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विद्युत

महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता

अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।

अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

वेदों में कृषि विज्ञान (Agriculture साइंस इन इंडिया ) का महत्व |

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है ।
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्‌ कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमानः । ऋग्वेद-३४-१३।
अर्थात जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ
कृषि सम्पत्ति और मेधा प्रदान करती है और कृषि ही मानव जीवन का आधार है ।
मानव सभ्यता की ओर बढ़ा, तभी से कृषि प्रारंभ हुई और भारत में कृषि एक विज्ञान के रूप में विकसित हुई । इसके इतिहास का संक्षिप्त वर्णन A concise History of Science in India नामक पुस्तक में किया गया है ।
वैदिक काल में ही बीज वपन, कटाई आदि क्रियाएं , हल, हँसिया, चलनी आदि उपकरण तथा गेहूँ, धान, जौ आदि अनेक धान्यों का उत्पादन होता था । चक्रीय परती के द्वारा मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने की परम्परा के निर्माण का श्रेय उस समय के कृषकों को जाता है । यूरोपीय वनस्पति विज्ञान के जनक रोम्सबर्ग के अनुसार इस पद्धति को पश्चिम ने बाद के दिनों में अपनाया ।
मौर्य राजाओं के काल में कौटिल्य अर्थशास्त्र में कृषि, कृषि उत्पाद आदि को बढ़ावा देने हेतु कृषि अधिकारी की नियुक्ति का उल्लेख मिलता है ।
कृषि हेतु सिचाई की व्यवस्था विकसित की गयी । यूनानी यात्री मेगस्थनीज लिखता है, मुख्य नाले और उसकी शाखाओं में जल के समान वितरण को निश्चित करने के लिए व नदी और कुंओं के निरीक्षण के लिए राजा द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी ।
कृषि के संदर्भ में नारदस्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, अग्नि पुराण आदि में उल्लेख मिलता है । कृषिपरायण कृषि के संदर्भ में एक संदर्भ ग्रंथ बन गया । इस ग्रंथ में कुछ विशेष बातें कृषि के संदर्भ में कही गयी हैं ।
जोताई – इसमें कितने क्षेत्र की जोताई करना, उस हेतु हल, उसके अंग आदि का वर्णन है । इसी प्रकार जोतने वाले बैल, उनका रंग, प्रकृति तथा कृषि कार्य करवाते समय उने प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखने का वर्णन इस ग्रंथ में मिलता है ।
वर्षा के बारे में भविष्यवाणी – प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण, ग्रहों की गति तथा प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों का गहरा अभ्यास प्राचीन काल के व्यक्तियों ने किया था और उस आधार पर वे भविष्यवाणियाँ करते थे ।
जिस वर्ष सूर्य अधिपति होगा, उस वर्ष में वर्षा कम होगी और मानवों को कष्ट सहना होगा । जिस वर्ष चन्द्रमा अधिपति होगा, उस वर्ष अच्छी वर्षा और वनस्पति की वृद्धि होगी । लोग स्वस्थ रहेंगे । उसी प्रकार बुध, बृहस्पति और शुक्र वर्षाधिपति होने पर भी स्थिति ठीक रहेगी । परन्तु जिस वर्ष शनि वर्षाधिपति होगा, हर जगह विपत्ति होगी ।
जोतने का समय – नक्षत्र तथा काल के निरीक्षण के आधार पर जोताई के लिए कौन सा समय उपयुक्त रहेगा, उसका निर्धारण उन्होंने किया ।
बीजवपन – उत्तम बीज संग्रह हेतु पराशर ऋषि गर्ग ऋषि का मत प्रकट करते हैं कि गीज को माघ ( जनवरी – फरवरी ) या फाल्गुन ( फरवरी मार्च ) माह में संग्रहीता करके धूप में सुखाना चाहिए तथा तथा उन बीजों को बाद में अच्छी जगह सुरक्षित रखना चाहिए ।
वर्षा मापन – ” कृषि पाराशर ” में वर्षा को मापने का वर्णन भी मिलता है अथ जलाढक निर्णयः
शतयोजनविस्तीर्णं त्रिंशद्योजनमुच्छि्रतम्‌ ।
अढकस्य भवेन्मानं मुनिभिः परिकीर्तितक्‌ ॥
अर्थात – पूर्व में ऋषियों ने वर्षा को मापने का पैमाना तय किया है । अढकक याने सौ योजन विस्तीर्ण तथा ३०० योजन ऊँचाई में वर्षा के पानी की मात्रा ।
योजन अर्थात्‌‌ – १ अंगुली की चौड़ाई
१ द्रोण = ४ अढक = ६.४ से. मी.
आजकल वर्षा मापन भी इतना ही आता है ।
कौटिलय के अर्थशास्त्र में द्रोण आधार पर वर्षा मापने का उल्लेख तथा देश में कहाँ कहाँ कितनी वर्षा होती है, इसका उल्लेख भी मिलता है ।
उपरोपण ( ग्राफ्टिंग ) – वराहमिहिर अपनी वृहत्‌ संहिता में उपरोपण की दो विधियाँ बताते हैं ।
( १ ) जड़ से पेड़ में काटना और दूसरे को तने ( trunk ) से काटकर सन्निविष्ट ( insert ) करना ।
( २ ) Inserting the cutting of tree into the stem of another जहाँ दोनों जुडे़गे वहाँ मिट्टी और गोबर से उनको बंदकर आच्छादित करना ।
इसी के वराहमिहिर किस मौसम में किस प्रकार के पौधे की उपरोपण करना चाहिए, इसका भी उल्लेख करते हैं । वे कहते हैं ।
इसी के वराहमिहिर किस मौसम में किस प्रकार के पौधे की उपरोपण करना चाहिए, इसका भी उल्लेख करते हैं । वे कहते हैं ।
शिशिर ऋतु ( दिसम्बर – जनवरी ) ——— जिनकी शाखांए बहुत हैं उनका उपरोपण करना चाहिए
शरद ऋतु ( अगस्त – सितम्बर )
वराहमिहिर किस मौसम में कितना पानी प्रतिरोपण किए पौधों को देना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ” गरमी में प्रतिरोपण किए गए पौधे को प्रतिदिन सुबह तथा शाम को पानी दिया जाए । शीत ऋतु में एक दिन छोड़कर तथा वर्षा काम में जब जब मिट्टी सूखी हो । “इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल से भारत में कृषि एक विज्ञान के रूप में विकसित हुआ । जिसके कारण हजारों वर्ष बीतने के बाद भी हमारे यहाँ भूमि की उर्वरा शक्ति अक्षुण्ण बनी रही, जबकि कुछ दशाब्दियों में ही अमेरिका में लाखों हेक्टेयर भूमि बंजर हो गयी है ।
भारतीय कृषि पद्धति की विशेषता एवं इसके उपकरणों का जो प्रशंसापूर्ण उल्लेख अंगेजों द्वारा किया गया , उसका उद्धरण धर्मपाल जी की पुस्तक ” इण्डियन साइंस एण्ड टैक्नोलॉजी उन दी एटीन्थ सेन्चुरी ” मे दिया गया है । उस समय भारत कृषि के सुविकसित साधनों में दुनिया में अग्रणी था । कृषि क्षेत्र में पंक्ति में बोने के तरीके को इस क्षेत्र में बहुत उपयोगी और उपयोगी अनुसंधान माना जाता है । आस्ट्रिया में पहले पहल इसका प्रयोग सन्‌ १६६२ में हुआ था तथा इंग्लैण्ड में १७३० में हुआ हालाकि इसका व्यापक प्रचार प्रसार वहाँ इसके ५० वर्ष बाद हो पाया । पर मेजर जनरल अलेक्झेंडर वाकर के अनुसार पंक्ति में बोने का प्रयोग भारत में अत्यंत प्राचीन काल से ही होता आया है । थामॅमस हाल्काट ने १७९७ में इंग्लैण्ड के कृषि बोर्ड को लिखे एक पत्र में बताया कि, भारत इसका प्रयोग प्राचीन काल से ही होता रहा है । उसने बोर्ड को पंक्तियुक्त हलों के तीन सेट लन्दन भेजे ताकि इन हलों की नकल अंग्रेज कर सकें, क्योंकि ये अंग्रेजी हलों की अपेक्षा अधिक उपयोंगी और सस्ते थें ।
सर वाकर लिखते हैं ” भारत में शायद विश्व के किसी भी देश से अधिक किस्मों का अनाज बोया जाता है और तरत – तरह की पौष्टिक जड़ों वाली फसलों का भी यहाँ प्रचलन है । वाकर की समझ में नहीं आया कि हम भारत को क्या दे सकते हैं क्योंकि जो खाद्यान्न हमारे यहाँ हैं, वे तो यहाँ हैं ही, और भी अनेक प्रकार के अन्न यहाँ हैं । “

ऐसा नहीं है वेदों में सिर्फ पूजा पाठ ही था ……………………….वेद पढ़िए और जानिये भारत के स्वर्णिम अतीत और विज्ञान को |
[ 🌹व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं??? 🌹💫

व्रत रखने के नियम दुनिया को हिंदू धर्म की देन है। व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और यदि इसे नियम पूर्वक नहीं किया जाता है तो न तो इसका कोई महत्व है और न ही लाभ, राजा भोज के राजमार्तण्ड में 24 व्रतों का उल्लेख है।

हेमादि में 700 व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने 1622 व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है। व्रतों के प्रकार तो मूलत: तीन है:- 1. नित्य, 2. नैमित्तिक और 3. काम्य।

1.नित्य व्रत उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है।

2.नैमिक्तिक व्रत उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति, तिथि विशेष में जो ऐसे व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।

3.काम्य व्रत किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिए, धन- समृद्धि के लिए या अन्य सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले व्रत काम्य व्रत हैं।

व्रतों का वार्षिक चक्र :-
1.साप्ताहिक व्रत : सप्ताह में एक दिन व्रत रखना चाहिए। यह सबसे उत्तम है।

2.पाक्षिक व्रत : 15-15 दिन के दो पक्ष होते हैं कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष में चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा के व्रत महतवपूर्ण होते हैं। उक्त में से किसी भी एक व्रत को करना चाहिए।

3.त्रैमासिक : वैसे त्रैमासिक व्रतों में प्रमुख है नवरात्रि के व्रत। हिंदू माह अनुसार पौष, चैत्र, आषाढ और अश्विन मान में नवरात्रि आती है। उक्त प्रत्येक माह की प्रतिपदा यानी एकम् से नवमी तक का समय नवरात्रि का होता है। इन नौ दिनों तक व्रत और उपवास रखने से सभी तरह के क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

4.छह मासिक व्रत : चैत्र माह की नवरात्रि को बड़ी नवरात्रि और अश्विन माह की नवरात्रि को छोटी नवरात्रि कहते हैं। उक्त दोंनों के बीच छह माह का अंतर होता है। इसके अलावा

5.वार्षिक व्रत : वार्षिक व्रतों में पूरे श्रावण मास में व्रत रखने का विधान है। इसके अलवा जो लोग चतुर्मास करते हैं उन्हें जिंदगी में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हुआ की व्रतों में ‘श्रावण माह’ महत्वपूर्ण होता है। सोमवार नहीं पूरे श्रावण माह में व्रत रखने से हर तरह के शारीरिक और मानसिक कलेश मिट जाते हैं।

उपवास के प्रकार:- 1.प्रात: उपवास, 2.अद्धोपवास, 3.एकाहारोपवास, 4.रसोपवास, 5.फलोपवास, 6.दुग्धोपवास, 7.तक्रोपवास, 8.पूर्णोपवास, 9.साप्ताहिक उपवास, 10.लघु उपवास, 11.कठोर उपवास, 12.टूटे उपवास, 13.दीर्घ उपवास। बताए गए हैं, लेकिन हम यहां वर्ष में जो व्रत होते हैं उसके बारे में बता रहे हैं।

1.प्रात: उपवास- इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है।

2.अद्धोपवास- इस उपवास को शाम का उपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में एक ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता।

3.एकाहारोपवास- एकाहारोपवास में एक समय के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है, जैसे सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि।

4.रसोपवास- इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है।

5.फलोपवास- कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। अगर फल बिलकुल ही अनुकूल न पड़ते हो तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए।

6.दुग्धोपवास- दुग्धोपवास को ‘दुग्ध कल्प’ के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है।

7.तक्रोपवास- तक्रोपवास को ‘मठाकल्प’ भी कहा जाता है। इस उपवास में जो मठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वो खट्टा भी कम ही होना चाहिए। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है।

