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हनुमानजी के दस रहस्य
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हनुमानजी इस कलियुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं। वे कहां रहते हैं, कब-कब व कहां-कहां प्रकट होते हैं और उनके दर्शन कैसे और किस तरह किए जा सकते हैं, हम यह आपको बताएंगे,और हां,अंत में जानेंगे आप एक ऐसा रहस्य जिसे जानकर आप सचमुच ही चौंक जाएंगे…

चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥
संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

चारों युग में हनुमानजी के ही परताप से जगत में उजियारा है। हनुमान को छोड़कर और किसी देवी-देवता में चित्त धरने की कोई आवश्यकता नहीं है।

द्वंद्व में रहने वाले का हनुमानजी सहयोग नहीं करते हैं। हनुमानजी हमारे बीच इस धरती पर सशरीर मौजूद हैं। किसी भी व्यक्ति को जीवन में श्रीराम की कृपा के बिना कोई भी सुख-सुविधा प्राप्त नहीं हो सकती है। श्रीराम की कृपा प्राप्ति के लिए हमें हनुमानजी को प्रसन्न करना चाहिए। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी श्रीराम तक पहुंच नहीं सकता। हनुमानजी की शरण में जाने से सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं। इसके साथ ही जब हनुमानजी हमारे रक्षक हैं तो हमें किसी भी अन्य देवी, देवता, बाबा, साधु, ज्योतिष आदि की बातों में भटकने की जरूरत नहीं।

युवाओं के प्रेरक बजरंग बली👉 हनुमान इस कलियुग में सबसे ज्यादा जाग्रत और साक्षात हैं। कलियुग में हनुमानजी की भक्ति ही लोगों को दुख और संकट से बचाने में सक्षम है। बहुत से लोग किसी बाबा, देवी-देवता, ज्योतिष और तांत्रिकों के चक्कर में भटकते रहते हैं और अंतत: वे अपना जीवन नष्ट ही कर लेते हैं… क्योंकि वे हनुमान की भक्ति-शक्ति को नहीं पहचानते। ऐसे भटके हुए लोगों का राम ही भला करे।

क्यों प्रमुख देव हैं हनुमान👉 हनुमानजी 4 कारणों से सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं। पहला यह कि वे रीयल सुपरमैन हैं, दूसरा यह कि वे पॉवरफुल होने के बावजूद ईश्वर के प्रति समर्पित हैं, तीसरा यह कि वे अपने भक्तों की सहायता तुरंत ही करते हैं और चौथा यह कि वे आज भी सशरीर हैं। इस ब्रह्मांड में ईश्वर के बाद यदि कोई एक शक्ति है तो वह है हनुमानजी। महावीर विक्रम बजरंगबली के समक्ष किसी भी प्रकार की मायावी शक्ति ठहर नहीं सकती।

सबसे बड़ा रहस्य.. क्या हनुमानजी बंदर थे? :👉 हनुमान का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। नए शोधानुसार प्रभु श्रीराम का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व अयोध्या में हुआ था। श्रीराम के जन्म के पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था अर्थात आज (फरवरी 2015) से लगभग 7129 वर्ष पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था।

हनुमानजी के संबंध में यह प्रश्न प्राय: सर्वत्र उठता है कि ‘क्या हनुमानजी बंदर थे?’ इसके लिए कुछ लोग रामायणादि ग्रंथों में लिखे हनुमानजी और उनके सजातीय बांधव सुग्रीव अंगदादि के नाम के साथ ‘वानर, कपि, शाखामृग, प्लवंगम’ आदि विशेषण पढ़कर उनके बंदर प्रजाति का होने का उदाहरण देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि उनकी पुच्छ, लांगूल, बाल्धी और लाम से लंकादहन का प्रत्यक्ष चमत्कार इसका प्रमाण है। यह ‍भी कि उनकी सभी जगह सपुच्छ प्रतिमाएं देखकर उनके पशु या बंदर जैसा होना सिद्ध होता है। रामायण में वाल्मीकिजी ने जहां उन्हें विशिष्ट पंडित, राजनीति में धुरंधर और वीर-शिरोमणि प्रकट किया है, वहीं उनको लोमश ओर पुच्छधारी भी शतश: प्रमाणों में व्यक्त किया है।

दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और पूंछ से वानर समान नजर आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता और शक्ति मानवों से कहीं ज्यादा थी। अब वह जाति भारत में तो दुर्भाग्यवश विनष्ट हो गई, परंतु बाली द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है जिनकी पूछ प्राय: 6 इंच के लगभग अवशिष्ट रह गई है। ये सभी पुरातत्ववेत्ता अनुसंधायक एकमत से स्वीकार करते हैं कि पुराकालीन बहुत से प्राणियों की नस्ल अब सर्वथा समाप्त हो चुकी है।

दूसरा रहस्य👉 पहला जन्म स्थान :हनुमानजी की माता का नाम अंजना है, जो अपने पूर्व जन्म में एक अप्सरा थीं। हनुमानजी के पिता का नाम केसरी है, जो वानर जाति के थे। माता-पिता के कारण हनुमानजी को आंजनेय और केसरीनंदन कहा जाता है। केसरीजी को कपिराज कहा जाता था, क्योंकि वे वानरों की कपि नाम की जाति से थे। केसरीजी कपि क्षेत्र के राजा थे। कपिस्थल कुरु साम्राज्य का एक प्रमुख भाग था। हरियाणा का कैथल पहले करनाल जिले का भाग था। यह कैथल ही पहले कपिस्थल था। कुछ लोग मानते हैं कि यही हनुमानजी का जन्म स्थान है।

हनुमानजी का जन्म स्‍थान कहां है???
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दूसरा जन्म स्थान👉 गुजरात के डांग जिले के आदिवासियों की मान्यता अनुसार डांग जिले के अंजना पर्वत में स्थित अंजनी गुफा में ही हनुमानजी का जन्म हुआ था।

तीसरा स्थान👉 कुछ लोग मानते हैं कि हनुमानजी का जन्म झारखंड राज्य के उग्रवाद प्रभावित क्षे‍त्र गुमला जिला मुख्‍यालय से 20 किलोमीटर दूर आंजन गांव की एक गुफा में हुआ था।

अंत में आखिर कहां जन्म लिया?👉 ‘पंपासरोवर’ अथवा ‘पंपासर’ होस्पेट तालुका, मैसूर का एक पौराणिक स्थान है। हंपी के निकट बसे हुए ग्राम अनेगुंदी को रामायणकालीन किष्किंधा माना जाता है। तुंगभद्रा नदी को पार करने पर अनेगुंदी जाते समय मुख्य मार्ग से कुछ हटकर बाईं ओर पश्चिम दिशा में, पंपासरोवर स्थित है। यहां स्थित एक पर्वत में एक गुफा भी है जिसे रामभक्तनी शबरी के नाम पर ‘शबरी गुफा’ कहते हैं। इसी के निकट शबरी के गुरु मतंग ऋषि के नाम पर प्रसिद्ध ‘मतंगवन’ था। हंपी में ऋष्यमूक के राम मंदिर के पास स्थित पहाड़ी आज भी मतंग पर्वत के नाम से जानी जाती है। कहते हैं कि मतंग ऋषि के आश्रम में ही हनुमानजी का जन्म हआ था। मतंग नाम की आदिवासी जाति से हनुमानजी का गहरा संबंध रहा है जिसका खुलासा होगा अगले पन्नों पर…

तीसरा रहस्य👉 आज भी जीवित हैं हनुमानजी?

हनुमानजी इस कलयुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं। हनुमानजी को धर्म की रक्षा के लिए अमरता का वरदान मिला था। इस वरदान के कारण आज भी हनुमानजी जीवित हैं और वे भगवान के भक्तों तथा धर्म की रक्षा में लगे हुए हैं। जब कल्कि रूप में भगवान विष्णु अवतार लेंगे तब हनुमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, विश्वामित्र, विभीषण और राजा बलि सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाएंगे।

क्यों आज भी जीवित हैं हनुमानजी?
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कलयुग में श्रीराम का नाम लेने वाले और हनुमानजी की भक्ति करने वाले ही सुरक्षित रह सकते हैं। हनुमानजी अपार बलशाली और वीर हैं और उनका कोई सानी नहीं है। धर्म की स्थापना और रक्षा का कार्य 4 लोगों के हाथों में है- दुर्गा, भैरव, हनुमान और कृष्ण।

चौथा रहस्य👉 चारों जुग परताप तुम्हारा :लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञतास्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं- यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।

अर्थात :’हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।’ इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं- ‘एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।’

अर्थात्: ‘हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।’

चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा

1👉 त्रेतायुग में हनुमान :त्रेतायुग में तो पवनपुत्र हनुमान ने केसरीनंदन के रूप में जन्म लिया और वे राम के भक्त बनकर उनके साथ छाया की तरह रहे। वाल्मीकि ‘रामायण’ में हनुमानजी के संपूर्ण चरित्र का उल्लेख मिलता है।

2👉 द्वापर में हनुमान :द्वापर युग में हनुमानजी भीम की परीक्षा लेते हैं। इसका बड़ा ही सुंदर प्रसंग है। महाभारत में प्रसंग है कि भीम उनकी पूंछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूंछ नहीं हटा पाते हैं। इस तरह एक बार हनुमानजी के माध्यम से श्रीकृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र और गरूड़ की शक्ति के अभिमान का मान-मर्दन करते हैं।

3👉 कलयुग में हनुमान :यदि मनुष्य पूर्ण श्रद्घा और विश्वास से हनुमानजी का आश्रय ग्रहण कर लें तो फिर तुलसीदासजी की भांति उसे भी हनुमान और राम-दर्शन होने में देर नहीं लगेगी। कलियुग में हनुमानजी ने अपने भ‍क्तों को उनके होने का आभास कराया है।

ये वचन हनुमानजी ने ही तुलसीदासजी से कहे थे- ‘चित्रकूट के घाट पै, भई संतन के भीर। तुलसीदास चंदन घिसै, तिलक देत रघुबीर।।’

पांचवां रहस्य👉 कहां रहते हैं हनुमानजी?
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हनुमानजी कलियुग में गंधमादन पर्वत पर निवास करते हैं, ऐसा श्रीमद् भागवत में वर्णन आता है। उल्लेखनीय है कि अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके पांडव गंधमादन के पास पहुंचे थे। एक बार भीम सहस्रदल कमल लेने के लिए गंधमादन पर्वत के वन में पहुंच गए थे, जहां उन्होंने हनुमान को लेटे देखा और फिर हनुमान ने भीम का घमंड चूर कर दिया था।

”यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तक॥”

अर्थात :कलियुग में जहां-जहां भगवान श्रीराम की कथा-कीर्तन इत्यादि होते हैं, वहां हनुमानजी गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं। सीताजी के वचनों के अनुसार- ‘अजर-अमर गुन निधि सुत होऊ।। करहु बहुत रघुनायक छोऊ।।’

गंधमादन पर्वत क्षेत्र और वन :गंधमादन पर्वत का उल्लेख कई पौराणिक हिन्दू धर्मग्रंथों में हुआ है। महाभारत की पुरा-कथाओं में भी गंधमादन पर्वत का वर्णन प्रमुखता से आता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि यहां के विशालकाय पर्वतमाला और वन क्षेत्र में देवता रमण करते हैं। पर्वतों में श्रेष्ठ इस पर्वत पर कश्यप ऋषि ने भी तपस्या की थी। गंधमादन पर्वत के शिखर पर किसी भी वाहन से नहीं पहुंचा जा सकता। गंधमादन में ऋषि, सिद्ध, चारण, विद्याधर, देवता, गंधर्व, अप्सराएं और किन्नर निवास करते हैं। वे सब यहां निर्भीक विचरण करते हैं।

वर्तमान में कहां है गंधमादन पर्वत?👉 इसी नाम से एक और पर्वत रामेश्वरम के पास भी स्थित है, जहां से हनुमानजी ने समुद्र पार करने के लिए छलांग लगाई थी, लेकिन हम उस पर्वत की नहीं बात कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं हिमालय के कैलाश पर्वत के उत्तर में (दक्षिण में केदार पर्वत है) स्थित गंधमादन पर्वत की। यह पर्वत कुबेर के राज्यक्षेत्र में था। सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक को उस काल में गंधमादन पर्वत कहा जाता था। आज यह क्षेत्र तिब्बत के इलाके में है।

पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप के इलावृत्त खंड और भद्राश्व खंड के बीच में गंधमादन पर्वत कहा गया है, जो अपने सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था।

कैसे पहुंचे गंधमादन ????👉 पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप के इलावृत्त खंड और भद्राश्व खंड के बीच में गंधमादन पर्वत कहा गया है, जो अपने सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था। इस क्षेत्र में दो रास्तों से जाया जा सकता है। पहला नेपाल के रास्ते मानसरोवर से आगे और दूसरा भूटान की पहाड़ियों से आगे और तीसरा अरुणाचल के रास्ते चीन होते हुए। संभवत महाभारत काल में अर्जुन ने असम के एक तीर्थ में जब हनुमानजी से भेंट की थी, तो हनुमानजी भूटान या अरुणाचल के रास्ते ही असम तीर्थ में आए होंगे। गौरतलब है कि एक गंधमादन पर्वत उड़िसा में भी बताया जाता है लेकिन हम उस पर्वत की बात नहीं कर रहे हैं।

छठा रहस्य👉 मकरध्वज था हनुमानजी का पुत्र :अहिरावण के सेवक मकरध्वज थे। मकरध्वज को अहिरावण ने पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया था।

पवनपुत्र हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे तब कैसे कोई उनका पुत्र हो सकता है? वाल्मीकि रामायण के अनुसार उनके पुत्र की कथा हनुमानजी के लंकादहन से जुड़ी है। कथा जानने के लिए आगे क्लिक करे…कौन था हनुमानजी का पुत्र?

हनुमानजी की ही तरह मकरध्वज भी वीर, प्रतापी, पराक्रमी और महाबली थे। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी थी।

सातवां रहस्य👉 क्यों सिन्दूर चढ़ता है हनुमानजी को? :

हनुमानजी को सिन्दूर बहुत ही प्रिय है। इसके पीछे ये कारण बताया जाता है कि एक दिन भगवान हनुमानजी माता सीता के कक्ष में पहुंचे। उन्होंने देखा माता लाल रंग की कोई चीज मांग में सजा रही है। हनुमानजी ने जब माता से पूछा, तब माता ने कहा कि इसे लगाने से प्रभु राम की आयु बढ़ती है और प्रभु का स्नेह प्राप्त होता है।

तब हनुमानजी ने सोचा जब माता इतना-सा सिन्दूर लगाकर प्रभु का इतना स्नेह प्राप्त कर रही है तो अगर मैं इनसे ज्यादा लगाऊं तो मुझे प्रभु का स्नेह, प्यार और ज्यादा प्राप्त होगा और प्रभु की आयु भी लंबी होगी। ये सोचकर उन्होंने अपने सारे शरीर में सिन्दूर का लेप लगा लिया। इसलिए कहा जाता है कि भगवान हनुमानजी को सिन्दूर लगाना बहुत पसंद है।

आठवां रहस्य👉 पहली हनुमान स्तुति :हनुमानजी की प्रार्थना में तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बहुक आदि अनेक स्तोत्र लिखे, लेकिन हनुमानजी की पहली स्तुति किसने की थी? तुलसीदासजी के पहले भी कई संतों और साधुओं ने हनुमानजी की श्रद्धा में स्तुति लिखी है। लेकिन क्या आप जानते हैं सबसे पहले हनुमानजी की स्तुति किसने की थी?

जब हनुमानजी लंका का दहन कर रहे थे तब उन्होंने अशोक वाटिका को इसलिए नहीं जलाया, क्योंकि वहां सीताजी को रखा गया था। दूसरी ओर उन्होंने विभीषण का भवन इसलिए नहीं जलाया, क्योंकि विभीषण के भवन के द्वार पर तुलसी का पौधा लगा था। भगवान विष्णु का पावन चिह्न शंख, चक्र और गदा भी बना हुआ था। सबसे सुखद तो यह कि उनके घर के ऊपर ‘राम’ नाम अंकित था। यह देखकर हनुमानजी ने उनके भवन को नहीं जलाया।

विभीषण के शरण याचना करने पर सुग्रीव ने श्रीराम से उसे शत्रु का भाई व दुष्ट बताकर उनके प्रति आशंका प्रकट की और उसे पकड़कर दंड देने का सुझाव दिया। हनुमानजी ने उन्हें दुष्ट की बजाय शिष्ट बताकर शरणागति देने की वकालत की। इस पर श्रीरामजी ने विभीषण को शरणागति न देने के सुग्रीव के प्रस्ताव को अनुचित बताया और हनुमानजी से कहा कि आपका विभीषण को शरण देना तो ठीक है किंतु उसे शिष्ट समझना ठीक नहीं है।

इस पर श्री हनुमानजी ने कहा कि तुम लोग विभीषण को ही देखकर अपना विचार प्रकट कर रहे हो मेरी ओर से भी तो देखो, मैं क्यों और क्या चाहता हूं…। फिर कुछ देर हनुमानजी ने रुककर कहा- जो एक बार विनीत भाव से मेरी शरण की याचना करता है और कहता है- ‘मैं तेरा हूं, उसे मैं अभयदान प्रदान कर देता हूं। यह मेरा व्रत है इसलिए विभीषण को अवश्य शरण दी जानी चाहिए।’

इंद्रा‍दि देवताओं के बाद धरती पर सर्वप्रथम विभीषण ने ही हनुमानजी की शरण लेकर उनकी स्तुति की थी। विभीषण को भी हनुमानजी की तरह चिरंजीवी होने का वरदान मिला है। वे भी आज सशरीर जीवित हैं। विभीषण ने हनुमानजी की स्तुति में एक बहुत ही अद्भुत और अचूक स्तोत्र की रचना की है। विभीषण द्वारा रचित इस स्तोत्र को ‘हनुमान वडवानल स्तोत्र कहते हैं।

सब सुख लहे तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना।।

हनुमान की शरण में भयमुक्त,,,जीवन :हनुमानजी ने सबसे पहले सुग्रीव को बाली से बचाया और सुग्रीव को श्रीराम से मिलाया। फिर उन्होंने विभीषण को रावण से बचाया और उनको राम से मिलाया। हनुमानजी की कृपा से ही दोनों को ही भयमुक्त जीवन और राजपद मिला। इसी तरह हनुमानजी ने अपने जीवन में कई राक्षसों और साधु-संतों को भयमुक्त और जीवनमुक्त किया है।

नौवां रहस्य👉 हनुमानजी की पत्नी का नाम :क्या अपने कभी सुना है कि हनुमानजी का विवाह भी हुआ था? आज तक यह बात लोगों से छिपी रही, क्योंकि लोग हिन्दू शास्त्र नहीं पढ़ते और जो पंडित या आचार्य शास्त्र पढ़ते हैं वे ऐसी बातों का जिक्र नहीं करते हैं लेकिन आज हम आपको बता रहे हैं हनुमानजी का एक ऐसा सच जिसको जानकर आप रह जाएंगे हैरान…

आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में एक मंदिर ऐसा विद्यमान है, जो प्रमाण है हनुमानजी के विवाह का। इस मंदिर में हनुमानजी की प्रतिमा के साथ उनकी पत्नी की प्रतिमा भी विराजमान है। इस मंदिर के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। माना जाता है कि हनुमानजी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद पति-पत्नी के बीच चल रहे सारे विवाद समाप्त हो जाते हैं। उनके दर्शन के बाद जो भी विवाद की शुरुआत करता है, उसका बुरा होता है।

हनुमानजी की पत्नी का नाम सुवर्चला था। वैसे तो हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी हैं और आज भी वे ब्रह्मचर्य के व्रत में ही हैं, विवाह करने का मतलब यह नहीं कि वे ब्रह्मचारी नहीं रहे। कहा जाता है कि पराशर संहिता में हनुमानजी का किसी खास परिस्थिति में विवाह होने का जिक्र है। कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा।

इस संबंध में एक कथा है कि हनुमानजी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था। हनुमानजी भगवान सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमानजी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ-साथ उड़ना पड़ता था और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमानजी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।

कुल 9 तरह की विद्याओं में से हनुमानजी को उनके गुरु ने 5 तरह की विद्याएं तो सिखा दीं, लेकिन बची 4 तरह की विद्याएं और ज्ञान ऐसे थे, जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे। हनुमानजी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वे मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वे धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखा सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्यदेव ने हनुमानजी को विवाह की सलाह दी।

अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमानजी ने विवाह करने की सोची। लेकिन हनुमानजी के लिए वधू कौन हो और कहां से वह मिलेगी? इसे लेकर सभी सोच में पड़ गए। ऐसे में सूर्यदेव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमानजी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमानजी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमानजी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो, लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।

सबसे बड़ा रहस्य 10 वां रहस्य👉 एक वेबसाइट का दावा है कि प्रत्येक 41 साल बाद हनुमानजी श्रीलंका के जंगलों में प्राचीनकाल से रह रहे आदिवासियों से मिलने के लिए आते हैं। वेबसाइट के मुताबिक श्रीलंका के जंगलों में कुछ ऐसे कबीलाई लोगों का पता चला है जिनसे मिलने हनुमानजी आते हैं।

इन कबीलाई लोगों पर अध्ययन करने वाले आध्यात्मिक संगठन ‘सेतु’ के अनुसार पिछले साल ही हनुमानजी इन कबीलाई लोगों से मिलने आए थे। अब हनुमानजी 41 साल बाद आएंगे। इन कबीलाई या आदिवासी समूह के लोगों को ‘मातंग’ नाम दिया गया है। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक में पंपा सरोवर के पास मातंग ऋषि का आश्रम है, जहां हनुमानजी का जन्म हुआ था।

