Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

: THE POWER OF WORDS

A speaker was speaking about the power of positive thinking and the power of words.

One of the audience raised his hand and said,

“It’s not because I say good fortune, good fortune, good fortune that will make me feel better. Nor will saying bad luck, bad luck, bad luck, make me feel worse. They’re only words and, by themselves, have no power.”

The speaker replied. “Shut up, you fool, you don’t understand a thing about this.”

The member of the audience was stunned, his face became red and he was about to shout at the speaker.

The speaker raised his hand.

“Please excuse me. I didn’t mean to upset you. Please accept my most sincere apologies.”

The member of the audience calmed down. Some people in the hall murmured; others shuffled their feet.

The speaker resumed. “There’s the reply to the question you asked me. A few words made you very angry. The other words calmed you down.”

“Now do you understand the power of words?”
[जानें किस समस्या के लिए कौन से मंत्र

शास्त्रों के अनुसार गायत्री मंत्र को वेदों का सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। इसके जप के लिए तीन समय बताए गए हैं। गायत्री मंत्र का जप का पहला समय है प्रात:काल, सूर्योदय से थोड़ी देर पहले मंत्र जप शुरू किया जाना चाहिए। जप सूर्योदय के पश्चात तक करना चाहिए।

मंत्र जप के लिए दूसरा समय है दोपहर का। दोपहर में भी इस मंत्र का जप किया जाता है।

तीसरा समय है शाम को सूर्यास्त के कुछ देर पहले मंत्र जप शुरू करके सूर्यास्त के कुछ देर बाद तक जप करना चाहिए। इन तीन समय के अतिरिक्त यदि गायत्री मंत्र का जप करना हो तो मौन रहकर या मानसिक रूप से जप करना चाहिए। मंत्र जप तेज आवाज में नहीं करना चाहिए।

गायत्री मंत्र का अर्थ : सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परामात्मा के तेज का हम ध्यान करते हैं, वह परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें।

अथवा

उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।

इस मंत्र के नियमित जाप से त्वचा में चमक आती है। नेत्रों में तेज आता है। सिद्धि प्राप्त होती है। क्रोध शांत होता है। ज्ञान की वृद्धि होती है।

विद्यार्थियों के लिए यह मंत्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मंत्र का 108 बार जप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाती है।दरिद्रता का नाश करे :- व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्रता का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो अधिक लाभ होता है।

संतान का वरदान :-

किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर ‘यौं’ बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है।

शत्रुओं पर विजय :-

शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहे हैं तो मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे ‘क्लीं’ बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार 108 बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।।

विवाह कराए गायत्री मंत्र :-

यदि विवाह में देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए ‘ह्रीं’ बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर 108 बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं।

रोग निवारण :-

यदि किसी रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ ‘ऐं ह्रीं क्लीं’ का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसका रोग भी नाश होता हैं।.
: कालसर्प दोष के लक्षण और आसान अचूक उपाय

कालसर्प दोष को लेकर लोगों में काफी भय और आशंका-कुशंकाएं रहती हैं, लेकिन कुछ आसान और अचूक उपायों से इसके असर को कम किया जा सकता है। कोई इसे कालसर्प दोष कहता है तो कोई योग। कोई इसे मानता है और कोई नहीं, लेकिन कुंडली के शोध से पता चलता है कि जिनकी भी कुंडली में यह दोष पाया गया है, उसका जीवन या तो रंक जैसे गुजरता है या फिर राजा जैसा।

आखिर कालसर्प दोष है क्या, कैसा होता है और इसका उपाय क्या है? यह समझना भी जरूरी है। पुराने ज्योतिष शास्त्रों में कालसर्प दोष का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन आधुनिक ज्योतिष में इसे पर्याप्त स्थान दिया गया है, लेकिन विद्वानों की राय भी इस बारे में एक जैसी नहीं है। मूलत: सूर्य, चंद्र और गुरु के साथ राहू के होने को कालसर्प दोष माना जाता है।

राहू का अधिदेवता ‘काल’ है तथा केतु का अधिदेवता ‘सर्प’ है। इन दोनों ग्रहों के बीच कुंडली में एक तरफ सभी ग्रह हों तो ‘कालसर्प’ दोष कहते हैं। राहू-केतु हमेशा वक्री चलते हैं तथा सूर्य चंद्रमार्गी।

1* कालसर्प योग शांति के लिए नागपंचमी के दिन व्रत करें।

2* काले नाग-नागिन का जोड़ा सपेरे से मुक्त करके जंगल में छोड़ें।

3* चांदी के नाग-नागिन के जोड़े को बहते हुए दरिया में बहाने से इस दोष का शमन होता है।

4* उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचन्द्रेश्वर मंदिर (जो केवल नागपंचमी के दिन ही खुलता है) के दर्शन करें।

5* अष्टधातु या कांसे का बना नाग शिवलिंग पर चढ़ाने से भी इस दोष से मुक्ति मिलती है।

6* नागपंचमी के दिन रुद्राक्ष माला से शिव पंचाक्षर मंत्र ” ॐ नमः शिवाय ” का जप करने से भी इसकी शांति होती है।

7* यदि शुक्ल यजुर्वेद में वर्णित भद्री द्वारा नागपंचमी के दिन उज्जैन महाकालेश्वर की पूजा की जाए तो इस दोष का शमन होता है।

8* शिव के ही अंश बटुक भैरव की आराधना से भी इस दोष से बचाव हो सकता है।

9* घर की चौखट पर मांगलिक चिन्ह बनवाने विशेषकर चाँदी का स्वास्तिक जड़वाने से शुभता आती है, काल सर्पदोष (Kaal Sarp Dosh) में कमी आती है ।

10* पंचमी के दिन 11 नारियल बहते हुए पानी में प्रवाहित करने से काल सर्पदोष दूर होता है , यह उपाय श्रवण माह की पंचमी अर्थात नाग पंचमी (Nag Panchmi) को करना बहुत फलदायी होता है ।

11* किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय’ की 21 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प शिवलिंग पर समर्पित करें।

12* श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें। शिवलिंग पर तांबे का सर्प विधिपूर्वक चढ़ायें।

13* श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।

14* श्रावण के प्रत्येक सोमवार को शिव मंदिर में दही से भगवान शंकर पर – हर हर महादेव’ कहते हुए अभिषेक करें।

15* श्रावण मास में रूद्र-अभिषेक करवाये
[ कालसर्प दोष को दूर करने के 20 सबसे असरकारक उपाय :

कालसर्प योग के आसान उपाय :
1 कालसर्प योग शांति के लिए नागपंचमी के दिन व्रत करें।
2 काले नाग-नागिन का जोड़ा सपेरे से मुक्त करके जंगल में छोड़ें।
3 चांदी के नाग-नागिन के जोड़े को बहते हुए दरिया में बहाने से इस दोष का शमन होता है।
4 उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचन्द्रेश्वर मंदिर (जो केवल नागपंचमी के दिन ही खुलता है) के दर्शन करें।
5 अष्टधातु या कांसे का बना नाग शिवलिंग पर चढ़ाने से भी इस दोष से मुक्ति मिलती है।
6 नागपंचमी के दिन रुद्राक्ष माला से शिव पंचाक्षर मंत्र ” ॐ नमः शिवाय ” का जप करने से भी इसकी शांति होती है।
7 यदि शुक्ल यजुर्वेद में वर्णित भद्री द्वारा नागपंचमी के दिन उज्जैन महाकालेश्वर की पूजा की जाए तो इस दोष का शमन होता है।
8 शिव के ही अंश बटुक भैरव की आराधना से भी इस दोष से बचाव हो सकता है।
9 घर की चौखट पर मांगलिक चिन्ह बनवाने विशेषकर चाँदी का स्वास्तिक जड़वाने से शुभता आती है, काल सर्पदोष में कमी आती है ।
10 पंचमी के दिन 11 नारियल बहते हुए पानी में प्रवाहित करने से काल सर्पदोष दूर होता है , यह उपाय श्रवण माह की पंचमी अर्थात नाग पंचमी को करना बहुत फलदायी होता है ।
11 किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय’ की 21 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प शिवलिंग पर समर्पित करें।
12 श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें। शिवलिंग पर तांबे का सर्प विधिपूर्वक चढ़ायें।
13 श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।
14 श्रावण के प्रत्येक सोमवार को शिव मंदिर में दही से भगवान शंकर पर – हर हर महादेव’ कहते हुए अभिषेक करें।
15 श्रावण मास में रूद्र-अभिषेक कराए एवं महामृत्युंजय मंत्र की एक माला का जाप रोज करें।
16 नाग पंचमी एवं प्रत्येक माह के दोनों पक्षो की पंचमी के दिन “ॐ कुरुकुल्ये हुं फट् स्वाहा” मन्त्र का जाप अवश्य ही करें। इससे काल सर्प योग के दुष्प्रभाव में कमी होती है ।
17 नाग पंचमी के दिन नागदेव की सुगंधित पुष्प व चंदन से ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि नागदेव को सुगंध बहुत प्रिय है, इससे नाग देवता प्रसन्न होते है और काल सर्प दोष में कमी आती है।
18 जिस भी जातक पर काल सर्प दोष हो उसे कभी भी नाग की आकृति वाली अंगूठी को नहीं पहनना चाहिए ।
19 हर शुक्रवार को…रात को… अपने सिरहाने के पास कुछ जौ के दाने बर्तन में रख कर सो जाये और शनिवार को मन ही मन ” ॐ राहवे नमः …ॐ राहवे नमः ” कहके पक्षियों को वो जौ के दाने डाल दे कालसर्प योग से मुक्ति मिलती है।
20 सर्प सूक्त से उनकी आराधना करें।

।।श्री सर्प सूक्त।।
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग परोगमा:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।1।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखाद्य:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।2।।
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।3।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।4।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।5।।
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।6।।
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।7।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।8।।
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पप्रचरन्ति।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।9।।
समुद्रतीरे ये सर्पाये सर्पा जंलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।10।।
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।11।।