8.पूर्णोपवास- बिलकुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिलकुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से संबंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है।

9.साप्ताहिक उपवास- पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है।

10.लघु उपवास- 3 से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं।

11.कठोर उपवास- जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णोपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है।

12.टूटे उपवास- इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दोबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए।

13.दीर्घ उपवास- दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की नौबत आ जाने की संभावना हो जाती है।

Jay Shri Krishna 🙏🏻💫
[नवग्रह , राशि एवं नक्षत्रों के प्रतिनिधि आराध्य वृक्ष होते है निम्नलिखित तरीके से इन वृक्षों द्वारा हमें सकारत्मक ऊर्जा एवं शुभ ऊर्जा मिलती है एवं वास्तु दोस भी मिट जाते हैं ।
1)इन वनस्पतियों के रोपण द्वारा ज्यादा जानकारी के लिए देखें , वृहद वास्तु माला ।
2)इन वृक्षों के पूजन द्वारा , देखें महर्षि पराशर द्वारा रचित वृक्ष आयुर्वेद ।
3)प्रतिनिधि , आराध्य वृक्षों कि सेवा द्वारा हमें हमेशा इन वृक्षों कि देखरेख और जल देकर सेवा करना चाहिए ।
4)इन वृक्षों से मित्रता करना , जैसे आदिवासी आराध्य वृक्ष को मित्र बनाकर जीवन भर उनकी देखरेख करते हैं ।
अर्थात हमें इन वनस्पतियों कि जो ग्रहो राशियों और नक्षत्रों का प्रतिनिधत्व करती हैं इनका रोपण , पूजन , सेवा और मित्रता करने से ग्रह प्रसन्न होकर मनोवांछित फल देते हैं ।
बरसात का मौसम हैं अपनी बगिया मे नक्षत्र वाटिका जरूर बनाए , इन पौधों को गमले मे कदापि न रोपे न ही बोनजाई बनाए ।
[💐

27 नक्षत्रो के लिए निर्धारित पेड़-पौधे

अश्विनी – कोचिला,
भरनी – आंवला
कृतका – गुल्लड़
रोहिणी – जामुन
मृगशिरा – खैर
आद्रा – शीशम
पुनर्वसु – बांस
पुष्य – पीपल
अश्लेषा – नागकेसर
मघा – बट
पूर्वा फाल्गुन – पलास
उत्तरा फाल्गुन – पाकड़
हस्त – रीठा
चित्रा – बेल
स्वाती- अजरुन
विशाखा – कटैया
अनुराधा – भालसरी
ज्योष्ठा – चीर
मूला – शाल
पूर्वाषाढ़ – अशोक
उत्तराषाढ़ – कटहल
श्रवण – अकौन
धनिष्ठा – शमी
शतभिषा – कदम्ब
पूर्व भाद्र – आम
उत्तरभाद्र – नीम
रेवती – महुआ
[🌹🙏पुष्य नक्षत्र पर करे ये काम कार्य सिद्धि के साथ मिलेगी स्थायी समृद्धि🙏🌹

हिन्दू धर्म ग्रंथों में पुष्य नक्षत्र को सबसे शुभकारक नक्षत्र कहा जाता है। पुष्य का अर्थ होता है कि पोषण करने वाला और ऊर्जा-शक्ति प्रदान करने वाला नक्षत्र। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति हमेशा ही लोगों की भलाई व सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं। इस नक्षत्र में जन्मे जातक अपनी मेहनत और साहस के बल पर जिंदगी में तरक्की प्राप्त करते हैं। मान्यता है कि इस शुभ दिन पर संपत्ति और समृद्धि की देवी माँ लक्ष्मी का जन्म हुआ था। जब भी गुरुवार अथवा रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र आता है तो इस योग को क्रमशः गुरु पुष्य नक्षत्र और रवि पुष्य नक्षत्र के रूप में जाना जाता है। यह योग अक्षय तृतीया, धन तेरस, और दिवाली जैसी धार्मिक तिथियों की भांति ही शुभ होता है। कहते हैं कि इस दिन माँ लक्ष्मी घर में बसती है और वहां एक लंबे समय तक विराजती है इसीलिए, इस यह घड़ी पावन कहलाती है। पुष्य नक्षत्र का स्वभाव फलप्रदायी और ध्यान रखने वाला है। पुष्य नक्षत्र के दौरान किए जाने वाले कार्यों से जीवन में समृद्धि का आगमन होता है। इस दिन ग्रहों के अनुकूल स्थितियों में भ्रमण कर रहे होने से वे आपके जीवन में शांति, संपत्ति और स्थायी समृद्धि लेकर आते हैं। क्या वर्ष 2017 में आपके जीवन में समृद्घि रहेगी ? इसका जवाब जानने के लिए खरीदें 2017 विस्तृत वार्षिक रिपोर्ट।   

वैदिक ज्योतिष में महात्मय: 

हमारे वैदिक ज्योतिष में बारह राशियों में समाविष्ट होने वाले 27 नक्षत्रों में आठवें नक्षत्र ‘पुष्य’ को सबसे शुभ नक्षत्र कहते हैं। इसी नक्षत्र में गुरु उच्च का होता है। देवों के आशीर्वाद से पुरस्कृत इस नक्षत्र के देवता बृहस्पति और दशा स्वामी शनि हैं। कर्क राशि के अंतर्गत समाविष्ट होने से इस नक्षत्र के राशिधिपति चंद्र हैं। इस प्रकार से गुरु व चंद्र के शुभ संयोग इस नक्षत्र में होने से किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए पुष्य नक्षत्र श्रेष्ठ माना जाता है। क्या आपकी जन्मकुंडली में महत्वपूर्ण ग्रह अच्छी स्थिति में विराजमान है ? इसका जवाब जानने के लिए खरीदें जन्मपत्री रिपोर्ट। 

जीवन में समृद्धि का आगमनः

पुष्य नक्षत्र का दशा स्वामी शनि होने से इस नक्षत्र के दरमियान घर में आयी संपत्ति या समृद्धि चिरस्थायी रहती है। पुष्य नक्षत्र में किए गए कामों को हमेशा सफलता व सिद्धि मिलती है। इसलिए, विवाह को छोड़कर हर एक कार्यों के लिए पुष्य नक्षत्र को शुभ माना जाता है। दिवाली के दिनों में चोपड़ा खरीदने के लिए व्यापारीगण पुष्य नक्षत्र को विशेष महत्व देते हैं। इसके अलावा, वर्ष के दौरान भी पुष्य नक्षत्र में जब गुरु पुष्यामृत योग बन रहा हो तब सोने, आभूषण और रत्नों को खरीदने की प्रथा सदियों से प्रचलित है। 

पुष्य नक्षत्र में किए जाने वाले मांगलिक कार्य:

– इस मंगलकर्ता नक्षत्र के दौरान घर में आयी संपत्ति या समृद्धि चिरस्थायी रहती है। 

– ज्ञान और विद्याभ्यास के लिए पावन दिन।

– इस दिन आध्यात्मिक कार्य किए जा सकते हैं। 

– मंत्रों, यंत्रों, पूजा, जाप और अनुष्ठान हेतु शुभ दिन। 

– माँ लक्ष्मी की उपासना और श्री यंत्र की खरीदी करके जीवन में समृद्धि ला सकते हैं। 

– इस समय के दौरान किए गए तमाम धार्मिक और आर्थिक कार्यों से जातक की उन्नति होती है। 
[ जगन्नाथ भगवान हिंदु धर्म के चार धामों में जगन्नाथ पुरी का बहुत महत्व है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु रामेश्वरम में स्नान, द्वारका में शयन, बद्रीनाथ में ध्यान और पुरी में भोजन करते हैं। भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए बिना चारों धामों की यात्रा अधूरी मानी जाती है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा प्रारंभ होती है। ऐसा कहा जाता है कि रथ यात्रा के जरिए भगवान मौसी के घर जनकपुर जाते हैं। रथ यात्रा में बलरामजी के रथ को ‘तालध्वज ’ कहते हैं। देवी सुभद्रा के रथ को ‘दर्पदलन’, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को ‘नंदीघोष’ या ‘गरुड़ध्वज ’ कहा जाता है। यह सबसे पीछे रहता है। इन तीनों रथों की उंचाई, पहिए और आकृति अलग-अलग होती हैं।

ये है तीनों रथों की खासियत

  1. भगवान जगन्नाथ का रथ

इस रथ को गरुड़ध्वज, कपिध्वज या नंदीघोष कहा जाता है। इसमें 16 पहिए होते हैं व ऊंचाई साढ़े 13 मीटर तक होती है। लाल और पीले रंग का लगभग 1100 मीटर कपड़ा रथ को ढंकने के लिए उपयोग में लाया जाता है। इस रथ को बनाने में 832 लकड़ी के टुकड़ों का उपयोग किया जाता है।

इस रथ के सारथी का नाम दारुक है। इस रथ के रक्षक भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ और नृसिंह हैं। रथ पर लगे झंडे को यानी ध्वजा का नाम त्रिलोक्यमोहिनी है। रथ में जय और विजय नाम के दो द्वारपाल होते हैं।

इस रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है, जिनका रंग सफेद होता है। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ के रथ की रक्षा के लिए शंख और सुदर्शन स्तंभ भी होता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ (एक प्रकार का नाग) नाम से जानी जाती है।

इस रथ में भगवान जगन्नाथ के अलावा अन्य सहायक देवता के रूप में वराह, गोवर्धन, कृष्ण, नृसिंह, राम, नारायण, त्रिविक्रम, हनुमान और रूद्र भी होते हैं। भगवान जगन्नाथ के रथ के साथ 8 ऋषि भी चलते हैं जिनके नाम नारद, देवल, व्यास, शुक, पाराशर, विशिष्ठ, विश्वामित्र और रूद्र हैं।

  1. बलराम जी का रथ

इस रथ का नाम तालध्वज है। यह रथ 13.2 मीटर ऊंचा व 14 पहियों का होता है, जो लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। इस रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। इनके रथ की ध्वजा का नाम उनानी हैं।
इस रथ में काले रंग के 4 घोड़े लगे होते हैं। जिनका नाम त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनवा है। इस रथ में नंद और सुनंद नाम के 2 द्वारपाल होते हैं। रथ की रक्षा के लिए हल और मुसल भी होते हैं। इनके रथ की शक्तियों के नाम ब्रह्म और शिवा है। इनके रथ को खिंचने के लिए वासुकी नाग के रुप में रस्सी होती है।
इस रथ में बलराम जी के अलावा अन्य सहायक देवता के रूप में गणेश, कार्तिकेय, सर्वमंगल, प्रलंबरी, हलायुध, मृत्युंजय, नटवर, मुक्तेश्वर और शेषदेव होते हैं। बलराम जी के रथ के साथ अंगिरा, पौलस्त्य, पुलह, असस्ति, मुद्गल, अत्रेय और कश्यप ऋषि भी चलते हैं।

  1. सुभद्रा जी का रथ

सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है। इसके अन्य नाम दर्पदलन और पद्मध्वज भी है। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है।
इस रथ के रक्षक जयदुर्गा और सारथी अर्जुन होते हैं। इस रथ की द्वारपाल गंगा और यमुना होती हैं। इनके रथ की ध्वजा का नाम नदंबिका है। इनके रथ की रक्षा के लिए पद्म और कल्हर के रुप में शस्त्र होते हैं।
इस रथ की शक्तियों के नाम चक्र और भुवनेश्वरी है। सुभद्रा जी के रथ में लाल रंग के 4 घोड़े होते हैं। जिनके नाम रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता है। इस रथ को खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुड़ा कहते हैं।
सुभद्रा जी के इनके अलावा रथ में सहायक देवियों के रुप में चंडी, चामुंडा, उग्रतारा, वनदुर्गा, वराही, श्यामा, काली, मंगला और विमला नाम की देवियां होती हैं। इनके रथ के साथ भृगु, सुपर्व, व्रज, श्रृंगी, ध्रुव और उलूक ऋषि चलते हैं।
जिन्दगी में मन लगाना है तो प्रभु में ही लगाना। अन्यथा तुम अपूर्ण और अधूरे ही जियोगे और अधूरे ही जाओगे। ऐसा नहीं है कि आदमी पूर्ण होकर नहीं जी सकता। जी सकता है पर वह पूर्णता प्राप्त तो परमात्मा के संग से ही होगी।
परमात्मा के संग होने से असंभव भी संभव हो जाता है और संग ना होने से संभव भी असंभव हो जाता है। अर्जुन अकेला था तो उससे युद्ध में खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा था। जब श्री कृष्ण के संग होने का अहसास हुआ तो पूरा मैदान जीत लिया।
संग होने का अर्थ मात्र 24 घंटे राम-राम रटना या मंदिर में जाना नहीं है। यह तो सारी दुनिया कर ही रही है। यद्यपि यह भी आसान और सरल नहीं है। फिर भी राम राम जपने के साथ ही भीतर ह्रदय में यह भाव दृढ़ता के साथ बैठ जाना कि श्री हरि ही मेरे अपने हैं संसार में बस। अर्जुन की तरह सारथी बनालो श्रीकृष्ण को , अपने आप मंजिल तक ले जायेंगे।