वेबसाइट सेतु एशियाने दावा किया है कि 27 मई 2014 को हनुमानजी श्रीलंका में मातंग के साथ थे। सेतु के अनुसार कबीले का इतिहास रामायणकाल से जुड़ा है। कहा जाता है कि भगवान राम के स्वर्ग चले जाने के बाद हनुमानजी दक्षिण भारत के जंगलों में लौट आए थे और फिर समुद्र पार कर श्रीलंका के जंगलों में रहने लगे। जब तक पवनपुत्र हनुमान श्रीलंका के जंगलों में रहे, वहां के कबीलाई लोगों ने उनकी बहुत सेवा की।

जब हनुमानजी वहां से जाने लगे तब उन्होंने वादा किया कि वे हर 41 साल बाद आकर वहां के कबीले की पीढ़ियों को ब्रह्मज्ञान देंगे। कबीले का मुखिया हनुमानजी के साथ की बातचीत को एक लॉग बुक में दर्ज कराता है। ‘सेतु’ नामक संगठन इस लॉग बुक का अध्ययन कर उसका खुलासा करने का दावा करता है।

कैसे प्राप्त करें हनुमानजी की कृपा जानिए ???
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हनुमान दर्शन और कृपा👉 हनुमानजी बहुत ही जल्द प्रसन्न होने वाले देवता हैं। उनकी कृपा आप पर निरंतर बनी रहे इसके लिए पहली शर्त यह है कि आप मन, वचन और कर्म से पवित्र रहें अर्थात कभी भी झूठ न बोलें, किसी भी प्रकार का नशा न करें, मांस न खाएं और अपने परिवार के सदस्यों से प्रेमपूर्ण संबंध बनाए रखें।

इसके अलावा प्रतिदिन श्रीहनुमान चालीसा या श्रीहनुमान वडवानल स्तोत्र का पाठ करें। मंगलवार और शनिवार के दिन हनुमानजी को चोला चढ़ाएं। इस तरह ये कार्य करते हुए नीचे लिखे उपाय करें…

हनुमान जयंती या महीने के किसी भी मंगलवार के दिन सुबह उठकर स्नान कर साफ कपड़े पहनें। 1 लोटा जल लेकर हनुमानजी के मंदिर में जाएं और उस जल से हनुमानजी की मूर्ति को स्नान कराएं।

पहले दिन एक दाना साबुत उड़द का हनुमानजी के सिर पर रखकर 11 परिक्रमा करें और मन ही मन अपनी मनोकामना हनुमानजी को कहें, फिर वह उड़द का दाना लेकर घर लौट आएं तथा उसे अलग रख दें।

दूसरे दिन से 1-1 उड़द का दाना रोज बढ़ाते रहें तथा लगातार यही प्रक्रिया करते रहें। 41 दिन 41 दाने रखने के बाद 42वें दिन से 1-1 दाना कम करते रहें। जैसे 42वें दिन 40, 43वें दिन 39 और 81वें दिन 1 दाना। 81वें दिन का यह अनुष्ठान पूर्ण होने पर उसी दिन, रात में श्रीहनुमानजी स्वप्न में दर्शन देकर साधक को मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद देते हैं। इस पूरी विधि के दौरान जितने भी उड़द के दाने आपने हनुमानजी को चढ़ाए हैं, उन्हें नदी में प्रवाहित कर दें।📚🖊🙏🙌
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जागकर जगाने की जरूरत

हमें यह कहने में गर्व का अनुभव होता है कि हम भारत वर्ष के निवासी हैं जो उस समय विश्व गुरु था जब दूसरे देश सभ्यता और संस्कृति से परिचित तक नहीं थे। विश्व पटल पर मानव जनित आज जितनी भी समस्याएँ हैं, हमारा देश सदियों पहले से उसके प्रति सबको आगाह करता रहा है। इसके साथ ही इस कटु यथार्थ से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हम खुद सोकर दूसरों को जगाते रहे, दूसरे जाग गए और हमारी तन्द्रा अभी भी नहीं टूटी। हमारे पर्यावरण का पतन इसका जीता जागता उदाहरण है।

विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में हमारे प्रबुद्ध और दूरदर्शी ऋषियों ने वृक्ष लगाने से प्राप्त होने वाले पुण्य को पुत्र प्राप्ति के समतुल्य मानकर महिमा मंडित किया है। प्रकृति की पूजा के बहाने संरक्षण की धारणा वैदिक युग से शुरु की गई थी जिसको विश्व के बहुतायत देशों ने किसी न किसी रूप में अपनाया किन्तु हम जुबानी जमा – खर्च ही करते रहे।

वैदिक युग से निकलकर मुख्यत: तीन बातें मनुष्यों को प्रभावित कीं । हमारी पहली इच्छा थी कि हम अजर – अमर बनें जिसके लिए अमृत की जरूरत होती। हमारी दूसरी इच्छा थी कि हम समृद्धशाली बनें जिसके लिए पारस पत्थर की जरुरत हुई जिसके स्पर्श मात्र से लोहा को सोना बनाया जा सकता है। तीसरी इच्छा थी हमारी कर्महीनता की स्थिति में पलक झपकते ही सब कुछ हमारे अनुकूल हो जाना जिसे चमत्कार कहते हैं और इसके लिए अलादीन का चिराग या जादुई छड़ी की जरूरत थी। अनपढ़ अशिक्षित और असभ्य विदेशी जब हमारे सम्पर्क में आए तो उनको अमृत और पारस पत्थर की तथाकथित उपयोगिता ने बहुत प्रभावित किया । जाते समय वे इन दोनों को पाने की उत्कंठा और उससे सम्बंधित ग्रंथों को साथ लेकर गए। चमत्कार उनके लिए भरोसेमंद नहीं था इसलिए इसको वे न ले जा सके और इसी को हम पकड़कर दिवा स्वप्न देखते रहे।

अजर – अमर होने की अक्षुण्ण लालसा में अमृत की तलाश जारी रही। औषधि दर औषधि की खोज करता हुआ चिकित्सा विज्ञान बताने की जरूरत नहीं कि कहाँ से कहाँ पहुँच गया और क्षण- प्रतिक्षण आगे बढ़ता जा रहा है। अभी तक अमृत न सही किन्तु अमृत से कुछ कम अनेकानेक औषधियाँ आज हमारे लिए उपलब्ध हैं। धन के विकल्प के रूप में पारस पत्थर की तलाश करते हुए रसायन शास्त्रियों ने दर्जनों बहुमूल्य पदार्थ खोज निकाले और आज भी तलाश जारी है। अमृत और पारस पत्थर की खोज के प्रयास ने विज्ञान को बहुत समृद्ध एवं समुन्नत किया। कई नई शाखाएँ एवं उपशाखाएँ विकसित हुईं। बहुतेरी मान्यताओं से असत्य के पर्दे हटे और कई नई मान्यताएँ प्रतिष्ठित हुईं। और हम चमत्कार को फलीभूत करने के वास्ते हाथ पर हाथ धरे अलादीन के चिराग को पाने की ख्वाहिश पालते रहे। अपने – अपने देवों को मन्नतों को पूरा करने के एवज में सुविधा शुल्क का लॉलीपॉप लेकर लुभाते रहे। दुनिया आगे बढ़ती रही और हम अतीत की गाथा गाकर आत्ममुग्ध होते रहे।

अब अपने पर्यावरण पर चर्चा कर लें। पर्यावरण का आशय हमारे परिवेश से होता है जो भौतिक और अभौतिक रूप में हमारे चारों ओर विद्यमान रहते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शैक्षिक, भौगोलिक , धार्मिक एवं प्राकृतिक आदि रूपों में असंख्य अवयव संयुक्त रूप से हमें प्रभावित करते हैं और यही इनका संयुक्त रूप में प्रभाव ही हमारा पर्यावरण कहलाता है। हमारी वैश्विक संरचना सैकड़ों भागों में विभक्त है जिसके कारण हमारा पर्यावरण भी अनेक तरह का है। धर्म, संस्कृति, शिक्षा आदि के विविध मानक और मान्यताओं में विविधता है किन्तु इनमें एक बात में पूर्णत: साम्यता और निर्विवाद सत्यता है और वह है हमारा प्राकृतिक पर्यावरण। अतएव आज का हमारा वैश्विक जनमानस इसी को लेकर चिंतित एवं जागरूक है।

वैदिक युग से अब तक तथाकथित विकास की अंधाधुंध दौड़ में सर्वाधिक क्षरण हमारी प्रकृति का ही हुआ है और अभी भी हो रहा है। प्रकृति के विभिन्न उपादानों यथा वन, नदी, पर्वत एवं भूमि को देव तुल्य मानकर हम एक तरफ पूजते रहे और दूसरी ओर विकास की आड़ में अपने स्वार्थ के आरे से इनको काटते रहे। नदियों के विनाश से जल प्रदूषण फैल गया। वनों के विनाश ने मृदा और हवा को प्रदूषित किया। पर्वतों और खनिजों पर हो रहे हमलों ने प्राकृतिक संतुलन को बर्वाद कर दिया और कारखानों ने रासायनिक आतंक मचाया।

विज्ञान ने बहुत कुछ दिया हम सबको लेकिन हमारी स्वार्थलिप्सा ने प्राय: दुरुपयोग का मार्ग अपनाकर निजी विकास के एवज में सामूहिक विनाश की ओर ढकेला। उदाहरण के तौर पर बीसवीं शताब्दी हमारे लिए प्लास्टिक क्रांति बनकर आई। प्लास्टिक ने विकास का अपरिमेय सूत्रपात किया। संसद से सड़क तक, अमीर से गरीब तक, शोक से उत्सव तक, खगोल से भूगर्भ तक प्लास्टिकमय हो गया। हमारी आँख तब खुली जब जीवन में सहायक प्लास्टिक खुद जीवन बन गया और जैव जगत के लिए परमाणु बम से भी अधिक सर्वमुखी संहारक बन गया। विश्व को चिंतित होकर वर्ष 2018 को ‘बीट प्लास्टिक’ अभियान का स्वरूप देना पड़ा।

ज्वलंत सवाल यह है कि हर अवश्यम्भावी समस्याओं के प्रति विश्व को जगाते – जगाते हम कैसे पिछड़ गए? आज सारे अभियान पश्चिमी देशों से ही शुरु होकर हमारे पास क्यों आते हैं? हम अगुआ से अनुयायी कब बन गए? हमारे पूर्वजों से पढ़ने वाले आज कैसे हमारे गुरु बन गए? हमें कहाँ होना था और हम कहाँ आ गए! अगर अभी भी हम स्वमूल्यांकन एवं मीमांसा नहीं कर सके तो फिर यह अवसर भी खो देंगे।

हम भारतीय एक जमाने से सोकर दूसरों को जगाते रहे हैं। और हमारे जगाने से दूसरे जाग भी रहे हैं किन्तु हम जहाँ के तहाँ सो रहे हैं। इस दुखद लेकिन यथार्थ पहलू का सबसे बड़ा कारण है हमारी शिक्षा पद्धति। किसी भी आने वाली समस्या का सटीक पूर्वानुमान लगा लेना इस बात को साबित करता है कि ‘ज्ञान’ के मामले में हम बहुत आगे हैं और समस्या के प्रभाव व निवारण के उपाय तक हमारी दृष्टि का पहुँच जाना इस बात को स्पष्ट करता है कि भावना के धरातल पर हम प्रथम श्रेणी के विचारक हैं। किन्तु समझ एवं सोच को अमली जामा न पहना पाना, सिर्फ दूसरों को सचेत करते रहना और अत्यधिक आत्ममुग्धता हमें कोरे उपदेशक एवं अकर्मण्य की जमात में लाकर खड़ा कर देते हैं। यह अनायास ही साबित हो जाता है कि हम पूर्ण शिक्षित नहीं हैं। शिक्षा के तीनों सोपान यथा ज्ञान, भाव और कर्म को हम पार नहीं कर पाए हैं। हमारी शिक्षा हमारे कर्म को उचित दिशा में परिवर्तित करने में सफल नहीं है।

असंतुलित पर्यावरण आए दिन चेतावनी दे रहा है। जरूरत है कि इस चेतावनी को हम समझें और मन, वाणी एवं कर्म से पूर्ण मनोयोग के साथ जुड़ जाएँ। विषैले पर्यावरण को देखते हुए इसे अंतिम अवसर के रूप में लें और अपने – अपने स्तर पर सुधार हेतु लग जाएँ। फिर से कोई सोते रहने का आरोप न लगा सके। वैदिक ऋचाओं की सार्थकता को अमली जामा पहनाते हुए वृक्षारोपण, साफ- सफाई, प्लास्टिक से परहेज़, यथासम्भव गाड़ियों का कम से कम उपयोग, रसायनों का अत्यल्प उपयोग तथा प्राकृतिक संसाधनों का मानव हित में समुचित उपयोग करें। पूरी नैतिकता व ईमानदारी से पर्यावरण संरक्षण के यज्ञ में शामिल होकर प्रबुद्ध देव संतति होने का परिचय देते हुए विश्व गुरु की गरिमा को प्राप्त करने की दिशा में पहल करें। तभी हम सही मायने में एक भारतीय होने का फर्ज अदा कर सकेंगे।
(लेखक द्वारा मैक्स सीमेंट, मेघालय के प्रांगण में 05 जून को दिए गए भाषण का सम्पादित रूप)

अवधेश कुमार ‘अवध’
: अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत

  अरब अपने आप में कोई प्राचीन देश नहीं है । एक समय था जब अरब आर्यवर्त का ही एक अंग था। बाद में जब आर्यावर्त के लोग पराक्रम , बल , बुद्धि , वैभव आदि से हीन होने लगे , तब अरब ने अपने आप को एक अलग प्रांत घोषित किया ।
यह लेख इसी बात को स्पष्ट करेगा ।यह इसलिए भी पढ़ना आवश्यक है कि हिंदू हमको प्राचीन काल से अर्थात सृष्टि प्रारंभ से नहीं कहा जाता था , हमको हिंदू बाद में कहा जाने लगा ।लेकिन इस सबके उपरांत भी हिंदू हमारे लिए सम्मान का शब्द था जो मुस्लिमों के पैगंबर से भी बहुत पहले से प्रचलित हो गया था।

अरब देश का भारत, भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहाँ तक कि “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” के लेखक साइक्स का मत है कि अरब का नाम और्व के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर “अरब” हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त था, जहाँ दैत्य और दानव बसते थे, इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी-पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। आदित्यों का आवास स्थान-देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में रहा था। बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्त्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले है, उनमें विष्णु को हिरण्यकशिपु के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।
उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र रहा था, इसी कारण देवों, दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर 12 बार युद्ध ‘देवासुर संग्राम’ हुए। देवताओं के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री ज्यन्ती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था कि शुक्र उनके (देवों के) पक्षधर बन जायें, किन्तु शुक्र दैत्यों के ही गुरू बने रहे। यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना, तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गये और वहाँ 10 वर्ष रहे। साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” में लिखा है कि ‘शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब’। अरब में शुक्राचार्य का इतना मान-सम्मान हुआ कि आज जिसे ‘काबा’ कहते है, वह वस्तुतः ‘काव्य शुक्र’ (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके आराध्य भगवान शिव का ही मन्दिर है। कालांतर में ‘काव्य’ नाम विकृत होकर ‘काबा’ प्रचलित हुआ। अरबी भाषा में ‘शुक्र’ का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात ‘जुम्मा’ इसी कारण किया गया और इसी से ‘जुम्मा’ (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते है।
“बृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योऽसुराणाम्”-जैमिनिय ब्रा.(01-125)
अर्थात बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”
अर्थात-(1) हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनके अनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ सेअरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है । ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़ला मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है –
” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् – (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्च पद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्श गुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है ।
ऋग्वेद में कहीं पर भी हमारे लिए हिंदू शब्द प्रयोग नहीं किया गया है ।जो लोग वहां पर हिंदू शब्द को ढूंढ रहे हैं और प्रमाण दे रहे हैं वह कुलार्णव तंत्र का श्लोक है। कुलार्णव तंत्र बहुत बाद में बनाया गया ग्रंथ है । वेद में कहीं पर भी हमको हिंदू नहीं कहा गया है ,अपितु आर्य का गया है और आर्य संसार का सबसे श्रेष्ठ शब्द है। अपने बारे में यह भी हमको ध्यान रखना चाहिए।
इस सबके उपरांत भी हमें आज हिंदू या आर्य पर विवाद नहीं करना चाहिए ।यदि आज हिंदू के घाट पर हम सब मिलकर पानी पी सकते हैं तो हिंदू को स्वीकार करें और यह मानें कि हम मूल रूप में आर्य होकर भी आज हिंदू हैं और हिंदू ही आर्य है और आर्य ही हिंदू हैं। जब यह सोच बनेगी तो देश महान बनेगा , लड़ने झगड़ने की आवश्यकता नहीं है । किसी भी एक नाम को लेकर आगे बढ़ो ।लेकिन बढ़ो ईमानदारी से ।

राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
शरीर के लिए आवश्यक खनिज लवण

खनिज लवण प्रमुख स्रोत
१. कैल्शियम – दूध, पालक, टमाटर, अंकुरित अन्न, हरी सब्जी, ताजे फल।

२. फॉस्फोरस- दूध, अंकुरित अन्न ,हरी सब्जी,ताजे अन्न।

३. पोटेशियम- अंकुरित अन्न, हरी सब्जी।

४. सोडियम – पनीर, दूध, छेना, हरीसब्जी, ताजेफल।

५. क्लोरिन नमक, – दूध ,हरी सब्जी,अंकुरित अन्न।

६. लोहा – हरी सब्जी, ताजे फल, अंकुरित अन्न,
खुर्बानी, कालीदाक्ष ,, तिल, सेव, अंगूर।

७. मैंग्नीज- हरी सब्जियां, फल, अंकुरित अन्न।

८. तांबा – ताजी हरी सब्जियां, अंकुरित अन्न।

९. आयोडिन नमक, – दूध, समुद्री- खाद्य पदार्थ।

१०. फ्लोरिन हरी – सब्जी, फल, अंकुरित अन्न।

११. जस्ता खमीर, – अंकुरित गेहूं ,यीस्ट आदि।

१२. कोबाल्ट – अंकुरित अन्न, जीवन्त आहार।

१३. मोलिब्डन – हरी सब्जी, ताजे फल, अंकुरित अन्न।

१४. सिलीफोन – अनाज, हरी सब्जी, ताजे फल, जीवन्त आहार इत्यादि।
सनातन धर्म को पहले से मालूम है, जो आज अविष्कार कर रहे हो…

एक माँ अपने पूजा-पाठ से फुर्सत पाकर अपने विदेश में रहने वाले बेटे से विडियो चैट करते वक्त पूछ बैठी-

“बेटा! कुछ पूजा-पाठ भी करते हो या नहीं?”

बेटा बोला-

“माँ, मैं एक जीव वैज्ञानिक हूँ। मैं अमेरिका में मानव के विकास पर काम कर रहा हूँ। विकास का सिद्धांत, चार्ल्स डार्विन.. क्या आपने उसके बारे में सुना भी है?”

उसकी माँ मुस्कुराई
और बोली…..
“मैं डार्विन के बारे में जानती हूँ बेटा.. उसने जो भी खोज की, वह वास्तव में सनातन-धर्म के लिए बहुत पुरानी खबर है।”

“हो सकता है माँ!” बेटे ने भी व्यंग्यपूर्वक कहा।

“यदि तुम कुछ समझदार हो, तो इसे सुनो..” उसकी माँ ने प्रतिकार किया।
“क्या तुमने दशावतार के बारे में सुना है?
विष्णु के दस अवतार ?”
बेटे ने सहमति में कहा…
“हाँ! पर दशावतार का मेरी रिसर्च से क्या लेना-देना?”

माँ फिर बोली-
“लेना-देना है..
मैं तुम्हें बताती हूँ कि तुम और मि. डार्विन क्या नहीं जानते हो ?”

“पहला अवतार था ‘मत्स्य’, यानि मछली। ऐसा इसलिए कि
जीवन पानी में आरम्भ हुआ। यह बात सही है या नहीं?”

बेटा अब ध्यानपूर्वक सुनने लगा..

“उसके बाद आया दूसरा अवतार ‘कूर्म’, अर्थात् कछुआ
क्योंकि
जीवन पानी से जमीन की ओर चला गया.. ‘उभयचर (Amphibian)’,
तो कछुए ने समुद्र से जमीन की ओर के विकास को दर्शाया।”

“तीसरा था ‘वराह’ अवतार, यानी सूअर। जिसका मतलब वे जंगली जानवर, जिनमें अधिक बुद्धि नहीं होती हैतुम उन्हें डायनासोर कहते हो।”
बेटे ने आंखें फैलाते हुए सहमति जताई..

“चौथा अवतार था ‘नृसिंह’, आधा मानव, आधा पशु। जिसने दर्शाया जंगली जानवरों से बुद्धिमान जीवों का विकास।”

“पांचवें ‘वामन’ हुए, बौना जो वास्तव में लंबा बढ़ सकता था
क्या तुम जानते हो ऐसा क्यों है? क्योंकि मनुष्य दो प्रकार के होते थे- होमो इरेक्टस(नरवानर) और होमो सेपिअंस (मानव), और
होमो सेपिअंस ने विकास की लड़ाई जीत ली।”

बेटा दशावतार की प्रासंगिकता सुन के स्तब्ध रह गया..

माँ ने बोलना जारी रखा-
“छठा अवतार था ‘परशुराम’, जिनके पास शस्त्र (कुल्हाड़ी) की ताकत थी। वे दर्शाते हैं उस मानव को, जो गुफा और वन में रहा, मनुष्य और प्रकृति में सामंजस्य।”

“सातवां अवतार थे ‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम’, सोच युक्त प्रथम सामाजिक व्यक्ति। जिन्होंने समाज के नियम बनाए और समस्त रिश्तों का आधार।”

“आठवां अवतार थे ‘भगवान श्री कृष्ण’, राजनेता, राजनीतिज्ञ, प्रेमी। जिन्होंने समाज के नियमों का आनन्द लेते हुए यह सिखाया कि सामाजिक ढांचे में रहकर कैसे फला-फूला जा सकता है?
बेटा सुनता रहा, चकित और विस्मित..