द्वादश लग्न में नवग्रहो के फल।
भाग 1(मेष से कन्या)
१ मेष लग्न में लग्नस्थ ग्रहों का फल:-मेष लग्न का स्वामी मंगल है.इस लग्न में मंगल लग्नेश और अष्टमेश होता है.गुरू, सूर्य, चन्द्र इस लग्न में कारक ग्रह की भूमिका निभाते हैं .बुध, शुक्र और शनि मेष लग्न में अकारक और अशुभ ग्रह का फल देते हैं.
मेष लग्न में लग्नस्थ सूर्य का फल :- मेष लग्न की कुण्डली में सूर्य पंचम भाव का स्वामी होता है.त्रिकोण का स्वामी होने से सूर्य इनके लिए शुभ कारक ग्रह होता है.लग्न में सूर्य की उपस्थिति से व्यक्ति दिखने में सुन्दर और आकर्षक होता है.इनमें स्वाभिमान एवं आत्मविश्वास होता है.शिक्षा की स्थिति अच्छी होती है.ये अपनी बातों को कायम रहते हैं.कभी कभी अकारण विवाद में भी उलझ जाते हैं.पिता से सहयोग प्राप्त होता है.जीवन के उत्रार्द्ध में पिता से विवाद होने की भी संभावना रहती है.आर्थिक स्थिति अच्छी होती है.सूर्य अगर पाप ग्रहों से पीड़ित नहीं हो तो सरकार एवं सरकारी पक्ष से लाभ मिलने की संभावना रहती है.सूर्य के प्रभाव से संतान सुख प्राप्त होता है.सूर्य अपनी पूर्ण दृष्टि से सप्तम भाव में स्थित शुक्र की तुला राशि को देखता है.इसके प्रभाव से व्यक्ति को सुन्दर जीवनसाथी प्राप्त होता है.जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त होता है परन्तु कभी कभी अनबन होने से गृहस्थ सुख बाधित होता है
मेष लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:- चन्द्रमा मेष लग्न की कुण्डली में सुखेश होता .प्रथम भाव में इसकी स्थिति होने से व्यक्ति शांत प्रकृति का परन्तु चंचल होता है.कल्पनाशील और भोग विलास की इच्छा रखने वाला होता है.इन्हें माता और मातृ पक्ष का सहयोग प्राप्त होता है.भूमि, भवन एवं वाहन सुख प्राप्त होता है.प्रकृति एवं सौन्दर्य के प्रति ये स्वत: आकर्षित होते है.शीत रोग जैसे सर्दी, जुकाम एवं कफ से पीडित होते हैं.छाती सम्बन्धी रोग की भी संभावना रहती है.धन की स्थिति अच्छी होती है.सरकार एवं सरकारी पक्ष से लाभ होता है.सप्तम भाव में स्थित तुला राशि पर चन्द्र की दृष्टि के कारण इनका जीवनसाथी गुणवान, कला प्रेमी और सहयोगी होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ मंगल:-मेष लग्न की कुण्डली में मंगल लग्नेश और अष्टमेश होता है.लग्नेश होने से मंगल अष्टम भाव के दोष से मुक्त होता है.मंगल लग्नस्थ होने से व्यक्ति हृष्ट पुष्ट स्वस्थ और निरोग होता है.मंगल इन्हे पराक्रमी और साहसी बनाता है.इनमें उग्रता और जिद्दीपन होता है.अपने आत्मबल से कठिन से कठिन कार्य को पूरा करने का सामर्थ्य रखते हैं.समान में सम्मानित और प्रतिष्ठित होते हैं.कमज़ोरों के लिए इनके दृदय मे दया का भाव होता है.धर्म के प्रति आस्थावान होते हैं.मंगल अपनी पूर्ण दृष्टि से चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है.इसके कारण भूमि एवं वाहन सुख प्राप्त होता हैं.दुर्घटना की भी संभावना रहती है.जीवनसाथी से वैमनस्य होता है जिसके कारण वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है.अगर मंगल दूषित होता है तो सुख में कमी आती है
मेष लग्न में लग्नस्थ बुध:- बुध मेष लग्न की कुण्डली में अकारक और अशुभ ग्रह होता है.यह इस लग्न की कुण्डली में तृतीय और छठे भाव का स्वामी होता है.बुध जब लग्न में विराजमान होता है तो व्यक्ति को बुद्धिमान एवं ज्ञानी बनता है.शिक्षा के प्रति इनमें अभिरूचि होती है.लेखन एवं कला के क्षेत्र में अच्छी संभावना होती है.बुध की दशावधि में सगे सम्बन्धियो से विवाद अथवा मन मुटाव होता है.षष्ठेश बुध के प्रभाव से पेट सम्बन्धी रोग, मिर्गी, अमाशय जन्य रोग एवं भूलने की बीमारी होने की आशंका रहती है.व्यापार में इन्हें अच्छी सफलता मिलती है.सप्तम भाव पर बुध की दृष्टि संतान के सम्बन्ध में कष्ट देता है.जीवनसाथी के स्वास्थ को प्रभावित करता है.सप्तमस्थ तुला राशि पर बुध की दृष्टि से जीवनसाथी गुणी होता है.वैवाहिक जीवन सामान्य रहता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ गुरू:- मेष लग्न की कुण्डली में गुरू भाग्येश और व्ययेश होता है.द्वादश भाव का स्वामी होने से गुरू अकारक और अशुभ फलदायी होता है लेकिन त्रिकोण का स्वामी होने से इसका अशुभ प्रभाव दूर हो जाता है और यह शुभ कारक ग्रह बन जाता है.मेष लग्न की कुण्डली में गुरू के लग्नस्थ होने से व्यक्ति विद्वान और ज्ञानी होता है.इनकी वाणी प्रभावशाली और ओजस्वी होती है.गुरू इन्हें समाज में सम्मानित और प्रतिष्ठित बनाता है.लग्नस्थ गुरू पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.इसके प्रभाव से संतान सुख प्राप्त है.धार्मिक कार्यो में अभिरूचि होती है.शत्रु ग्रह की राशि तुला से दृष्टि सम्बन्ध होने के कारण जीवनसाथी से मन मुटाव रहता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-शुक्र मेष लग्न की कुण्डली में द्वितीयेश और सप्तमेश होता है.इस लग्न की कुण्डली में यह कष्टकारी और रोगकारक ग्रह की भूमिका निभाता है.लग्न में इसकी उपस्थिति होने से व्यक्ति दिखने मे सुन्दर होता है परंतु स्वास्थ सम्बन्धी परेशानियों को लेकर पीड़ित होता है.शुक्र की दशावधि में इन्हें विशेष कष्ट होता है.विपरीत लिंग के व्यक्ति के प्रति इनमें विशेष आकर्षण होता है.इस आकर्षण के कारण इन्हें कष्ट भी होता है.धन की हानि होती है.संगीत एवं कला के क्षेत्र में इनकी अभिरूचि होती है.प्रथमस्थ होकर शुक्र प्रथम भाव में स्वराशि तुला को देखता है जिससे जीवनसाथी सुन्दर और विनोदी स्वभाव का होता है.इनके प्रति प्रेम रखता है परंतु अपनी आदतों के कारण वैवाहिक जीवन का सुख प्रभावित होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ शनि:-मेष लग्न की कुण्डली में शनि कर्मेश होने से शुभ किन्तु आयेश होने से अशुभ कारक हो जाता है.इस लग्न की कुण्डली में शनि की उपस्थिति होने से व्यक्ति दुबला पतला एवं क्रोधी होता है.ये परिश्रमी होते हैं मेहनत के अनुसार लाभ नहीं मिलने से असंतोष बना रहता है.कार्यो में बाधाओं का सामना करना होता है.धन की स्थिति सामान्य रहती है.लग्नेश शनि तृतीय सप्तम एवं दशम को पूर्ण दृष्टि से देखता है जिसके कारण मित्रों एवं सगे सम्बन्धियों से अपेक्षित सहयोग मिलने में कठिनाई आती है.नौकरी एवं व्यापार में अस्थिरता बनी रहती है.जीवनसाथी से वैमनस्य होता है.अगर शनि शुभ ग्रह से युत अथवा दृष्ट होता है तो शुभ परिणाम प्राप्त होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ राहु:-राहु मेष लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ होने से व्यक्ति में आत्मविश्वास का अभाव होता है.पेट सम्बन्धी रोग से परेशान होता है.जीवन में काफी संघर्ष करना होता है.नौकरी एवं व्यापार में सफलता के लिए काफी परिश्रम करना होता है.व्यापार की अपेक्षा नौकरी में अधिक सफलता मिलती है.प्रथमस्थ राहु सप्तम भाव में स्थित तुला राशि को देखता है फलत: साझेदारों एवं मित्रो से अपेक्षित सहयोग का अभाव होता है.जीवनसाथी रोग से पीड़ित होता है.गृहस्थ जीवन का सुख प्रभावित होता है.
मेष लग्न में लग्नस्थ केतु:- मेष लग्न की कुण्डली में केतु लग्नस्थ होने से व्यक्ति शारीरिक तौर पर शक्तिशाली होता है.आमतौर पर ये स्वस्थ और नीरोग होते हैं.इनमें साहस और आत्मविश्वास होता है जिससे शत्रु वर्ग इनसे भयभीत रहते हैं.समाज में सम्मान एवं यश प्राप्त होता है.राजनीति और कूटनीति में सफल होते हैं.माता एवं मातृ पक्ष से सहयोग प्राप्त होता है.जीवनसाथी एवं संतान पक्ष से कष्ट की अनुभूति होती है.
२ वृषभ लग्न में नवग्रह का प्रभाव
राशि चक्र की दूसरी राशि वृष है.आपकी कुण्डली के लग्न भाव में यह राशि है तो आपका लग्न वृष कहलता है.आपके लग्न के साथ प्रथम भाव में जो भी ग्रह बैठता है वह आपके लग्न को प्रभावित करता है.आपके जीवन में जो कुछ भी हो रहा है वह कहीं लग्न में बैठे हुए ग्रहों का प्रभाव तो नहीं है।
वृषभ लग्न में लग्नस्थ सूर्य:-इस लग्न में सूर्य कारक ग्रह एवं चतुर्थेश होता है.लग्न भाव में सूर्य अपने शत्रु शुक्र की राशि में स्थित होकर शुभ फल में कमी करता है.माता पिता से इन्हें सामान्य सुख मिलता है.सरकारी क्षेत्र भी इनके लिए सामान्य रहता है.सप्तम भाव पर सूर्य की दृष्टि होने से जीवनसाथी से मतभेद, दाम्पत्य जीवन में तनाव व कष्ट होता है.यह द्विपत्नी योग भी बनाता है.रोजगार में अस्थिरता एवं साझेदारों से परेशानियों का सामना करना होता है.इस लग्न में प्रथम भाव में सूर्य होने से कम उम्र में ही बाल गिरने लगते हैं.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा इस लग्न में अकारक होता है लेकिन सम ग्रह की राशि में होने से यह सामान्य रूप से उत्तम फल देने वाला होता है.लग्नस्थ चन्द्र के प्रभाव से मनोबल एवं आत्मबल बना रहता है.भाई बंधुओं से सहयोग एवं सुख प्राप्त होता है.वाणी में मिठास एवं मधुरता रहती है.चन्द्रमा अपनी पूर्ण दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है.चन्द्रमा की दृष्टि जीवनसाथी के संदर्भ में उत्तम परिणामदायक होता है.जीवनसाथी सुन्दर और आकर्षक होता है.वैवाहिक जीवन सामान्य रूप से सुखमय होता है.आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ मंगल:-वृषभ लग्न की कुण्डली में मंगल सप्तमेश एवं द्वादशेश होता है.यह इस लग्न में सम होता है.प्रथम भाव में उपस्थित मंगल आकर्षक और सुन्दर शरीर प्रदान करता है.इसके प्रभाव से व्यक्तित्व गौरवपूर्ण होता है.आत्मविश्वास भरपूर रहता है.इस लग्न में मंगल सप्तमेश और द्वादशेश होने से साझेदारों से एवं रोजगार में लाभ होता है.देश विदेश की यात्राओं का भी योग बनता रहता है.लग्न में स्थित मंगल की दृष्टि चतुर्थ भाव पर रहती है परिणामत: भूमि, भवन, वाहन एवं माता के सुख में कमी आती है.सप्तम भाव से दृष्टि सम्बन्ध होने के कारण विवाह में विलम्ब होता है.इन्हें संतान एवं पत्नी के कारण कष्ट होता है.चोट लगने एवं रक्त विकार की संभावना रहती है.इन्हें कर्ज की स्थिति का भी सामना करना होता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ बुध:-बुध वृषभ लग्न की कुण्डली में कारक ग्रह होता है.यह इस लग्न में द्वितीयेश और पंचमेश होकर शुभ परिणामदायक होता है.प्रथम भाव में स्थित बुध बुद्धिमान एवं धनवान बनाता है.इन्हें कारोबार में अच्छी सफलता मिलती है.लग्नस्थ बुध विनोदी व्यक्तित्व प्रदान करता है.ऐसा व्यक्ति जीवन को आनन्द और उल्लास के साथ जीने की इच्छा रखता है.इन्हें सरकारी पक्ष से अनुकूलता प्राप्त होती है.