जय श्री कृष्ण🙏🙏
[“”समय का चक्र””
यह संसार समय के चक्र से बँधा आगे चलता जा रहा है इस संसार में न कोई सदा रहा है और न ही रह सकता है हम से पहले अनेक लोग यहाँ से जा चुके हैं , और हमे भी एक दिन यह संसार छोड़कर चले जाना है , इन्सान का जीवन-काल अल्‍प है जो हमे कुछ समय के लिये ही खास उद्देश्य की पूति॔ के लिये ही मिला है , हमारे पास समय बहुत कम है और हम एक बार जन्म लेने के बाद कभी भी मृत्यु से भाग नही सकते और हमने तो अपने जीवनकाल का अधिक भाग पहले से ही गुजार चुके है हमारा जीवन तेजी से मौत की और बढ़ता जा रहा है और यह हमारा अनमोल मनुष्य-जन्म व्‍यथ॔ ही संसार के कामों में बिता जा रहा है, आज हम अपना कीमती समय संसार के कामों में गँवाकर अपने खुद के साथ बहुत बड़ा अन्‍याय कर रहे है….

जय श्री कृष्ण🙏🙏
[🙏 हे मुरली मनोहर, मेरे प्यारे श्याम 🌷

❤️ रोम रोम में बसे रहो, हर क्षण तुम्हारा ही ध्यान रहे

हे प्रभु ऐसी कृपा हो , मुख पर सदा तेरा ही गुणगान रहे 🌷

👉 सारे वेद-शास्त्र, संत हमें समझाते हैं कि अपनी मृत्यु का चिंतन करते हुए अपने मन को निरंतर हरि-गुरु भक्ति में ही लगाने का प्रयास करो, यह जीवन का सार है। मृत्यु का चिंतन जितना प्रबल होगा हमें भक्ति का संकल्प लेने में उतनी आसानी होगी। मृत्यु के उपरान्त केवल यह भक्ति ही साथ जाएगी जो हमें सद्गति दिला सकती है और जिससे संसार में आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। इसलिए अपने कल्याण के लिए हमें बची हुई सभी श्वांसों को प्रभु को समर्पित करना है, उन्हीं का चिंतन करना है ताकि इस मृत्यु की भी सदा-सदा को मृत्यु हो जाए, यह फिर हमारे पास न फटक सके और हम अनंतकाल तक भगवान के दिव्यधाम में रहकर उनकी नित्य सेवा का सौरस्य प्राप्त कर सकें। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही यह मानव जीवन भगवान ने कृपा करके प्रदान किया है। अगर अब भी हमने शेष जीवन को नहीं सँवारा और बिना भगवद्भक्ति के ही प्राण पखेरू उड़ गए तो केवल पछताना ही शेष रह जाएगा। मनुष्य अपने चारों ओर मृत्यु का तांडव देखते हुए भी अपनी मृत्यु को भूल जाता है। महाभारत में जब एक यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया – संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? तो उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने यही उत्तर दिया था -मनुष्य अपने चारों ओर मृत्यु का तांडव देखते हुए भी अपनी मृत्यु को भूल जाता है। प्रतिदिन लोगों को अपनी आँखों के सामने इस संसार से जाते हुए, मरते हुए देखकर भी शेष लोग यही समझते हैं हमें तो अभी यहीं रहना है, इससे बड़ा आश्चर्य और कोई नहीं हो सकता। मनुष्य की सारी लापरवाहियों का, अपराधों का, अज्ञानता का कारण यही है कि वह अपनी मृत्यु को भूल जाता है कि काल निरंतर घात लगाए बैठा है और किसी भी क्षण में यहाँ से उसका टिकट कट जाएगा, अर्थात् इस संसार से जाना होगा। यह मानव देह छिन जाएगा और अपने-अपने कर्मों के अनुसार पुनः अन्य योनियों में भ्रमण करते हुए दुःख भोगना होगा। हमें बारम्बार इस जीवन की क्षणभंगुरता पर विचार करना चाहिए कि हमारा अस्तित्व है ही क्या? कबीरदास जी ने कहा – अरे हमारी हैसियत तो केवल एक पानी के बुलबुले जितनी है जो कुछ सेकण्ड्स को जल में उत्पन्न होकर फूट जाता है – l फिर भी मनुष्य इस सत्य से मुँह मोड़कर दिन-रात इस अनित्य जगत को अपना मानकर धन-सम्पत्ति के पीछे दौड़ता है। ☘️🙏 जय श्रीकृष्ण, श्री कृष्ण शरणम् , प्रेम से बोलो… राधे राधे🌷
[बहुत से लोग यह नारा लगाते हैं , हम बदलेंगे , जग बदलेगा । हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा. इसमें कोई संदेह नहीं है, कि यह नारा सत्य है। परंतु लोग सिर्फ नारा ही लगाते हैं । न तो स्वयं को बदलते हैं , और न ही जग बदलता है। कारण क्या है? कारण यह है कि लोग स्वयं को बदलना ही नहीं चाहते. लोग स्वयं को बदलना क्यों नहीं चाहते? इसलिए कि बदलने में कष्ट होता है , कष्ट उठाना कोई चाहता नहीं । इसलिए सिर्फ बातें ही बातें करते हैं । नारे तो खूब लगाते हैं, परंतु बदलने की इच्छा नहीं है। और बदलने के लिए पुरुषार्थ भी नहीं करते , जिसके कारण परिवर्तन नहीं दिखाई देता।
तो जो लोग स्वयं को बदलना चाहते हैं , संसार को बदलना चाहते हैं , अपना और दूसरों का सुधार करना चाहते हैं , उन से निवेदन है , कि वे अपने अंदर स्वयं को बदलने की तथा अपना सुधार करने की इच्छा को तीव्र बनाएँ। दृढ़ संकल्प करें, कि दुनियाँ सुधरे या न सुधरे, हम अवश्य सुधरेंगे । दुनियाँ सुधरे या बिगड़े, हम नहीं बिगड़ेंगे , ऐसी तीव्र इच्छा और दृढ़ संकल्प करने के बाद , सुधार के लिए पूरा परिश्रम करें । और तब परिणाम को देखें , आप भी सुधरेंगे और संसार भी सुधरेगा। सारा संसार तो नहीं सुधरेगा। जिसके संस्कार अच्छे होंगे और वह यदि परिश्रम करेगा, तो वह व्यक्ति जरूर सुधरेगा –
[जब आपकी कार खराब हो जाती है , तो आप उसे ठीक कराने के लिए मैकेनिक के पास ले जाते हैं । मैकेनिक आपकी कार में खराबी को ढूंढता है और उसे ठीक करता है। वह उसमें अपना समय शक्ति खर्च करता है, विद्या बुद्धि भी खर्च करता है । इसके बदले में वह आपसे पैसे भी लेता है । यदि कोई मैकेनिक आपकी कार की खराबी, मुफ्त में ढूंढे और उसे मुफ्त में ठीक भी कर देवे, तो आप उसका उपकार मानेंगे या नहीं ? बुद्धिमान लोग तो अवश्य मानेंगे ।

ठीक इसी प्रकार से जब कोई आपका मित्र, संबंधी या हितैषी व्यक्ति, आपके जीवन में, किसी दोष को देखता है , तो वह अपना समय बुद्धि शक्ति लगाकर आपके उस दोष को ढूंढकर आपको बताता है , कि आपके जीवन में यह दोष है । तथा आप इस प्रकार से इस दोष का निवारण करें । इस प्रकार से वह आपको उस दोष के निवारण का उपाय भी बताता है। यह सब कार्य वह आपका मित्र संबंधी या हितैषी व्यक्ति, मुफ्त में करता है। वह आपसे इसकी कोई फीस भी नहीं लेता। तो क्या आपको उसका उपकार मानना चाहिए या नहीं ? उसका धन्यवाद करना चाहिए या नहीं ? बुद्धिमान लोग तो अवश्य ही उसका उपकार मानेंगे और धन्यवाद देंगे। हां , अज्ञानी लोग अवश्य उससे द्वेष करेंगे।
तो आप अज्ञानी न बनें , बुद्धिमान बनें, ऐसे व्यक्ति का उपकार मानें तथा धन्यवाद करें –
[लौकी क्या है : लौकी( Lauki / Ghiya) शीतल (ठंडा), पौष्टिक और मीठी होती है। यह बलवर्द्धक है और पित्त व कफ को दूर करती है। इसका उपयोग सब्जी के रूप में ही होता है। लेकिन लौकी को रस के रूप में भी उपयोग में लाया जा सकता है। लौकी की सब्जी खाने से सिर का दर्द दूर होता है और गर्मी दूर होती है। लौकी छिलके सहित ही खाना अधिक लाभकारी होता है।
लौकी में कार्बोहाइड्रेट होता है, जिसके कारण यह आसानी से पच जाता है। इसमें वसा की मात्रा कम होती है। बीमार व्यक्ति को तथा मधुमेह के रोगियों को लौकी देना फायदेमंद होता है।