माँ ने ज्ञान की गंगा प्रवाहित रखी –
*“नवां * थे ‘महात्मा बुद्ध’, वे व्यक्ति जिन्होंने नृसिंह से उठे मानव के सही स्वभाव को खोजा। उन्होंने मानव द्वारा ज्ञान की अंतिम खोज की पहचान की।”*

“..और अंत में दसवां अवतार ‘कल्कि’ आएगा। वह मानव जिस पर तुम काम कर रहे हो.. वह मानव, जो आनुवंशिक रूप से श्रेष्ठतम होगा।”

बेटा अपनी माँ को अवाक् होकर देखता रह गया..

अंत में वह बोल पड़ा-
“ … यह अद्भुत है माँ.. हिंदू दर्शन वास्तव में अर्थपूर्ण है!”

मित्रों

वेद, पुराण, ग्रंथ, उपनिषद इत्यादि सब अर्थपूर्ण हैं। सिर्फ आपका देखने का नज़रिया होना चाहिए। फिर चाहे वह धार्मिक हो या वैज्ञानिकता…!

साभार
🙏🙏🙏🙏🙏🙏
जय श्री कृष्ण
ॐ नमो भगवते वासुदेवय नमः🙏🏽
जीवन में आपत्ति काल भी आते हैं और सुख के अवसर भी आते हैं । सबके जीवन में आते हैं । किसी के जीवन में कम आते हैं किसी के जीवन में अधिक आते हैं । संसार इसी का नाम है , जहां सुख और दुख दोनों भोगने पड़ते हैं ।
जब लोग संसार की इस व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाते , तब वे दुख आने पर विचलित हो जाते हैं , घबरा जाते हैं , मन बुद्धि पर नियंत्रण नहीं रख पाते , और कुछ भी असामान्य क्रिया कर बैठते हैं.
और जिन दिनों में सुख होता है , उन दिनों में फूले नहीं समाते , बहुत नाचते कूदते हैं । यह दोनों ही स्थितियां अच्छी नहीं हैं।
जो व्यक्ति संसार को समझना चाहता है, अपने जीवन को संतुलित रखना चाहता है, हर परिस्थिति में प्रसन्न रहना चाहता है, उसे दुख आने पर घबराना नहीं चाहिए। मन को शांत रखते हुए, गंभीर होकर उस दुख को दूर करने का उपाय सोचना चाहिए। स्वयं सोच पाए, तो अच्छा। न सोच पाए , तो दूसरे विद्वानों कुशल व्यक्तियों से सहयोग लेना चाहिए। ऐसा करने से उसकी समस्याएं और दुख दूर हो सकते हैं ।
इसी प्रकार से जिन दिनों में सुख आवे , तब बहुत नाचना कूदना नहीं चाहिए। तब भी शांत भाव से उस परिस्थिति को पार करना चाहिए। ऐसा करने से आप आनंदित होकर जीवन जिएंगे। आपका जीवन सफल होगा। दूसरों के लिए आदर्श रूप होगा । जिससे दूसरे लोग भी आपके जीवन को देखकर अपने जीवन का कल्याण करेंगे
स्वस्थ रहने के लिए अम्लता से बचे एवं क्षारीय खुराक लें

हमारे रक्त में अम्ल एवं क्षार दोनो होते हैं । स्वस्थ रहने के लिए इनमे संतुलन आवश्यक है । हमारा भोजन भी दोनों तरह का होता है । हमारे शरीर में अम्लता घातक है, अतः क्षारीय आहार संतुलन लाता है । अम्लता की स्थिति में हाइड्रोजन आयन शरीर को थोड़ा अम्लीय बनाते हैं । क्षारीय भोजन हाइड्रोजन आयन कम करता है । जो शरीर के लिए लाभदायक है । इसलिए रक्त की अम्लता को कम करने के लिए 80 प्रतिशत क्षारीय आहार लेना चाहिए ।
भोजन से रक्त बनता है । अम्ल एवं क्षार की मात्रा को नापने के लिए एक पैमाना तय किया है जिसे पीएच कहते हैं । किसी पदार्थ मंे अम्ल या क्षार के स्तर को की मानक ईकाइ पीएच है । पीएच को मान 7 से अधिक अर्थात वस्तु क्षारीय है । शुद्ध पानी का पीएच 7 होता है । पीएच बराबर होने पर पाचन व अन्य क्रियाएं सुचारू रूप से होती है । तभी हमारे शरीर की उपापचय क्रिया सही होती है एवं हारमोन्स सही कार्य कर पाते हैं एवं उनका सही स्त्राव होता है । तभी शरीर की प्रतिरोध क्षमता बढ़ती है ।

बढ़ता प्रदूषण, रसायनों का सेवन व तनाव से शरीर में अम्लता की मात्रा बढ़ती है । तभी आजकल रक्त मे पीएच 7.4 से कम हो गया है । 7.4 आदर्श पीएच माना जाता है । इससे उपर पीएच का बढ़ना क्षारीय व इसका 7.4 से कम होना एसीडीक होना बताता है। आजकल हमारा रक्त का पीएच 6 या 6.5 रहता है । इसी से कैंसर जैसी घातक बीमारियां होती है । शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो गई है । शरीर में दर्द इसी से रहता है । पित्त का बढ़ना, बुखार आना, चिढ़ना सब अम्लता बढ़ने से होता है ।

निम्बू, अंगुर आदि फल खट्टे होते हैं लेकिन पाचन पर ये क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । इनके अन्तर स्वभाव से नही बल्कि पचने पर जो प्रभाव होता है उसके कारण क्षारीय माना जाता है । पाचन पर जो खनिज तत्व बनाते हैं व सब क्षारीय होते हैं ।
अम्लीय आहार – मनुष्य द्वारा निर्मित आहार प्रायः अम्लीय होता है जिससे एसीडिटी होती है । जैसे तले-भूने पदार्थ, दाल, चावल, कचैरी, सेव, नमकीन, चाय, काॅफी, शराब, तंबाकु, डेयरी उत्पाद, प्रसंस्कृत भोजन, मांस, चीनी, मिठाईयां, नमक, चासनी युक्त फल, गर्म दूध आदि के सेवन से अम्लता बढ़ती है ।

क्षारीय आहार – प्रकृति द्वारा प्रदत आहार (अपक्वाहार) प्रायः क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । जैसे ताजे फल, सब्जियां, अंकुरित अनाज, पानी में भीगे किशमिश, अंजीर, धारोष्ण दूध, फलियां, छाछ, नारियल, खजूर तरकारी, सुखे मेवे, आदि पाचन पर क्षारीय हैं ।ज्वारे का रस क्षारीय होता है । यह हमारे शरीर को एल्कलाइन बनाता है । शरीर के द्रव्यों को क्षारीय बनाता है । खाने का सोड़ा क्षारीय बनाता है ।
सनातन हिन्दू धर्म की आचरण संहिता
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हिन्दू धर्म में आचरण के सख्त नियम हैं जिनका उसके अनुयायी को प्रतिदिन जीवन में पालन करना चाहिए। इस आचरण संहिता में मुख्यत: दस प्रतिबंध हैं और दस नियम हैं। यह सनातन हिन्दू धर्म का नैतिक अनुशासन है। इसका पालन करने वाला जीवन में हमेशा सुखी और शक्तिशाली बना रहता है।

1👉अहिंसा – स्वयं सहित किसी भी जीवित प्राणी को मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। जैसे हम स्वयं से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें दूसरों को भी प्रेम और आदर देना चाहिए।

अहिंसा का लाभ👉 किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से जहां सकारात्मक भाव के लिए आधार तैयार होता है वहीं प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंसकर व्यक्ति के प्रति भी अच्छा भाव रखने लगता है। सभी लोग आपके प्रति अच्छा भाव रखेंगे तो आपके जीवन में कअच्छा ही होगा।

2👉सत्य – मन, वचन और कर्म से सत्यनिष्ठ रहना, दिए हुए वचनों को निभाना, प्रियजनों से कोई गुप्त बात नहीं रखना।

सत्य का लाभ👉 सदा सत्य बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता कायम रहती है। सत्य बोलने से व्यक्ति को आत्मिक बल प्राप्त होता है जिससे आत्मविष्वास भी बढ़ता है।

3👉अस्तेय – चोरी नहीं करना। किसी भी विचार और वस्तु की चोरी नहीं करना ही अस्तेय है। चोरी उस अज्ञान का परिणाम है जिसके कारण हम यह मानने लगते हैं कि हमारे पास किसी वस्तु की कमी है या हम उसके योग्य नहीं हैं। किसी भी किमत पर दांव-पेच एवं अवैध तरीकों से स्वयं का लाभ न करें।

अस्तेय का लाभ👉 आपका स्वभाव सिर्फ आपका स्वभाव है। व्यक्ति जितना मेहनती और मौलीक बनेगा उतना ही उसके व्यक्तित्व में निखार आता है। इसी ईमानदारी से सभी को दिलों को ‍जीतकर आत्म संतुष्ट रहा जा सकता है। जरूरी है कि हम अपने अंदर के सौंदर्य और वैभव को जानें।

4-ब्रह्मचर्य👉 ब्रह्मचर्य के दो अर्थ है- ईश्वर का ध्यान और यौन ऊर्जा का संरक्षण। ब्रह्मचर्य में रहकर व्यक्ति को विवाह से पहले अपनी पूरी शक्ति अध्ययन एवं प्रशिक्षण में लगाना चाहिए। पश्चात इसके दांपत्य के ढांचे के अंदर ही यौन क्रिया करना चाहिए। वह भी विशेष रातों में इससे दूर रहना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन करने में काफी बातों का ध्यान रखा जाता है- जैसे योनिक वार्ता एवं मजाक, अश्लील चित्र एवं चलचित्र के देखने पर प्रतिबंध। स्त्री और पुरुष को आपस में बातचीत करते समय मर्यादित ढंग से पेश आना चाहिए। इसी से ब्रह्मचर्य कायम रहता है।

ब्रह्मचर्य का लाभ👉 यौन ऊर्जा ही शरीर की शक्ति होती है। इस शक्ति का जितना संचय होता है व्यक्ति उतना शारीरिक और मानसिक रूप से शक्तिशाली और ऊर्जावान बना रहता है। जो व्यक्ति इस शक्ति को खो देता है वह मुरझाए हुए फूल के समान हो जाता है।

5👉 क्षमा – यह जरूरी है कि हम दूसरों के प्रति धैर्य एवं करुणा से पेश आएं एवं उन्हें समझने की कोशिश करें। परिवार एवं बच्चों, पड़ोसी एवं सहकर्मियों के प्रति सहनशील रहें क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परिस्थितिवश व्यवहार करता है।

क्षमा का लाभ👉 परिवार, समाज और सहकर्मियों में आपके प्रति सम्मान बढ़ेगा। लोगों को आप समझने का समय देंगे तो लोग भी आपको समझने लगेंगे।

6👉 धृति – स्थिरता, चरित्र की दृढ़ता एवं ताकत। जीवन में जो भी क्षेत्र हम चुनते हैं, उसमें उन्नति एवं विकास के लिए यह जरूरी है कि निरंतर कोशिश करते रहें एवं स्थिर रहें। जीवन में लक्ष्य होना जरूरी है तभी स्थिरता आती है। लक्ष्यहिन व्यक्ति जीवन खो देता है।

धृति का लाभ👉 चरित्र की दृढ़ता से शरीर और मन में स्थिरता आती है। सभी तरह से दृढ़ व्यक्ति लक्ष्य को भेदने में सक्षम रहता है। इस स्थिरता से जीवन के सभी संकटों को दूर किया जा सकता है। यही सफलता का रहस्य है।

7👉 दया – यह क्षमा का विस्त्रत रूप है। इसे करुणा भी कहा जाता है। जो लोग यह कहते हैं कि दया ही दुख का कारण है वे दया के अर्थ और महत्व को नहीं समझते। यह हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए एक बहुत आवश्यक गुण है।

दया का लाभ👉 जिस व्यक्ति में सभी प्राणियों के प्रति दया भाव है वह स्वयं के प्रति भी दया से भरा हुआ है। इसी गुण से भगवान प्रसन्न होते हैं। यही गुण चरित्र से हमारे आस पास का माहौल अच्छा बनता है।

8👉 आर्जव- दूसरों को नहीं छलना ही सरलता है। अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति ईमानदारी से पेश आना।

आजर्व का लाभ👉 छल और धोके से प्राप्त धन, पद या प्रतिष्ठा कुछ समय तक ही रहती है, लेकिन जब उस व्यक्ति का पतन होता है तब उसे बचाने वाला भी कोई नहीं रहता। स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति आदि से जीवन में संतोष और सुख की प्राप्ति होती है।

9👉 मिताहार- भोजन का संयम ही मिताहार है। यह जरूरी है कि हम जीने के लिए खाएं न कि खाने के लिए जिएं। सभी तरह का व्यसन त्यागकर एक स्वच्छ भोजन का चयन कर नियत समय पर खाएं। स्वस्थ रहकर लंबी उम्र जीना चाहते हैं तो मिताहार को अपनाएं। होटलों एवं ऐसे स्थानों में जहां हम नहीं जानते कि खाना किसके द्वारा या कैसे बनाया गया है, वहां न खाएं।

मिताहार का लाभ👉 आज के दौर में मिताहार की बहुत जरूरत है। अच्छा आहार हमारे शरीर को स्वस्थ बनाएं रखकर ऊर्जा और स्फूति भी बरकरार रखता है। अन्न ही अमृत है और यही जहर बन सकता है।

10👉 शौच – आंतरिक एवं बाहरी पवित्रता और स्वच्छता। इसका अर्थ है कि हम अपने शरीर एवं उसके वातावरण को पूर्ण रूप से स्वच्छ रखें। हम मौखिक और मानसिक रूप से भी स्वच्छ रहें।

शौच का लाभ👉 वातावरण, शरीर और मन की स्वच्छता एवं व्यवस्था का हमारे अंतर्मन पर सात्विक प्रभाव पड़ता है। स्वच्छता सकारात्मक और दिव्यता बढ़ती है। यह जीवन को सुंदर बनाने के लिए बहुत जरूरी है। सनातन हिन्दू धर्म के दस नियम।

1👉 ह्री – पश्चात्ताप को ही ह्री कहते हैं। अपने बुरे कर्मों के प्रति पश्चाताप होना जरूरी है। यदि आपमें पश्चाताप की भावना नहीं है तो आप अपनी बुराइयों को बढ़ा रहे हैं। विनम्र रहना एवं अपने द्वारा की गई भूल एवं अनुपयुक्त व्यवहार के प्रति असहमति एवं शर्म जाहिर करना जरूरी है, इसका यह मतलब कतई नहीं की हम पश्चाताप के बोझ तले दबकर फ्रेस्ट्रेशन में चले जाएं।

ह्री का लाभ👉 पश्चाताप हमें अवसाद और तनाव से बचाता है तथा हममें फिर से नैतिक होने का बल पैदा करता है। मंदिर, माता-पिता या स्वयं के समक्ष खड़े होकर भूल को स्वीकारने से मन और शरीर हल्का हो जाता है।

2👉 संतोष – प्रभु ने हमारे निमित्त जितना भी दिया है, उसमें संतोष रखना और कृतज्ञता से जीवन जीना ही संतोष है। जो आपके पास है उसका सदुपयोग करना और जो अपके पास नहीं है, उसका शोक नहीं करना ही संतोष है। अर्थात जो है उसी से संतुष्ट और सुखी रहकर उसका आनंद लेना।

संतोष का लाभ👉 यदि आप दूसरों के पास जो है उसे देखर और उसके पाने की लालसा में रहेंगे तो सदा दुखी ही रहेगें बल्कि होना यह चाहिए कि हमारे पास जो है उसके होने का सुख कैसे मनाएं या उसका सदुपयोग कैसे करें यह सोचे इससे जीवन में सुख बढ़ेगा।

3👉 दान – आपके पास जो भी है वह ईश्वर और इस कुदरत की देन है। यदि आप यह समझते हैं कि यह तो मेरे प्रयासों से हुआ है तो आपमें घमंड का संचार होगा। आपके पास जो भी है उसमें से कुछ हिस्सा सोच समझकर दान करें। ईश्वर की देन और परिश्रम के फल के हिस्से को व्यर्थ न जाने दें। इसे आप मंदिर, धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं में दान कर सकते हैं या किसी गरीब के लिए दान करें।

दान का लाभ👉 दान किसे करें और दान का महत्व क्या है यह जरूर जानें। दान पुण्य करने से मन की ग्रंथियां खुलती है और मन में संतोष, सुख और संतुलन का संचार होता है। मृत्युकाल में शरीर आसानी से छुट जाता है।
4=आस्तिकता – वेदों में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। माता-पिता, गुरु और ईश्वर में निष्ठा एवं विश्वास रखना भी आस्तिकता है।

आस्तिकता का लाभ👉 आस्तिकता से मन और मस्तिष्क में जहां समारात्मकता बढ़ती हैं वहीं हमारी हर तरह की मांग की पूर्ति भी होती है। अस्तित्व या ईश्वर से जो भी मांगा जाता है वह तुरंत ही मिलता है। अस्तित्व के प्रति आस्था रखना जरूरी है।

5👉 ईश्वर प्रार्थना – बहुत से लोग पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन सनातन हिन्दू धर्म में ईश्वर या देवी-देवता के लिए संध्यावंदन करने का निर्देश है। संध्यावंदन में प्रार्थना, स्तुति या ध्यान किया जाता है वह भी प्रात: या शाम को सूर्यास्त के तुरंत बाद।

ईश्वर की प्रार्थना का लाभ👉 पांच या सात मिनट आंख बंद कर ईश्वर या देवी देवता का ध्यान करने से व्यक्ति ईथर माध्यम से जुड़कर उक्त शक्ति से जुड़ जाता है। पांच या सात मिनट के बाद ही प्रार्थना का वक्त शुरू होता है। फिर यह आप पर निर्भर है कि कब तक आप उक्त शक्ति का ध्यान करते हैं। इस ध्यान या प्रार्थना से सांसार की सभी समस्याओं का हल मिल जाता है।

6👉 सिद्धांत श्रवण- निरंतर वेद, उपनिषद या गीता का श्रवण करना। वेद का सार उपनिषद और उपनिषद का सार गीता है। मन एवं बुद्धि को पवित्र तथा समारात्मक बनाने के लिए साधु-संतों एवं ज्ञानीजनों की संगत में वेदों का अध्ययन एक शक्तिशाली माध्यम है।

सिद्धांत श्रवणका लाभ👉 जिस तरह शरीर के लिए पौष्टिक आहार की जरूरत होती है उसी तरह दिमाग के लिए समारात्मक बात, किताब और दृष्य की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक वातावरण से हमें यह सब हासिल होता है। यदि आप इसका महत्व नहीं जानते हैं तो आपके जीवन में हमेशा नकारात्मक ही होता रहता है।

7👉 मति – हमारे धर्मग्रंथ और धर्म गुरुओं द्वारा सिखाई गई नित्य साधना का पालन करना। एक प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन से पुरुषार्थ करके अपनी इच्छा शक्ति एवं बुद्धि को आध्यात्मिक बनाना।

मति का लाभ👉 संसार में रहें या संन्यास में निरंतर अच्छी बातों का अनुसरण करना जरूरी है तभी जीवन को सुंदर बनाकर शांति, सुख और समृद्धि से रहा जा सकता है। इसके सबसे पहले अपनी बुद्धि को पुरुषार्थ द्वारा आध्यात्मिक बनाना जरूरी है।

8👉व्रत – अतिभोजन, मांस एवं नशीली पदार्थों का सेवन नहीं करना, अवैध यौन संबंध, जुए आदि से बचकर रहना- ये सामान्यत: व्रत के लिए जरूरी है।

इसका गंभीरता से पालन चाहिए अन्यथा एक दिन सारी आध्यात्मिक या सांसारिक कमाई पानी में बह जाती है। यह बहुत जरूरी है कि हम विवाह, एक धार्मिक परंपरा के प्रति निष्ठा, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य जैसे व्रतों का सख्त पालन करें।

बृत का लाभ👉 व्रत से नैतिक बल मिलता है तो आत्मविश्वास तथा दृढ़ता बढ़ती है। जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए व्रतवान बनना जरूरी है। व्रत से जहां शरीर स्वस्थ बना रहता है वही मन और बुद्धि भी शक्तिशाली बनते हैं।

9👉जप – जब दिमाग या मन में असंख्य विचारों की भरमार होने लगती है तब जप से इस भरमार को भगाया जा सकता है। अपने किसी इष्ट का नाम या प्रभु स्मरण करना ही जप है। यही प्रार्थना भी है और यही ध्यान भी है।

जप का लाभ👉 हजारों विचार को भगाने के लिए मात्र एक मंत्र ही निरंतर जपने से सभी हजारों विचार धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं। हम रोज स्नान करके अपने आपको स्वच्छ रखते हैं, उसी जप से मन की सफाई हो जाती है। इसे मन में झाडू लगना भी कहा जाता।

10👉 तप – मन का संतुलन बनाए रखना ही तप है। व्रत जब कठीन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को कंट्रोल में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है। उत्साह एवं प्रसन्नता से व्रत रखना, पूजा करना, पवित्र स्थलों की यात्रा करना। विलासप्रियता एवं फिजूलखर्ची न चाहकर सादगी से जीवन जीना। इंद्रियों के संतोष के लिए अपने आप को अंधाधुंध समर्पित न करना भी तप है।

तप का लाभ👉 जीवन में कैसी भी दुष्कर परिस्थिति आपके सामने प्रस्तुत हो, तब भी आप दिमागी संतुलन नहीं खो सकते, यदि आप तप के महत्व को समझते हैं तो। अनुशासन एवं परिपक्वता से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

