लौह स्तम्भ के तीन टुकड़े देखे तो क्या क्या याद नहीं आया। दिल्ली, आबू, ऊंताला आदि के लौह स्तम्भ, त्रिशूल तक के कौतुक स्मरण हुए।

लोहस्‍तंभ को देखकर किसे आश्‍चर्य नहीं होता। यह किस धातु का बना कि आज तक उस पर जंग नहीं लगा। ऐसी तकनीक गुप्‍तकाल के आसपास भारत के पास थी। हां, उस काल तक धातुओं का सम्मिश्रण करके अद्भुत वस्‍तुएं तैयार की जाती थी। ऐसे मिश्रण का उपयोग वस्‍तुओं को संयोजित करने के लिए भी किया जाता था। यह मिश्रण ” वज्रसंघात ” कहा जाता था।

शिल्पियों की जो शाखा मय नामक शिल्पिवर के मत स्‍वीकारती थी, इस प्रकार का वज्र संघात तैयार करती थी। उस काल में मय का जाे ग्रंथ मौजूद था, उसमें इस प्रकार की कतिपय विधियों की जानकारी थी, हालांकि आज मय के नाम से जो ग्रंथ हैं, उनमें शिल्‍प में मन्दिर और मूर्ति बनाने की विधियां अध्‍ािक है, मगर 580 ई. के आसपास वराहमिहिर को मय का उक्‍त ग्रंथ प्राप्‍त था। वराहमिहिर ने मय के मत को उद्धृत करते हुए वज्रसंघात तैयार करने की विधि को लिखा है-

अष्‍टौ सीसकभागा: कांसस्‍य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मय कथितो योगोsयं विज्ञेयाे वज्रसंघात:।।
(बृहत्‍संहिता 57, 8)

मय ने 8 : 2 :1: अनुपात में क्रमश: सीसा, कांसा और पीतल को गलाने का नियम दिया था, इससे जो मिश्रण बनता था, वह वज्रसंघात कहा जाता था। यह कभी नहीं हिलता था और वज्र की तरह चिपकाने के काम आता था। वराहमिहिर के इस संकेत के आधार पर 9वीं सदी में कश्‍मीर के पंडित उत्‍पल भट ने खाेजबीन की और मय का वह ग्रंथ खोज निकाला था। उसी में से मय का वह श्‍लोक वराहमिहिर की टीका के साथ लिखा था-

संगृह्याष्‍टौ सीसभागान् कांसस्‍य द्वौ तथाशंकम्।
रीतिकायास्‍तु संतप्‍तो वज्राख्‍य: परिकीर्तित:।। ( मयमतम् : श्रीकृष्ण जुगनू, चौखंबा, बनारस, २००८, परिशिष्ट, मय दीपिका)

आज वह ग्रंथ हमारे पास नहीं। मगर, इस श्‍लोक में कहा गया है कि इस मिश्रण के लिए सभी धातुओं को मिलाकर तपाया जाता था। इसके लिए उचित तापमान के संबंध में जरूर शिल्पियों को जानकारी रही होंगी, वे उन मूषाओं के बारे में भी जानते रहे होंगे, जो काम आती थीं।
मगर, क्‍या हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी है,,, बस यही तो समस्‍या है।

#आङ्गिरस #अङ्गिरा।
अंगों में रस रूप में रहने वाली शक्ति।
यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। अयस्कों से धातुरसों को निकालने वाली ऋषिसत्ता आङ्गिरस कुल की, भरतों की ही भाँति अग्निप्रयोग में कुशल। जिस प्रकार सोम से रस निकालते हैं, वैसे ही अयस्कों से अग्निप्रयोग द्वारा रस धातु।
विचार करें कि पर्वत उपत्यका में कहीं बिजली गिरी है। आग तो लग ही गयी है किन्तु एक विशेष बात भी है। अयस्क अश्म दावाग्नि में पिघल कर धातु सोम बहा रहे हैं और एक भार्गव को देख कर युक्ति सूझ जाती है। बिजली इन्द्र की वज्र है। इन्द्र प्रेरक हुआ, अन्तरिक्ष से अग्नि आई, वायुमार्ग से, छिपी थी गर्भ में, उद्घाटित हुई।
कार्त्तिकेय का जन्म भी ऐसी घटना से जुड़ता है। महासेन विजयी हुये क्योंकि उनके पास परिष्कृत व घातक धात्विक शस्त्रास्त्र थे।

मातरिश्वा शब्द व्युत्पत्ति में मातर माता है, अन्तरिक्ष है, वायु भी, अग्नि तो परिणति है ही। यह व्यक्तिवाचक सञ्ज्ञा भी है। इसकी रचना काव्यमय है।

अष्ठ धातु की मूर्ति भी लगभग दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व से बनती रही होगी।
अष्ठ धातु की एक मूर्ति बिहार के एक गाँव मे खुदाई के दौरान मिली थी इसका वजन 1 क्विंटल 24 कीलो है जिसकी कीमत लगभग 85 करोड़ आँकी गई थी। अष्ठ धातु स्वर्ण , रजत , ताम्र , वंग ,लोह , यशद , नाग ,पारद ।

आज शायद ही ऐसा कोई बचा हो पुरे विश्व में जो अष्टधातु के इस विज्ञान को जानता हो, और भारत के कुछ मोटी बुद्धि के स्वामीं कहते हैं अंग्रेज और मुगल ना आते तो वो अनपढ-जाहिल ही रहते ।
सनातन विज्ञान बहुत गुढ है उसे समझना इन कॉनवेंटियो के वश की बात नहीं ।

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