लौकी के फायदे और रोगों का इलाज

  1. बिच्छू के डंक: बिच्छू के काटे हुए स्थान पर लौकी पीसकर लेप करें और इसका रस निकालकर पिलाएं। इससे बिच्छू का जहर उतर जाता है।
  2. दस्त लगना:
    • लौकी( Lauki / Ghiya) का रायता बनाकर दस्त में देने से दस्त का बार-बार आना बंद हो जाता है।
    • लौकी का रायता बनाकर सेवन करने से दस्तों में आराम मिलता है।
  3. पुत्र प्राप्ति हेतु: जिन महिलाओं को लड़कियां ही होती हैं वे गर्भ ठहरने के दूसरे और तीसरे महीने में लौकी के बीज मिश्री के साथ मिलाकर लगातार खायें तो लड़का पैदा होगा। गर्भावस्था के शुरुआत और आखिरी के महीने में 125 ग्राम कच्ची लौकी को 70 ग्राम मिश्री के साथ रोजाना खाने से गर्भ में ठहरे बच्चे का रंग निखर जाता है।
  4. गुर्दे का दर्द: लौकी ( Lauki / Ghiya)के टुकड़े-टुकड़े करके गर्म करें और दर्द वाले जगह पर इसके रस से मालिश करें तथा इसे पीसकर लेप करने से गुर्दे के दर्द में जल्द आराम मिलता है।
  5. पैरों के तलुवों की जलन: लौकी को काटकर पैर के तलुवों पर मलने से पैर की गर्मी (जलन) निकल जाती है।
  6. दांत दर्द: लौकी 75 ग्राम और लहसुन 20 ग्राम दोनों को पीसकर एक किलो पानी में उबालें जब आधा पानी रह जाये तो छानकर कुल्ला करने से दांत दर्द दूर होता है।
  7. पीलिया: लौकी को धीमी आग में दबाकर भुर्ता-सा बना लें फिर इसका रस निचोड़कर थोड़ा सा मिश्री मिलाकर पीयें यह लीवर की बीमारी और पेट के अन्य रोगों के लिए लाभदायक है।
  8. आन्त्रिक ज्वर (टायफायड): घीये (लौकी) के टुकड़ों को तलुओं पर मालिश करने से टायफाइड बुखार की जलन दूर होती है।
  9. दमा या श्वास का रोग: ताजी लौकी ( Lauki / Ghiya)पर गीला आटा लेप लें, फिर उसे साफ कपडे़ में लपेटकर, भूभल (गर्म राख या रेत) में दबायें। आधे घंटे बाद कपड़ा और आटा उतारकर उस भुरते का रस निकालकर सेवन करें। लगभग 40 दिनों में इस रोग से छुटकारा मिल जाएगा।
  10. खांसी: लौकी की गिरी खाने से कफज-खांसी दूर हो जाती है।
  11. बवासीर (अर्श):
    • लौकी या तुलसी के पत्तों को पानी के साथ पीसकर अर्श (बवासीर) के मस्से पर दिन में दो से तीन बार लगायें। इससे दर्द व जलन कम होती है तथा मस्से भी नष्ट होते हैं।
    • लौकी या तुरई के पत्तों को पीसकर बवासीर के मस्सों पर लगाने से मस्से खत्म हो जाते हैं।
    • लौकी के छिलके को छाया में सुखाकर पीसकर रख लें और 1 चम्मच प्रतिदिन सुबह-शाम ठण्डे पानी के साथ फंकी लें। इसकी फंकी 7-8 दिन तक लेने से बवासीर में खून का आना बंद हो जाता है।
  12. प्रसव पीड़ा: लौंकी को बिना पानी के उबालकर उसका रस 30 ग्राम की मात्रा में निकालकर प्रसूता को पिलाने से प्रसव के समय होने वाला नहीं होता है।
  13. लू का लगना: घीया के टुकड़ों से पैरों के तलुवों पर मालिश करने से लू के कारण होने वाली जलन खत्म हो जाती है।
  14. नकसीर: लौकी को उबालकर खाने से नकसीर (नाक से खून बहना) में आराम आता है।
  15. मूत्ररोग: लौकी का रस 10 मिलीलीटर, कलमी शोरा 2 ग्राम, मिश्री 20 ग्राम सबको 250 मिलीलीटर पानी में मिलाकर दिन में दो बार सुबह-शाम लें।
  16. गठिया रोग: कच्चे लौकी को काटकर उसकी लुगदी बनाकर घुटनों पर रखकर कपड़े से बांध लेना चाहिए। इससे घुटने का दर्द दूर हो जायेगा।
  17. चेहरे की झांई: लौकी के ताजे छिलके को पीसकर चेहरे पर लेप करने से चेहरा सुन्दर हो जाता है।
  18. हृदय रोग:
    • लौकी के रस में, पांच पुदीने की पत्तियां और तुलसी की 10 पत्तियों का रस निकाल लें और इस रस को दिन में तीन बार यानी सुबह, दोपहर और रात को भोजन के आधा घंटा बाद लेना चाहिए। पहले तीन-चार दिन रस की मात्रा कुछ कम ली जा सकती है। बाद में ठीक से हजम होने पर रोजाना तीन बार 250 मिलीलीटर रस लें। रस हर बार ताजा लेना चाहिए।
    • घीये का रस पेट में जो भी पाचन विकार होते हैं, उन्हें दूर करके मल के द्वारा बाहर निकाल देता है, जिसके कारण शुरुआत में पेट में कुछ खलबली, गड़गड़ाहट आदि महसूस होती है, जोकि एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। इससे घबराना नहीं चाहिए। तीन-चार दिन में पेट के विकार दूर होकर सामान्य स्थिति हो जाती है। इसे नियमित दो-तीन मास आवश्यकतानुसार लेने से हृदय रोगी ठीक होने लगता है और बाईपास सर्जरी कराने की जरूरत नहीं पड़ती है।
  19. होठों के लिए: लौकी के बीजों को पीसकर होठों पर लगाने से जीभ और होठों के छाले ठीक हो जाते हैं।
  20. कंठमाला: लौकी के तूंबे में सात दिन तक पानी भरकर रख दें। सात दिन बाद इस पानी को पीने से कंठमाला (गले की गांठे) बैठ जाती हैं।
  21. शरीर को शक्तिशाली बनाना: घिया या लौकी ( Lauki / Ghiya)के पत्तों का काढ़ा बनाकर पीने से शरीर की शक्ति बढ़ती है।

लौकी के नुकसान

१] अतिसार, सर्दी-खाँसी, दमे के रोगी लौकी न खायें |
२] पुरानी ( पकी ) लौकी से कब्जियत होने के कारण उसका उपयोग न करें |
३] कडवी लौकी ( तुमड़ी ) विषैली होने से उसका सेवन निषिद्ध है |

वन्देमातरम !
[ बन्दर कभी बीमार नहीं होता।।

किसी भी चिड़िया को डायबिटीज नहीं होती।
किसी भी बन्दर को हार्ट अटैक नहीं आता ।
कोई भी जानवर न तो आयोडीन नमक खाता है और न ब्रश करता है, फिर भी किसी को थायराइड नहीं होता और न दांत खराब होता है ।

बन्दर शरीर संरचना में मनुष्य के सबसे नजदीक है, बस बंदर और आप में यही फर्क है कि बंदर के पूँछ है आप के नहीं है, बाकी सब कुछ समान है।

तो फिर बंदर को कभी भी हार्ट अटैक, डायबिटीज , high BP , क्यों नहीं होता है?

एक पुरानी कहावत है बंदर कभी बीमार नहीं होता और यदि बीमार होगा तो जिंदा नहीं बचेगा मर जाएगा!
बंदर बीमार क्यों नहीं होता?

हमारे एक मित्र बताते हैं कि एक बहुत बड़े , प्रोफेसर हैं, मेडिकल कॉलेज में काम करते हैं । उन्होंने एक बड़ा गहरा रिसर्च किया कि बंदर को बीमार बनाओ। तो उन्होने तरह – तरह के virus और वैक्टीरिया बंदर के शरीर में डालना शुरू किया, कभी इंजेक्शन के माध्यम से कभी किसी और माध्यम से । वो कहते है, मैं 15 साल असफल रहा , लेकिन बंदर को कुछ नहीं हुआ ।

मित्र ने प्रोफेसर से कहा कि आप यह कैसे कह सकते है कि बंदर को कुछ नहीं हो सकता ? तब उन्होंने एक दिन यह रहस्य की बात बताई वो आपको भी बता देता हूँ कि बंदर का जो RH factor है वह सबसे आदर्श है । कोई डॉक्टर जब आपका RH factor नापता है, तो वह बंदर के ही RH Factor से तुलना करता है , वह डॉक्टर आपको बताता नहीं यह अलग बात है

उसका कारण यह है कि, उसे कोई बीमारी आ ही नहीं सकती । उसके ब्लड में कभी कॉलेस्टेरॉल नहीं बढ़ता , कभी ट्रायग्लेसराइड नहीं बढ़ती , न ही उसे कभी डायबिटीज होती है । शुगर को कितनी भी बाहर से उसके शरीर में इंट्रोडयूस करो, वो टिकती नहीं । तो वह प्रोफेसर साहब कहते हैं कि यही चक्कर है , कि बंदर सबेरे सबेरे ही भरपेट खाता है। जो आदमी नहीं खा पाता है , इसीलिए उसको सारी बीमारियां होती है । सूर्य निकलते ही सारी चिड़िया , सारे जानवर खाना खाते हैं । जब से मनुष्य इस ब्रेकफास्ट , लंच , डिनर के चक्कर में फंसा तबसे मनुष्य ज्यादा बीमार रहने लगा है ।

*प्रोफेसर रवींद्रनाथ शानवाग ने अपने सभी मरींजों से कहा कि सुबह सुबह भरपेट खाओ । उनके मरीज बताते है कि, जबसे उन्हांने सुबह भरपेट खाना शुरू किया तबसे उन्हें डायबिटीज यानि शुगर कम हो गयी, किसी का कॉलेस्टेरॉल कम हो गया, किसी के घुटनों का दर्द कम हो गया , किसी का कमर का दर्द कम हो गया गैस बनाना बंद हो गई, पेट मे जलन होना बंद हो गया ,नींद अच्छी आने लगी ….. वगैरह ..वगैरह ।
और यह बात बागभट्ट जी ने 3500 साल पहले कहा, कि सुबह का किया हुआ भोजन सबसे अच्छा है ।

  • सुबह सूरज निकलने से ढाई घंटे तक यानि 9.30 बजे तक, ज्यादा से ज्यादा 10 बजे तक आपका भरपेट भोजन हो जाना चाहिए । और ये भोजन तभी होगा जब आप नाश्ता बंद करेंगे । यह नाश्ता का प्रचलन हिंदुस्तानी नहीं है , यह अंग्रेजो की देन है , और रात्रि का भोजन सूर्य अस्त होने से पहले आधा पेट कर लें । तभी बीमारियों से बचेंगे । सुबह सूर्य निकलने से ढाई घंटे तक हमारी जठराग्नि बहुत तीव्र होती है । हमारी जठराग्नि का सम्बन्ध सूर्य से है ।हमारी जठराग्नि सबसे अधिक तीव्र स्नान के बाद होती है । स्नान के बाद पित्त बढ़ता है , इसलिए सुबह स्नान करके भोजन कर लें । तथा एक भोजन से दूसरे भोजन के बीच ४ से ८ घंटे का अंतराल रखें बीच में कुछ न खाएं, और दिन डूबने के बाद बिल्कुल न खायें।।
    चूंकि यह पक्षियों और जंगली जानवरों की दिनचर्या में सम्मिलित है, अत: वे अमूमन बीमार नहीं होते।।
    : क्या आप सफर करने से सिर्फ इसलिए डरते हैं, क्योंकि सफर में आपको उल्टी आती है? तो अब बेफिकर हो जाइए, क्योंकि सफर में ये उपाय आपको उल्टी नहीं आने देंगे, और आप अपने सफर का भरपूर आनंद ले पाएंगे।

सफर में होने वाली उल्टियों से बचने के लिए सफर पर जाने से आधे घंटे पहले 1 चम्‍मच प्‍याज के रस में 1 चम्‍मच अदरक के रस को मिलाकर लेना चाहिए। इससे आपको सफर के दौरान उल्टियां नहीं आयेगी। लेकिन अगर सफर लंबा है तो यह रस साथ में बनाकर भी रख सकते हैं।

अदरक में एंटीमेटिक गुण होते हैं। एंटीमेटिक एक ऐसा पदार्थ है जो उल्‍टी और चक्कर आने से बचाता है। सफर के दौरान जी मिचलाने पर अदरक की गोलियां या फिर अदरक की चाय का सेवन करें। इससे आपको उल्टी नहीं होगी। अगर हो सके तो अदरक अपने साथ ही रखे। अगर घबराहट हो तो इसे थोड़ा-थोड़ा खाते रहे।

पुदीना आपके पेट की मांसपेशियों को आराम देता है और इस तरह चक्कर आने और यात्रा के दौरान तबीयत के खराब लगने की स्थिति को भी समाप्त करता है। पुदीने के तेल भी उल्टियों को रोकने में बेहद मददगार है। इसके लिए रुमाल पर पुदीने के तेल की कुछ बूंदे छिड़के और सफर के दौरान उसे सूंघते रहे। सूखे पुदीने के पत्तों को गर्म पानी में मिलाकर खुद के लिए पुदीने की चाय बनाएं। इस मिश्रण को अच्छे से मिलाएं और इसमें 1 चम्मच शहद मिलाएं। कहीं निकलने से पहले इस मिश्रण को पियें। इसके अलावा इससे आपको काफी आराम मिलेगा।

जब भी किसी सफर के लिए निकलें, अपने साथ एक पका हुआ नींबू जरूर रख लें। जरा भी अजीब सा मन हो, तो इस नींबू को छीलकर सूंघे। ऐसा करने से उल्टी नहीं आएगी।
 

लौंग को भूनकर इसे पीस लें और किसी डिब्बी में भरकर रख लें। जब भी सफर में जाएं या उल्टी जैसा मन हो तो इसे सिर्फ एक चुटकी मात्रा में चीनी या काले नमक के साथ लें और चूसें।

तुलसी के पत्ते अपने साथ रखें, इसे खाने से उल्टी नहीं आएगी। इसके अलावा एक बॉटल में नींबू और पुदीने का रस काला नमक डालकर रखें और इसे थोड़ा-थोड़ा पीते रहें।

नींबू को काटकर, इस पर काली मिर्च और काला नमक बुरककर चाटें। यह तरीका भी आपको उल्टी आने से बचाएगा।

अगर आप बस में सफर कर रहे हैं, या बस में आपको उल्टी होती है तो जिस सीट पर आप बैठें, वहां पहले एक पेपर बिछा लें और इस पेपर पर बैठ जाएं। आपको उल्टी नहीं आएगी।

होमिओपेथी द्वारा

कोकुलस इंडिका 30, की 2 2 बूंद दिन में 3 बार
: माइग्रेन इलाज के लिए प्राकृतिक घरेलू नुस्खे