अंत: जो व्यक्ति यम और नियम का पालन करता है वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने की ताकत रखता है। यह प्रतिबंध और नियम सभी धर्मों का सार है।
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जय श्री राम
क्या आप जानते हैं 60 संवत्सरों के नाम

वर्ष को संवत्सर कहा जाता है। जैसे प्रत्येक माह के नाम होते हैं उसी तरह प्रत्येक वर्ष के नाम अलग अलग होते हैं। जैसे बारह माह होते हैं उसी तरह 60 संवत्सर होते हैं। संवत्सर अर्थात बारह महीने का कालविशेष। संवत्सर उसे कहते हैं, जिसमें सभी महीने पूर्णतः निवास करते हों। भारतीय संवत्सर वैसे तो पांच प्रकार के होते हैं। इनमें से मुख्यतः तीन हैं- सावन, चान्द्र तथा सौर।

सावन- यह 360 दिनों का होता है। संवत्सर का मोटा सा हिसाब इसी से लगाया जाता है। इसमें एक माह की अवधि पूरे तीस दिन की होती है।

चान्द्र- यह 354 दिनों का होता है। अधिकतर माह इसी संवत्सर द्वारा जाने जाते हैं। यदि मास वृद्धि हो तो इसमें तेरह मास अन्यथा सामान्यतया बारह मास होते हैं। इसमें अंगरेजी हिसाब से महीनों का विवरण नहीं है बल्कि इसका एक माह शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक या कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से पूर्णिमा तक माना जाता है। इसमें प्रथम माह को अमांत और द्वितीय माह को पूर्णिमान्त कहते हैं। दक्षिण भारत में अमांत और पूर्णिमांत माह का ही प्रचलन है। धर्म-कर्म, तीज-त्योहार और लोक-व्यवहार में इस संवत्सर की ही मान्यता अधिक है।

सौर- यह 365 दिनों का माना गया है। यह सूर्य के मेष संक्रान्ति से आरंभ होकर मेष संक्रांति तक ही चलता है।

60 संवत्सरों के नाम तथा क्रम इस प्रकार हैं-

(1) प्रभव,
(2) विभव,
(3) शुक्ल,
(4) प्रमोद,
(5) प्रजापति,
(6) अंगिरा,
(7) श्रीमुख,
(8) भाव,
(9) युवा,
(10) धाता,
(11) ईश्वर,
(12) बहुधान्य,
(13) प्रमाथी,
(14) विक्रम,
(15) विषु,
(16) चित्रभानु,
(17) स्वभानु,
(18) तारण,
(19) पार्थिव,
(20) व्यय,
(21) सर्वजित्,
(22) सर्वधारी,
(23) विरोधी,
(24) विकृति,
(25) खर,
(26) नंदन,
(27) विजय,
(28) जय,
(29) मन्मथ,
(30) दुर्मुख,
(31) हेमलम्ब,
(32) विलम्ब,
(33) विकारी,
(34) शर्वरी,
(35) प्लव,
(36) शुभकृत्,
(37) शोभन,
(38) क्रोधी,
(39) विश्वावसु,
(40) पराभव,
(41) प्लवंग,
(42) कीलक,
(43) सौम्य,
(44) साधारण,
(45) विरोधकृत्,
(46) परिधावी,
(47) प्रमादी,
(48) आनन्द,
(49) राक्षस,
(50) नल,
(51) पिंगल,
(52) काल,
(53) सिद्धार्थ,
(54) रौद्रि,
(55) दुर्मति,
(56) दुंदुभि,
(57) रुधिरोद्गारी,
(58) रक्ताक्ष,
(59) क्रोधन तथा
(60) अक्षय।

शुक्र ग्रह का हमारे जीवन पर प्रभाव ।

  • शुक्र मुख्य रूप से हमारे जीवन के सुख से संबंध रखता है.
  • वैभव, ऐश्वर्य, सम्पदा और ग्लैमर, शुक्र की कृपा से ही मिलते हैं.
  • जीवन में प्रेम, करुणा और सौंदर्य शुक्र के कारण ही आता है.
  • पुरुषों के जीवन में स्त्री सुख भी शुक्र के कारण मिलता है.
  • कोई भी वैवाहिक जीवन शुक्र की कृपा से ही चलता है.

मेष

  • इनको शुक्र से वाणी, धन और पारिवारिक सुख मिलता है
  • यहाँ पर वैवाहिक जीवन पूरी तरह से शुक्र पर निर्भर करता है

वृष

  • इनको शुक्र से अच्छा स्वास्थ्य और शानदार व्यक्तित्व मिलता है
  • इनकी नौकरी तभी अच्छी रह सकती है, जब शुक्र अच्छा हो

मिथुन

  • इनको शुक्र से संतान, विद्या और बुद्धि का वरदान मिलता है
  • शुक्र से ही इनको जीवनसाथी का प्रेम और ऐश्वर्य मिल पाता है

कर्क

  • शुक्र से इनको भावनाएं, करुणा, प्रेम और अच्छा ह्रदय मिलता है
  • शुक्र ही इनको अच्छी आय और अच्छी नौकरी दे सकता है

सिंह

  • शुक्र से इनको साहस, भाई बहन और यात्राओं का सुख मिलता है
  • शुक्र के कारण ही इनको उच्च पद और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है

कन्या

  • शुक्र ही इनके भाग्य, धर्म और विदेश यात्राओं को नियंत्रित करता है
  • शुक्र के कारण ही इनको अच्छी वाणी, धन और पारिवारिक सुख मिलता है

तुला

  • इनका स्वास्थ्य और उम्र शुक्र के हाथों में होता है
  • इनको पूरा व्यक्तित्व और आकर्षण शुक्र से ही प्राप्त होता है

वृश्चिक

  • इनका विवाह, कारोबार और रिश्ते शुक्र पर निर्भर करते हैं
  • इनका मान सम्मान, यश और ग्लैमर शुक्र पर ही निर्भर करता है

धनु

  • इनकी नौकरी और रोजगार पूरी तरह से शुक्र के हाथों में होता है
  • इनकी बीमारियां, कर्जे और शत्रु, शुक्र से ही सम्बन्ध रखते हैं

मकर

  • इनको उच्च पद, प्रतिष्ठा और मान सम्मान शुक्र से मिलता है
  • इनको संतान और विद्या-बुद्धि भी शुक्र की कृपा से ही मिलती है

कुम्भ

  • इनका मन, ह्रदय, भावनाएं और सोच शुक्र से नियंत्रित होता है
  • शुक्र ही इन्हे भाग्यवान भी बनाता है और आध्यात्मिक भी

मीन

  • इनकी आयु और आकस्मिक सफलता शुक्र से प्राप्त होती है
  • लेखन, कला, संगीत और अभिव्यक्ति की क्षमता भी इन्हे शुक्र ही देता है

शुक्र को मजबूत करने के उपाय।

  • नित्य प्रातः और सायं शुक्र के मन्त्र का जप करें
  • एक स्फटिक की माला गले में धारण करें
  • शुक्रवार को देवी को सफ़ेद मिठाई का भोग अर्पित करें
  • महिलाओं की यथाशक्ति सहायता करें
    🌹🙏🌹🙏🌹🙏

🙏ॐशान्ति ….!

सोच से जीवन है, संकल्प जीवन का आधार हैं, क्योंकि संकल्प से feeling आती है जो आपकी शक्ति के घटने व बढ़ने का आधार है, वही feeling आपको कर्म के लिए प्रेरित करती है,इसलिए कुछ भी करें पर बीच बीच में,अपने मन रूपी बच्चे को चेक करते रहें कि वह किस प्रकार के संकल्प रूपी खिलौनों से खेल रहा है क्योंकि यदि यह खिलौने हानिकारक हुए ( negative &waste thoughts) तो यही जल्दी ही रोने भी लगेगा इसलिए कर्म करते हुए बीच बीच में इस पर भी नज़र डालें,कि आखिर यह कहाँ busy है, सदा याद रखें कि शरीर उतना नहीं थकता जितना मन थक जाता है और इसके थकने का कारण है हानिकारक संकल्प! इनसे बचने के लिए आधयात्मिक ज्ञान को बार बार पढ़े, परमात्मा से बात करें, अच्छी बातें सुने और सुनायें मन को अच्छे खिलौनों से खेलने का अभ्यासी बनाएं, फिर देखें जीवन की रेल किस speed से दौढ़ती है….✍️🌹🤗

🌹 ओम शांन्ति 🌹

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           ओम शान्ति 

   " वृक्षपति द्वारा कल्प-
     वृक्ष की दुर्दशा का 
     आँखो देखा हाल "

 वृक्ष-पति और आदि देव दोनों ही अपने वृक्ष की देख-रेख करने गये । आदि देव अर्थात साकार मनुष्य सृष्टि का रचयिता बाप ( प्रजापिता ब्रह्मा ) ने जब वृक्ष को चारों ओर देखा तो क्या देखा ? हर एक मनुष्य आत्मा रूपी पत्ता पुराना हो ही गया है लेकिन मैजारिटी पत्तों को बीमारी भी लगी हुई है जिससे उस पत्ते का रंग-रूप बदला हुआ है अर्थात रौनक बदली हुई है । राज्य सत्ता  , धर्म की सत्ता  , भक्ति की सत्ता और प्रजा की सत्ता   चारों ही सत्तायें शक्तिहीन  , खोखली दिखाई दी । सदा भय के भूतों के बीच कुर्सी पर बैठा हुआ देखा  । 
 जब यह सैर कर लौटे तो नये वृक्ष की कलम को देखा । कलम में कौन थे ? आप सभी अपने को कलम समझते हो ? जब पुराने वृक्ष को बीमारी लग गई  , जडजडीभूत हो गया तो अब नया वृक्षारोपण आप आधार मूर्तियों द्वारा ही होगा । ब्राह्मण है ही नये वृक्ष की जडें अर्थात फाउण्डेशन , आप हो फाउण्डेशन । तो देखा कि फाउण्डेशन कितना पावरफुल बना हुआ है । ब्रह्मा बाप को चारों ओर की दुर्दशा देखकर संकल्प आया कि अभी-अभी बच्चों के तपस्वी रूप द्वारा  , योग अग्नि द्वारा इस पुराने वृक्ष को  भस्म कर लें लेकिन हर ब्राह्मण को अपने-अपने नम्बर प्रमाण फुल स्टेज प्राप्त करनी थी  , उसमें कमी थी  , जो एक धक से विनाश हो जाए व पुराना वृक्ष भस्म हो जाए । अब क्या करेंगे ? ब्रह्मा बाप के संकल्प को साकार में लाओ । बाप के स्नेही बन इस विशाल कार्य में सहयोगी बनो । अभी से ही स्वयं को सम्पन्न बनाओ । समझा ? अच्छा । 06-01-13 ।

         ओम शान्ति 

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[17/07, 13:33] Daddy: भाव कारक एवं विचारणीय विषय

ज्योतिष शास्त्र में 12 राशियां तथा 12 भाव, 9 ग्रह, 27 +1( अभिजीत) = 28 नक्षत्र, बताए गए हैं अर्थात इन्ही भाव, राशि, ग्रह , नक्षत्र में हमारे जीवन का सम्पूर्ण सार छुपा हुआ है केवल आवश्यकता है इस बात को जानने के लिए की कौन राशि, भाव तथा ग्रह का सम्बन्ध हमारे जीवन में आने वाली घटनाओं से है यदि हम इनके सम्बन्ध को जान लेते है तो यह बता सकते है कि हमारे जीवन में कौन सी घटनाएं कब घटने वाली है। । परन्तु इसके लिए सबसे पहले हमें भाव और ग्रह के कारकत्त्व को जानना बहुत जरुरी है क्योकि ग्रह या भाव जिस विषय का कारक होता है अपनी महादशा, अंतरदशा या प्रत्यन्तर दशा में उन्ही विषयो का शुभ या अशुभ फल देने में समर्थ होता है।

Importance of Houses | भाव का महत्त्व

ज्योतिष जन्मकुंडली में 12 भाव होते है और सभी भाव का अपना विशेष महत्त्व है। आप इस प्रकार समझ सकते है भाव जातक की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं को पूर्ति करता है। व्यक्ति को जो भी आवश्यकता होती है उसको पाने के लिए कोशिश करता है अब निर्भर करता है आपके उसे पाने के लिए कब, कैसे, किस समय और किस प्रकार के साधन का उपयोग किया है। क्योकि उचित समय और स्थान पर किया गया प्रयास ही इच्छापूर्ति में सहायक होता है। भाव इस प्रकार से कार्य करता है जैसे —

जब भी कोई जातक यह प्रश्न करता है की मेरे जीवन में धन योग है की नहीं और है तो कब तब इसको जानने के लिए ज्योतिषाचार्य सबसे पहले निर्धारित धन भाव अर्थात 2nd भाव को देखते है तत्पश्चात उस भाव भावेश तथा भावस्थ ग्रह का विश्लेषण कर धन के सम्बन्ध में फल कथन करते है।

Bhav Karak in Astrology | भाव कारक एवं विचारणीय विषय

Houses Significator Planets | भाव का कारक ग्रह

प्रथम भाव- सूर्य
दूसरा भाव- गुरू
तृतीय भाव – मंगल
चतुर्थ भाव – चंद्र
पंचम भाव – गुरु
षष्ठ भाव – मंगल
सप्तम भाव – शुक्र
अष्टम भाव – शनि
नवम भाव – गुरु
दशम भाव – गुरु, सूर्य, बुध और शनि
एकादश भाव – गुरु
द्वादश भाव – शनि
सभी भाव को कोई न कोई विचारणीय विषय प्रदान किया गया है जैसे प्रथम भाव को व्यक्ति का रंग रूप तो दुसरा भाव धन भाव है वही तीसरा भाव सहोदर का है इसी प्रकार सभी भाव को निश्चित विषय प्रदान किया गया है प्रस्तुत लेख में सभी भाव तथा ग्रह के कारकत्व बताने का प्रयास किया गया है।

जन्मकुंडली के प्रत्येक भाव से विचारणीय विषय

1st House | प्रथम अथवा तनु भाव

जन्मकुंडली में प्रथम भाव से लग्न, उदय, शरीर,स्वास्थ्य, सुख-दुख, वर्तमान काल, व्यक्तित्व, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, जाति, विवेकशीलता, आत्मप्रकाश, आकृति( रूप रंग) मस्तिष्क, उम्र पद, प्रतिष्ठा, धैर्य, विवेकशक्ति, इत्यादि का विचार करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के सम्बन्ध में यह देखना है कि उसका स्वभाव रंगरूप कैसा है तो इस प्रश्न का जबाब प्रथम भाव ही देता है।

2nd House | द्वितीय अथवा धन भाव

जन्मकुंडली में दूसरा भाव धन, बैंक एकाउण्ट, वाणी, कुटुंब-परिवार, पारिवारिक, शिक्षा, संसाधन, माता से लाभ, चिट्ठी, मुख, दाहिना नेत्र, जिह्वा, दाँत इत्यादि का उत्तरदायी भाव है।यदि यह देखना है कि जातक अपने जीवन में धन कमायेगा या नहीं तो इसका उत्तर यही भाव देता है।

3rd House | तृतीय अथवा सहज भाव

यह भाव जातक के लिए पराक्रम, छोटा भाई-बहन, धैर्य, लेखन कार्य, बौद्धिक विकास, दाहिना कान, हिम्मत, वीरता, भाषण एवं संप्रेषण, खेल, गला कन्धा दाहिना हाँथ, का उत्तरदायी भाव है। यदि यह देखना है कि जातक अपने भाई बहन के साथ कैसा सम्बन्ध है तो इस प्रश्न का जबाब यही भाव देता है।

4rth House | चतुर्थ अथवा कुटुंब भाव

यह भाव जातक के जीवन में आने वाली सुख, भूमि, घर, संपत्ति, वाहन, जेवर, गाय-भैस, जल, शिक्षा, माता, माता का स्वास्थ्य, ह्रदय, पारिवारिक प्रेम छल, उदारता, दया, नदी, घर की सुख शांति जैसे विषयों का उत्तरदायी भाव है। यदि किसी जातक की कुंडली में यह देखना है कि जातक का घर कब बनेगा तथा घर में कितनी शांति है तो इस प्रश्न का उत्तर चतुर्थ भाव से मिलता है।

5th House | पंचम अथवा संतान भाव

जन्मकुंडली में पंचम भाव से संतान सुख, बुद्धि, शिक्षा, विद्या, शेयर संगीत मंत्री, टैक्स, भविष्य ज्ञान, सफलता, निवेश, जीवन का आनन्द,प्रेम, सत्कर्म, पेट,शास्त्र ज्ञान यथा वेद उपनिषद पुराण गीता, कोई नया कार्य, प्रोडक्शन, प्राण आदि का विचार करना चाहिए। यदि कोई यह जानना चाहता है कि जातक की पढाई या संतान सुख कैसा है तो इस प्रश्न का जबाब पंचम अर्थात संतान भाव ही देगा अन्य भाव नहीं ।

Bhav Karak in Astrology | भाव कारक एवं विचारणीय विषय

6th House | षष्ठ अथवा रोग भाव

जन्मकुंडली में षष्ठ भाव से रोग,दुख-दर्द, घाव, रक्तस्राव, दाह, अस्त्र, सर्जरी, डिप्रेशन,शत्रु, चोर, चिंता, लड़ाई झगड़ा, केश मुक़दमा, युद्ध, दुष्ट, कर्म, पाप, भय, अपमान, नौकरी आदि का विचार करना चाहिए। यदि कोई यह जानना चाहता है कि जातक का स्वास्थ्य कैसा रहेगा या केश में मेरी जीत होगी या नहीं तो इस प्रश्न का जबाब षष्ठ भाव ही देगा अन्य भाव नहीं ।

7th House | सप्तम अथवा विवाह भाव

जन्मकुंडली में सप्तम भाव से पति-पत्नी, ह्रदय की इच्छाए ( काम वासना), मार्ग,लोक, व्यवसाय, साझेदारी में कार्य, विवाह ( Marriage) , कामेच्छा, लम्बी यात्रा आदि पर विचार किया जाता है। इस भाव को पत्नी वा पति अथवा विवाह भाव भी कहा जाता है । यदि कोई यह जानना चाहता है कि जातक की पत्नी वा पति कैसा होगा या साझेदारी में किया गया कार्य सफल होगा या नही का विचार करना हो तो इस प्रश्न का जबाब सप्तम भाव ही देगा अन्य भाव नहीं ।

8th House | अष्टम अथवा मृत्यु भाव

जन्मकुंडली में अष्टम भाव से मृत्यु, आयु, मांगल्य ( स्त्री का सौभाग्य – पति का जीवित रहना), परेशानी, मानसिक बीमारी ( Mental disease) , संकट, क्लेश, बदनामी, दास ( गुलाम), बवासीर रोग, गुप्त स्थान में रोग, गुप्त विद्या, पैतृक सम्पत्ति, धर्म में आस्था और विश्वास, गुप्त क्रियाओं, तंत्र-मन्त्र अनसुलझे विचार, चिंता आदि का विचार करना चाहिए। इस भाव को मृत्यू भकव भी कहा जाता है यदि किसी की मृत्यु का विचार करना है तो यह भाव बताने में सक्षम है।

9th House | नवम अथवा भाग्य भाव

जन्मकुंडली में निर्धारित नवम भाव से हमें भाग्य, धर्म,अध्यात्म, भक्ति, आचार्य- गुरु, देवता, पूजा, विद्या, प्रवास, तीर्थयात्रा, बौद्धिक विकास, और दान इत्यादि का विचार करना चाहिए। इस स्थान को भाग्य स्थान तथा त्रिकोण भाव भी कहा जाता है। यह भाव पिता( उत्तर भारतीय ज्योतिष) का भी भाव है इसी भाव को पिता के लिए लग्न मानकर उनके जीवन के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण भविष्यवाणी की जाती है। यह भाव हमें बताता है कि हमारी मेहनत और अपेक्षा में भाग्य का क्या रोल है क्या जितना मेहनत कर रहा हूँ उसके अनुरूप भाग्यफल भी मिलेगा । क्या मेरे तरक्की में भाग्य साथ देगा इत्यादि प्रश्नों का उत्तर इसी भाव से मिलता है।

10th House | दशम अथवा कर्म भाव

जन्मकुंडली में निर्धारित दशम भाव से राज्य, मान-सम्मान, प्रसिद्धि, नेतृत्व, पिता( दक्षिण भारतीय ज्योतिष), नौकरी, संगठन, प्रशासन, जय, यश, यज्ञ, हुकूमत, गुण, आकाश, स्किल, व्यवसाय, नौकरी तथा व्यवसाय का प्रकार, इत्यादि का विचार इसी भाव से करना चाहिए। कुंडली में दशम भाव को कर्म भाव भी कहा जाता है । यदि कोई यह जानना चाहता है कि जातक कौन सा काम करेगा, व्यवसाय में सफलता मिलेगी या नहीं , जातक को नौकरी कब मिलेगी और मिलेगी तो स्थायी होगी या नहीं इत्यादि का विचार इसी भाव से किया जाता है।

11th House | एकादश अथवा लाभ भाव

जन्मकुंडली में निर्धारित एकादश भाव से लाभ, आय, संपत्ति, सिद्धि, वैभव, ऐश्वर्य, कल्याण, बड़ा भाई-बहन,बायां कान, वाहन, इच्छा, उपलब्धि, शुभकामनाएं, धैर्य, विकास और सफलता इत्यादि पर विचार किया जाता है। यही वह भाव है जो जातक को उसकी इच्छा की पूर्ति करता है । इससे लाभ का विचार किया जाता है किसी कार्य के होने या न होने से क्या लाभ या नुकसान होगा उसका फैसला यही भाव करता है। वस्तुतः यह भाव कर्म का संचय भाव है अर्थात आप जो काम कर रहे है उसका फल कितना मिलेगा इसकी जानकारी इसी भाव से प्राप्त की जा सकती है।