जीवनसाथी के संदर्भ में भी यह बुध मंगलकारी होता है.लग्नस्थ बुध सुन्दर और बुद्धिमान जीवनसाथी प्रदान करता है.करोबार एवं रोजगार में लाभ दिलाता है.साझेदारी खूब फलती है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ गुरू:-गुरू वृषभ लग्न में अकारक होता है और अष्टम एवं एकादश भाव का स्वामी होता है.शत्रु ग्रह की राशि में स्थित गुरू मंदा फल देता है.व्यक्ति को स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है.आजीविका के विषय में परेशानियों का सामना करना होता है.इन्हें मानसिक परेशानियों का भी सामना करना होता है.परिश्रम के अनुपात में लाभ नहीं मिल पाता है.लग्न मे बैठा गुरू पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.गुरू की दृष्टि के कारण व्यक्ति का भाग्य मंदा रहता है.गुरू इनके ज्ञान, संतान एवं धर्म को प्रभावित करता है.सप्तम भाव गुरू की दृष्टि में होने से वैवाहिक जीवन में जीवनसाथी से अनुकूल सम्बन्ध नहीं रहता.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ शुक्र:-शुक्र वृषभ लग्न की कुण्डली में लग्नेश व षष्ठेश होता है.शुक्र लग्नस्थ होकर व्यक्ति को सुन्दर और आकर्षक बनाता है.यह व्यक्ति को आत्मबल एवं आत्मविश्वास प्रदान करता है.षष्ठेश शुक्र रोग और व्याधियां देता है.शुक्र की दशा के समय स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है.प्रथम भाव में स्थित शुक्र सप्तम भाव को देखता है जिससे भौतिक सुख की प्राप्ति होती है.वैवाहिक जीवन प्रेमपूर्ण होता है.रोजगार में उत्तमता रहती है.साझेदारों एवं मित्रों से सहयोग मिलता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ शनि:-वृषभ लग्न की कुण्डली में शनि नवम एवं दशम भाव का स्वामी होता है.यह राशि शनि के मित्र की राशि है.इस राशि में शनि कारक ग्रह होता है.लग्न में वृषभ राशि में बैठा शनि व्यक्ति को अत्यधिक परिश्रमी और कार्य कुशल बनता है.शारीरिक रूप से ताकतवर और पुष्ट बनता है.सरकारी पक्ष से एवं पिता से सहयोग एवं लाभ प्रदान करता है.प्रथम भाव में स्थित शनि की दृष्टि तृतीय, सप्तम एवं दशम भाव पर रहती है.इनका भाग्योदय जन्म स्थान से दूर जाकर होता है.ससुराल पक्ष से लाभ एवं सम्मान प्राप्त होता है.जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त होता है.शनि की दृष्टि से विवाह में विलम्ब होता है एवं भाई बंधुओं से सहयोग नहीं मिल पाता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ राहु:-राहु वृषभ लग्न की कुण्डली में प्रथम भाव में स्थित होने से राहु के गोचर काल में स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना होता है.राहु कार्यों में बाधा डालता है और अवरोध पैदा करता है.लगनस्थ राहु व्यक्ति को गुप्त विद्याओं में पारंगत बनाता है.इस भाव में स्थित राहु वैवाहिक जीवन को कलहपूर्ण बनाता है.जीवनसाथी से असहयोग प्राप्त होता है.
वृषभ लग्न में लग्नस्थ केतु:- वृषभ लग्न की कुण्डली में लग्न भाव में स्थित केतु व्यक्ति को अल्पशिक्षित और लालची बनाता है साथ ही परिश्रमी और कर्मठ भी बनाता है.ये अपनी मेहनत और लगन से असंभव कार्य को भी संभव कर लेते हैं.परिश्रमी होने के बावजूद इनमें साहस की कमी रहती है.स्वतंत्र विचार से किसी काम को पूरा करना इनके लिए कठिन होता है.लॉटरी, जुआ एवं सट्टे में इनका धन बर्बाद होता है.
मिथुन लग्न में नवग्रह का प्रभाव
राशि चक्र की तीसरी राशि मिथुन है.आपकी कुण्डली के लग्न भाव में यह राशि है तो आपका लग्न मिथुन कहलता है.आपके लग्न के साथ प्रथम भाव में जो भी ग्रह बैठता है वह आपके लग्न को प्रभावित करता है.आपके जीवन में जो कुछ भी हो रहा है वह कहीं लग्न में बैठे हुए ग्रहों का प्रभाव तो नहीं है।
३मिथुन लग्न में सूर्य:-मिथुन लग्न की कुण्डली में लग्न में बैठा सूर्य अपने मित्र की राशि में होता है.सूर्य के प्रभाव से व्यक्ति के चेहरे पर रक्तिम आभा छलकती है.व्यक्ति सुन्दर और आकर्षक होता है.इनका व्यक्ति उदार होता है.इनमें साहस धैर्य और पुरूषार्थ भरा होता है.बचपन में इन्हें कई प्रकार के रोगों का सामना करना होता है.युवावस्था में कष्ट और परेशानियों से गुजरना होता है.वृद्धावस्था सुख और आनन्द में व्यतीत होता है.इन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना होता है.सप्तम भाव पर सूर्य की दृष्टि होने से विवाह में विलम्ब होता है.वैवाहिक जीवन अशांत रहता है.
मिथुन लग्न में चन्द्रमा:-मिथुन लग्न में चन्द्रमा धन भाव का स्वामी होता है.इस राशि में चन्द्रमा लगनस्थ होने से व्यक्ति धनवान और सुखी होता है.इनका व्यक्तित्व अस्थिर होता है.मन चंचल रहता है.मनोबल ऊँचा और वाणी में कोमलता रहती है.इनके व्यक्तित्व में हठधर्मिता और अभिमान का भी समावेश रहता है.संगीत के प्रति इनके मन में प्रेम होता है.लग्न में बैठा चन्द्र सप्तम भाव को देखता है जिससे जीवनसाथी सुन्दर और ज्ञानी प्राप्त होता है.गृहस्थी सुखमय रहती है.आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है क्योकि बचत करने में ये होशियार होते हैं.चन्द्र के साथ पाप ग्रह होने पर चन्द्र का शुभत्व प्रभावित होता है अत: चन्द्र को प्रबल करने हेतु आवश्यक उपाय करना चाहिए.
मिथुन लग्न में मंगल:-मंगल मिथुन लग्न की कुण्डली में अकारक होता है . यह इस राशि में षष्ठेश और एकादशेश होता है.मिथुन लग्न में मंगल लगनस्थ होता है तो व्यक्ति को ओजस्वी और पराक्रमी बनाता है.जीवन में अस्थिरता बनी रहती है.व्यक्ति यात्रा का शौकीन होता है.सेना एवं रक्षा विभाग में इन्हें कामयाबी मिलती है.इन्हें माता पिता का पूर्ण सुख नहीं मिल पाता है.शत्रुओं से भी इन्हें कष्ट मिलता है.सप्तम भाव पर मंगल की दृष्टि से गृहस्थ जीवन में कई प्रकार की कठिनाईयां आती हैं.जीवनसाथी स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों से पीड़ित होता है.
मिथुन लग्न में बुध:-बुध मिथुन लग्न का स्वामी है.इस लग्न में यह शुभ और कारक ग्रह होता है.मिथुन लग्न में प्रथम भाव में बैठा बुध व्यक्ति को बुद्धिमान, वाक्पटु और उत्तम स्मरण शक्ति प्रदान करता है.इनमें प्राकृतिक तौर पर कुशल व्यवसायी के गुण मौजूद होते हैं.आर्थिक दशा सामान्य रूप से अच्छी रहती है क्योंकि आय के मामले में एक मार्ग पर चलते रहना इन्हें पसंद नहीं होता.एक से अधिक स्रोतों से आय प्राप्त करना इनके व्यक्तित्व का गुण होता है.इन्हें लेखन, सम्पादन एवं प्रकाशन के क्षेत्र में कामयाबी मिलती है.भूमि, भवन एवं वाहन का सुख मिलता है.जीवनसाथी से इन्हें सहयोग एवं प्रसन्नता मिलती है.
मिथुन लग्न में गुरू:- मिथुन लग्न में गुरू सप्तम और दशम भाव का स्वामी होता है.दो केन्द भाव का स्वामी होने से मिथुन लग्न में यह अकारक ग्रह होता है.प्रथम भाव में गुरू के साथ बुध हो तो यह गुरू के अशुभ प्रभाव में कमी लाता है.गुरू के लग्नस्थ होने से व्यक्ति सुन्दर और गोरा होता है.गुरू के प्रभाव से इन्हें सर्दी, जुकाम एवं कफ की समस्या रहती है.ये चतुर, ज्ञानी और सत्य आचरण वाले व्यक्ति होते हैं.इन्हें समाज से मान सम्मान प्राप्त होता है.गुरू की विशेषता है कि यह जिस भाव को देखता है उससे सम्बन्धित विषय में शुभ फल प्रदान करता है अत: पंचम, सप्तम एवं नवम भाव से सम्बन्धित विषय में व्यक्ति को अनुकूल परिणाम प्राप्त होता है.अगर लग्न में गुरू के साथ पाप ग्रह हों तो परिणाम कष्टकारी होता है.
मिथुन लग्न में शुक्र:-मिथुन लग्न की कुण्डली में शुक्र पंचमेश और द्वादशेश होता है.त्रिकोणश होने के कारण इस लग्न में शुक्र कारक ग्रह होता है.लग्न में मित्र की राशि में बैठा शुक्र शुभ प्रभाव देने वाला होता है.जिनकी कुण्डली में यह स्थिति होती है वह दुबले पतले लेकिन आकर्षक होते हैं.इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति ये अधिक लगाव रखते अत: सुख सुविधाओं में धन खर्च करना भी इन्हें पसंद होता है.समाज में सम्मानित व्यक्ति होते हैं.सप्तम भाव पर इसकी दृष्टि होने से वैवाहिक जीवन में जीवनसाथी से लगाव एवं प्रेम रहता है.शुक्र के प्रभाव से इनका विवाहेत्तर अथवा विवाह पूर्व अन्य सम्बन्ध भी हो सकता है.
मिथुन लग्न में शनि:-मिथुन लग्न में कुण्डली में शनि अष्टम और नवम भाव का स्वामी होता है.त्रिकोण भाव का स्वामी होने से शनि अष्टम भाव के दोष को दूर करता है और कारक की भूमिका निभाता है.मिथुन लग्न की कुण्डली में लग्न में बैठा शनि स्वास्थ्य के मामले में कुछ हद तक पीड़ा देता है.इसके प्रभाव से व्यक्ति दुबला पतला होता है और वात, पित्त एवं चर्मरोग से परेशान होता है.यह भाग्य को प्रबल बनाता है एवं ईश्वर के प्रति श्रद्धावान बनाता है.लग्नस्थ शनि की दृष्टि सप्तम भाव पर होने से व्यक्ति में कामेच्छा अधिक रहती है.दशम भाव पर शनि की दृष्टि राज्य पक्ष से दंड एवं कष्ट देता है.माता पिता के सम्बन्ध में कष्ट देता है.शनि व्यक्ति को परिश्रमी बनाता है.
मिथुन लग्न में राहु :-राहु मिथुन लग्न में मित्र राशि में होता है.इस राशि में राहु उच्च का होने से यह व्यक्ति को चालाक और कार्य कुशल बनाता है.व्यक्ति अपना काम निकालने में होशियार होता है.इनमें साहस भरपूर रहता है.लगनस्थ राहु व्यक्ति को आकर्षक एवं हृष्ट पुष्ट काया प्रदान करता है.मिथुन लग्न की स्त्रियों को लग्नस्थ राहु संतान के संदर्भ में कष्ट देता है.राहु इनके वैवाहिक जीवन में कलह उत्पन्न करता है.इनकी कुण्डली में यह द्विभार्या योग बनाता है.
मिथुन लग्न में केतु :-केतु मिथुन लग्न की कुण्डली में लगनस्थ होने से व्यक्ति में स्वाभिमान की कमी रहती है.ये स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अपेक्षा दूसरों के साथ काम करना पसंद करते हैं.व्यापार की अपेक्षा नौकरी करना इन्हें पसंद होता है.इनमें स्वार्थ की प्रवृति होती है.केतु के प्रभाव से वात एवं पित्त रोग इन्हें परेशान करता है.कामेच्छा भी इनमें प्रबल रहती है.वैवाहिक जीवन में उथल पुथल की स्थिति रहती है.विवाहेत्तर सम्बन्ध की संभावना भी केतु के कारण प्रबल रहती है.
४ कर्क लग्न में नवग्रह का फल:-
कर्क लग्न में नवग्रह फल कर्क लग्न का स्वामी चन्द्रमा है.अगर आपका लग्न भी कर्क है तो आप घूमने के शौकीन होंगे.आपकी कल्पनाशीलता और स्मरण क्षमता अच्छी होगी.आप में निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ने की इच्छा होगी.अगर आपकी कुण्डली के लग्न भाव में कोई ग्रह बैठा है तो इससे आप प्रभावित होंगे.ग्रहों का प्रभाव आपके लिए शुभ है या अशुभ जानिए.