पुदीने का तेल- इस तेल में एंटी इंफ्लैमटरी गुण होते हैं जो सिर दर्द में आपको राहत दे सकते हैं। इसकी कुछ बूंदे जीभ पर रखने और कुछ अपने सिर पर लगा कर मालिश करने से माइग्रेन से आराम मिलता है। आराम करें- ध्यान सिर दर्द को दूर करने में काफी कारगर होता है। माइग्रेन के इलाज के लिए ध्यान करना सबसे अच्छा तरीका होगा।

बर्फ का पैक- बर्फ के टुकड़े एक पैक में लेकर सिर दर्द की जगह पर रखें। बर्फ में एंटी इंफ्लैमटरी गुण होते है जिससे सिर का दर्द ठीक हो सकता है। आप चाहें तो किसी और ठंडी चीज़ का पैक भी बना सकते है।

 विटामिन बी का सेवन- मस्तिष्क विकार जो माइग्रेन का मुख्य कारण होता है, अकसर विटामिन बी की कमी से पैदा होते हैं। विटामिन बी युक्त पदार्थों का सेवन करने से सिर दर्द से राहत मिल सकती है। माइग्रेन से बचने के लिए अपने भोजन में विटामिन बी युक्त पदार्थ शामिल करें।

जड़ी बूटियों का उपयोग- कैफीन युक्त पदार्थ जैसे चाय या कॉफ़ी पीने से भी माइग्रेन में राहत मिलती है। सिर दर्द में बाम को प्रयोग में लाएं। सिर पर बाम की हलकी मसाज देने पर रक्त संचार सामान्य हो जाता है तथा माइग्रेन से आराम मिलता है।

कमरे में अंधेरा करना- अक्सर तेज़ रोशनी से सिर का दर्द बढ़ जाता है। इस कारण अँधेरे और शांत कमरे में बैठने से भी माइग्रेन ठीक होता है।

योग- योग से माइग्रेन में काफी आराम मिल सकता है।
[ सूजी का हलवा 💥💥

👉एक डॉक्टर आपको कभी नहीं कहेगा कि सूजी का हलवा खाओ, वो मांस, मछली, अंडे जैसी तमाम मांसाहारी चीजों को खाने की सलाह देगा, लेकिन सूजी का हलवा खाने की सलाह कभी न देगा । कहेगा कि मांस, मछली, अंडे खाने से प्रोटीन मिलेगा, शरीर को पोषकता मिलेगी ।

👉सूजी का हलवा अंडे से ज्यादा प्रोटीन की पोषकता देने वाला है, और प्रोटीन चाहिए तो मसूर की दाल खा लो, कोई भी मांस-मछली मसूर दाल जितनी प्रोटीन नहीं देता ।

👉इतना ही नहीं, ये सूजी हड्डियों और नर्वस सिस्टम को सही रखती है, एनर्जी बढ़ाती है, दिल की बीमारी को दूर रखती है, इम्यूनिटी बढ़ाती है, पाचन सही होता है, एनीमिया की प्रॉब्लम नहीं होती ।

👉प्रोटीन के अलावा सूजी में फास्फोरस, जिंक, मैग्नीशियम जैसे पोषक तत्व भी भरपुर मात्रा में मौजूद रहते हैं ।

⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐
[अनिद्रा को भगाने के घरेलू इलाज 

  1. हरी साग और सब्जी ज्यादा मात्रा में खाएं (Eat green vegetables more) : हरी साग और सब्जी शरीर के लिए ही नहीं नींद के लिए भी जरुरी है। खासकर जिन सागों के पत्ते बड़े हों और उसमें लिसलिसापन हो तो यह नींद आने में काफी मदद करता है। पोरो और पालक के साग नियमित रुप से खाएं, इससे बेहतर नींद आएगी।
  2. मैग्नीशियम और कैल्शियम (Magnesium and calcium) : मैग्नीशियम और कैल्शियम दोनों को ही नींद बढ़ाने वाली केमिकल कही जाती है। जब यह दोनों साथ में ली जाए तो और असरदार होती है। मैग्नीशियम खाने से दिल की बीमारी का खतरा भी कम हो जाता है। रात में 200 Mg मैग्नीशियम(ज्यादा मात्रा न लें, डायरिया हो सकता है) और 600 mg कैल्शियम निश्चित रुप से खाएं, बेहतर नींद आएगी।
  3. योग और ध्यान (Yoga or meditation) : योग और ध्यान को नियमित अभ्यास में लाएं। योग में ज्यादा कठिन आसन नहीं करने हैं, साधारण आसन जिससे मन को शांति मिले वही करें। बेड पर जाने, पहले 5 से 10 मिनट ध्यान करें। ध्यान के दौरान कहीं भटके नहीं और मन को सिर्फ अपनी सांस पर एकाग्र करें। रात में बेहतर नींद आएगी।
  4. एरोमाथेरेपी (Aromatherapy) : सुगंध का मस्तिष्क से गहरा संबध है। बहुत सारे लोग अपने बेड पर तकिए के नीचे चमेली के फूल रख कर सोते हैं। कई लोग अपने बालकनी में रजनीगंधा या इसी तरह के सुगंधित फूलों के पौधे लगा कर रखते हैं ताकि इसके सुगंध से रात में बेहतर नींद आ सके। लेवेंडर के फूल भी काफी असरदार होते हैं अनिदा के मरीजों के लिए। तकिए के नीचे इसके फूल रख देने से सुगंध पूरे कमरे में फैल जाती है और नींद बेहतर आती है।
  5. हॉप्स (Hops) : यह एक प्रकार का जंगली पौधा है जिसके फल का उपयोग शराब (बीयर) बनाने के काम में आता है। अनिदा, टेंशन और डिप्रेथन के मरीजों को इसके फल का रस पिलाई जाती है ताकि उन्हें आराम की नींद आ सके।
    [: 10 रुपए में कर सकते हैं कैल्शियम की कमी को दूर, दूध से चिढ़ते हैं तो यह जानकारी आपके लिए है
  6. पानी में अदरक डाल कर उबालें। इस पानी में शहद और हल्का नींबू निचोड़ें। सुबह 20 दिन तक पिएं। कैल्शियम की आपूर्ति होगी।
  7. प्रति दिन 2 चम्मच तिल का सेवन करें। आप इसे लड्डू या चिक्की के रूप में भी ले सकते हैं।
  8. एक चम्मच जीरे को रात भर पानी में भिगो दें। सुबह इसका सेवन करें। 15 दिन में लाभ दिखेगा।
  9. 1 अंजीर व दो बादाम रात में गलाएं और सुबह इसका सेवन करें। शर्तिया फायदा होगा।
  10. रागी का हफ्ते में एक बार किसी ना किसी रूप में सेवन करें। दलिया, हलवा या खीर बनाकर ले सकते हैं। किसी भी प्रकार से रागी कैल्शियम का विश्वसनीय स्त्रोत हैं।
  11. नींबू पानी दिन भर में एक बार अवश्य लें।
  12. अंकुरित अनाज में कैल्शियम प्रचूर मात्रा में होता है। अगर आप अंकुरित आहार नहीं ले सकते हैं तो हफ्ते में एक बार सोयाबीन ले सकते हैं।
    [ गठिया का रामबाण इलाज है कच्चे पपीते की चाय, जानें बनाने की विधि और 4 फायदे

ये उपाय है कच्चे पपीते की चाय। जी हां, आपको जानकर हैरानी होगी कि पपीते की चाय का सेवन आपकी गठिया की समस्या समाप्त कर सकती है। मेडिकल साइंस की दुनिया में भी इस चाय का काफी महत्व है। पपीता शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा को घटाता है और इसमें सूजन को दूर करने वाले गुण होते हैं।

जानिए पपीते की इस चाय को बनाने की विधि -इस चाय को बनाने के लिए आपको चाहिए – पानी, कच्चा हरा पपीता, ग्रीन टी बैग या ग्रीन टी की पत्त‍ियां। अब चाय बनाने के लिए सबसे पहले एक बर्तन में पानी लेकर उसमें कच्चे पपीते के टुकड़े डाल दें और इसे आंच पर रख दें। जब यह उबलने लगे, तो आंच बंद करके इसे थोड़ा ठंडा होने के लिए रख दें। इस इसे छान लें और इसमें ग्रीन टी डालकर लगभग 3 मिनट के लिए छोड़ दें। अब यह चाय पीने के लिए तैयार है, इसे गर्मागर्म या गुनगुनी ही पिएं।

जानिए पपीते की इस चाय के फायदे –
1 गठिया की समस्या में फायदेमंद।
2 शारीरिक सूजन कम करने में मददगार।
3 ब्लड प्लेटलेट्स की संख्या बढ़ाने में मददगार।
4 शरीर के अवांछित तत्वों को बाहर कर आंतरिक सफाई में मददगार।
[बरसात के मौसम में मजे से पिएं गर्म सूप, होंगे ये 10 फायदे

1 पौष्टिक – सूप कोई भी को, पौष्टिक तत्वों से भरपूर होता है। दरअसल जिस सब्जी या अन्य खाद्य पदार्थ का सूप बनता है, उसका पूरा सत्व सूप में होता है। इसके अलावा कई तरह के पोषक तत्वों से भरपूर सूप अंदरूनी तौर पर ताकत देने का काम करता है। 
2 कमजोरी करे दूर – शरीर में कमजोरी महसूस होने पर सूप का सेवन करना बहुत लाभदायक होता है। यह कमजोरी तो दूर करता ही है, साथ ही प्रतिरक्षा तंत्र को भी और अधिक मजबूत करने में मदद करता है। यह बुखार, शारीरिक दर्द, सर्दी-जुकाम जैसी परेशानियों से लड़ने में मदद भी करता है। इसके अलावा तबियत खराब होने पर सूप के सेवन से किसी प्रकार की कोई परेशानी भी नहीं होती। 
3 पचने में आसान – सूप का सेवन बीमारियों में इसलिए भी किया जाता है, क्योंकि यह आसानी से पच जाता है और किसी प्रकार की परेशानी पैदा नहीं करता। इससे बीमारी के बाद सुस्त पड़ा पाचन तंत्र भी सुव्यवस्थित तरीके से काम करने लगता है। 
4 भूख बढ़ना – अगर आपको भूख नहीं लगती या कम लगती है, तो सूप पीना बहुत अच्छा विकल्प है। क्योंकि इसे लेने के बाद धीरे-धीरे भूख खुलने लगती है और भोजन के प्रति आपकी रूचि भी बढ़ती है। 
5 उर्जा के लिए – शारीरिक कमजोरी में सूप का सेवन आपको उर्जा देता है और आप पहले से स्वस्थ महसूस करते हैं। धीरे-धीरे आपकी उर्जा का स्तर भी बढ़ने लगता है और आप स्वस्थ व सेहतमंद बनते हैं, सो अलग। हुआ ना सोने पर सुहागा।
 6 हाइड्रेशन – जब आप अस्वस्थ होते हैं या फीवर के दौरान शरीर डिहाइड्रेट हो जाता है। इसलिए ऐसे समय में शरीर को हाइड्रेट रखने के लिए सूप का सेवन करना चाहिए। इससे शरीर में पानी की मात्रा और पोषक तत्व दोनों प्रवेश करते हैं। 
[ ग्रह दशा से जाने कब मिलेंगे शुभ-अशुभ परिणाम

किसी ग्रह की दशा-अन्तर्दशा में परिणामों की सही विवेचना अत्यंत महत्एवपूर्ण है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि शुभ अथवा योगकारक ग्रह की महादशा में अशुभ अथवा अयोगकारक ग्रह की दशा कैसी जाएगी दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जिस ग्रह की दशा चल रही है वह यदि एक शुभ एवं एक अशुभ भाव का स्वामी है तो कब शुभ परिणाम मिलेंगे और कब अशुभ लघु पाराशरी में इन बिन्दुओं को बहुत विस्तार से समझाया गया है।

महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ के मध्य का संबंध ही परिणामों की दिशा तय करने का सूत्र है।
लघुपाराशरी के अनुसार महादशानाथ के संदर्भ में अन्तर्दशानाथ को दो मुख्य वर्ग में रख सकते हैं :-
संबंधी ग्रह, असंबंधी ग्रह।
इन्हें पुन: तीन वर्गो में बांटा गया है :-
सधर्मी, विरूद्धधर्मी, समधर्मी।
संबंधी का तात्पर्य है महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ में संबंध। संबंध अर्थात् चतुर्विध संबंध में से कोई भी एक संबंध यदि महादशा नाथ और अन्तर्दशानाथ के मध्य हो तो उन्हें संबंधी कहा जाएगा।
यदि महादशा नाथ और अन्तर्दशानाथ में चतुर्विध संबंधों में से कोई भी संबंध नहीं बनता हो तो उन्हें असंबंधी माना जाएगा।
सधर्म का तात्पर्य है समान धर्म या स्वभाव वाला।
यदि महादशा नाथ और अन्तर्दशा नाथ दोनों शुभ भावों के स्वामी हो अथवा अशुभ भावों के स्वामी हों जैसे त्रिषडाय तो इन्हें सधर्मी कहा जाएगा।
स्पष्ट है कि अधर्मी का तात्पर्य है दोनों में समानता न हो, एक शुभ हो, एक अशुभ।
समधर्मी का तात्पर्य है न सधर्मी हो, न विरोधी हो। जब महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ संबंधी ग्रह होंगे तब परिणामों की तीव्रता सर्वाधिक होगी, चाहे वे शुभ हों अथवा अशुभ।
यह विदित है कि किसी भी ग्रह की महादशा में उसी ग्रह की अन्तर्दशा परिणाम देने में सक्षम नहीं होती चाहे महादशानाथ कारक हो अथवा मारक।
यदि महादशानाथ कारक ग्रह हैं तो सर्वश्रेष्ठ परिणाम तब मिलेंगे जब कारक ग्रह की अन्तर्दशा आएगी।
यही नियम मारक ग्रह पर भी लागू होता है।
यदि महादशानाथ और अन्तर्दशा विरूद्धधर्मी हों अर्थात् एक शुभ एक अशुभ तो मिश्रित परिणाम आएंगे और परिणामों की तीव्रता सीमित हो जाएगी।
उक्त नियम को निम्न रूप से समझा जा सकता है-
महादशानाथ + संबंधित सधर्मी अन्तर्दशानाथ – पूर्ण फल
महादशानाथ + संबंधित समधर्मी अन्तर्दशानाथ – मध्यम फल
महादशानाथ + संबंधित विरूद्धधर्मी अन्तर्दशानाथ – सामान्य
महादशानाथ + असंबंधित सधर्मी अन्तर्दशानाथ – पूर्ण फल
महादशानाथ + असंबंधित विरूद्धधर्मी अन्तर्दशानाथ – मिश्रित
इन नियमों को हम और अधिक विस्तार से विभिन्न अन्तर्दशा के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं।
केन्द्रेश व त्रिकोण : केन्द्रेश व त्रिकोेणेश सधर्मी ग्रह हैं क्योंकि दोनों शुभ भावो के स्वामी हैं अत: एक की महादशा में दूसरे की अन्तर्दशा शुभफल देगी।
यदि इन दोनों के बीच किसी भी प्रकार का परस्पर संबंध हो तो फल विशेष शुभ हो जाएगा।
इस संबंध में अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य जो लघु पाराशरी कहती है, वह यह है कि यदि केन्द्रेश या त्रिकोणेश अशुभ भाव के स्वामी भी हों तो शुभफल तब प्राप्त होंगे।
जब इन दोनों में किसी प्रकार का संबंध हो और अशुभ फल तब प्राप्त होंगे यदि इनमें किसी प्रकार का संबंध न हो।
अधिक स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि सहधर्मी होते हुए भी यदि किसी प्रकार का दोष हो तो शुभफल उसी स्थिति में मिलेंगे, जब ये संबंधी भी हों।
यहाँ यह उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है कि दोष का तात्पर्य अशुभ भाव का स्वामी होने से ही है, ग्रह के नीच या अस्त आदि होने को दोष नहीं माना गया है।
ऎसी स्थिति में योग भंग हो जाता है।

  1. दोषरहित केन्द्रेश + दोष रहित त्रिकोणेश, असंबंधी – शुभ
  2. दोषरहित केन्द्रेश + दोष रहित त्रिकोणेश, संबंधी – विशेष शुभ।
  3. दोषयुक्त केन्द्रेश + दोषयुक्त त्रिकोणेश, असंबंधी – अशुभ
  4. दोषयुक्त केन्द्रेश + दोषयुक्त त्रिकोणेश, संबंधी – सामान्य
    5.दोषयुक्त केन्द्रेश+दोषयुक्त त्रिकोणेश, असंबंधी – अशुभ।
  5. दोषमुक्त केन्द्रेश + दोषयुक्त त्रिकोणेश, असंबंध – अशुभ।
    योगकारक व मारक : किसी योगकारक ग्रह की महादशा में शुभ परिणाम तब प्राप्त होंगे जब किसी अन्य योगकारक की अन्तर्दशा आएगी अर्थात् सहधर्मी की।
    यदि दोनों में संबंध भी हुआ तो परिणाम की तीव्रता बढ़ जाएगी अर्थात् सहधर्मी होने के साथ-साथ संबंधी भी हुए तो विशेष परिणाम प्राप्त होंगे।
    संबंध न होने की स्थिति में सामान्य फल ही मिलेंगे।
    यदि योगकारक ग्रह की महादशा में मारक ग्रह की अन्तर्दशा हो, दोनों मे संबंध भी हो रहा हो तो राजयोग की प्राप्ति हो सकती है।
    यद्यपि यह स्थायी नहीं होगा स्पष्ट है कि संबंधी होने से परिणाम प्राप्त होंगे।
    यही नियम मारक ग्रह की महादशा में लागू होगा।
    मारक ग्रह की महादशा में सर्वाधिक मारक परिणाम तब आएंगे जब मारक ग्रह की अन्तर्दशा आएगी और दोनों में संबंध भी होगा।
    मारक ग्रह की महादशा में संबंधी पापग्रह की अन्तर्दशा में अशुभ परिणाम की तीव्रता कम होगी क्योंकि यह सहधर्मी नहीं होकर सिर्फ संबंधी है।
    यह उल्लेख आवश्यक है कि चतुर्विध संबंध के अतिरिक्त एक-दूसरे से केन्द्र-त्रिकोण में होना भी संबंध है।
    राहु-केतु की दशा के नियम : राहु-केतु के लिए नियम है कि ये जिस भाव में बैठते हैं और जिस भावेश से संबंध करते हैं उसी के समान परिणाम देते हैं।
    केन्द्र-त्रिकोण में बैठने मात्र से राहु-केतु अपनी दशा में शुभफल देंगे।
    यदि ये केन्द्र-त्रिकोण में बैठकर केन्द्रेश या त्रिकोणेश से संबंध भी करें तो अपनी दशा में योगकारक के समान फल देते हैं।
    अब याद रखने योग्य बिन्दु यह है कि केन्द्र में शुभ राशि में बैठने पर इन्हें भी केन्द्राधिपति दोष लगेगा।
    केन्द्र में पाप राशि में बैठने पर अशुभता सम हो जाएगी और राहु-केतु अपनी दशा में सामान्य फल देंगे।
    केन्द्र त्रिकोण में स्थित राहु-केतु यदि केन्द्रेश-त्रिकोषेश से संबंध न भी करें तो भी केन्द्रेश-त्रिकोणेश की महादशा में इनकी दशा शुभ परिणाम देगी क्योंकि केन्द्र-त्रिकोण में बैठने से वे केन्द्रेश-त्रिकोणेश के समान फल देंगे अत: ऎसी दशा में सहधर्मी होने से शुभ परिणाम प्राप्त होंगे।
    पाप ग्रह की दशा : लघुपाराशरी के अनुसार पाप ग्रह की महादशा में असंबंधी शुभ ग्रह की अन्तर्दशा हो तो परिणाम अशुभ होते हैं। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि 2,3,11 भावेशों की दशा सामान्य फल देती है और 6,8,12 भावेशों की दशा कष्ट देने वाली होती है।
    पापी महादशेश में संबंधी शुभग्रह की अन्तर्दशा मिश्रित फल देगी।
  6. पापी महादशेश + शुभ अन्र्तदशेश, असंबंधी – अशुभ ।
  7. पापी महादशेश + शुभ अन्तर्दशेश, संबंधी – मिश्रित फल।
  8. पापी महादशेश + योगकारक, असंबंधी – अशुभ फल।
  9. पापी महादशेश + योगकारक, संबंधी – मिश्रित फल।
    स्पष्ट है कि महादशेश एवं अन्तरर्दशेश में संबंध होने पर परिणामों की तीव्रता बढ़ती है।
    लघुपाराशरी में एक अत्यंत रोचक उदाहरण से इस तथ्य को समझाने का प्रयास किया गया है।
    महादशेश राजा के समान है और अन्तर्दशेश उस राजा के अधीन अधिकारी।
    पापी राजा के राज में सज्जन अधिकारी चाहते हुए भी अच्छा कार्य नहीं करेगा।
    ऎसी स्थिति में यदि अधिकारी अत्यधिक सज्जन हुआ तो और भी अधिक डरेगा इसीलिए पापी महादशेश में असंबंधी योगकारक की अन्तर्दशा में अशुभ परिणाम मिलेंगे।
    यदि राजा और अधिकारी ने किसी भी प्रकार की रिश्तेदारी या संबंध हो तो अधिकारी कभी-कभी निर्भय होकर अपनी इच्छानुसार कार्य कर लेगा।
    अत: संबंधी होने की स्थिति में पापी महादशेश में शुभ अथवा योगकारक अन्तर्दशेश मिश्रित फल देंगे।
    यही नियम शुभ महादशेश में अशुभ या अयोगकारक अन्तर्दशेश पर लागू होगा।
    इसी उदाहरण से यह भी समझा जा सकता है कि पापी ग्रह की महादशा में पापी ग्रह की अन्तर्दशा बहुत अशुभ परिणाम देगी और यदि इनमें संबंध भी हो तो “करेला पेड़ नीम चढ़ा” की कहावत पूर्णत: चरितार्थ होगी।
    यदि फलकथन में इन बिन्दुओं का ध्यान रखा जाए तो सटीक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।
    : जन्म कुंडली के 12 भावों के नाम स्वरूप और कार्य।

शास्त्रों में 12 भावों के स्वरूप हैं और भावों के नाम के अनुसार ही इनका काम होता है। पहला भाव तन, दूसरा धन, तीसरा सहोदर, चतुर्थ मातृ, पंचम पुत्र, छठा अरि, सप्तम जाया, आठवाँ आयु, नवम धर्म, दशम कर्म, एकादश आय और द्वादश व्यय भाव कहलाता है़।

प्रथम भाव : इसे लग्न कहते हैं। अन्य कुछ नाम ये भी हैं : हीरा, तनु, केन्द्र, कंटक, चतुष्टय, प्रथम। इस भाव से मुख्यत: जातक का शरीर, मुख, मस्तक, केश, आयु, योग्यता, तेज, आरोग्य आदि विषयों का पता चलता है।

द्वितीय भाव : यह धन भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं, पणफर, द्वितीय। इससे कुटुंब-परिवार, दायीं आंख, वाणी, विद्या, बहुमूल्य सामग्री का संग्रह, सोना-चांदी, चल-सम्पत्ति, नम्रता, भोजन, वाकपटुता आदि विषयों का पता चलता है।

तृतीय भाव : यह पराक्रम भाव के नाम से जाना जाता है। इसे भातृ भाव भी कहते हैं। अन्य नाम हैं आपोक्लिम, उपचय, तृतीय। इस भाव से भाई-बहन, दायां कान, लघु यात्राएं, साहस, सामर्थ्य अर्थात् पराक्रम, नौकर-चाकर, भाई बहनों से संबंध, पडौसी, लेखन-प्रकाशन आदि विषयों का पता चलता है।

चतुर्थ भाव : यह सुख भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- केन्द्र, कंटक, चतुष्टय। इस भाव से माता, जन्म समय की परिस्थिति, दत्तक पुत्र, हृदय, छाती, पति-पत्नी की विधि यानी कानूनी मामले, चल सम्पति, गृह-निर्माण, वाहन सुख आदि विषयों का पता चलता है।

पंचम भाव : यह सुत अथवा संतान भाव भी कहलाता है। अन्य नाम है-त्रिकोण, पणफर, पंचम। इस भाव से संतान अर्थात् पुत्र। पुत्रियां, मानसिकता, मंत्र-ज्ञान, विवेक, स्मरण शक्ति, विद्या, प्रतिष्ठा आदि विषयों का पता चलता है।

षष्ट भाव : इसे रिपुभाव कहते हैं। अन्य नाम हैं रोग भाव, आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, षष्ट। इस भाव से मुख्यत: शत्रु, रोग, मामा, जय-पराजय, भूत, बंधन, विष प्रयोग, क्रूर कर्म आदि विषयों का पता चलता है।