12th House | द्वादश वा व्यय भाव

जन्मकुंडली में निर्धारित द्वादश भाव से व्यय, हानि, रोग, दण्ड, जेल, अस्पताल, विदेश यात्रा, धैर्य, दुःख, पैर, बाया नेत्र, दरिद्रता, चुगलखोर,शय्या सुख, ध्यान और मोक्ष इत्यादि का विचार करना चाहिए । इस भाव को रिफ भाव भी कहा जाता है। जीवन पथ में आने वाली सभी प्रकार क़े नफा नुकसान का लेखा जोखा इसी भाव से जाना जाता है। यदि कोई यह जानना चाहता है कि जातक विदेश यात्रा (abroad Travel) करेगा या नहीं यदि करेगा तो कब करेगा, शय्या सुख मिलेगा या नहीं इत्यादि का विचार इसी भाव से किया जाता है।
[ कब होगी शादी | कैसा होगा जीवनसाथी

भारतीय संस्कृति में 16 संस्कारों में विवाह संस्कार भी आता है यही नहीं निर्धारित चार आश्रमो में गृहस्थ आश्रम विवाहोपरान्त ही प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह संस्कार को दुसरा जन्म माना जाता है । शादी के बाद व्यक्ति का पारिवारिक जीवन आरम्भ होता है। समाज में ऐसे बहुत लोग है जिनकी शादी ही नहीं होती है । ऐसे कई लोग है जिनकी शादी तो होती है किंतु किसी कारणवश सम्बन्ध विच्छेद ( Divorce) हो जाता है और पूरी जिंदगी अकेले व्यतीत करना पड़ता है। कई लोग दूसरी शादी भी ( Second Marriage ) कर लेते है । शादी का न होना तथा शादी का देर से होना दोनों में बहुत अंतर है आज हम इस लेख में शादी के देर होने के कारण तथा कब और किस दशा अन्तर्दशा में होगी की चर्चा करने वाले है।

शादी में देर होने का मुख्य कारण

उच्च शिक्षा ग्रहण करना
नौकरी देर से करना
आर्थिक अभाव
कोई पारिवारिक समस्या
मनोनुकूल वर वा वधू की तलाश
प्यार-मोहब्बत के कारण शादी न करना
पाश्चात्यकरण का प्रभाव
घर में बहन की शादी में देर होने के कारण लड़का की शादी में देर होना
जन्मकुंडली में देर से शादी होने का योग
जन्मकुंडली में मांगलिक दोष का होना।

उपर्युक्त कारण, किसी न किसी तरह से विवाह बंधन को प्रभावित करता है ।वास्तव में आज के युवा वर्ग उच्च शिक्षा या मनोवांछित कैरियर बनाने के चक्कर में अधिक उम्र के हो जाने पर भी शादी नहीं करते है और परिणाम स्वरूप धीरे धीरे इतना विलम्ब हो जाता है कि मनोनुकूल वर या वधू ही नहीं मिल पाता है। उसके बाद जातक किसी ज्योतिषी से मिलता है और पूछता है मेरी शादी नहीं हो रही है इसका क्या कारण है शादी नहीं होने के प्रति कौन से ग्रह जिम्मेदार इत्यादि प्रश्नों की ऐसे बौछार हो जाती है जैसे ज्योतिषी ने शादी रोक रखी है।

ज्योतिषी जन्मकुंडली का ज्योतिषीय विश्लेषण करता है और विवाह में देर होने के लिए बाधक ग्रह दोष का विवेचन करता है तथा उसका समाधान भी बताता है । अंततः जातक यह स्वीकार करता है कि जीवन यात्रा में मेरे द्वारा समय को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया गया । अगर महत्त्व दिया गया होता तो उचित समय में शादी कर लेता।

ज्योतिषीय दृष्टिकोण से जब भी विवाह का योग बनता हैं, और किसी कारण से विवाह स्थगित हो जाता है तो फिर लड़का या लड़की की शादी में बहुत देर हो जाती है इसलिए यदि कोई ज्योतिषी यह बताता है की अभी विवाह का योग बन रहा है तो शादी कर लेना चाहिए अन्यथा देर तो होगी ही होगी इसमें कोई संदेह नहीं है।

किसी भी जातक के विवाह में देरी होने का एक कारण मांगलिक होना भी होता है। सामान्यतः मांगलिक लोगो के विवाह का योग 27, 29, 31, 33, 35 व 37वें वर्ष में बनते हैं। जिन युवक-युवतियों के विवाह में विलंब हो जाता है, तो जन्मकुंडली में स्थित ग्रहों की दशा अन्तर्दशा ज्ञात कर, विवाह का योग कब बन रहा हैं, जान सकते हैं और जातक को विवाह हेतु प्रयत्न तेज कर देनी चाहिए।

विवाह का भाव | Houses of Marriage

जन्म कुन्डली में सप्तम भाव विवाह, पत्नी, साझेदारी में कार्य इत्यादि का भाव माना जाता है। इसी भाव से विवाह तथा पति पत्नी के बीच कैसा सम्बन्ध रहेगा की जानकारी मिलती है। इस भाव को कलत्र भाव भी कहा जाता है। सप्तम भाव से ही विवाह तथा विवाह के समय का निर्धारण किया जाता है।

दुसरा भाव ( Second House) परिवार का भाव होता है अतः जब भी शादी होती है तो परिवार में एक फॅमिली मेंबर की बढ़ोतरी होती है इसलिए यह भाव भी विवाह के लिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

ग्यारहवा भाव ( Eleventh House) व्यक्ति की इच्छा पूर्ति का भाव होता है तथा यह भाव सप्तम से पंचम भाव है अतः यह भाव भी विवाह के लिए देखा जाता है।

प्रथम भाव ( First House) – यह भाव कुंडली में सबसे महत्त्वपूर्ण भाव होता है इस भाव का प्रतिनिधि व्यक्ति स्वयं करता है । सभी प्रकार के सुख यथा शादी, नौकरी आदि का उपभोग जातक स्वयं ही करता है अतः प्रथम भाव का सम्बन्ध जिस जिस भाव से होगा व्यक्ति अपने जीवन में उस भाव से समबन्धित सुख वा दुःख की प्राप्ति जरूर करेगा। यदि प्रथम भाव का सम्बन्ध कलत्र भाव से है तो जातक को पत्नी सुख की प्राप्ति अवश्य होगी।

जन्मकुंडली में विवाह सुख है या नहीं

विवाह का समय जानने से पहले यह जानना जरुरी होता है की जातक की जन्मकुंडली में विवाह का योग है या नहीं। यदि जन्मकुंडली में शादी का योग है तो निश्चित ही शादी होगी। यह जानने के लिए हमें कुंडली में निम्नलिखित योग देखना चाहिए।

सप्तम भाव पर शुभ ग्रहो यथा गुरु शुक्र आदि की दृष्टि हो तो अवश्य ही शादी होती है।
सप्तमेश लग्न में या लग्नेश सप्तम में हो तो शादी होती है।
सप्तम भाव का स्वामी केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हो।
सप्तमेश ग्यारहवे भाव ( लाभ भाव ) में हो तो शादी होती है।
सप्तम भाव का कारक ग्रह शुक्र पर अशुभ की दृष्टि या युति न हो तथा शुक्र ग्रह केंद्र अथवा त्रिकोण भाव में स्थित हो
सप्तमेश उच्च होकर लग्नेश से युति बना रहा हो.
नवमेश सप्तमेश हो और सप्तमेश नवम भाव में हो तो शादी होती है।

जन्मकुंडली में विवाह देर होने के कारण

जन्मकुंडली के विश्लेषण से जब यह निर्धारित हो जाता है की जातक के जीवन में विवाह सुख है तब यह देखना चाहिए की विवाह में देर होने का क्या कारण है। आइये यह जानते है की किसी भी व्यक्ति की कुंडली में किस प्रकार के ग्रह योग होने पर विवाह देर से होती है।

यदि आपकी कुंडली में मंगल प्रथम, चतुर्थ सप्तम तथा बारहवे भाव में स्थित हो तो विवाह में विलम्ब होता है।
यदि सप्तम भाव या भावेश पर किसी दो या तीन अशुभ ग्रहो की दृष्टि है तो विवाह विलम्ब से होता है।
यदि सप्तम भाव पर शनि की दृष्टि हो तो भी शादी देर से होती है।
यदि बारहवे भाव या भावेश पर शनि की दृष्टि या युति हो तो भी शादी देर से होती है।
जन्मकुंडली में मंगल, शनि, राहु-केतु और सूर्य को क्रूर ग्रह माना है। इनके अशुभ स्थिति में होने पर दांपत्य सुख मिलकर भी न मिला जैसा होता है।
सप्तम भाव में अशुभ ग्रह राहु केतु शनि सूर्य आदि हो तो विवाह में विलम्ब या सुख में कमी होती है
सप्तमाधिपति द्वादश भाव में हो और राहू लग्न में हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा होना संभव है।
सप्तम भावस्थ राहू युक्त द्वादशाधिपति से वैवाहिक सुख में कमी होना संभव है।
यदि सप्तमेश बारहवे भाव में हो तथा बारहवे भाव का स्वामी सप्तम स्थित हो और किसी तरह से शनि या राहु ग्रह से सम्बन्ध बना रहा हो तो जातक का विवाह देर से होता है तथा विवाह सुख में कमी भी होती है।
यदि राहू – केतु तथा शनि की युति हो तो दांपत्य सुख में कमी के साथ ही अलगाव भी उत्पन्न होता है।
सप्तमेश छठे, अष्टम या द्वादश भाव में हो या षष्ठेश अष्टमेश तथा द्वादशेश के साथ सप्तमेश या सप्तम भाव का सम्बन्ध हो और यदि शुक्र ग्रह भी सम्मलित हो तो क्या कहाँ निश्चित ही वैवाहिक सुख में कमी होती है।

कैसे करे विवाह के समय का निर्धारण | Timing of Marriage

ज्योतिषी के लिए किसी भी घटना के लिए समय का निर्धारण करना चुनौती भरा कार्य होता है। यही कारण है की आज ज्योतिषी फलादेश कम उपाय ज्यादा बताते है खैर इस बात से क्या मतलब आज हम आपको विवाह का समय निर्धारण कैसे करते है इसका टिप्स देने का प्रयास करने जा रहे है। नवरात्रि में महागौरी की पूजा से दूर करें वैवाहिक बाधाएं

जन्मकुंडली में सप्तमेश की महादशा-अंतर्दशा चल रही हो तो उस समय शादी होने के प्रबल चांस होते है।
विवाह कारक ग्रह शुक्र या गुरु की महादशा-अंतर्दशा में भी विवाह का योग बनता है।
सप्तम भाव में स्थित ग्रह या सप्तमेश के साथ बैठे ग्रह की महादशा-अंतर्दशा में भी विवाह संभव होता है।
शुक्र चंद्रमा की महादशा मे जब देवगुरू का अंतर आए तो विवाह होने के चांस होते हैं।
यदि कुंडली में शुक्र ग्रह से अन्य कोई ग्रह जो किसी न किसी रूप में सप्तम भाव या भावेश से सम्बन्ध बना रहा हो तो ऎसे ग्रह की महादशा में शादी होती है।
जब एक साथ द्वितीयेश, सप्तमेश तथा एकादशेश की दशा अन्तर्दशा या प्रत्यन्तर दशा आये तथा गोचर में
सप्तम भाव से सम्बन्ध बन रहा हो तो शादी होगी ऐसा समझना चाहिए
नवांश के लग्नेश या सप्तमेश या लग्नस्थ ग्रह या सप्तमस्थ ग्रह की दशा अन्तर्दशा में भी शादी होती ऐसा जानना चाहिए।
गोचर में जिस साल सप्तम भाव पर गुरु तथा शनि का डबल गोचर बन रहा हो तो समझना चाहिए की विवाह का योग बन रहा है।
लग्नेश, जब गोचर में सप्तम भाव की राशि में आए अथवा सप्तम भाव, भावेश से युति या दृष्टि सम्बन्ध स्थापित करे तो भी शादी का योग बनता है।
जन्मकुंडली में लग्न, चंद्र लग्न एवं शुक्र लग्न से सप्तमेश, सप्तमस्थ वा सप्तम को देखने वाले ग्रह की दशा-अंतर्दशा चल रही है तो भी शादी होती है।
जन्मकुंडली में राहु की दशा चल रही हो तो भी शादी होने के प्रबल चांस होते है।

जीवनसाथी कैसा होगा

आपका जीवनसाथी कैसा होगा का विचार मुख्य रूप से सप्तम भाव के स्वामी तथा उस भाव में स्थित ग्रह के आधार पर करना चाहिए। जन्मकुंडली में सप्तमेश चतुर्थ, पंचम, नवम अथवा दशम भाव में हाने पर जीवन साथी निश्चित ही अच्छे परिवार से सम्बन्ध रखने वाला होगा तथा सामान्यतः वैवाहिक जीवन भी सुख पूर्वक व्यतीत होता है। यदि सप्तमेश उच्च होकर केंद्र या त्रिकोण भाव में स्थित है तो आपका जीवन साथी शिक्षित धनवान तथा मान सम्मान से युक्त होगा।

आपके जीवनसाथी की आर्थिक स्थति

यदि चतुर्थ भाव के स्वामी केन्द्रभाव के स्वामी के साथ युति या दृष्टि सम्बन्ध बनता है तो जीवनसाथी व्यवसायी हो सकता है।
इसी प्रकार अगर सप्तमेश, दूसरे, पंचम, नवम, दशम या एकादश भाव में हो और सप्तमेश चन्द्र, बुध या शुक्र हो तो जीवनसाथी व्यापारी होगा।
यदि आपकी जन्म कुण्डली में चतुर्थ भाव का स्वामी दूसरे अथवा बारहवे भाव में है तो जीवनसाथी नौकरी करने वाला होगा।
यदि सप्तमेश तथा चतुर्थेश नवमांश में उच्च या स्वराशि में हो तथा एक दूसरे से युति या दृष्टि सम्बन्ध बना रहा हो तो जीवनसाथी नौकरी करने वाला, तथा उच्चपद पर कार्य करने वाला होता है।
यदि चतुर्थेश अथवा चतुर्थ भाव से शनि का सम्बन्ध बन रहा हो तो आपका जीवनसाथी नौकरी करने वाला होगा।
कुण्डली में अगर राहु केतु सप्तम भाव में हो अथवा सप्तमेश षष्टम, अष्टम, द्वादश में हो साथ ही नवमांश कुण्डली में भी कमज़ोर हो तो जीवनसाथी समान्य नौकरी करने वाला होता है ।
[कैसा होगा पति अथवा पत्‍नी : सातवें भाव में स्थित ग्रह का फल

ज्‍योतिष के अनुसार किसी भी जातक के जीवनसाथी के बारे में मोटे तौर पर जानकारी मिल सकती है। ऐसा नहीं है कि केवल पुरुष की जातक कुण्‍डली देखकर ही उसकी पत्‍नी के बारे में सबकुछ बताया जा सकता हो या स्‍त्री की कुण्‍डली देखकर उसके पति के बारे में, लेकिन एक मोटा अनुमान लगाया ही जा सकता है। कम से कम इतना स्‍पष्‍ट होता है‍ कि जातक का उसके जीवनसाथी से कैसा निबाह होगा।

ज्‍योतिष में इसके लिए सप्‍तम भाव को देखा जाता है। सातवां भाव ही बताता है कि पत्‍नी का स्‍वभाव कैसा होगा, पत्‍नी के साथ जातक का स्‍वभाव कैसा होगा, शारीरिक विशेषताएं और चारित्रिक गुणों के बारे में भी कुछ उथली जानकारी मिल सकती है। हालांकि विवाह के लिए अधिकतर मेलापक यानी नक्षत्र के आधार पर गुण मिलान और मंगल दोष ही प्रमुखता से देखा जाता है, लेकिन अगर सातवें भाव का विशेष ख्‍याल रखा जाए तो सर्वश्रेष्‍ठ चुनाव किया जा सकता है।

इसे लेख में हम जानेंगे कि परंपरागत भारतीय ज्‍योतिष के अनुसार सप्‍तम भाव में कोई ग्रह हो तो उसका जातक के दांप‍त्‍य जीवन पर क्‍या प्रभाव रहेगा।

तिरस्‍कार कराता है सूर्य

स्त्रीभिःगतः परिभवः मदगे पतंगे (आचार्य वराहमिहिर)

जन्म लग्न से सप्तम में सूर्य स्थित हो तो पुरुष को स्त्रियों का तिरस्कार प्राप्त होता है। हालांकि सूत्र के अनुसार केवल पुरुष जातक के लिए ही कहा गया है, लेकिन देखने में ऐसा आता है कि अगर स्‍त्री जातक की कुण्‍डली में भी सप्‍तम का सूर्य हो तो स्‍त्री को अपने पति का तिरस्‍कार झेलना पड़ता है। ऐसे जातकों के जीवनसाथी कई बार भरी सभा में या बाजार में भी जातकों को अपमानित कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि उनका अपमान करने का इरादा होता है, लेकिन अधिकांशत: ऐसी स्थितियां बन जाती हैं कि तिरस्‍कार अथवा अपमान हो जाता है।

सौम्‍य चन्द्रमा आसानी से वश में होता है

सौम्यो ध्रिश्यः सुखितः सुशरीररः कामसंयुतोद्दूने।

दैन्यरुगादित देहः कृष्णे संजायते शशिनि।। – (चमत्कार चिन्तामणि)

सप्तम भाव मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य नम्र विनय से वश में आने वाला सुखी, सुन्दर और कामुक होता है। अगर यही चन्द्रमा बलहीन हो तो मनुष्य दीन और रोगी होता है।

कठोर जीवनसाथी देता है मंगल

स्त्रियाँ दारमरणं नीचसेवनं नीच स्त्री संगमः।

कुजेतिसुस्तनी कठिनोर्ध्व कुचा।। – (पाराशर)

सप्तम मंगल की स्थिति प्रायः आचार्यों ने कष्ट कर बताया सप्तम भाव में भौम होने से पत्नी की मृत्यु होती है। नीच स्त्रियों से कामानल शांत करता है। स्त्री के स्तन उन्नत और कठिन होते हैं। जातक शारीरिक दृष्टि से प्रायः क्षीण, रुग्ण, शत्रुवों से आक्रांत तथा चिंताओं में लीं रहता है।

सुंदर स्‍त्री देता है सप्‍तम का बुध

बुधे दारागारं गतवति यदा यस्य जनने।

त्वश्यं शैथिल्यं कुसुमशररगोत्सविधौ।।

मृगाक्षिणां भर्तुः प्रभवति यदार्केणरहिते।

तदा कांतिश्चंचत् कनकस द्रिशीमोहजननी।।

– (जातक परिजात)

जिस मनुष्य के जन्म समय मे बुध सप्तम भाव मे हो वह अत्यन्त सुन्दर और मृगनयनी स्त्री का स्वामी होता है यदि बुध अकेला हो तो मन को मोहित करने वाली सुवर्ण के समान देदीप्यमान कान्ति होती है। वह सम्भोग में अवश्य शिथिल होता है। उसका वीर्य निर्बल होता है।

विदूषी अर्धांगिनी देता है वृहस्‍पति

शास्त्राभ्यासीनम्र चितो विनीतः कान्तान्वितात्यंतसंजात सौष्ठयः।

मन्त्री मर्त्यः काव्यकर्ता प्रसूतो जायाभावे देवदेवाधिदेवः।

जिस जातक के जन्म समय में जीव सप्तम भाव में स्थित हो वह स्वभाव से नम्र होता है। अत्यन्त लोकप्रिय और चुम्बकीय व्यक्ति का स्वामी होता है उसकी भार्या सत्य अर्थों में अर्धांगिनी सिद्ध होती है तथा विदुषी होती है। इसे स्त्री और धन का सुख मिलता है। यह अच्छा सलाहकार और काव्य रचना कुशल होता है।

पर‍स्‍त्री में आसक्‍त करता है शुक्र

भवेत किन्नरः किन्नराणां च मध्ये।।

स्वयं कामिनी वै विदेशे रतिः स्यात्।

यदा शुक्रनामा गतः शुक्रभूमौ।। (चमत्कारचिंतामणि)

जिस जातक के जन्म समय में शुक्र सप्तम भाव हो उसकी स्त्री गोरे रंग की श्रेष्ठ होती है। जातक को स्त्री सुखा मिलता है गान विद्द्या में निपुण होता है, वाहनों से युक्त कामुक एवं परस्त्रियों में आसक्त होता है विवाह का कारक ग्रह शुक्र है। सिद्धांत के तहत कारक ग्रह कारक भाव के अंतर्गत हो तो स्थिति को सामान्य नहीं रहने देता है इसलिए सप्तम भाव में शुक्र दाम्पत्य जीवन में कुछ अनियमितता उत्पन्न करता है ऐसे जातक का विवाह प्रायः चर्चा का विषय बनता है।

दुखी करता है शनि

शरीरदोषकरः कृशकलत्रः वेश्या संभोगवान् अति दुःखी।

उच्चस्वक्षेत्रगते अनेकस्त्रीसंभोगी कुजयुतेशिश्न चुंवन परः।। -(भृगु संहिता)

सप्तम भाव में शनि का निवास किसी प्रकार से शुभ या सुखद नहीं कहा जा सकता है। सप्तम भाव में शनि होने से जातक का शरीर दोष युक्त रहता है। (दोष का तात्पर्य रोग से है) उसकी पत्नी क्रिश होती है जातक वेश्यागामी एवं दुखी होता है। यदि शनि उच्च गृही या स्वगृही हो तो जातक अनेक स्त्री का उपभोग करता है यदि शनि भौम से युक्त हो तो स्त्री अत्यन्त कामुक होती है उसका विवाह अधिक उम्र वाली स्त्री के साथ होता है।

दो विवाह की आशंका बनाता है राहू

प्रवासात् पीडनं चैवस्त्रीकष्टं पवनोत्थरुक्।

कटि वस्तिश्च जानुभ्यां सैहिकेये च सप्तमे।। -(भृगु सूत्र)

जिस जातक के जन्म समय मे राहु सप्तम भावगत हो तो उसके दो विवाह होते हैं। पहली स्त्री की मृत्यु होती है दूसरी स्त्री को गुल्म रोग, प्रदर रोग इत्यादि होते हैं। एवं जातक क्रोधी, दूसरों का नुकसान करने वाला, व्यभिचारी स्त्री से सम्बन्ध रखने वाला गर्बीला और असंतुष्ट होता है।

जातक का अपमान कराता है केतू

द्दूने च केतौ सुखं नैव मानलाभो वतादिरोगः।

न मानं प्रभूणां कृपा विकृता च भयं वैरीवर्गात् भवेत् मानवानाम्। – (भाव कौतुहल)

यदि सप्तम भाव में केतु हो तो जातक का अपमान होता है। स्त्री सुख नहीं मिलता स्त्री पुत्र आदि का क्लेश होता है। खर्च की वृद्धि होती है रजा की अकृपा शत्रुओं का डर एवं जल भय बना रहता है। वह जातक व्यभिचारी स्त्रियों में रति करता है।
[ शीतपित्त..पित्त उछलना (Urticaria)..