कर्क लग्न की कुण्डली मे लग्नस्थ सूर्य:-कर्क लग्न की कुण्डली में सूर्य द्वितीय भाव का स्वामी होता है.प्रथम भाव में चन्द्रमा की राशि कर्क में होने से यह स्वास्थ्य के सम्बन्ध में कष्टकारी होता है.सूर्य की दशा में स्वास्थ्य को लेकर व्यक्ति परेशान होता है.इनमें अभिमान एवं उग्रता रहती है.इन्हें व्यापार की अपेक्षा नौकरी करना पसंद होता है.सरकारी मामलों में इन्हें परेशानियों का सामना करना होता है.पिता के साथ अनबन रहती है.इन्हें स्थिर होकर बैठना पसंद नहीं होता है.सगे सम्बन्धियों से विरोध का सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नेश होने से शुभ कारक ग्रह होता है.इस लग्न में चन्द्रमा स्वराशि का होता है तो उदार और परोपकारी होता है.इनमें ईश्वर के प्रति आस्था और बड़ों के प्रति सम्मान और आदर होता है.इनका मनोबल ऊँचा रहता है.अपने प्रयास से समाज में उच्च स्थान प्राप्त करते हैं.व्यापार में इन्हें सफलता मिलती है.कला के क्षेत्र में भी इन्हें अच्छी सफलता मिलती है.चन्द्रमा की दृष्टि सप्तम भाव पर होने से जीवनसाथी के सम्बन्ध में उत्तम फल देता है.व्यक्ति को विद्वान एवं ज्ञानवान बनता है.धन भाव चन्द्रमा का प्रभाव होने से आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.विवाह के पश्चात इन्हें विशेष लाभ मिलता है.कटु सत्य एवं स्पष्ट कथन के कारण इन्हें विरोध का भी सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली मे लग्नस्थ मंगल:-मंगल कर्क लग्न की कुण्डली में पंचमेश और दशमेश होता है.यह दशमेश और त्रिकोणेश होने से कर्क लग्न में मंगलकारी होता है . मंगल के प्रभाव से व्यक्ति क्रोधी और उग्र होता है.इनमें महत्वाकांक्षा अधिक रहती है.राजकीय पक्ष से मंगल इन्हें लाभ प्रदान करता है.प्रथम भाव में बैठा मंगल चतुर्थ भाव एवं अष्टम भाव को देखता है.मंगल की दृष्टि से व्यक्ति को आर्थिक लाभ मिलता रहता है लेकिन व्यय भी उसी अनुपात में होता रहता है.धन संचय कर रख पाना इनके लिए कठिन होता है.वैवाहिक जीवन में मधुरता की कमी रहती है क्योंकि मंगल की दृष्टि से सप्तम भाव प्रभावित होता है.पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण रहता है.लग्नस्थ मंगल के प्रभाव से व्यक्ति संतान सुख प्राप्त करता है.स्वभाव में चतुराई और लालच के कारण कभी कभी इन्हें अपमान का भी सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ बुध:-बुध कर्क लग्न की कुण्डली में अशुभ कारक ग्रह होता है.यह इस लग्न में तृतीय और द्वादश भाव का स्वामी होता है.बुध अगर लग्न भाव में स्थित हो तो व्यक्ति का व्यवहार और आचरण संदेहपूर्ण होता है.आजीविका के तौर पर नौकरी इन्हें पसंद होता है.व्यापार में इनकी रूचि बहुत कम रहती है.अगर ये जल से सम्बन्धित वस्तुओ का करोबार करते हैं तो व्यापार भी इनकें लिए लाभप्रद और उन्नति कारक होता है.इन्हें सगे सम्बन्धियों एवं भाईयों से विशेष लगाव नहीं रहता.सप्तम भाव पर बुध की दृष्टि होने से गृहस्थ जीवन में तनाव बना रहता है.साझेदारों से हानि होती है.शत्रुओं के कारण कठिनाईयो का सामना करना होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ गुरू:-आपकी जन्म कुण्डली के लग्न भाव में कर्क राशि है अत: आप कर्क लग्न के है.आपकी कुण्डली में गुरू षष्टम एवं नवम भाव का स्वामी है.षष्टम का स्वामी होने से जहां गुरू दूषित होता है वहीं त्रिकोणेश होने से शुभ फलदायी भी होता है.लग्न में बैठा गुरू व्यक्तित्व को आकर्षक बनाता है.यह अपनी पूर्ण दृष्टि से पंचम, सप्तम एवं नवम भाव को देखता है.पंचम भाव में गुरू की दृष्टि संतान के संदर्भ में शुभ फलदायी होती है.सप्तम भाव में जीवनसाथी के विषय में उत्तमता प्रदान करती है.नवम भाव पर दृष्टि होने से भाग्य प्रबल रहता है.जीवन धन धान्य से परिपूर्ण होता है.व्यवहार में उदारता और दायभाव शामिल रहता है.अगर लग्न में स्थित गुरू पाप ग्रहों से दृष्ट अथवा युत हो तो गुरू की शुभता हेतु उपाय करना चाहिए..
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ शुक्र:-चन्द्र की राशि कर्क में शुक्र अकारक ग्रह होता है.यह इस लग्न की कुण्डली में चतुर्थ और एकादश भाव का स्वामी होता है.दो केन्द्र भाव का स्वामी होने से शुक्र को केन्द्राधिपति दोष लगता है.शक्र लग्नस्थ होने से व्यक्ति में साहस की कमी रहती है.इनके मन में अनजाना भय बना रहता है.आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है.नौकरी एवं व्यापार दोनों में ही इन्हें अच्छी सफलता मिलती है.शुक्र की दृष्टि सप्तम भाव में स्थित शनि की राशि पर होने से व्यक्ति में काम की भावना अधिक रहती है.स्त्रियों से इनका विशेष लगाव रहता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ शनि:-कर्क लग्न की कुण्डली में शनि सप्तमेश और अष्टमेश होता है.इस लग्न की कुण्डली में शनि अशुभ, कष्टकारी एवं पीड़ादायक होता है.इस राशि में शनि लग्नस्थ होने से व्यक्ति के स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है.व्यक्ति दुबला पतला होता है.इनका स्वभाव विलासी होता है.ये सुख कामी होते हैं.अपना अधिकांश धन भोग विलास में खर्च करते हैं.लग्नस्थ शनि माता पिता के सुख में कमी करता है.संतान के विषय में भी यह कष्टकारी होता है.शनि अपनी पूर्ण दृष्टि से तृतीय, सप्तम एवं दशम भाव को देखता है.इसके कारण से भाईयों एवं कुटुम्बों से विशेष सहयोग नहीं मिल पाता है.गृहस्थी सुख में कमी आती है.शनि आर्थिक लाभ प्रदान करता है तो खर्च के भी कई रास्ते खोल देता है.नेत्र सम्बन्धी रोग की भी संभावना रहती है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ राहु:-राहु कर्क लग्न की कुण्डली में प्रथम भाव में स्थित होने से व्यक्ति को विलासी बनाता है.इनका मन सुख सुविधाओं के प्रति आकर्षित होता है.व्यापार में सफलता प्राप्त करने के लिए इन्हें कठिन परिश्रम करना होता है.नौकरी में इन्हें जल्दी सफलता मिलती है.राहु अपनी सातवीं दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है जिससे वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण होता है.जीवनसाथी से सहयोग नहीं मिलता है.साझेदारी में नुकसान होता है.
कर्क लग्न की कुण्डली में लग्नस्थ केतु :-कर्क लग्न की कुण्डली मे प्रथम भाव में बैठा केतु स्वास्थ्य को प्रभावित करता है.केतु की दशा के समय स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव होता रहता है.समाजिक मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा के प्रति ये विशेष उत्सुक होते हैं.इनके गुप्त शत्रु भी होते हैं जिनके कारण परेशानियों का सामना करना होता है.सप्तम भाव पर केतु की दृष्टि इस भाव के फल को मंदा कर देती है.इस भाव के केतु से पीड़ित होने के कारण वैवाहिक जीवन के सुख में कमी आती है.केतु इन्हें विवेहेत्तर सम्बन्ध के लिए भी प्रेरित करता है.
५ सिंह लग्न में नवग्रह का फल
जिस व्यक्ति का जन्म सिंह लग्न में होता है वे दिखने में सुन्दर और हृष्ट पुष्ट होते है.ये महत्वाकांक्षी और हठीले स्वभाव के होते हैं.ये जितने साहसी होते हैं उतने ही आत्मविश्वासी होते हैं.इनमें साहस और आत्म विश्वास भरपूर रहता है.राजनीति में इनकी रूचि रहती है.इस लग्न की कुण्डली मे प्रथम भाव में स्थित ग्रह किस प्रकार फल देते हैं इसे देखिए.
सिंह लग्न में लग्नस्थ सूर्य:-सूर्य सिंह लग्न की कुण्डली में लग्नेश होकर शुभ कारक ग्रह होता है.स्वराशि में स्थित सूर्य व्यक्ति को गुणवान और विद्वान बनाता है. यह व्यक्ति को आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाता है.आपनी कार्य कुशलता एवं प्रतिभा के कारण सामाज में सम्मानित होते हैं.ये जिस काम में हाथ डालते हैं उसे पूरे मनोयोग से करते हैं.कार्यो में बार बार परिवर्तन करना इन्हें पसंद नहीं होता.ये पराक्रमी होते हैं.दूसरों की सहायता उदारता पूर्वक करते हैं.प्रथम भाव में स्थित सूर्य सप्तम में स्थित शनि की राशि कुम्भ को देखता है जिससे दाम्पत्य जीवन में तनाव बना रहता है.मित्रों एवं साझेदारों से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता है.
सिंह लग्न में लग्नस्थ चन्द्र:-चन्द्रमा सिंह लग्न की कुण्डली में द्वादश भाव का स्वामी होता है.अपनी दशावधि में यह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के फल प्रदान करता है.सिंह राशि में चन्द्रमा लग्न में स्थित होता है तो व्यक्ति का स्वभाव चंचल होता है.इनका मन स्थिर नहीं रहता है और न ये एक स्थान पर टिक कर रहना पसंद करते हैं.ये किसी की मदद निस्वार्थ रूप से करना पसंद करते हैं.ये नेक और सज्जन होते हैं.इन्हें माता पिता से प्रेम और सहयोग प्राप्त होता है.चन्द्र इन्हें राजनीति में सफलता दिलाने सहयोग करता है.सप्तम भाव पर चन्द्र की दृष्टि कुम्भ पर होने से वैवाहिक जीवन में कठिनाई आती है.चन्द्र के साथ पाप ग्रह होने पर चन्द्र के शुभत्व में कमी आती है अत: चन्द्र का उपाय करना चाहिए.
सिंह लग्न मे लग्नस्थ मंगल:-मंगल सिंह लग्न की कुण्डली में शुभ कारक ग्रह होता है .यह इस लग्न में चतुर्थ और नवम भाव का स्वामी होता है.लग्न में मंगल व्यक्ति को साहसी, निडर और आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाता है.व्यक्ति एक से अधिक साधनो से धन प्राप्त करता है.लग्न में बैठा मंगल चतुर्थ, सप्तम एवं अष्टम भाव को देखता है.मंगल की दृष्टि साझेदारों से विरोध का कारण बनती है.वैवाहिक जीवन में उथल पुथल मचाती हैं एवं शत्रुओं से पीड़ित करती है.मंगल इन्हें संतान सुख दिलाता है परंतु काफी इंतजार के बाद.
सिंह लग्न में लग्नस्थ बुध:-सिंह लग्न की कुण्डली में बुध द्वितीय और एकादश भाव का स्वामी