सप्तम भाव : यह पत्नी भाव अथवा जाया भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं-केन्द्र, कंटक, चतुष्टय, सप्तम। इस भाव से पति अथवा पत्नी, विवाह संबंध, विषय-वासना, आमोद-प्रमोद, व्यभिचार, आंतों, साझेदारी के व्यापार आदि विषयों का पता चलता है।

अष्टम भाव : इसे मृत्यु भाव भी कहते हैं। अन्य नाम हैं-लय स्थान, पणफर, त्रिक, अष्टम। आठवें भाव से आयु, मृत्यु का कारण, दु:ख-संकट, मानसिक पीड़ा, आर्थिक क्षति, भाग्य हानि, गुप्तांग के रोगों, आकस्मिक धन लाभ आदि विषयों का पता चलता है।

नवम भाव : इसे भाग्य भाव कहलाता हैं। अन्य नाम हैं त्रिकोण और नवम। भाग्य, धर्म पर आस्था, गुरू, पिता, पूर्व जन्म के पुण्य-पाप, शुद्धाचरण, यश, ऐश्वर्य, वैराग्य आदि विषयों का पता चलता है।

दशम भाव : यह कर्म भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- केन्द्र, कंटक, चतुष्टय-उपचय, राज्य, दशम। दशम भाव से कर्म, नौकरी, व्यापार-व्यवसाय, आजीविका, यश, सम्मान, राज-सम्मान, राजनीतिक विषय, पदाधिकार, पितृ धन, दीर्घ यात्राएं, सुख आदि विषयों का पता चलता है।

एकादश भाव : यह भाव आय भाव भी कहलाता है। अन्य नाम हैं- पणफर, उपचय, लब्धि, एकादश। इस भाव से प्रत्येक प्रकार के लाभ, मित्र, पुत्र वधू, पूर्व संपन्न कर्मों से भाग्योदय, सिद्धि, आशा, माता की मृत्यु आदि विषयों का पता चलता है।

द्वादश भाव : यह व्यय भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- अंतिम, आपोक्लिम, एवं द्वादश। इस भाव से धन व्यय, बायीं आंख, शैया सुख, मानसिक क्लेश, दैवी आपत्तियां, दुर्घटना, मृत्यु के उपरान्त की स्थिति, पत्नी के रोग, माता का भाग्य, राजकीय संकट, राजकीय दंड, आत्म-हत्या, एवं मोक्ष आदि विषयों का पता चलता है।

आइए इनके बारे में विस्तार से जानें:

प्रथम भाव : इस भाव से व्यक्ति की शरीर यष्टि, वात-पित्त-कफ प्रकृति, त्वचा का रंग, यश-अपयश, पूर्वज, सुख-दुख, आत्मविश्वास, अहंकार, मानसिकता आदि को जाना जाता है। इससे हमें शारीरिक आकृति, स्वभाव, वर्ण चिन्ह, व्यक्तित्व, चरित्र, मुख, गुण व अवगुण, प्रारंभिक जीवन विचार, यश, सुख-दुख, नेतृत्व शक्ति, व्यक्तित्व, मुख का ऊपरी भाग, जीवन के संबंध में जानकारी मिलती है। विस्तृत रूप में इस भाव से जनस्वास्थ्य, मंत्रिमंडल की परिस्थितियों पर भी विचार जाना जा सकता है।

द्वितीय भाव : इसे भाव से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, परिवार का सुख, घर की स्थिति, दाईं आँख, वाणी, जीभ, खाना-पीना, प्रारंभिक शिक्षा, संपत्ति आदि के बारे मे जाना जाता है। इससे हमें कुटुंब के लोगों के बारे में, वाणी, विचार, धन की बचत, सौभाग्य, लाभ-हानि, आभूषण, दृष्टि, दाहिनी आँख, स्मरण शक्ति, नाक, ठुड्डी, दाँत, स्त्री की मृत्यु, कला, सुख, गला, कान, मृत्यु का कारण जाना जाता है। इस भाव से विस्तृत रूप में कैद यानी राजदंड भी देखा जाता है। राष्ट्रीय विचार से राजस्व, जनसाधारण की आर्थिक दशा, आयात एवं वाणिज्य-व्यवसाय आदि के बारे में भी इसी भाव से जाना जा सकता है

तृतीय भाव : इस भाव से जातक के बल, छोटे भाई-बहन, नौकर-चाकर, पराक्रम, धैर्य, कंठ-फेफड़े, श्रवण स्थान, कंधे-हाथ आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें भाई, पराक्रम, साहस, मित्रों से संबंध, साझेदारी, संचार-माध्यम, स्वर, संगीत, लेखन कार्य, वक्षस्थल, फेफड़े, भुजाएँ, बंधु-बांधव आदि का ज्ञान मिलता है। राष्ट्रीय ज्योतिष के लिए इस भाव से रेल, वायुयान, पत्र-पत्रिकाएँ, पत्र व्यवहार, निकटतम देशों की हलचल आदि के बारे में जाना जाता है।

चतुर्थ स्थान : इस भाव से मातृसुख, गृह सौख्य, वाहन सौख्य, बाग-बगीचा, जमीन-जायदाद, मित्र छाती पेट के रोग, मानसिक स्थिति आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें माता, स्वयं का मकान, पारिवारिक स्थिति, भूमि, वाहन सुख, पैतृक संपत्ति, मातृभूमि, जनता से संबंधित कार्य, कुर्सी, कुआँ, दूध, तालाब, गुप्त कोष, उदर, छाती आदि का पता किया जाता है। राष्ट्रीय ज्योतिष हेतु शिक्षण संस्थाएं, कॉलेज, स्कूल, कृषि, जमीन, सर्वसाधारण की प्रसन्नता एवं जनता से संबंधित कार्य एवं स्थानीय राजनीति, जनता के बीच पहचान आदि देखा जाता है।

पंचम भाव : इस भाव से संतति, बच्चों से मिलने वाला सुख, विद्या बुद्धि, उच्च शिक्षा, विनय-देशभक्ति, पाचन शक्ति, कला, रहस्य शास्त्रों की रुचि, अचानक धन-लाभ, प्रेम संबंधों में यशनौकरी परिवर्तन आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें विद्या, विवेक, लेखन, मनोरंजन, संतान, मंत्र-तंत्र, प्रेम, सट्टा, लॉटरी, अकस्मात धन लाभ, पूर्वजन्म, गर्भाशय, मूत्राशय, पीठ, प्रशासकीय क्षमता, आय जानी जाती है।

छठा भाव : इस भाव से जातक के शत्रुक, रोग, भय, तनाव, कलह, मुकदमे, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर, जननांगों के रोग आदि का विचार किया जाता है। इससे हमें शत्रु, रोग, ऋण, विघ्न-बाधा, भोजन, चाचा-चाची, अपयश, चोट, घाव, विश्वासघात, असफलता, पालतू जानवर, नौकर, वाद-विवाद, कोर्ट से संबंधित कार्य, आँत, पेट, सीमा विवाद, आक्रमण, जल-थल सैन्य के के बारे में पता चलता है।

सातवाँ भाव : इस भाव से विवाह सौख्य, शैय्या सुख, जीवनसाथी का स्वभाव, व्यापार, पार्टनरशिप, दूर के प्रवास योग, कोर्ट कचहरी प्रकरण में यश-अपयश आदि का ज्ञान होता है। इससे हमें स्त्री से संबंधित, विवाह, सेक्स, पति-पत्नी, वाणिज्य, क्रय-विक्रय, व्यवहार, साझेदारी, मूत्राशय, सार्वजनिक, गुप्त रोग तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से नैतिकता, विदेशों से संबंध, युद्ध का पता चलता हैं।

आठवाँ भाव : इस भाव से आयु निर्धारण, दु:ख, आर्थिक स्थिति, मानसिक क्लेश, जननांगों के विकार, अचानक आने वाले संकटों का पता चलता है। इससे हमे मृत्यु, आयु, मृत्यु का कारण, स्त्री धन, गुप्त धन, उत्तराधिकारी, स्वयं द्वारा अर्जित मकान, जातक की स्थिति, वियोग, दुर्घटना, सजा, लांछन आदि का पता चलता है।

नवम भाव: इसे भाव से आध्यात्मिक प्रगति, भाग्योदय, बुद्धिमत्ता, गुरु, परदेश गमन, ग्रंथपुस्तक लेखन, तीर्थ यात्रा, भाई की पत्नी, दूसरा विवाह आदि के बारे में बताया जाता है। इससे हमें धर्म, भाग्य, तीर्थयात्रा, संतान का भाग्य, साला-साली, आध्यात्मिक स्थिति, वैराग्य, आयात-निर्यात, यश, ख्याति, सार्वजनिक जीवन, भाग्योदय, पुनर्जन्म, मंदिर-धर्मशाला आदि का निर्माण कराना, योजना विकास कार्य, न्यायालय से संबंधित कार्य पता चलते है।

दसवाँ भाव : इस भाव से पद-प्रतिष्ठा, बॉस, सामाजिक सम्मान, कार्य क्षमता, पितृ सुख, नौकरी व्यवसाय, शासन से लाभ, घुटनों का दर्द, सासू माँ आदि के बारे में पता चलता है। इससे हमें पिता, राज्य, व्यापार, नौकरी, प्रशासनिक स्तर, मान-सम्मान, सफलता, सार्वजनिक जीवन, घुटने, संसद, विदेश व्यापार, आयात-निर्यात, विद्रोह आदि के बारे में पता चलता है।

एकादश भाव : इसे भाव से मित्र, बहू-जँवाई, भेंट-उपहार, लाभ, आय के तरीके, पिंडली के बारे में जाना जाता है। इससे हमें मित्र, समाज, आकांक्षाएँ, इच्छापूर्ति, आय, व्यवसाय में उन्नति, ज्येष्ठ भाई, रोग से मुक्ति, टखना, द्वितीय पत्नी, कान, वाणिज्य-व्यापार, परराष्ट्रों से लाभ, अंतरराष्ट्रीय संबंध आदि पता चलता है।

द्वादश भाव: इस भाव से से कर्ज, नुकसान, परदेश गमन, संन्यास, अनैतिक आचरण, व्यसन, गुप्त शत्रु, शैय्या सुख, आत्महत्या, जेल यात्रा, मुकदमेबाजी का विचार किया जाता है। इससे हमें व्यय, हानि, दंड, गुप्त शत्रु, विदेश यात्रा, त्याग, असफलता, नेत्र पीड़ा, षड्यंत्र, कुटुंब में तनाव, दुर्भाग्य, जेल, अस्पताल में भर्ती होना, बदनामी, भोग-विलास, बायाँ कान, बाईं आँख, ऋण आदि के बारे में जाना जाता है।

जन्म कुंडली के कारकत्व अर्थात 12 भावों से ज्ञात किये जा सकने वाले विषयों की जानकारी :

  1. प्रथम लग्न, उदय, आद्य,तनु,जन्म, विलग्न, होय शरीर का वर्ण, आकृति, लक्षण, यश, गुण, स्थान, सुख दुख, प्रवास, तेज बल
  2. द्वितीय स्व कुटुंब, वाणी, अर्थ, मुक्ति, नयन धन, नेत्र, मुख, विद्या, वचन, कुटुंब, भोजन, पैतॄक धन,
  3. तॄतीय पराक्रम, सहोदर, सहज, वीर्य, धैर्य, भ्राता, पराक्रम, साहस, कंठ, स्वर, श्रवण, आभरण, वस्त्र, धैर्य, बल, मुल, फ़ल।
  4. चतुर्थ सुख, पाताल, मातृ, विद्या, यान, यान, बंधु, मित्र, अंबु विद्या, माता, सुख, गौ, बंधु, मनोगुण, राज्य, यान, वाहन, भूमि, गॄह, हॄदय
  5. पंचम बुद्धि, पितॄ, नंदन, पुत्र, देवराज, पंचक देवता, राजा, पुत्र, पिता, बुद्धि, पुण्य, यातरा, पुत्र प्राप्ति, पितृ विचार (सूर्य से)
  6. षष्ठ रोग, अंग, शस्त्र, भय, रिपु, क्षत, रोग, श्त्रु, व्यसन, व्रण, घाव (मंगल से भी विचारणीय),
  7. सप्तम जामित्र, द्यून, काम, गमन, कलत्र, संपत, अस्त। संपूर्ण यात्रा, स्त्री सुख, पुत्र विवाह (शुक्र से भी विचारणीय)
  8. अष्टम आयु, रंध्र, रण, मॄत्यु, विनाश, आयु (शनि से भी विचारणीय)
  9. नवम धर्म, गुरू, शुभ, तप, नव, भाग्य, अंक। भाग्य, प्रभाव, धर्म, गुरू, तप, शुभ (गुरू से भी विचारणीय)
  10. दशम व्यापार, मध्य, मान, ज्ञान, राज, आस्पद, कर्म, आज्ञा, मान, व्यापार, भूषण, निद्रा, कॄषि, प्रवज्या, आगम, कर्म, जीवन, जिविका, वृति, यश, विज्ञान, विद्या,
  11. एकादश भव, आय, लाभ संपूर्ण धन प्राप्ति, लोभ, लाभ, लालच, दासता
  12. द्वादश व्यय, लंबा सफ़र, दुर्गति, कुत्ता, मछली, मोक्ष, भोग, स्वप्न, निद्रा, (शनि राहु से भी विचारणीय)