शीतपित्त पेट की गड़बड़ी तथा खून में गरमी बढ़ जाने के कारण होता है-वैसे साधारणतया यह रोग पाचन क्रिया की खराबी, शरीर को ठंड के बाद गरमी लगने, पित्त न निकलने, अजीर्ण, कब्ज, भोजन ठीक से न पचने, गैस और डकारें बनने तथा एलोपैथी की दवाएं अधिक मात्रा में सेवन करने से भी हो जाता है।
कुछ घरेलू उपाय..
1.एक चम्मच त्रिफला चूर्ण शहद में मिलाकर कुछ दिनों तक सेवन करें।
2.भोजन के बाद 6 माशा हरिद्राखण्ड को दूध के साथ सेवन करें|
3.10 ग्राम गुड़ में एक चम्मच अजवायन तथा 10 दाने पीपरमेंट मिलाकर सेवन करें|
4.पांच -दस ग्राम चिरौंजी की गिरी को खाने से तथा चिरौंजी को दूध में पीसकर मालिश करने से शीतपित्त में लाभ होता है |
5.चमेली के तेल में नीबू के रस को मिलाकर पीड़ित अंग की मालिश करने से लाभ मिलता है।
6.अकरकरा को कूट-पीसकर चूर्ण बना लें। इसे 3 ग्राम की मात्रा में पानी के साथ खाने से शीत पित्त का विकार दूर होता है।
7.रोगियों को हल्दी , मिश्री और शहद इन तीनों को मिलाकर रात को खाने से पित्ती की
शिकायत दूर हो जाती है ।
8.आंवले के चूर्ण में गुड़ मिलाकर खाने से गरमी के कारण उछली पित्ती ठीक हो जाती है|
9.इस रोग से पीड़ित व्यक्तियों को खट्टे पदार्थो जैसे दही आदि का प्रयोग नही करना चाहिए ।
रोगी को कड़वे पदार्थ या कड़वी सब्जियों का सेवन अधिक से अधिक करना चाहिए |
10.अलसी के तेल में कपूर डालकर किसी शीशी में मिलाकर इस तेल से मालिश करे जल्दी ही आराम आता है।
11.एक ग्राम कालीमिर्च का चूर्ण तीन-चार ग्राम देशी घी के साथ लेने से शीतपित्त (एलर्जी) में लाभ होता है।
12.पित्ती की बीमारी को जड़ से नष्ट करने के लिए रोगी गेहूँ के आटा दो चम्मच , एक चम्मच
हल्दी और थोड़ा सा घी मिलाकर इसका हलुआ तैयार कर ले । इस तैयार हलुए को ठंडा करने
के बाद खाए और इसके बाद गर्म दूध पी ले ।

इस रोग में कब्ज पैदा करने वाले गरिष्ठ पदार्थ बिलकुल न खाएं| पुराने चावल, जौ, मूंग की दाल, चना आदि लाभकारी हैं| प्याज, लहसुन, अंडा, मांस, मछली आदि शीतपित्त में नुकसान पहुंचाते हैं, अत: इनका भी सेवन न करें|
[ कटी प्याज के नुकसान
जरूर पढ़ें

मानो या ना मानो यह पूर्णतया सत्य है.
देर से कटी प्याज का कभी उपयोग ना करें.
प्याज हमेशा तुरंत काट कर खाएं.
कटी रखी प्याज दस मिनिट में
अपने आस पास के सारे कीटाणु
अवशोसित कर लेती है.

यह वेज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है.

जब भी किसी मौसमी बीमारी का प्रकोप फैले
घर में सुबह शाम हर कमरें में
प्याज काट कर रख दें.
बाद में उसे फैंक दें.
सुरक्षित बने रहेंगें.

प्याज के संबध में महत्वपूर्ण जानकारी.

सन 1919 में फ्लू से चार करोड़ लोग
मारे जा चुके थे, तब एक डॉक्टर
कई किसानों से उनके घर इस प्रत्याशा में
मिला कि वो कैसे इन किसानों को
इस महामारी से लड़ने में
सहायता कर सकता है.
बहुत सारे किसान इस फ्लू से ग्रसित थे
और उनमें से बहुत से मारे जा चुके थे.

डॉक्टर जब इनमें से एक किसान के
संपर्क में आया तो उसे ये जान कर
बहुत आश्चर्य हुआ, कि सारे गाँव के
फ्लू से ग्रसित होने के बावजूद
ये किसान परिवार बिलकुल स्वस्थ्य था.
तब डॉक्टर को ये जानने की इच्छा जागी कि
ऐसा इस किसान के परिवार ने
सारे गाँव से हटकर क्या किया कि
वो इस भंयकर महामारी में भी
स्वस्थ्य थे.
तब किसान की पत्नी ने उन्हें बताया कि
उसने अपने मकान के दोनों कमरों में
एक प्लेट में छिली हुई प्याज रख दी थी
तब डॉक्टर ने प्लेट में रखी इन प्याज को
माइक्रोस्कोप से देखा तो उसे इस प्याज में
उस घातक फ्लू के बैक्टेरिया मिले जो
संभवतया इन प्याज द्वारा अवशोषित
कर लिए गए थे और शायद
यही कारण था कि
इतनी बड़ी महामारी में ये परिवार
बिलकुल स्वस्थ्य था, क्योंकि
फ्लू के वायरस इन प्याज द्वारा
सोख लिए गए थे.

जब मैंने अपने एक मित्र जो
अमेरिका में रहते थे और मुझे हमेशा
स्वास्थ्य संबधी मुद्दों पर
बेहद ज्ञानवर्धक जानकारी भेजते रहते हैं,
तब उन्होंने प्याज के संबध में बेहद महत्वपूर्ण
जानकारी/अनुभव मुझे भेजा. उनकी इस
बेहद रोचक कहानी के लिए धन्यवाद.

जब मैं न्यूमोनिया से ग्रसित था और कहने की आवश्यकता नहीं थी कि मैं बहुत कमज़ोर महसूस कर रहा था तब मैंने एक लेख पढ़ा था जिसमें ये बताया गया था कि प्याज को बीच से काटकर रात में न्यूमोनिया से ग्रस्त मरीज़ के कमरे में एक जार में रख दिया गया था और सुबह यह देख कर बेहद आश्चर्य हुआ कि प्याज सुबह कीटाणुओं की वज़ह से बिलकुल काली हो गई थी
तब मैंने भी अपने कमरे में वैसे ही किया और देखा अगले दिन प्याज बिलकुल काली होकर खराब हो चुकी थी और मैं काफी स्वस्थ्य महसूस कर रहा था.

कई बार हम पेट की बीमारी से दो चार होते है तब हम इस बात से अनजान रहते है कि इस बीमारी के लिए किसे दोषी ठहराया जाए. तब नि :संदेह प्याज को इस बीमारी के लिए दोषी ठहराया जा सकता है.

प्याज बैक्टेरिया को अवशोषित कर लेती है यही कारण है कि अपने इस गुण के कारण प्याज हमें ठण्ड और फ्लू से बचाती है.

अत: वे प्याज बिलकुल नहीं खाना चाहिए जो बहुत देर पहले काटी गई हो और प्लेट में रखी गई हों. ये जान लें कि …
काट कर रखी गई प्याज बहुत विषाक्त होती हैं.

जब कभी भी फ़ूड पॉइसनिंग के केस अस्पताल में आते हैं तो सबसे पहले इस बात की जानकारी ली जाती कि मरीज़ ने अंतिम बार प्याज कब खाई थी. और वे प्याज कहाँ से आई थीं ,
(खासकर सलाद में )

प्याज बैक्टेरिया के लिए
चुंबक की तरह काम करती हैं
खासकर कच्ची प्याज

आप कभी भी थोड़ी सी भी कटी हुई प्याज को देर तक रखने की गलती न करे ये बेहद खतरनाक हैं.

*यहाँ तक कि किसी बंद थैली में*

इसे रेफ्रिजरेटर में रखना भी सुरक्षित नहीं है.

प्याज ज़रा सी काट देने पर ये बैक्टेरिया से ग्रसित हो सकती है और आपके लिए खतरनाक हो सकती है. यदि आप कटी हुई प्याज को सब्ज़ी बनाने के लिए उपयोग कर रहें हो, तब तो ये ठीक है, लेकिन यदि आप कटी हुई प्याज अपनी ब्रेड पर रख कर खा रहें है तो ये बेहद खतरनाक है. ऐसी स्थिति में आप मुसीबत को न्योता दे रहें हैं. याद रखे कटी हुई प्याज और कटे हुए आलू की नमी बैक्टेरिया को तेज़ी से पनपने में बेहद सहायक होता है.
कुत्तों को कभी भी प्याज नहीं खिलाना चाहिए, क्योंकि प्याज को उनका पेट का मेटाबोलिज़ कभी भी नहीं पचाता.

कृपया ध्यान रखे कि …
प्याज को काट कर अगले दिन सब्ज़ी बनाने के लिए नहीं रखना चाहिए क्योंकि ये बहुत खतरनाक है यहाँ तक कि कटी हुई प्याज एक रात में बहुत विषाक्त हो जाती है क्योंकि ये टॉक्सिक बैक्टेरिया बनाती है जो पेट खराब करने के लिए पर्याप्त रहता है.

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[अंग्रेजो द्वारा कैसे विक्षिप्त किया वनवासी एकलव्य और गुरु द्रोण का इतिहास

धनुर्विद्या में सदा से यह नियम है कि प्रत्यंचा चढ़ाते समय उसमें अंगूठे का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। देखिए! ये बेटियॉं इस नियम का पालन बख़ूबी कर रही हैं।

धनुर्विद्या के महान विद्यार्थी ‘एकलव्य’ को यह ग़लती करते गुरु द्रोणाचार्य ने तब पहली बार देखा था, जब उसने अपने धनुष से वाण चलाकर कुत्ते का मुँह भर दिया था। एकलव्य अँगूठा का प्रयोग कर रहा था। इसीलिए कुत्ते का मुँह तो वाणों से भर गया था, लेकिन उससे ख़ून नहीं निकला था और कुत्ता मरा नहीं था, क्योंकि शर-संधान में मारक क्षमता नहीं थी।

यह सब देखकर उस समय के महानतम धनुर्धर गुरु द्रोणाचार्य को अपनी विद्या के दुरुपयोग की चिन्ता हुई। क्योंकि अंगूठे और मध्यमा उँगली के बीच दूरी अधिक होने के संधान के समय धनुर्धर की एकाग्रता भंग होती है, जब कि मध्यमा व तर्ज़नी के बीच प्राकृतिक दूरी होने के कारण निशाना सटीक बैठता है और उस संधान में मारक क्षमता अद्भुत होती है।

द्रोणाचार्य ने २-३ बार एकलव्य को समझाया और अंगूठे का इस्तेमाल न करने को कहा। पुराने अभ्यास के कारण एकलव्य से वह ग़लती बार-बार होती रही। तभी द्रोणाचार्य ने उससे कहा था- “एकलव्य! तुमने मुझे गुरु माना है, यदि तुममें ज़रा सी भी श्रद्धा गुरु में है तो तुम यह मानकर उँगलियों का प्रयोग करो कि तुम्हारे हाथ में अँगूठा है ही नहीं और अपना अँगूठा तुमने गुरुदेव को दे दिया है।” उसके बाद एकलव्य से वह ग़लती नहीं हुयी।

कालान्तर में झूठा इतिहास लिखकर यह प्रचारित कर दिया गया कि गुरु द्रोण ने शिष्य एकलव्य का अँगूठा कटवा लिया था। अनेक वक़्ता-प्रवक्ता और सन्त-महंत भी सदियों से यही कहानियाँ मंचों से सुनाते रहे हैं और यह मिथ्या सच स्थापित हो गया है। ऐसे भ्रामक तथ्य और उनका सही स्वरूप आज की स्थितियों में समाज-देश के सम्मुख लाने की महती आवश्यकता है।

ऐसी सैकड़ों ग़लतियाँ बीते १५० साल के हमारे इतिहास में हुई हैं, जिनका परिमार्जन यानी सुधार करना देश की एकता एवं समरस्ता के लिए बेहद ज़रूरी है। क्या कोई विद्वान, लेखक, कवि, प्रकाशक और धनाड्य देशवासी ऐसी भयंकर ग़लतियों के सुधार के लिए आगे आएँगे?

वास्तव में यह सेवा भीतर से तेज़ी से कमज़ोर होते जा रहे अपने राष्ट्र की भारी सेवा होगी। इस पोस्ट के प्रेरक भारतवर्ष के महान अन्तरिक्ष वैज्ञानिक एवं वेदज्ञाता डॉ. ओम प्रकाश जी पाण्डेय के प्रति हार्दिक साधुवाद।
[“विदेशी विद्वान एवं दार्शनिकोंके सनातन वैदिक हिंदु धर्म के बारे मे अनमोल विचार “

यह लेख उन अनपढ़ मूर्खों के लिए है , जो जमीनी इतिहास के बजाय मनुस्मृति में शोषण ढूढ़ कर कुंठित रहते है ।

चन्द्रगुप्त 2nd के काल मे इस देश मे आया फाह्यान उसने लिखा कि , ‘यहां की अधिकतर जनसंख्या बहोत धनी और नैतिक रूप से उच्च है , ज्यादातर लोग शाकाहारी है और प्याज़ को भोजन में अवॉयड करते है । भारत के लोग धनी , उदार , खुश , और नैतिक है ।
फाह्यान ने भारतीयों के सदाचार और परोपकारी वृत्ति की बहुत प्रशंसा की है । उसने लिखा है कि भारतीय सात्विक भोजन करते हैं, प्याज – लहसुन तक नहीं खाते, मांसाहार और मदिरापान करने का तो प्रश्न ही नहीं, इसलिए बाजार में मांस की दुकानें और मदिरालय नहीं हैं । टैक्स बहुत कम थे। जो किसान राजकीय भूमि को जोतते थे, उन्हें ही अपनी उपज का एक अंश लगान के रूप में देना होता था । न्याय सर्वसुलभ था ।”

स्विस लेखक लैण्डर्स्टोन ने लिखा है –
‘समुद्र में जाने के अनेक रास्ते एवं माध्यम हैं पर उद्देश्य केवल एक ही था- चमत्कारिक देश भारत पहुँचना, जो देश धन से लबालब भरा है।’

अँग्रेजी लेखक शेक्सपीयर (1564-1616 ई.) ने भारत भूमि को विश्व के लिये महान अवसरों की चरम सीमा कहा है ।

फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान क्रूजर ने भारत के बारे
में कहा था ,
”यदि पृथ्वी पर कोई ऐसा देश है,जो स्वयं को
मानव जाति का पालना होने की घोषणा करने
का अधिकारी है अथवा प्रारंभिक सभ्यता का
द्रष्टा है, जिसकी सभ्यता की किरणों ने प्राचीन विश्व के
सभी भागों को आलोकित किया है,
जिसने ज्ञान के वरदान से मनुष्य को द्विज बनाया है,प्राकृत से संस्कृत किया है,तो वह देश वास्तव
में भारतवर्ष है।’

क्यू कुरुफर्ड ने 1790 ई. में लिखा,,
”भारत न केवल मिस्र या ग्रीस की कलाओं तथा विज्ञान का मूल स्थान,बल्कि एक सुसंस्कृत तथा
सभ्य राष्ट्र था।’
(देखें,सेकेचिंग चीफली रीलेटिंग टू द हिस्टोरिक लर्निंग्स एण्ड मैनर्स ऑफ द हिन्दूज, लंदन 1790,
पृ. 71-74)।

विलियम हौजेस ने 1780-83 ई. के दौरान अपनी भारत यात्रा में भारत की स्थापत्य तथा मूर्तिकला की अत्यधिक प्रशंसा की है।
(ट्रेवलर्स इन इंडिया ड्यूरिंग द ईयर्स 1780-83, लंदन, 1793)

एडेनवर्ग में स्काटलैंड विश्वविद्यालय के ब्रिटिश इतिहासकार राबर्ट्सन ने भारतीय कानूनों की
भरपूर प्रशंसा कर इन्हें विश्व के राष्ट्रों की न्यायिक व्यवस्थाओं में एक अत्यंत सभ्य राष्ट्र बतलाया
(ऐन हिस्टोरिकल डिस्क्यूशन कन्सर्निंग द नॉलेज
विद द ऐन्सेंट इंडिया, लंदन 1791)

फ्रांस के नोबल पुरस्कार विजेता दार्शनिक रोमां
रोला ने विश्व में हिन्दू धर्म दर्शन को सर्वश्रेष्ठ माना है।
उन्होंने लिखा,
”मैंने यूरोप और मध्य एशिया के सभी मतों का अध्ययन किया है,परंतु मुझे उन सब में हिन्दू
धर्म ही सर्वश्रेष्ठ दिखाई देता है …
मेरा विश्वास है कि इसके सामने एक दिन समस्त जगत को झुकना पड़ेगा।
पृथ्वी पर केवल एक स्थान है जहां के जीवित व्यक्तियों ने प्राचीन काल में अपने स्वप्नों को
साकार किया,वह है भारत।
(प्रोफेट्स ऑफ द न्यू इंडिया, प्रील्यूड, पृ. 51)

प्रो. हीरेन ने माना,भारत ज्ञान तथा धर्म का स्रोत है।
न केवल एशिया के लिए,बल्कि संपूर्ण पाश्चात्य जगत के लिए।
(हिस्टोरिकल रिसर्चेज, भाग दो, पृ. 45)

10वीं शताब्दी में विदेशी यात्री अलबरुनी ने भारत की वैज्ञानिक प्रगति का वर्णन किया । 11वीं शताब्दी में सईद-उल-अन्दुली ने अपनी पुस्तक ‘तबकाते-उल-उमाम’ में आठ देशों का वर्णन किया जिसमें भारत को वैज्ञानिक दृष्टि से प्रथम बतलाया है।

शल्य चिकित्सा जिसके प्रणेता महर्षि धन्वंतरि
तथा सुश्रुत माने जाते हैं।

जर्मनी के विद्वान थोरवाल्ड ने जिन्होंने सर्जरी
पर कई ग्रंथ लिखे।
उन्होंने अपने एक ग्रंथ ‘साइंस एण्ड सीक्रेट्स ऑफ अर्ली मेडिसन इजिप्ट मेसोपोटामिया,इंडिया एण्ड चाइना (1962)’ में धन्वंतरि की सर्जरी संबंधी शिक्षाओं का वर्णन किया है।

एलोपैथी में कुछ लोग हारवे (1578-1657 ई.)
को रक्त प्रवाह सिद्धांत का जनक मानते हैं जो
भारत में 800 वर्ष ई. पूर्व से ज्ञात था।

फिलाडोफिया के डॉ. जार्ज क्लार्क ने आचार्य चरक के अध्ययन के पश्चात आधुनक चिकित्सकों को चरक का मार्ग अपनाने की सलाह दी जो विश्व के लिए अधिक लाभकारी होगा।

आज सभी गणित को भारत की देन मानते हैं।
नक्षत्र विद्या में आर्यभट्ट,भास्कर तथा वराहमिहिर
के मूल सिद्धांतों को स्वीकारा जाता है।
यह सत्य है कि वर्तमान में अणु हथियारों के संग्रह
की होड़ है तथा विश्व में अशांति तथा परस्पर कटुता बढ़ रही है।
इस हालत में अनेक विदेशी चिंतक इसके समाधान
के लिए भारत की ओर निहार रहे हैं।
अर्नाल्ड टायनवी का कथन है,,
”यह बिलकुल स्पष्ट होता जा रहा है कि जिस अध्याय का अंत भारतीय उपसंहार में ही होगा,जिसका प्रारंभ पाश्चात्य है।
यदि मानवजाति का आत्मविनाश में अंत न होता
हो तो यहां (भारत में) हमारे पास वह दृष्टिकोण
और भावना है जिससे मानवजाति के लिए एक परिवार के रूप में विकास की संभावना है और
इस आण्विक युद्ध में सर्वनाश से बचने का
एकमात्र विकल्प है।”
प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आईंस्टीन,जो गीता के
मर्मज्ञ भी थे, ने कहा,,

”विज्ञान के नए-नए संशोधन मानव के मन को
जो शांति चाहिए और समाधान चाहिए,नहीं दे
सकते।
ऐसी अंत:शांति संशोधनों में नहीं है।
सचमुच यदि शांति चाहते हैं तो आपको पूरब
की ओर देखना पड़ेगा,विशेष तौर पर भारत
की ओर।
प्रत्यक्ष प्रमाण है कि अणु बम के निर्माता राबर्ट ओपेनहायर को नागासाकी और हिरोशिमा के
विनाश से शांति नहीं आई,बल्कि गीता के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक से उन्हें शांति मिली।
इसी भांति अलेक्जेण्डर डो ने तीन भागों में ‘हिस्ट्री ऑफ हिन्दुस्तान’ लिखी।