व्यवहार में मन, बुद्धि और चित्त का एक सा ही प्रयोग कर देते हैं कई बार, किन्तु तत्व देखें तो बहुत बड़ा भेद है। प्रपञ्चसार तन्त्र के अनुसार मन इंद्रियों की तन्मात्रा के द्वारा विषयों को ग्रहण करता है, उसका काम सङ्कल्प और विकल्प, समर्थन एवं विरोध करना है। जबकि चित्त साक्षी भाव से केवल इन विचार और संस्कारों का संरक्षण और संचय करता है, एक खजांची की भांति। बुद्धि सङ्कल्प और विकल्प के मध्य पूर्वस्मृति के संस्कारों से प्रभावित होकर एक पक्ष का चयन करती है, निर्णय देती है।

सो परत्र दुःख पावई, सिर धुनि धुनि पछिताई …
कालहि कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोष लगाई …

क्यों भाई, जब आत्मा निर्लिप्त है तो फिर कैसे ??

जीव संसार का अंश है, इसका अर्थ यह नहीं कि जीव जड़ है। अपितु संसार में क्रियाशील आत्मा को जीव भले कह दें। जैसे चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति को प्रत्याशी कह देते हैं, वही यदि परीक्षा देने जाए तो विद्यार्थी कह देते हैं, किन्तु इससे इनके मूल व्यक्तित्व या मनुष्य होने में भेद नहीं हो जाता।

एकदम सरल उत्तर है उपनिषदों में। जैसे स्फटिक के पास लाल, पीले, नीले, पुष्प या वस्त्र रखने से स्फटिक भी वैसे ही वर्ण का दिखने लगता है, वैसे ही आत्मा निर्लिप्त होने पर भी अंतःकरण में संचित संस्कारों के समीपवर्ती होने से प्रभावित दिखने लगती है। इसीलिए इस भ्रम का नाश अनिवार्य है और नाश होने पर तत्वबोध हो जाता है, फिर वह व्यक्ति कर्मबन्धन से भी मुक्त है।

इसलिए कहता है मन को निर्मल बनाओ, चित्त को शुद्ध बनाओ। क्योंकि आत्मा तो सर्वदा शुद्ध है, उसमें दूषित अंतःकरण के कारण दोष भाव दिखता है। दोष का आरोप अंतःकरण के कारण होता है, यदि ये निर्मल हो जाये तो आत्मा का निर्मलत्व भी स्वतः प्रत्यक्ष हो जाएगा।

बर्फ से ढका कोयला भी सफेद ही दिखता है और मैल से ढका दर्पण भी काला दिखता है, जो दिखता है, वह भ्रम है या सत्य ये रघुवीर जी ही कृपा करके बताते हैं। धूप उगेगी तो बर्फ पिघलेगी।

बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥

भ्रूण में आत्मा गर्भाधान के समय से ही स्थित तो थी, किन्तु शरीर के अवयवों की अव्यवस्था और अपूर्णता के कारण उसकी अभिव्यक्ति सम्भव नहीं थी। जब अभिव्यक्ति सम्भव हुई, तभी जीव का प्रवेश हुआ, ऐसा मानना चाहिए। जैसे वृक्ष में भी आत्मा है, लेकिन वो बोलती नहीं, क्योंकि वो सिस्टम नहीं लगा। फ़ॉर जी सिम को साधारण फोन में लगाएंगे तो भी उसके तरंग क्रियाशील नहीं होंगे, क्योंकि सिस्टम का अभाव है।

जीवात्मा वायुमंडल से जल, जल से अन्न, अन्न से शुक्र और वहां से गर्भ में जाता अवश्य है, किन्तु उसकी मूलभूत अभिव्यक्ति हेतु जितने सिस्टम की आवश्यकता है, उसके अभाव में उद्बोधनहीन रहता है, या यूं कहें कि उसके उद्बोधन और उपस्थिति को समझने हेतु हम जिस सिस्टम के पैमाने को समझते हैं, उसका अभाव होता है, इसीलिए जब मूलभूत अंग बन जाते हैं, तब वह प्रत्यक्ष होता है।