जन्म कुंडली में दशम घर या दशमेश से व्यवसाय का निर्धारण होता है। दशमेश की विभिन्न भावो में स्थिति के अनुसार कार्य।

  1. दशमेश यदि पहले भाव में हो तो व्यक्ति सरकारी सेवा करता है या उसका निज का स्वतंत्र व्यवसाय होता है।
  2. दूसरे भाव में हो तो बैंकिंग, अध्यापन, वकालत, पारिवारिक काम, होटल व रेस्तरां, आभूषण एवम नेत्रों का चिकित्सक या ऐनकों से सम्बंधित व्यवसाय होगा।
  3. तीसरे भाव में हो तो रेलवे, परिवहन, डाक एवम तार, लेखन, पत्रकारिता, मुद्रण, साहसिक कार्य, नौकरी, गायन-वादन से सम्बंधित व्यवसाय होगा।
  4. चौथे भाव में हो तो खेती -बाड़ी, नेवी, खनन, जमीन-जायदाद, वाहन उद्योग, जनसेवा, राजनीति, लोक निर्माण विभाग, जल परियोजना, आवास निर्माण, आर्किटेक्ट, सहकारी उद्यम इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  5. पांचवें भाव में हो तो शिक्षण, शेयर मार्केट, आढत-दलाली, लाटरी, प्रबंधन, कला-कौशल, मंत्री पद, लेखन,फिल्म निर्माण इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  6. छठे भाव में हो तो जन स्वास्थ्य, नर्सिंग होम, अस्त्र -शस्त्र, सेना, जेल, चिकित्सा, चोरी, आपराधिक कार्य, मुकद्दमेबाजी तथा पशुओं इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  7. सातवें भाव में हो तो विदेश सेवा, आयात-निर्यात, सहकारी उद्यम, व्यापार, यात्राएं, रिश्ते कराने का काम इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  8. आठवें भाव में हो तो बीमा, जन्म -मृत्यु विभाग,वसीयत, मृतक का अंतिम संस्कार कराने का काम, आपराधिक कार्य, फाईनैंस इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  9. नवें भाव में हो तो पुरोहिताई, अध्यापन, धार्मिक संस्थाएं, न्यायालय, धार्मिक साहित्य, प्रकाशन शोध कार्य इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  10. दसवें भाव में हो तो राजकीय एवम प्रशासकीय सेवा, उड्डयन क्षेत्र, राजनीति, मौसम विभाग, अन्तरिक्ष, पैतृक कार्य इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  11. ग्यारहवें भाव में हो तो लोक या राज्य सभा पद, आयकर, बिक्री कर, सभी प्रकार के राजस्व, वाहन, बड़े उद्योग इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।
  12. बारहवें भाव में हो तो कारागार, विदेश प्रवास,राजदंड इत्यादि से सम्बंधित व्यवसाय हो सकता है।

गोचर में नक्षत्र फल ।

गोचर विचार करते समय जन्मराशि या जन्मलग्न से द्वादश भावों में सूर्यादि नौ ग्रहों के परिभ्रमण को दृष्टिग्रत रखकर ही फलादेश किया जाता है। यदि सूक्ष्म गोचर फलादेश कहना है तो जन्म नक्षत्र से गोचर वश ग्रहों का 27 नक्षत्रों में भ्रमण को भी ध्यान में रखना होगा।
जन्म नक्षत्र पर कोई ग्रह आने से वह नक्षत्र प्रथम कहलाता है, उससे अगले पर जाने से दूसरा, दूसरे से अगले नक्षत्र पर जाने से तीसरा आदि कहा जाता है। इसी प्रकार 27 नक्षत्रों पर क्रमशः जानना चाहिए। अब यहाँ पर 27 नक्षत्रों पर सूर्यादि नौ ग्रहों के परिभ्रमण से जो प्रभाव पड़ता है उसे उपयोगार्थ दे रहे हैं।
सूर्य ग्रह का नक्षत्र-फल
सूर्य ग्रह जन्म नक्षत्र से 1 पर नाश, 2रे से 5वें तक धनलाभ, 6ठे से 9वें तक कार्यसिद्धि, 10वें से 13वें तक धनलाभ, 14वें से 19वें तक भोगोपभोग के साधनों में वृद्धि, 20वें से 23वें तक शारीरिक कष्ट, 24वें से 25वें तक लाभकारी एवं 26वें व 27वें नक्षत्र में मृत्यु भय कराता है।
चन्द्र ग्रह का नक्षत्र-फल
जन्म नक्षत्र से चन्द्र 1ले व 2रे हो तो भयभीत करता है, 3रे व 6ठे हो तो प्रसन्नचित व सकुशल रखता है, 7वें व 8वें पर हो तो विरोधियों पर विजय दिलाता है, 9वें व 10वें पर हो तो आर्थिक सम्पन्नता, 11वें से 15वें तक मनोविनोद के कार्यों में संलग्न कराता है, 16वें से 18वें तक वाद-विवाद, झगड़ा या मारपीट कराता है एवं 19वें से 27वें तक धनलाभ कारक है।
मंगल ग्रह का नक्षत्र फल
जन्म नक्षत्र से मंगल ग्रह 1ले व 2रे नक्षत्र पर होने से दुर्घटना कराता है, 3रे से 8वें होने पर वाद-विवाद एवं कलह कराता है, 9वें से 11वें होने पर कार्य में सफलता दिलाता है, 12वें से 15वें होने पर धनहानि कराता है, 16वें से 17वें होने पर आर्थिक लाभ होता है, 18वें से 21वें तक होने पर मन में भय व्याप्त रहता है, 22वें से 25वें तक होने पर सुख में वृद्धि होती है एवं 26वें व 27वें नक्षत्र पर होने से यात्रा योग बनता है।
बुध, गुरु एवं शुक्र ग्रह का नक्षत्र-फल
जन्म नक्षत्र से बुध, गुरु एवं शुक्र ग्रह 1ले से 3रे नक्षत्र पर होने से चिन्ताकारक, 4थे से 6ठे होने पर आर्थिक लाभ, 7वें से 12वें होने पर अनिष्टकारी, 13वें से 17वें होने पर आर्थिक सम्पन्नता, 18वें से 19वें होने पर कष्टकारी एवं 20वें से 27वें होने पर यश और लाभ में वृद्धि होती है।
शनि, राहु एवं केतु ग्रह का नक्षत्र-फल
जन्म नक्षत्र से शनि, राहु एवं केतु 1ले होने पर कष्टकारी, 2रे से 5वें होने पर सुखकारी, 6ठे से 8वें होने पर यात्रा कारक, 9वें से 11वें होने पर सर्व प्रकार से हानि एवं कष्ट, 12वें से 15वें होने पर सर्व प्रकार से उन्नति, 16वें से 20वें होने पर भोगोपभोग के साधन बढ़ते हैं, 21वें से 25वें होने पर सर्व कार्यसिद्धि होती है और 26वें व 27वें होने पर राज्य भय या शत्रु भय रहता है।

गोचर में राशि फल।

सूर्य- सूर्य जन्मकालीन राशि से 3,6,10 और 11 वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में सूर्य का फल अशुभ देता है।

चंद्र- चंद्र जन्मकालीन राशि से 1, 3, 6, 7, 10 व 11 भाव में शुभ तथा 4,8, 12 वें भाव में अशुभ फल देता है।

मंगल- मंगल जन्मकालीन राशि से 3 ,6,11 भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

बुध- बुध जन्मकालीन राशि से 2,4,6,8,10 और 11 वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

गुरु-गुरु जन्मकालीन राशि से 2,5,7,9 और 11 वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

शुक्र-शुक्र जन्मकालीन राशि से 1,2,3, 4,5, 8,9,11 और 12 वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

शनि-शनि जन्मकालीन राशि से 3,6,11 भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

राहु-राहु जन्मकालीन राशि से 3 ,6,11 वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

केतु-केतु जन्मकालीन राशि से 1,2,3,4,5,7,9 और 11 वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
[ शास्त्रो में बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित है, किसी भी हवन अथवा पूजन विधि में बांस को नही जलाते हैं।

यहां तक कि चिता में भी बांस की लकड़ी का प्रयोग वर्जित है।

अर्थी के लिए बांस की लकड़ी का उपयोग होता है लेकिन उसे भी नहीं जलाते

शास्त्रों के अनुसार बांस जलाने से पित्र दोष लगता है

क्या इसका कोई वैज्ञानिक कारण है?

बांस में लेड व हेवी मेटल प्रचुर मात्रा में होते हैं
लेड जलने पर लेड आक्साइड बनाता है जो कि एक खतरनाक नीरो टॉक्सिक है , हेवी मेटल भी जलने पर ऑक्साइड्स बनाते हैं।

लेकिन जिस बांस की लकड़ी को जलाना शास्त्रों में वर्जित है यहां तक कि चिता में भी नही जला सकते, उस बांस की लकड़ी को हम लोग रोज अगरबत्ती में जलाते हैं।

अगरबत्ती के जलने से उत्पन्न हुई सुगन्ध के प्रसार के लिए फेथलेट नाम के विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है।

यह एक फेथलिक एसिड का ईस्टर होता है

यह भी स्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करता है

इस प्रकार अगरबत्ती की तथाकथित सुगन्ध न्यूरोटॉक्सिक एवम हेप्टोटोक्सिक को भी स्वांस के साथ शरीर में पहुंचाती है।

इसकी लेश मात्र उपस्थिति केन्सर अथवा मष्तिष्क आघात का कारण बन सकती है।

हेप्टो टॉक्सिक की थोड़ी सी मात्रा लीवर को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है।

शास्त्रों में पूजन विधान में कहीं भी अगरबत्ती का उल्लेख नहीं मिलता सब जगह धूप ही लिखा है

🙏अतः कृपया सामर्थ्य अनुसार स्वच्छ धूप का ही उपयोग करें🙏
[शुक्र के अच्छे प्रभाव🌹
1-। जिस व्यक्ति का शुक्र अच्छा होता है उसके पास एक से अधिक कपड़े होते हैं या एक ही रंग के कई वस्त्र होते हैं।
2- जिस व्यक्ति का शुक्र अच्छा होता है उससे महिलाएं अधिक प्रसन्न रहती हैं और महिलाओं के बीच वह काफी चर्चित होता है।
3-जिस जातक का शुक्र अच्छा होता है बात चीजों को बहुत व्यवस्थित रखता है।
4- जिस जातक का शुक्र अच्छा होता है वह जातक महिलाओं से बहुत अदब से पेश आता है।
5- जिस शतक का शुक्र अच्छा होता है उसके पैर के तलवे नहीं फटते जल्दी।
6- जिस जातक का शुक्र अच्छा होता है उसे सफेद चीजें बहुत पसंद होती हैं।
7- जिस जातक का शुक्र अच्छा होता है उसकी कोई उम्र नहीं बता सकता जल्दी।
8- जिस जातक का शुक्र अच्छा होता है वह कुछ ना कुछ गुनगुनाता रहता है खाली टाइम में
9- जिस जातक का शुक्र अच्छा होता है उसके पैरों से दुर्गंध नहीं आती।
10- जिस जातक का शुक्र अच्छा होता है उसको लाइटे बहुत पसंद होती हैं कलरफुल लाइट्स।
यह मेरा अपना शोध है बाकी इसमें और आपकी कुंडली में पढ़ने वाले ग्रहों का भी कई मिश्रण होगा लेकिन यह एक सामान्य बात है।

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