यदि हम अध्यात्म संस्कृति,धर्म तथा दर्शन के क्षेत्रों
का संक्षिप्त अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि विदेश के अनेक विद्वानों ने भक्ति भावना से भारत का वर्णन किया है।

जर्मनी में बोन विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध दार्शनिक
प्रो. श्लेगल ने अपने ग्रंथ ‘हिस्ट्री ऑफ लिटरेचर’ में लिखा,,

”यूरोप का सर्वोच्च दर्शन बौद्धिक अध्यात्मवाद,
जो यूनानी दार्शनिकों से प्रारंभ हुआ,
प्राच्य अध्यात्मवाद के अनन्त प्रकाश एवं प्रखर
तेज के सम्मुख ऐसा प्रतीत होता है जैसे मध्याह्न
के प्रखर सूर्य के भरपूर तेज के सम्मुख एक मन्दाग्नि चिंगारी हो जो धीरे-धीरे टिमटिमा रही हो और जो किसी भी समय बुझ सकती है।”

अमरीका के विश्वप्रसिद्ध विद्वान विल डयूरेंट ने भारत के अध्यात्म से भावविभोर हो लिखा,,

”हे भारत! तू इससे पहले कि पश्चिम अपनी घोर नास्तिक और भोगवादी सभ्यता से निराश हो,शांति के लिए तरसता हुआ,तुम्हारी शरण में आये,कहीं
भूल से अपनी लंबी राजनीतिक पराधीनता के
लिए अपने श्रेष्ठ अध्यात्म को ही दोषी मानकर
अपने घर को फूंक मत डालना’।
(देखें, स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन)

अँग्रेजी कवि मिल्टन (1608-1674 ई.) ने विभिन्न देशों की विशेषता बताते हुए भारत के धन की चर्चा की है।

जर्मन दार्शनिक हेगेल (1770-1831 ई.) ने भारत को मनोकामना की भूमि बताया है। यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक यूरोपीय जातियाँ भारत आने के लिये सदैव लालायित रहती थीं।

Professor Wilson Mills :
History of India,Vol.II, Page 106
“वर्तमान खगोल विज्ञान के कई सटीक अवलोकन हिन्दू खगोलविदों के प्राचीन विज्ञान में अत्यधिक विश्वसनीय पद्धति से सबूतों सहित दर्शाए गए हैं।
२) R.A.S. of Great Britain and Ireland :- Vol. II Page 138,139
भारत के प्राचीन खगोल विज्ञान में ब्राह्मणों ने
अदभुत निश्चितता के साथ परिणाम प्राप्त किए हैं।
अंग्रेजों द्वारा लिखे हुए कई ऐसे ही कुछ अन्य उदाहरण प्रस्तुत चित्र में दिए गए हैं,
जिन्हें पचाने में “प्रगतिशीलों-सेकुलरों और वामपंथियों” को काफी दिक्कत होगी,
क्योंकि प्रगतिशीलता का अर्थ होता है भारत की सभी प्राचीन बातों,परम्पराओं,पद्धतियों,ग्रंथों आदि की खिल्ली उड़ाना।
लेकिन उनके दुर्भाग्य से स्वयं अंग्रेज ही अपने हाथों से कई स्थानों पर लिख गए हैं कि प्राचीन भारत का खगोल विज्ञान अत्यंत उन्नत था और उनकी काल गणना सटीक थी।

प्रसिद्ध इस्लामिक काल इतिहास के विशेषज्ञ किशोरी शरण लाल जी (1920–2002) के अनुसार ,
सन् 1000 ई से 1535 ई तक भारत मे हिन्दुओ की संख्या में 8 करोड़ तक कमी आई थी , यह विश्व इतिहास का सबसे बड़ा नर संघार था जो कि स्पेनिश और पुर्तगीज द्वारा नेटिव अमेरिकन के नरसंहार से कही ज्यादा बड़ा था ।

उसके बाद भी 1750 ई तक भारत पूरी दुनिया का लगभग 25% जीडीपी का हिस्सेदार था , वहीं ब्रिटिश और अमेरिका दोनों मिलकर मात्र 1.8% जीडीपी के हिस्सेदार थे । लेकिन 1900 AD आते आते भारत सिर्फ मात्र 2% जीडीपी का हिस्सेदार बचा , और ब्रिटेन और अमरीका का 43% जीडीपी के हिस्सेदार हो गए ।

अमरीकी इतिहासकार मैथ्यू वाईट ने ‘द ग्रेट बुक ऑफ़ हॉरिबल थिंग्स’ के नाम से एक पुस्तक लिखी थी , जिसमें उन्होंने इतिहास की सौ भयानक रक्तपातों की समीक्षा पेश की है, इस पुस्तक में उन्होंने इतिहास की चौथी भयानक रक्तपात ब्रिटिश दौर में भारत में आने वाला अकाल है, जिनमें वाईट के मुताबिक़ दो करोड़ 66 लाख भारतीयों की जानें ख़त्म हुई ।

इस संख्या में वाईट ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बंगाल में आने वाले अकाल की गिनती नहीं की , जिसमें 30 से 50 लाख के क़रीब लोग मारे गए थे ।

अगर इस अकाल को भी शामिल कर लिया जाए तो ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश सरकार के दौरान तीन करोड़ के क़रीब भारतीय अकाल के कारण जान से हाथ धो बैठे ।

भारत की गिनती दुनिया की सबसे उपजाऊ इलाक़ों में होती थी और अब भी होती है, फिर इतने लोग क्यों भूखों मर गए?

वाईट ने इन अकालों की वजह ‘व्यापारिक शोषण’ बताया है. इसके विवरण के लिए हम सिर्फ़ एक अकाल का ज़िक्र करते हैं जो 1769 में बंगाल में ही आया था ।

टाईम्स ऑफ़ इंडिया का 16 नवम्बर 1943 का कतरन : ‘पूर्वी बंगाल में एक भीषण मगर आम दृश्य ये था कि आधी सदी की सबसे शानदार फ़सल के दौरान पड़ा हुआ गला-सड़ा कोई इंसानी ढ़ांचा नज़र आ जाता था.’
साहिर लुधियानवी ने इस अकाल पर नज़्म लिखी थी, जिसके दो शेर —

पचास लाख फ़सुर्दा, गले सड़े ढांचे
निज़ाम-ए-ज़र के ख़िलाफ़ एहतजाज करते हैं
ख़ामोश होंटों से, दम तोड़ती निगाहों से
बशर बशर के ख़िलाफ़ एहतजाज करते हैं ।

अकाल तो प्राकृतिक आपदा के श्रेणी में आते हैं , इसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी का क्या क़सूर?

प्रसिद्ध दार्शनिक विल ड्यूरान्ट इस बारे में लिखते हैं :

‘भारत में आने वाले ख़ौफ़नाक अकालों की बुनियादी वजह बेरहमी से किए गए शोषण, संसाधन के असंतुलित आयात और ठीक अकाल के दौरान क्रूर तरीक़ों से मंहगे टैक्सों की वसूली थी कि भूख से हलाक होते किसान उन्हें अदा नहीं कर सकते थे… सरकार मरते हुए लोगों से भी टैक्स वसूल करने पर तुली रहती थी । ‘

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने इसी तरफ़ इशारा करते हुए कहा था :

‘इसमें कोई शक नहीं कि ब्रिटेन सरकार के ख़िलाफ़ हमारी शिकायतों की ठोस आधार मौजूद है… 1700 में भारत अकेला दुनिया की 22.6 फ़ीसद दौलत पैदा करता था, जो तमाम यूरोप के समग्र हिस्से के तक़रीबन बराबर थी. लेकिन यही हिस्सा 1952 में घिर कर 3.8 फ़ीसद रह गया. 20वीं शताब्दी के आगाज़ पर ‘ताज-ए-ब्रितानिया का सबसे नायाब हीरा’ हक़ीक़त में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से दुनिया का सबसे गरीब देश बन गया था ।

प्रशंसनीय अनुमान अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ और पत्रकार मेहनाज़ मर्चेन्ट की रिसर्च है …. इनके मुताबिक़ 1757 से लेकर 1947 तक अंग्रेज़ों के हाथों भारत को पहुंचने वाले आर्थिक नुक़सान की कुल रक़म 2015 के फ़ॉरेन एक्सचेंज के हिसाब से 30 खरब डॉलर बनती है ।
यहां आपको पता होना चाहिए कि केवल दिल्ली से ही एक समय नादिरशाह ने 143 अरब डॉलर की लूट की थी ।

और भारतीय रेल तो भारत के इतिहास का सबसे बड़ा ब्रिटिश Scam था ।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सेना के स्थानान्तरण और व्यापारिक सामानों के आवागमन के मद्देनज़र इसका निर्माण करवाया था ।

भारतीय रेल तो घोटाला ही था। जितना खर्च कनाडा-ऑस्ट्रेलिया में एक मील ट्रैक बनाने में आया उसका दोगुना भारत में लगा। ध्यान रहे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया भी ब्रिटिश शासन के अधीन थे ।

1843 में तत्कालीन गवर्नर जनरल हार्डिंग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था,
‘रेल हिंदुस्तान में ब्रिटिश व्यापार, सरकार और सेना और इस देश पर मज़बूत पकड़ के लिए सहायक होगी ।’
बाद में डलहौज़ी ने इसकी पैरवी करते हुए कहा था कि
इससे ब्रिटिश उत्पादों को पूरा हिंदुस्तान मिल जाएगा और खनिजों को बंदरगाह तक लाया जा सकेगा जहां से उन्हें इंग्लैंड भेजा जाएगा ।
तब ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड में निविदाएं जारी करके निवेशकों को इसकी तरफ आकर्षित किया था ।
लिहाज़ा, इसका निर्माण भी काफ़ी ऊंची कीमत पर हुआ ।
‘एन एरा ऑफ़ डार्कनेस’ में शशि थरूर लिखते हैं, ‘ज़्यादा ख़र्च करने पर ब्रिटिश कंपनियों को ज़्यादा मुनाफा होता ।

1850 से 1860 के बीच प्रति मील रेल की पटरी बिछाने की लागत तकरीबन 18 हज़ार पौंड थी । वहीं अमेरिका में यह आंकड़ा मात्र दो हज़ार पौंड था ।’

थरूर इसे तब का सबसे बड़ा घोटाला करार देते हैं । सारा मुनाफ़ा अंग्रेजों का और इसकी भरपाई भारतीय टैक्स देनदारों से हो रही थी।

चूंकि ग़ैर ब्रिटिश मानक स्टील इस्तेमाल में नहीं लिया जा सकता था, लिहाज़ा, पटरी से लेकर डिब्बों तक सब इंग्लैंड से मंगवाया गया ।

इतिहासकार विल दुरैंट भारतीय रेल का एक और आश्चर्यजनक पहलु खोलते हैं । उनके मुताबिक रेल का मकसद ब्रिटेन की सेना और उसके व्यापार को फ़ायदा पहुंचाना था, पर रेल को सबसे ज़्यादा आय अपने तीसरे दर्जे के डिब्बों में हिंदुस्तानियों के सफ़र करने से होती थी जिनमें आदमी भेड़-बकरियों की तरह ठूंस दिए जाते थे. उनके लिए कोई सहूलियतें नहीं दी जाती थीं ।
अंततः, रेलों के ज़रिये इंग्लैंड में बनाये गए सामानों की आवाजाही शुरू हो गयी ।

भारतीय कामगारों के उत्पाद इंग्लैंड के उत्पादों से टक्कर नहीं ले पाए और धीरे-धीरे घरेलु उद्योग बंद होने लग गए ।तब एक बांग्ला अखबार में छपे लेख में कहा गया था कि ये लोहे की पटरियां नहीं बल्कि ज़ंजीरें हैं जिन्होंने भारतीय उद्योगों के ठप्प कर दिए ।

दादा भाई नौरोजी ने भी अपनी किताब ‘पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में रेल से हिंदुस्तान को कम और अंग्रेजों को ज़्यादा फ़ायदा होने की बात कही है ।
महात्मा गांधी ने अपनी किताब ‘स्वराज’ में रेल को बंगाल में फैली प्लेग की महामारी के लिए ज़िम्मेदार माना था ।

बंगाल में जब रेल निर्माण किया गया तो गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी को जगह-जगह रोका गया ।
इससे खेती पर ज़बरदस्त असर पड़ा और अनाज की पैदावार कम हुई ।

1918 में बंगाल में आई बाढ़ का कहर रेल की वजह से कई गुना हो गया था ।
एक सच यह भी है कि जिन देशों में अंग्रेजो का राज्य नही था आज उन देशों में मैग्लेव और कैप्सूल रेल चलती है ।

अंग्रेज़ो ने क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लगा कर ट्राइब्स को जन्म जात अपराधी घोसित किया था। लैंड accutition एक्ट लगा कर जमीन छीनकर जमीदारी थोपकर 80 से 85 % लगान लगा दिया।
…..शेष अगली पोस्ट में।
✍🏻
लेखक और सन्दर्भ सूची अंतिम भाग में दी जायेगी।
हिमांशु शुक्ला की वॉल से।
[🚩ॐ सनातन हिंदु धर्म के बारे मे विदेशी तटस्थ दार्शनिक विद्वानों के विचार 🚩ॐ

🚩जाने क्यों गर्व हो आप को हिन्दू होने पर,हिंदुस्तानी होने पर?क्योंकि की जिनपर दुनिया करती नाज़ उनके दिलों में हिंदुत्व और हिन्दुस्तान ने किया राज़।👉

🚩भारत भूमि और भरतवंशियों के बारे में विदेशियों के विचार

🚩1. अलबर्ट आइन्स्टीन :- हम भारत के बहुत ऋणी हैं, जिसने हमें गिनती सिखाई, जिसके बिना कोई भी सार्थक वैज्ञानिक खोज संभव नहीं हो पाती |

🚩2. रोमां रोलां (फ्रांस) :- मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किये, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है, तो वो है भारत |

🚩3. हू शिह (अमेरिका में चीन राजदूत) :- सीमा पर एक भी सैनिक न भेजते हुए भारत ने बीस सदियों तक सांस्कृतिक धरातल पर चीन को जीता और उसे प्रभावित भी किया |

🚩4. मैक्स मुलर :- यदि मुझसे कोई पूछे कि किस आकाश के तले मानव मन अपने अनमोल उपहारों समेत पूर्णतया विकसित हुआ है ? जहां जीवन की जटिल समस्याओं का गहन विश्लेषण हुआ और समाधान भी प्रस्तुत किया गया है ? जो उनकी भी प्रशंसा का पात्र हुआ जिन्होंने प्लेटो और कांट का अध्ययन किया, तो मैं भारत का नाम लूँगा |

🚩5. मार्क ट्वेन :- मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान और सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है |

🚩6. आर्थर शोपेन्हावर :- विश्व भर में ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो उपनिषदों जितना उपकारी हो | यही मेरे जीवन को शांति देता रहा है, और वही मृत्यु में भी शांति देगा |

🚩7. हेनरी डेविड थोरो :- मैं दैनिक प्रातः अपनी बुद्धिमत्ता को अपूर्व और ब्रह्माण्डव्यापी गीता के तत्वज्ञान से स्नान कराता हूँ, जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक विश्व और उसका साहित्य अत्यंत क्षुद्र और तुच्छ जान पड़ता है |

🚩8. राल्फ वाल्डो इमर्सन :- मैं भगवत गीता का अत्यंत ऋणी हूँ | यह पहला ग्रन्थ है जिसे पढ़कर मुझे लगा कि किसी विराट शक्ति से हमारा संवाद हो रहा है |

🚩9. विल्हन वोन हम्बोल्ट :- गीता एक अत्यंत सुन्दर और संभवतः एकमात्र सच्चा दार्शनिक ग्रन्थ है जो किसी अन्य भाषा में नहीं | वह एक ऐसी गहन और उन्नत वस्तु है जिस पर सारी दुनिया गर्व कर सकती है |

🚩10. एनी बेसेंट :- विश्व के विभिन्न धर्मों का लगभग 40 वर्ष अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि हिंदुत्व जैसा परिपूर्ण, वैज्ञानिक, दार्शनिक और अध्यात्मिक धर्म और कोई नहीं | इसमें कोई भूल न करे कि बिना हिंदुत्व के भारत का कोई भविष्य नहीं है | हिंदुत्व ऐसी भूमि है जिसमें भारत की जड़ें गहरे तक पहुंची है, उन्हें यदि उखाड़ा गया तो यह महावृक्ष निश्चय ही अपनी भूमि से उखड़ जायेगा। हिन्दू ही यदि हिंदुत्व की रक्षा नहीं करेंगे, तो कौन करेगा ? अगर भारत के सपूत हिंदुत्व में विश्वास नहीं करेंगे तो कौन उनकी रक्षा करेगा ? भारत ही भारत की रक्षा करेगा | भारत और हिंदुत्व एक ही है |

🚩आओ मिलकर करें हिंदु राष्ट्र का निर्माण। आज और अभी ले हिंदुत्व की रक्षा का प्रण-
जाति-मुक्त सशक्त हिन्दू समाज का करेंगे निर्माण,हिंदुत्व के लिए हैं अब ये प्राण।
जिएंगे हिंदुत्व के लिए,मरेंगे हिंदुत्व के लिए।हिंदुत्व है तो ही भारत है।

🚩👈
पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण करने में 365 दिन, 5 घण्टे, 48 मिनीट और 46 सेकेण्ड लगते है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए ईसाइयों के वर्तमान calendar में 4 वर्षों के अंतराल में लीप वर्ष मनाकर उसमें 1 दिन बढ़ाया जाता है। लेकिन इसप्रकार 4 वर्षों में 44 मिनीट अतिरिक्त पकड़े जाते है, जिसका ध्यान इस calendar के निर्माताओं ने नहीं रखा है। इस कारण से यह क्रम इसीप्रकार चलता रहा तो 1000 वर्षों के बाद लगभग 8 दिन अतिरिक्त पकड़े होंगे। और लगभग 10,000 वर्षों के बाद लगभग 78 दिन अतिरिक्त पकड़ लिए गए होंगे। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह है की दस हज़ार वर्षों के बाद 1st Jan. शीत ऋतु की जगह वसंत ऋतु में होली के आसपास आएगी। यह सीधा-सादा गणित है। परंतु लाखों वर्षों से चली आ रही हमारी राम नवमी आज भी वसंत ऋतु में ही आती है, दशहरा व दिवाली शरद ऋतु में ही आते है। क्योंकि हमारे पुरखे खगोल और गणित में भी बहुत ही निपुण थे। अत: उन्होंने इस गणित व खगोल विज्ञान के आधार पर ही हज़ारों वर्षों में आनेवाले ग्रहणों का स्थान, दिन तथा समय भी exact लिख रखा है। इसलिए आग्रह है की कई बार बदली ईसाइयों की दक़ियानूसी वाली कालगणना छोड़िए तथा स्वाभिमान के साथ अपने पुरखों की वैज्ञानिक कालगणना अपनाइए जो अक्षरश: अचूक व बेजोड़ है।

दर्शन शास्त्र ~~

१ . सांख्य दर्शन == भगवान् कपिल ने सांख्यशास्त्र का प्रणयन किया है। इसमें “त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ:” आदि ६ अध्याय है।
इसके पहले अध्याय में विषय-निरूपण, दूसरे अध्याय में प्रकृति के कार्यों का वर्णन, तीसरे में विषयों से वैराग्य, चौथे में वैराग्य के लिए पिङ्गला वेश्या की कथा आती है। पांचवें में परपक्ष का खण्डन तथा छठें अध्याय में पांचों का सारांश बताया है। इस शास्त्र का प्रयोजन प्रकृति और पुरूष के विवेकपूर्वक इस लोक तथा परलोक के भोगों की प्राप्ति सहित जीव की मुक्ति है।

२. पतञ्जलि योगदर्शन == भगवान् पतञ्जलि जी ने योगशास्त्र का निर्माण किये हैं, उसमें “अथ योगानुशासनम्’ इत्यादि चार पाद है।
प्रथम पाद में चित्तवृत्ति का निरोधपूर्वक वैराग्य तथा समाधि के साधनों का वर्णन है। दूसरें पाद में विक्षिप्तचित्त की समाधि के लिए यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान और समाधि नाम से योग के आठ अंगों का वर्णन है। तीसरे पाद में योग की विभूतियों का वर्णन है और चौथे कैवल्यपाद में कैवल्य मुक्ति का वर्णन है।
इस शास्त्र का प्रयोजन विषयाकार वृत्ति को रोककर ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा कैवल्यमुक्ति है

३ . पाशुपत दर्शन== इसे भगवान् पशुपति ने “अथात: पाशुपतयोगविधिं व्याख्यास्याम:” इत्यादि पांच अध्यायों में बनाया है। इन पांचों अध्यायों में कार्य अविद्या उपाधि वाला जीव पशु कहा गया है तथा कारण माया उपाधि वाला शिव– पशुपति है।
जीव के जन्म-मरण रूपी पाश से मुक्ति ही इसका प्रयोजन है।

जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियों का जल सरल तथा कुटिल मार्गों से बहती हुई समुद्र में जाकर मिलती है, उसी प्रकार वेदों से लेकर पांचरात्र पर्यन्त अथवा उपनिषदों से लेकर हनुमान चालीसा पर्यन्त सभी सनातन धर्मग्रन्थों का साक्षात् या परम्परा से भगवत् प्राप्ति ही प्रयोजन है।
इन सभी ग्रन्थों का वेदानुकूल अंश ग्राह्य है तथा वेदविरुद्ध त्याज्य है।

                      【पूज्य गुरुदेव भगवान् प्रणीत "गुरुवंश-पुराण" के सत्ययुग खण्ड के प्रथम परिच्छेद के छठवें अध्याय के आधार पर】