अन्न के बीज और शुक्राणु को अलग अलग समझें। बीज में प्रत्येक बीज में जीवात्मा है, क्योंकि जल के माध्यम से अन्न के बीज में ही वह जाएगा, उसके बाद ही किसी अन्य योनि में। किन्तु शुक्राणु के साथ नहीं। शुक्राणु वही निषेचन करेगा जिसमें जीवात्मा भी हो। जैसे सौ शरीर आप नदी में डाल दें तो प्रवाह में बहेंगे सभी, लेकिन जिसमें चेतन होगा वह इच्छानुसार तैर सकता है, गंतव्य तक जा सकता है, और चेतनाहीन शरीर तभी तक सक्रिय तैरता दिखेगा जब तक प्रवाह का वेग बना हुआ है।

जैसे आप विद्यालय में शरीर से प्रवेश कर गए तो यह नहीं कहा जायेगा कि आपका विद्यालय में प्रवेश हो गया है। जब वहां नामांकन होगा, अभिव्यक्ति होगी, सक्रियता होगी, तभी कहते हैं कि विद्यालय में प्रवेश हुआ। विद्यालय के भवन में आपके शरीर का उपस्थित होना विद्यालय में वास्तविक प्रवेश नहीं कहलाता है।

ऐसे ही आत्मा तो गर्भाधान के ही समय गर्भ और फिर भ्रूण में समाहित हो जाती है, लेकिन उसका नामांकन, या सक्रियता और अभिव्यक्ति न होने से जब तीसरे या चौथे महीने में मूलभूत देह निर्माण के बाद अभिव्यक्ति होती है, तब आत्मा का प्रवेश हुआ, ऐसा कहते हैं।

यह परम्परागत गुरुमुख से ही गम्य होता है, पुस्तकें स्वयं से पढ़ भी लें तो चम्मच की भांति बुद्धि स्वादार्थ को ग्रहण नहीं करती। इसीलिए अनेकों ग्रंथों में गुरु की महिमा विशेषकर उल्लिखित है। यथा कतिपय प्रमाणावलोकन करें,

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
(गर्ग संहिता, माधुर्य खण्ड)

गुरुर्ब्रह्मा गुरु विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मादादौ तमर्चयेत्॥
(श्रीभक्तिचंद्रिका, चतुर्थ पटल)

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात्परब्रह्म मोक्षदः पावको हि सः॥
(लक्ष्मीनारायण संहिता, कृतयुगसन्तान खण्ड)

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाच्युतः ।
न गुरोरधिकः कश्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥
(योगशिखोपनिषत्)

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
(स्कन्दपुराण)

गुरुर्ब्रह्मा स्वयं विष्णुः शंभुर्नारायणो गुरुः ।
गुरुरेव परब्रह्म प्रत्यक्षो भगवान् हरिः ॥
(लक्ष्मीनारायण संहिता, कृतयुगसंतान खण्ड)

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुरेव स्वयं शिवः ।
गुरौ च सर्वदेवाश्च तिष्ठन्ति सततं मुदा ॥
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्म खण्ड)

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म ब्राह्मणेभ्यः प्रियः परः ॥
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, गणपति खण्ड)

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, एकादश स्कंध)

सती विधात्री इंदिरा, देखे अमित अनूप …

एक ही ब्रह्मांड है, ऐसा नहीं। अनंत ब्रह्मांड हैं। एक ही ब्रह्मा हैं, ऐसा नहीं, अनंत ब्रह्मा हैं।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति, वेद कहैं।

शूद्र और स्त्री पुराण पाठ नहीं कर सकते, श्रवण कर सकते हैं। बृहद्धर्म पुराण में ब्राह्मण के लिए मदिरा पान और शूद्र के लिए पुराण का पाठ ब्रह्महत्या के समान बताया गया है। हां, हिंदी अनुवाद पढ़ सकते हैं, पाठ नहीं कर सकते। कोई साध्वी पतिव्रता ब्राह्मणी हो तो पाठ कर सकती है, ऐसा सम्भवतः सूत संहिता का वचन है। सदाचारी सात्विक शूद्र रामायण का पाठ कर सकता है, ऐसा वाल्मीकीय रामायण के प्रथम अध्याय के अंतिम श्लोक में वर्णित है। गोस्वामी जी ने भी जनमानस के कल्याण हेतु ही लोकभाषा में कलिमलहरणकारिणी रामकथा का विस्तार किया।

हां, यदि सात्विकता और शुद्धता का बोध हो, आस्था और समर्पण हो शास्त्रसिद्ध बातों में तो अधिकृत वक्ता से सुन भी सकते हैं, और हिंदी, बंगाली आदि प्राकृत भाषाओं में भावानुवाद पढ़ भी सकते हैं।

वर्तमान ब्रह्मा जी के अभी तो चार मुख ही बचे हैं। आगे का पता नहीं, आधी आयु में ही चार खो चुके हैं। बाकी आधी आयु में क्या होगा, कौन जाने ? कुछ होगा तो उस समय के ग्रंथों में बता दिया जाएगा।

वैसे ब्रह्मा जी के आठ मुखों की चर्चा वैष्णवागम के माहेश्वर तन्त्र में है। इसके अलावा बृहद्धर्म पुराण में अन्य ब्रह्माण्ड वाले षोडश एवं बत्तीस मुख वाले ब्रह्मा का भी वर्णन है। अंतिम तीन तो तीनों गुणों के विस्तार में लग गए जिनके फलस्वरूप त्रिगुणमयी सृष्टि हुई। पांचवां मुख वेदनिन्दा करने से रुद्रावतार भैरव जी ने काट दिया, शेष चार अभी बचे हैं।

ये अन्य ब्रह्मांड के ब्रह्मा में से कुछ पहले कुत्ता आदि की योनि में थे, गंगाजल के सानिध्य से ब्रह्मलोक के अधिपति बनने की योग्यता आयी। इधर गद्दी खाली नहीं थी इसीलिए दूसरे ब्रह्मांड में नियुक्ति मिली। वैसे भी भगवान् तो अनंतकोटिब्रह्मांडनियामक हैं ही, रोज दो चार सौ ब्रह्मांड बनाते हैं और मिटाते हैं। फिर “जेहि पद सुर सरिता परम पुनीता”, उनके चरणोदक मूल प्रकृति श्रीगंगा जी का माहात्म्य तो वर्णनातीत है।

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतो:।
धर्मो नित्यो सुख दुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
(महाभारत)

कामनाओं के वशीभूत होकर, भय के कारण, लोभ से अथवा स्वयं की प्राणरक्षा हेतु भी धर्म का परित्याग न करे। धर्म नित्य शाश्वत है, सुख-दुःख आते जाते हैं, आत्मा अविनाशी है, उसकी प्रतीति का निमित्त देह आता जाता रहता है।

जीव और आत्मा को अलग अलग समझना, आत्मा परिणामी द्रव्यमस्ति, जीवः अस्तिकायस्वरुपो भवति, ये सब नास्तिकमत वाले जैन दर्शन का सिद्धांत है। आस्तिक मत वाले जीव को ही आत्मा कहते हैं।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः
(श्रीमद्भगवद्गीता)

स जीवः सोऽन्तरात्मेति गीयते तत्त्वचिन्तकैः।
(कूर्मपुराण)

हां, एक बात कह सकते हैं कि अविद्या, क्लेश, कर्मावरण युक्त होने पर चेतन जीव कहाता है और मुक्त होने पर आत्मा। किन्तु है दोनों एक ही चेतन। स्थिति भेद है, तत्वभेद नहीं। यह बात ऐसे सिद्ध होती है।

क्लेशकर्मविपाकाशयो जीवः । क्लिश्यन्त इति क्लेशाः अविद्यादयः ।
(आयुर्वेदसूत्र)

अविद्याकार्यभूतबुद्ध्युपहितं बुद्वितादात्म्यापत्रं चैतन्यं जीवः ।
(काठकोपनिषत्)

जीवः कर्मफलं भुङ्क्ते आत्मा निर्लिप्त एव च ।
आत्मनः प्रतिबिम्बं च देही जीवः स एव च ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण)

जीवः तु गुणसंयुक्तः भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ
(उद्धवगीता)

जीवः कर्मफलं भुंक्ते तदात्मा नहि लिप्यते ।
(लक्ष्मीनारायण संहिता)

लेकिन यह तत्वचिंतन नहीं है, यह स्थितिचिन्तन है। तत्वचिंतक कहता है, जीव और आत्मा एक है।

स जीव एवेश्वरचित्स आत्मा
(योगवाशिष्ठ)

सभी तत्वों में बढ़कर जो आत्मा है, वही जीव है जो आकाश की भांति सबके ऊपर प्रकाशित है।

तेषामात्मा परो जीवः खं यथा संप्रकाशितः॥
(गौड़पादकारिका)

आत्मा ईश्वर का बिम्ब है, वैसे ही जीव भी है, इसीलिए जीव और आत्मा एक ही है।
प्रतिबिम्बो जीवः, बिम्बस्थानीय ईश्वरः
(सिद्धांतलेशसङ्ग्रह)

अयमात्मा जीवः
प्रत्यङ् आत्मा जीवः इत्यर्थः
(अलङ्कारमणिहार)

अब कौन जीव है और कौन आत्मा ? जब चेतन स्वयं को ईश्वर से भिन्न देखने लगता है तक जीव है और कर्मफल भोगता है, जब एक देखने लगता है तो आत्मा है और निर्लिप्त रहता है और जब द्रष्टा और दृश्य दोनों में एकरूपता हो जाती है तो आत्मा और परमात्मा का भेद ही नहीं रहता।

स एव जीवः प्रकृत्या स्वस्मात् ईश्वरं भिन्नत्वेन जानाति । अविद्योपाधिः सन् आत्मा जीव इत्युच्यते ॥
(तत्त्वबोध)

ब्रह्मांडपुराण के उत्तरभाग में अंतःकरण, आत्मा, जीव और प्राण, इनको पर्यायवाची बताया गया है। अर्थात् व्यवहार में आत्मा निकल गयी, प्राण चले गए, जीव प्रस्थान कर गया, आदि का अर्थ एक ही माना जाता है।

जीवः प्राणस्तथा लिङ्गं करणं च चतुष्टयम्।
पर्यायवाचकैः शब्दैरेकार्थैः सोऽभिलष्यते ॥

आयुर्वेदसूत्र के तृतीय प्रश्न में “आत्मा जीवः” एक अलग विषय ही है जिसमें आत्मा ही जीव है, यह बताया है।

लक्ष्मीनारायण संहिता के कृतयुगसन्तानखण्ड में प्रह्लाद जी राक्षस-बालकों को प्रजनन क्रिया बताते हुए कहते हैं कि वीर्य के अंदर जीवात्मा का वास बताया है, जो रज से मिलकर आगे देहादि का निर्माण करता है।

जीवात्मनाऽन्वितं वीर्यं रजोयुक्तं भवत्यथ।
रजोवीर्यात्मभिः सर्वा सूष्टिर्भवति चेतना॥

जब तक शरीर में है, तब तक देहाभिमान से युक्त होकर चेतन जीव कहाता है, बाहर निकलने पर वह आत्मा कहाता है, अथवा जीवात्मा भी कहाता है।

देही, देहाभिमानी जीवः
(मोक्षोपायटीका)

देहरूपकोशात् जीवः आत्मा इव निष्क्रमेत्
(रसरत्नसमुच्चय)

प्राणादि से युक्त आत्मा की ही जीव संज्ञा है, ऐसा तन्त्र एवं वेदों का वचन है।

गुणबद्धस्तथा जीवः प्राणापानेन कर्षति।
(योगचूड़ामण्यूपनिषत् एवं गोरक्षशतक)

सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह में जीव को बार बार मरने और जन्म लेने वाला बताया गया है

नानायोनिसहस्रेषु जायमानो मुहुर्मुहुः ।
म्रियमाणो भ्रमत्येष जीवः संसारमण्डले ॥

किन्तु यहाँ देहाभिमान से युक्त, कर्मावरण में मग्न चेतन का, जो स्वयं के ब्रह्मरूप से पृथकतावाद को धारण करता है, उसके बार बार देह परिवर्तन का ही संकेत है। वस्तुतः जब आत्मा स्वयं को देहाभिमान से ग्रस्त जानकर सुखदुःखादि का उपभोग करती है, तब उसे जीव कहते हैं, ऐसा विष्णुधर्मोत्तर पुराण का वचन है।

आत्मा जीवः स्मृतो राम यो भोक्ता सुखदुःखयोः ।

आत्मा और जीव, ये दोनों चेतन की कर्मावरण से मुक्त और युक्त स्थितियों के नाम हैं, सामान्यतः जीवात्मा भी कहते हैं और इन्हें ही वेद में क्षेत्रज्ञ कहा गया है।

जीवात्मा क्षेत्रज्ञ इति विज्ञायते ॥
(शारीरिकोपनिषत्)

मूलतः और तत्वतः जीव, आत्मा और ब्रह्म में अविभाज्य एकात्मकता है।

एवं ब्रह्मैव जीवात्मा निर्विभागो निरन्तरः।
(योगवाशिष्ठ)

किन्तु जब मैं भिन्न हूँ, यह अहंकार होता है तो वही भिन्न प्रतीत होने लगता है।

अहंकारो हि जीवात्मा
(भविष्यपुराण)

किन्तु इनसे ऊपर उठकर देखें तो परमात्मा हो, जीवात्मा हो अथवा अंतरात्मा हो, ये एक ही हैं, शाश्वत अविनाशी हैं।

जीवात्मा परमात्मा च ह्यंतरात्मा ध्रुवोऽव्ययः ॥
(गर्ग संहिता)

योऽहं जीवात्मा तद्ब्रह्म । योऽसौ परमात्मा सोऽहम्॥
(वैखानसगृह्यसूत्र)

अतएव आत्मा, जीव, जीवात्मा और परमात्मा तत्वतः एक ही हैं। ये केवल चेतन की भिन्न स्थितियों के नाम हैं।

चेतन जब निर्विकार, निर्गुण, निर्लिप्त, स्वयं के अतिरिक्त अन्य को न देखने वाला, प्रेरकभाव से रहता है तो ब्रह्म अथवा परमात्मा कहाता है।

वही चेतन जब निर्विकार, निर्गुण, निर्लिप्त, स्वयं के अतिरिक्त परमात्मा की स्थिति को देखने और भी उससे स्वयं को अलग न मानने वाला होता है, फलतः कर्मावरण से मुक्त रहता है तो आत्मा कहाता है।

वही चेतन जब विकार, गुण, लिप्तता और कर्म के आवरण के कारण स्वयं को परमात्मा की स्थिति से भिन्न मानने वाला होता है, फलतः कर्मावरण से युक्त होता है तो जीव कहाता है।

उसी चेतन की जीव और आत्मा, दोनों स्थितियों का सामूहिक बोध कराने के लिए जीवात्मा शब्द का प्रयोग होता है, अतएव उपर्युक्त चारों स्थितिचिन्तन में तत्वतः एक ही चेतन का बोध होता है।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru
[ सूर्य

भगवान सूर्य के रथ में क्यों लगे होते हैं सात घोड़े?

भगवान सूर्य को नवग्रह का राजा कहा जाता है। उन्हें आदित्य, भानु और रवि जैसे कई नामों से पुकारा जाता है। कहते हैं कि सूर्यदेव ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जो अपनी रोशनी से सारे संसार में उजाला करते हैं। इनके दर्शन भी साक्षात होते हैं साथ ही सूर्यदेव सात घोड़ों से सुशोभित सोने के रथ पर रहते हैं। इनके रथ में लगे सात घोड़ों की कमान अरुण देव के हाथ में होती है। परंतु क्या आप जानते हैं कि जिस रथ पर भगवान सूर्य सवार रहते हैं उसमें सात घोड़े ही क्यों रहते हैं?

दरअसल भगवान सूर्य जिस सात घोड़े वाले रथ पर सवार रहते हैं उसके संबंध में धार्मिक ग्रंथों में कई पौराणिक प्रचलित हैं। सूर्यदेव के रथ को संभालने वाले इन सात घोड़ों के नाम – गायत्री, भ्राति, उष्निक, जगती, त्रिस्तप, अनुस्तप और पंक्ति हैं। इसके बारे में मान्यता है कि ये अलग अलग दिनों को दर्शाते हैं जो स्वयं सूर्यदेव की किरणों से उत्पन्न हुई हैं। साथ ही सूर्यदेव के इन सात घोड़ों को इंद्रधनुष के सात रंगों से जोड़कर भी देखा जाता है।

अगर ध्यान से देखा जाए तो इन सातों घोड़ों के रंग एक दूसरे से अलग होते हैं और ये सभी घोड़े एक दूसरे से अलग नजर आते हैं। ये सभी घोड़े स्वयं सूर्य की रोशनी का प्रतीक हैं। भगवान सूर्य के सात घोड़े वाले रथ पर सवार होने से प्रेरणा लेकर सूर्यदेव के कई मंदिरों में उनकी मूर्तियां स्थापित की गई हैं। इसमें खास बात ये है कि उनकी सारी मूर्तियां उनके रथ के साथ ही बनाई गई हैं।
: जामुन की गुठली का ऐसे करें सेवन, होंगे ये कमाल के सेहत लाभ

1 जामुन की गुठली डायबिटीज के मरीजों के लिए एक रामबाण औषधि है। इसके पाउडर को रोजाना सुबह एक चम्मच गुनगुने पानी के साथ लें। बेशक इससे आपको लाभ होगा।

2 महिलाओं में मासिक धर्म की समस्या और दर्द में जामुन की गुठली का पाउडर लाभकारी होता है। रोजाना एक चम्मच पाउडर लेने से मासिक धर्म में ज्यादा परेशानी नहीं होगी।

3 दांत व मसू़ड़ों से संबंधित समस्याओं में जामुन की गुठली के पाउडर को मंजन की तरह प्रयोग करें, इससे आपको लाभ होगा।

4 मूत्र वहन संबंधी समस्याओं में यह चूर्ण बेहद लाभकारी होता है। इसे बार- बार पेशाब आने की समस्याओं में भी लाभ होता है और इंफेक्शन भी ठीक होता है।

5 गुर्दे की पथरी होने पर जामुन की गुठली का चूर्ण लाभदायक होता है। रोजाना सुबह शाम इस चूर्ण को एक चम्मच की मात्रा में पानी के साथ लें।

/

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


[: कोई तन दुखी, कोई मन दुखी, कोई धन बिन रहत उदास।
थोड़े-थोड़े सब दुखी, सुखीकृष्णके_दास।।
🌺🌺🌺
एक भी व्यक्ति संसार में ऐसा नहीं है जिसके बारे में आप यह कह सकें कि यह सुखी है, कोई भी व्यक्ति संसार में ऐसा नहीं है जो छाती पर हाथ धर कर कहे कि मैं सुखी हूँ, दो-दो हजार करोड़ का टर्नओवर हर महीने कर रहे हैं, पाँच-पाँच हजार करोड़ का टर्नओवर हर महीने कर रहे हैं, लेकिन खाते क्या है? मूँग की दाल के साथ रूखा फुल्का।
एक ऐसे ही अरबपति सेठ जी से पूछा ये क्या भोजन है, इतना सब वैभव और मूँग की दाल के साथ रूखा फुल्का?
बोले: क्या करें डॉक्टर ने मना किया है, रोटी चुपड़कर खा लूंगा तो ब्लड प्रेशर हाई हो जायेगा।
सम्पत्ति अरबों की है लेकिन खाते हैं रूखा फुल्का, किसी को किसी बात की कमी नहीं है, अनन्त सम्पत्ति है, बड़ी-बड़ी इंडस्ट्रीयाँ हैं, लेकिन मानसिक चिंता भयानक रूप से व्याप्त हैं।
धनी तो वहीं है जिसके पास भगवान नाम का धन है, प्रभु के नाम का धन जिसने कमा लिया वही एकमात्र धनी है! और कौन धनी है? 🙏हरे कृष्ण🙏
[🌹🌹🌹🚩🚩🚩आदि शंकराचार्य जी से प्रश्न किया गया कि “परिपक्वता” का क्या अर्थ है?