[ दूसरों के हिस्से का भोजन न खाएं📚🖊🙏🙌

महाभारत के महानायक भीम को भोजन बेहद पसंद था। महाभारत की यह कहानी कौरव और पांडव के बचपन की है। तब सभी साथ रहते थे। लेकिन जब भोजन होता तो भीम, सबसे ज्यादा भोजन करते थे। इस बात को लेकर दुर्योधन और उनके भाई नाराज रहते थे। क्योंकि भाम उनके हिस्से का भी भोजन खा जाया करते थे।
एक दिन की बात है दुर्योधन ने चुपके से भीम के भोजन में जहर मिला दिया। और उन्हें अपने साथ नदी किनारे घुमाने ले गए। जब भीम मूर्छित हो गए तो उन्हें नदी में फेंक दिया। नदी में एक नाग रहता था। उसने भीम का औषधि से इलाज किया और उन्हें स्वस्थ कर पुनः नदी के किनारे छोड़ दिया।
भीम, अपने घर यानी हस्तिनापुर के राजमहल में पहुंचे। जब भीम वापिस आते हैं तो हस्तिनापुर में शोक सभा हो रही होती है। सबको ये सग रहा था कि भीम मर गये हैं। उनके लिए श्राद्ध का आयोजन उसी दिन रखा गया। भीम, महल में पहुंचे जहां कई तरह की सब्जियां और फल कटे हुए रखे थे।
भीम ने इन सभी सब्जियों और फलों को देख उसका एक व्यंजन बनाया। वर्तमान में तमिल लोग 'अवियल' नामक व्यंजन बनाते हैं, इसका इजाद करने का श्रेय भीम को ही जाता है।
ठीक इसी तरह, जब भीम अज्ञातवास में होते हैं तो राजा विराट के यहां वह बाबर्ची का कार्य करते हैं। वह खाना बनाते हैं, परोसते हैं लेकिन उसे सभी के खाने के बाद ही खा सकते हैं। उनके लिए एक तरह से यह दंड था। क्योंकि भीम जिंदगी भर दूसरों के भाग का भी खाना खा लिया करते थे।
और आखिर में भीम के अंत समय यानी जब वह स्वर्गारोहण पर अपनी माता और भाइयों के साथ जा रहे थे। तो वह बर्फीली चट्टान से गिर गए। उन्हें दूसरों के भाग का खाने के कारण नर्क मिलता लेकिन, उन्होंने जीव कल्याण के भी कार्य किए थे, इसलिए उन्हें स्वर्ग में जगह मिली।

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विज्ञान नौका ~~

आजकल विज्ञान का युग है। वर्तमान विज्ञान भौतिक-विज्ञान है, जिसका प्रभाव पंचमहाभूतों के कार्यकारणसंङ्घातरूप देह अथवा पंचमहाभूतों तक ही सीमित है ।
संसार के अनेकानेक भोग भले ही प्राप्त हो जाये, किन्तु इस विज्ञान से मुक्ति नहीं हो सकती।
अतः वेद प्रतिपादित आध्यात्मिक विज्ञान की अनुभूति ही मुक्ति का साधन है, अन्य कुछ भी नहीं।
आचार्यपाद भगवान शंकर ने जन्म-मरण रूपी संसार सागर से पार उतारने के लिए जो वैज्ञानिक नौका बनाई है, वह हिंदी अर्थ सहित नीचे दिया है———

             ।।अथ विज्ञान नौका।।

           तपो यज्ञदानादिभिः शुद्धबुद्धिर्-
           विरक्तो नृपादौ पदे तुच्छबुद्ध्या।
           परित्यज्य सर्वं ययाप्नोति तत्वं
          परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥१॥

(जिसने तप, यज्ञ, दान आदि से चंचल बुद्धि को शुद्ध {निश्चल} कर दिया है। राजादि के पद से विरक्त होने से तुच्छ बुद्धि रखता है। सबका परित्याग करके जिस ब्रह्माकार वृत्ति से परमतत्त्व प्राप्त होता है, वह नित्य ब्रह्म मैं ही हूँ।।१।।)

           दयालुं गुरुं ब्रह्मानिष्ठं प्रशान्तं
          समाराध्य मर्त्यां विचार्य स्वरूपं।
          यदाप्नोति तत्वं निदिधास्य विद्वान्
          परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥२॥

(जिसने नश्वर संसार का विचार करके, परम् दयालु, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, शान्त गुरु की आराधना करके ब्रह्मतत्त्व का निदिध्यासन {विषयाकार वृत्ति से मन को हटाकर ब्रह्माकार वृत्ति का अभ्यास निदिध्यासन है} करके जो परमतत्त्व प्राप्त होता है, वह नित्य ब्रह्म परमात्मा मैं ही हूँ।।२।।)

            यदानन्द रूपं प्रकाश स्वरूपं
            निरस्त प्रपञ्चं परिच्छेद शून्यं।
            अहं ब्रह्मवित्यैकगम्यं तुरीयं
           परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥३॥

(जब परमानन्द, स्वयंप्रकाश स्वरूप, देश-काल-वस्तु के परिच्छेद से रहित, निष्प्रपंच, ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इस ब्रह्मात्मैक्य वृत्ति के द्वारा चौथे अमात्र अर्थात् निष्कल, शिव, शान्त, अद्वैत, अविनाशी परमात्मा मैं ही हूँ।।३।।)

            यदज्ञानतो भति विश्वं समस्तं
          विनष्टं च सद्यो यदात्म प्रबोधे।
           मनोवागतीतं विशुद्धं विमुक्तं
         परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥४॥

(जिसके अज्ञान से समस्त जगत् प्रतीत होता है। जिसका स्वरूप बोध होने पर तत्काल जगत् का बाध हो जाता है। वह मन, वाणी से परे विशुद्ध नित्यमुक्त परब्रह्म मैं ही हूँ।।४।।

              निषेधे कृते नेति नेतीति वक्यैः
            समधिस्तिथितानां यदाभाति पूर्णं।
            अवस्थात्रयातीतमेकं    तुरीयं
            परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥५॥

(शरीर, मन, बुद्धि, प्राण, तीनों गुण, तीनों अवस्था, अंतःकरण चतुष्टय आदि भी यह आत्मा नहीं है। वेदवाक्यों द्वारा निषेध करने पर निर्विकल्प समाधि में स्थित जब पूर्ण ब्रह्म का प्रकाश होता है, तब तीनों अवस्थाओं से परे, तीनों भेदों से रहित, एक नित्य तुरीय स्वरूप परमात्मा मैं ही हूँ।।५।।)

            यदानन्दलेशै:  समानन्ति विश्वं
            यदाभाति सत्वे तदा भाति सर्वं।
            यदालोचने रूपमन्यत् समस्तं
            परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥६॥

(जिसके लेश मात्र आनन्द से सारा विश्व प्रकाशित होता है। अर्थात् सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि आदि उससे ही प्रकाशित होते हैं। जिसका विचार करने पर नाम रूपात्मक प्रतीत होने वाला सारा जगत् नित्य परमात्मा मैं ही हूँ, ऐसा अनुभव होता है।।६।।

              अनन्तं विभुं सर्वयोनिं निरीहं
             शिवं  सङ्गहीनं यदोंकारगम्यं।
             निराकारमृत्यूज्वलं मृत्युहीनं
             परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥७॥

(अनन्त, सर्वव्यापी, सबका कारण, निष्काम, कल्याण स्वरूप, आकाश के समान दोष से रहित, ओंकार के द्वारा प्राप्त होने योग्य, निराकार, जन्म-मरण आदि भावों को प्रकाशित करने वाला अविनाशी परमात्मा मैं ही हूँ।।७।।

              यदानन्द सिन्धौ निमग्नः पुमान्स्या-
               द्विद्याविलासः समस्त प्रपञ्चः।
              यदा न स्फुरत्यद्भुतं यन्निमित्तम्
             परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥८॥

(जब आनन्द रूपी सागर में मनुष्य मग्न हो जाता है, तब अविद्या का कार्य सम्पूर्ण अद्भुत जगत् प्रतीत नहीं होता। तब वही ब्रह्म अविनाशी परमात्मा मैं ही हूँ, यह अनुभव होता है।।८।।)

           स्वरूपानुसन्धानरूपां स्मृतिं यः
           पठेदादराद् भक्तिभावो मनुष्यः
           शृणोतीह वा नित्यमुद्युक्तचित्तो
         भवेद्विष्णुरत्रैव वेद प्रमाणात्।।९।।

(जो मनुष्य आदर, भक्तिभाव से युक्त स्वस्वरूपानुसन्धान रूपी स्मृति का पाठ करता है अथवा एकाग्रचित्त से श्रवण करता है, वह वेद के प्रमाण इसी शरीर से इसी लोक में विष्णुत्व को प्राप्त करता है।।९।।

             विज्ञान नावं परिगृह्य कश्चित्-
             तरेद्यदज्ञानमयं भवाब्धिम्।
            ज्ञानासिना यो हि विच्छिद्य तृष्णां
            विष्णो: पदं याति स एव धन्य:।।१०।।

(जो यति ज्ञानरूपी तलवार से तृष्णा को काटकर, विज्ञान रूपी नौका लेकर अज्ञान रूपी सागर को पार करता है, वह विष्णु पद को प्राप्त करने वाला यति धन्य है।।१०।।)

।।इति भगवत्पाद श्रीमदाद्यशंकराचार्य विरचितं विज्ञान नौका सम्पूर्णम्।।

[ बोलना ही बंधन है
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एक राजा के घर एक राजकुमार ने जन्म लिया। राजकुमार स्वभाव से ही कम बोलते थे।
राजकुमार जब युवा हुआ तब भी अपनी उसी आदत के साथ मौन ही रहता था। राजा अपने
राजकुमार की चुप्पी से परेशान रहते थे की
आखिर ये बोलता क्यों नहीं है। राजा ने कई
ज्योतिषियों,साधु-महात्माओ एवं चिकित्सकों को उन्हें दिखाया परन्तु कोई हल नहीं निकला। संतो ने कहा कि ऐसा लगता है पिछले जन्म में ये राजकुमार कोई साधु थे जिस वजह से इनके संस्कार इस जन्म में भी साधुओं के मौन
व्रत जैसे हैं। राजा ऐसी बातों से संतुस्ट नहीं हुए।
एक दिन राजकुमार को राजा के मंत्री बगीचे में
टहला रहे थे। उसी समय एक कौवा पेड़ कि डाल पे बैठ कर काव – काव करने लगा।

मंत्री ने सोचा कि कौवे कि आवाज से राजकुमार परेशान होंगे इसलिए मंत्री ने कौवे को गोली मार दी गोली लगते ही कौवा जमीन पर गिर गया। तब
राजकुमार कौवे के पास जा कर बोले कि यदि
तुम नहीं बोले होते तो नहीं मारे जाते। इतना
सुन कर मंत्री बड़ा खुश हुआ कि राजकुमार आज
बोले हैं और तत्काल ही राजा के पास ये खबर
पहुंचा दी राजा भी बहुत खुश हुआ और मंत्री
को खूब ढेर – सारा उपहार दिया।

कई दिन बीत जाने के बाद भी राजकुमार चुप ही
रहते थे। राजा को मंत्री कि बात पे संदेह हो
गया और गुस्सा कर राजा ने मंत्री को फांसी पे
लटकाने का हुक्म दिया। इतना सुन कर मंत्री
दौड़ते हुए राज कुमार के पास आया और कहा कि उस दिन तो आप बोले थे परन्तु अब नहीं बोलते हैं।

मैं तो कुछ देर में राजा के हुक्म से फांसी पे लटका
दिया जाऊंगा मंत्री कि बात सुन कर राजकुमार बोले कि यदि तुम भी नहीं बोले होते तो आज तुम्हे भी फांसी का हुक्म नहीं होता बोलना ही बंधन है।

जब भी बोलो उचित और सत्य बोलो अन्यथा मौन रहो जीवन में बहुत से विवाद का मुख्य कारन अत्यधिक बोलना ही है।एक चुप्पी हजारो कलह का नाश करती है। राजा छिप कर राजकुमार कि ये बातें सुन रहा था,उसे भी इस बात का ज्ञान हुआ और राजकुमार को पुत्र रूप में प्राप्त कर गर्व भी हुआ। उसने मंत्री को फांसी मुक्त कर दिया।
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[नीच ग्रह भी बना सकते हैं राजयोग

किसी जन्म कुंडली में ग्रह जितने अधिक बली होते हैं, जन्म कुंडली उतनी ही अधिक प्रभाव शाली मानी जाती हैं । माना जाता हैं कि जिस जन्म कुंडली में जितने अधिक उच्च ग्रह होंगे वह उतनी ही मजबूत जन्म कुंडली होती है । इसके विपरीत नीच के ग्रह होने पर जन्म कुंडली प्रभाव हीन मानी जाती हैं, आजकल तो यह प्रथा सी बन गयी हैं कि नीच ग्रह को देखते ही सारे अशुभ फल का कारक उसे ही घोषित कर दिया जाता हैं । भले ही वह प्रभाव किसी भी अन्य ग्रह के द्वारा दिया गया हो । इस सबमे सबसे बडे दुर्भाग्य कि बात यह होती हैं की जिस वजह से व्यक्ति वास्तविक रूप से परेशान था, उस वजह को गौण कर दिया जाता हैं, और समस्या जैसी की तैसी बनी रहती हैं । उनके फलित में जमीन आसमान का फर्क होता हैं ।
हमारे अलग अलग ज्योतिषिय ग्रन्थो में इस बात का वर्णन हैं की जन्म कुंडली में नीच ग्रह का बुरा प्रभाव भंग भी हो जाता हैं । कई परिस्थिति में तो यह नीच ग्रह राजयोग तक का निर्माण करते हैं । इनका फल आश्चर्य जनक रूप से प्राप्त होता हैं । जो दिखता हैं वो वैसा ही हो यह जरुरी नही हैं, अर्थात हकीकत बिल्कुल विपरीत हैं जन्म कुंडली में सभी नीच ग्रह अशुभ फल नही देते हैं । अधिकतर इनका फल उसकी स्थिति तथा अन्य ग्रहो का उस पर पडने वाले फल पर निर्भर करता हैं ।
जिन जातको की जन्म कुंडली में नीचभंग राजयोग होता हैं वो जातक चट्टानो से जल निकालने की क्षमता रखते हैं । ऐसे जातक बहुत अधिक मेहनती होते है, और अपने दम पर एक मुकाम हासिल करते हैं । ये जातक जिस क्षेत्र में भी जाते हैं वही अपनी अमिट छाप बना देते हैं । चाहे दुनिया इनके पक्ष में हो या विपक्ष में इनको सफलता मिलना तय होता हैं । कैसे बनते हैं ये योग इस पर चर्चा करे –
1- किसी नीच ग्रह से कोई उच्च का ग्रह जब दृष्टी सम्बंध या क्षेत्र सम्बंध बनाता हैं तो यह स्थिति नीच भंग राज योग बनाने वाली होती हैं ।
2- नीच का ग्रह अपनी उच्च राशि के स्वामी के प्रभाव में हो ( युति या दृष्टी सम्बंध हो) नीच भंग योग बनता हैं ।
3- परस्पर दो नीच ग्रहो का एक दूसरे को देखना भी नीच भंग योग होता हैं ।
4- नीच राशि के स्वामी ग्रह के साथ होना या उसके प्रभाव में होना नीच भंग होता हैं ।
5- चंद सूर्य से केंद्रगत होने पर भी नीच ग्रह का दोष समाप्त हो जाता हैं ।
6- जन्म कुंडली के योगकारक ग्रह तथा लग्नेश से सम्बंध होने पर नीच भंग राजयोग बनता हैं
7- नीच ग्रह नवांश कुंडली में उच्च का हो तो नीच भंग राजयोग बनता हैं ।
8- दो उच्च ग्रहो के मध्य स्थित नीच ग्रह भी उच्च समान फल दायी होता हैं ।
9- नीच का ग्रह वक्री हो तो नीच भंग राज योग बनता हैं ।
10- नीच राशि में स्थित ग्रह उच्च ग्रह के साथ स्थित हो तो नीच भंग राजयोग बनाता हैं ।
[ वाणी-पर-कैसे-होता-है-ग्रहों-का-असर

कुंडली में द्वितीय भाव वाणी का भी होता है।

आज मै आपको ये जानकारी देने जा रही हूँ जब कोई ग्रह वाणी भाव में अकेला बैठा हो तो उसका वाणी पर क्या असर होगा। ये सिर्फ एक General Opinion है अतः यहाँ हम द्रष्टि/नक्षत्र/राशि या युति का विचार नही करेगे।

यदि वाणी भाव में सूर्य हो तो जातक की वाणी तेजस्वी होगी।वाणी आदेशात्मक ज्यादा होगी।गलत बात होने पर जातक जोरदार आवाज से प्रतिक्रिया देगा।

यदि वाणी भाव में चंद्र हो तो जातक की वाणी शालीन होगी।जातक बहुत धीरे और कम शब्दों में अपनी राय रखेगा।जातक की मधुर वाणी की दुनिया कायल होगी।जातक बात रखने से पहले आज्ञा माँगेगा।

यदि वाणी भाव में मंगल हो तो जातक की वाणी उग्र और तेज होगी। जातक की बात पड़ोसियों के कान तक पहुँच ।गुस्सा आने पर जातक गाली-गलौच में कभी निःसंकोच नही करेगा।जातक चिल्लाने और शौर मचाने में माहिर होगा।

यदि वाणी भाव में बुध हो तो जातक बेवजह बातूनी होगा।मुफ्त की राय देना जातक का शौक का शौक होगा।चूंकि अकेला बैठा बुध कभी शुभकर्तरी में नही होता,यदि बुध पापकर्तरी में हुआ तो जातक चुगलखोर होगा।

यदि वाणी भाव में गुरु है तो जातक की वाणी सकारात्मक होगी जातक उपदेशक की तरह अपनी बात को विस्तारपूर्वक कहता है जैसे -“मतलब/अर्थात/Means” ये उसकी बातो में ज्यादा प्रयोग होता है। जातक पुरुष से तीव्र और स्त्रियों से मधुर वाणी में बात करने वाला होता है।

यदि वाणी भाव में शुक्र हो तो जातक की वाणी अत्यंत विनम्र होगी।जातक कवि,गायक भी हो/बन सकता है।वाणी में प्यार और आनंद की मिठास होगी।जातक की बाते रोमांटिक होती है।

यदि वाणी भाव में शनि हुआ तो जातक की वाणी बहुत संतुलित और संयमित होगी। शब्दों की मर्यादा का उल्लंघन बहुत कम या ना के बराबर।जातक हमेशा “शासन कर रही सरकार” का वाणी से विरोध करेगा।

यदि वाणी भाव में राहू हुआ तो जातक गप्पे मारने वाला,बेवजह बहस करने वाला होगा।जातक के मुँह से हमेशा गाली/अपशब्द निकलेगे। वाणी नकारात्मक होगी।सीटी बजाना जातक का शौक हो सकता है।

यदि वाणी भाव में केतु हो तो जातक मुँहफट होगा।यदि केतु शुभकर्तरी में हो तो जातक जो भी कहेगा उसकी 70% बाते/भविष्यवाणी सही होगी..और यदि केतु पापकर्तरी में हो तो जातक हमेशा “हाय देने वाला” और “कडवी जुबान” रहेगा साथ ही उसकी बाते 70% सच साबित होगी।
[बातें बिल्व वृक्ष की-

  1. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते
  2. अगर किसी की शव यात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है
  3. वायुमंडल में व्याप्त अशुध्दियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है
  4. चार पांच छः या सात पत्तो वाले बिल्व पत्रक पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है
  5. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है।और बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।
  6. सुबह शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापो का नाश होता है।
  7. बेल वृक्ष को सींचने से पितर तृप्त होते है।
  8. बेल वृक्ष और सफ़ेद आक् को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
  9. बेल पत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि
    स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे ।
  10. जीवन में सिर्फ एक बार और वो भी यदि भूल से भी शिव लिंग पर बेल पत्र चढ़ा दिया हो तो भी उसके सारे पाप मुक्त हो जाते है
  11. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।
    कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाये ।
    बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं
    शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात
    शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को कौन सी चीज़ चढाने से
    मिलता है क्या फल
    किसी भी देवी-देवता का पूजन करते वक़्त उनको अनेक चीज़ें
    अर्पित की जाती है। प्रायः भगवन को अर्पित की जाने वाली हर
    चीज़ का फल अलग होता है। शिव पुराण में इस बात का वर्णन
    मिलता है की भगवन शिव को अर्पित करने वाली अलग-अलग
    चीज़ों का क्या फल होता है।
    शिवपुराण के अनुसार जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को
    चढ़ाने से क्या फल मिलता है:
  12. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।
  13. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।
  14. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।
  15. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।
    शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन सा रस
    (द्रव्य) चढ़ाने से उसका क्या फल मिलता है
  16. ज्वर (बुखार) होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।
  17. नपुंसक व्यक्ति अगर शुद्ध घी से भगवान शिव का अभिषेक करे, ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा सोमवार का व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान संभव है।
  18. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिश्रित दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।
  19. सुगंधित तेल से भगवान शिव का अभिषेक करने पर समृद्धि में वृद्धि होती है।
  20. शिवलिंग पर ईख (गन्ना) का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।
  21. शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
  22. मधु (शहद) से भगवान शिव का अभिषेक करने से राजयक्ष्मा
    (टीबी) रोग में आराम मिलता है।
    शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन का फूल
    चढ़ाया जाए तो उसका क्या फल मिलता है
  23. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने
    पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  24. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।
  25. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान
    विष्णु को प्रिय होता है।
  26. शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
  27. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।
  28. जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।
  29. कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।
  30. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
  31. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।
  32. लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।
  33. दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती ह
    जय महादेव
    जय महाकाल
    ॐ नमः शिवाय

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