  1. परिपक्वता वह है – जब आप दूसरों को बदलने का प्रयास करना बंद कर दे, इसके बजाय स्वयं को बदलने पर ध्यान केन्द्रित करें.
  2. परिपक्वता वह है – जब आप दूसरों को, जैसे हैं,वैसा ही स्वीकार करें.
  3. परिपक्वता वह है – जब आप यह समझे कि प्रत्येक व्यक्ति उसकी सोच अनुसार सही हैं.
  4. परिपक्वता वह है – जब आप “जाने दो” वाले सिद्धांत को सीख लें.
  5. परिपक्वता वह है – जब आप रिश्तों से लेने की उम्मीदों को अलग कर दें और केवल देने की सोच रखे.
  6. परिपक्वता वह है – जब आप यह समझ लें कि आप जो भी करते हैं, वह आपकी स्वयं की शांति के लिए है.
  7. परिपक्वता वह है – जब आप संसार को यह सिद्ध करना बंद कर दें कि आप कितने अधिक बुद्धिमान है.
  8. परिपक्वता वह है – जब आप दूसरों से उनकी स्वीकृति लेना बंद कर दे.
  9. परिपक्वता वह है – जब आप दूसरों से अपनी तुलना करना बंद कर दें.
  10. परिपक्वता वह है – जब आप स्वयं में शांत है.
  11. परिपक्वता वह है – जब आप जरूरतों और चाहतों के बीच का अंतर करने में सक्षम हो जाए और अपनी चाहतो को छोड़ने को तैयार हो.
  12. आप तब परिपक्वता प्राप्त करते हैं – जब आप अपनी ख़ुशी को सांसारिक वस्तुओं से जोड़ना बंद कर दें.

आप सभी को सुखी परिपक्व जीवन की शुभकामनाएं.🌹🌹🌹जय श्री राम🌹🌹🌹
[भारतीय संस्कृति में नारी का उल्लेख जगत्-जननी आदि शक्ति-स्वरूपा के रूप में किया गया है। श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों में नारी को विशेष स्थान मिला है।
मनु स्मृति में कहा गया है-

यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्‍ते रमन्‍ते तत्र देवता:।

यत्रेतास्‍तु न पूज्‍यन्‍ते सर्वास्‍तफला: क्रिया।।

जहाँ नारी का समादर होता है वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं और जहाँ ऐसा नहीं है वहाँ समस्त यज्ञादि क्रियाएं व्यर्थ होती हैं। नारी की महत्ता का वर्णन करते हुये ”महर्षि गर्ग” कहते हैं-

यद् गृहे रमते नारी लक्ष्‍मीस्‍तद् गृहवासिनी।

देवता: कोटिशो वत्‍स! न त्‍यजन्ति गृहं हितत्।।
जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे वत्स! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।

ज्ञान-ऐश्‍वर्य-शौर्य की प्रतीक

भारत में सदैव नारी को उच्च स्थान दिया गया है। समुत्कर्ष और नि.श्रेयस के लिए आधारभूत ‘श्री’, ‘ज्ञान’ तथा ‘शौर्य’ की अधिष्ठात्री नारी रूपों में प्रगट देवियों को ही माना गया है। आदिकाल से ही हमारे देश में नारी की पूजा होती आ रही है। यहाँ ‘अर्द्धनारीश्वर’ का आदर्श रहा है। आज भी आदर्श भारतीय नारी में तीनों देवियाँ विद्यमान हैं। अपनी संतान को संस्कार देते समय उसका ‘सरस्वती’ रूप सामने आता है। गृह प्रबन्धन की कुशलता में ‘लक्ष्मी’ का रूप तथा दुष्टों के अन्याय का प्रतिकार करते समय ‘दुर्गा’ का रूप प्रगट हो जाता है। अत. किसी भी मंगलकार्य को नारी की अनुपस्थिति में अपूर्ण माना गया। पुरुष यज्ञ करें, दान करे, राजसिंहासन पर बैठें या अन्य कोई श्रेष्ठ कर्म करे तो ‘पत्नी’ का साथ होना अनिवार्य माना गया।

वेदों के अनुसार सृष्टि के विधि-विधान में नारी सृष्टिकर्ता ‘श्रीनारायण’ की ओर से मूल्यवान व दुर्लभ उपहार है। नारी ‘माँ’ के रूप में ही हमें इस संसार का साक्षात दिग्दर्शन कराती है, जिसके शुभ आशीर्वाद से जीवन की सफलता फलीभूत होती है। माँ तो प्रेम, भक्ति तथा श्रध्दा की आराध्य देवी है। तीनों लोकों में ‘माता’ के रूप में नारी की महत्ता प्रकट की गई है। जिसके कदमों तले स्वर्ग है, जिसके हृदय में कोमलता, पवित्रता, शीतलता, शाश्वत वाणी की शौर्य-सत्ता और वात्सल्य जैसे अनेक उत्कट गुणों का समावेश है, जिसकी मुस्कान में सृजन रूपी शक्ति है तथा जो हमें सन्मार्ग के चरमोत्कर्ष शिखर तक पहुँचने हेतु उत्प्रेरित करती है, उसे ”मातृदेवो भव” कहा गया है।

नारी का सम्‍मान

हिन्दू धर्म की स्मृतियों में यह नियम बनाया गया कि यदि स्त्री रुग्ण व्यक्ति या बोझा लिए कोई व्यक्ति आये तो उसे पहले मार्ग देना चाहिये। नारी के प्रति किसी भी तरह का असम्मान गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा गया। नारी यदि शत्रु पक्ष की भी है तो उसको पूरा सम्मान देने की परम्परा बनाई। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘रामचरित मानस’ में लिखा है कि भगवान श्री राम बालि से कहते हैं-

अनुज बधू, भगिनी सुत नारी।

सुनु सठ कन्‍या सम ए चारी।। इन्‍हहिं कुदृष्टि विलोकई जोई।

ताहि बधे कछु पाप न होई।।
(छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की पत्नी कन्या के समान होती हैं। इन्हें कुदृष्टि से देखने वाले का वध कर देना कतई पापनहीं है।)

भारत में हिन्दू धर्म की परम्परा रही है कि छोटी आयु में पिता को बड़े होने (विवाह) के बाद पति को तथा प्रौढ़ होने पर पुत्र को नारी की रक्षा का दायित्व है। यही कारण था कि हमारी संस्कृति में प्राचीन काल से ही महान नारियों की एक उज्ज्वल परम्परा रही है। सीता, सावित्री, अरून्धती, अनुसुइया, द्रोपदी जैसी तेजस्विनी; मैत्रेयी, गार्गी अपाला, लोपामुद्रा जैसी प्रकाण्ड विदुषी, और कुन्ती,विदुला जैसी क्षात्र धर्म की ओर प्रेरित करने वाली तथा एक से बढ़कर एक वीरांगनाओं के अद्वितीय शौर्य से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान काल खण्ड में भी महारानी अहल्याबाई, माता जीजाबाई, चेन्नमा, राजमाता रूद्रमाम्बा, दुर्गावती और महारानी लक्ष्मीबाई जैसी महान नारियों ने अपने पराक्रम की अविस्मरणीय छाप छोड़ी । इतना ही नहीं, पद्मिनी का जौहर, मीरा की भक्ति और पन्ना के त्याग से भारत की संस्कृति में नारी को ‘धु्रवतारे’ जैसा स्थान प्राप्त हो गया। भारत में जन्म लेने वाली पीढ़ियाँ कभी भी नारी के इस महान आदर्श को नहीं भूल सकती। हिन्दू संस्कृति में नारी की पूजा हमेशा होती रहेगी।

तेजस्विता की प्रतिमूर्ति

विधर्मियों ने हमारी संस्कृति आधारित जीवन पद्धति पर अनेकों बार कुठाराघात किया है लेकिन हमारे देश की महान् नारियों ने उनको मुँहतोड़ जवाब दिया है। अपने शौर्य व तेजस्विता से यह बता दिया कि भारत की नारी साहसी व त्यागमयी है।

प्राचीन भारत की नारी समाज में अपना स्थान माँगने नहीं गयी, मंच पर खड़े होकर अपने अभावों की माँग पेश करने की आवश्यकता उसे कभी प्रतीत ही नहीं हुई। और न ही विविध संस्थायें स्थापित कर उसमें नारी के अधिकारों पर वाद-विवाद करने की उसे जरूरत हुई। उसने अपने महत्वपूर्ण क्षेत्र को पहचाना था, जहाँ खड़ी होकर वह सम्पूर्ण संसार को अपनी तेजस्विता, नि.स्वार्थ सेवा और त्याग के अमृत प्रवाह से आप्लावित कर सकी थी। व्यक्ति, परिवार, समाज, देश व संसार को अपना-अपना भाग मिलता है- नारी से, फिर वह सर्वस्वदान देने वाली महिमामयी नारी सदा अपने सामने हाथ पसारे खड़े पुरुषों से क्या माँगे और क्यों माँगे?

वह हमारी देवी अन्नपूर्णा है- देना ही जानती है लेने की आकांक्षा उसे नहीं है। इसका उदाहरण भारतीय नारी ने धर्म तथा देश की रक्षा में बलिदान हो रहे बेटों के लिए अपने शब्दों से प्रस्तुत किया है।

”इस धर्म की रक्षा के लिए अगर मेरे पास और भी पुत्र होते तो मैं उन्हें भी धर्म-रक्षा, देश-रक्षा के लिए प्रदान कर देती।” ये शब्द उस ‘माँ’ के थे जिसके तीनों पुत्र दामोदर, बालकृष्ण व वासुदेव चाफेकर स्वतंत्रता के लिये फाँसी चढ़ गये।

अक्षय प्रेरणा का स्रोत

यदि भारतवर्ष की नारी अपने ‘नारीधर्म’ का परित्याग कर देती तो आर्यावर्त कहलाने वाला ‘हिन्दुस्थान’ अखिल विश्व की दृष्टि में कभी का गिर गया होता। यदि देखा जाय तो हमारे देश की आन-बान-शान नारी समाज ने ही रखी है। हमारे देश का इतिहास इस बात गवाह है कि युध्द में जाने के पूर्व नारी अपने वीर पति और पुत्रों के माथे पर ”तिलक लगाकर” युध्दस्थल को भेजती थी। लेकिन वर्तमान में पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रभाव से भारत में नारी के अधिकार का आन्दोलन चल पड़ा है। वस्तुत. नारी का अधिकार माँगने और देने के प्रश्न से बहुत ऊपर है। उसे आधुनिक समाज में स्थान अवश्य मिला है पर वह मिला है लालसाओं की मोहावृत प्रतिमूर्ति के रूप में, पूजनीय माता के रूप में नहीं।

अवश्य ही युग परिवर्तन के साथ हमारे आचार-विचार में और हमारे अभाव-आवश्यकताओं में परिवर्तन होना अनिवार्य है। परन्तु जीवन के मौलिक सिद्धान्तों से समझौता कदापि ठीक नहीं। सृष्टि की रचना में नारी और पुरुष दोनों का महत्व है। वे एक दूसरे के पूरक हैं और इसी रूप में उनके जीवन की सार्थकता भी है। यदि नारी अपने क्षेत्र को छोड़कर पुरुष के क्षेत्र में अधिकार माँगने जायेगी तो निश्चित ही वह नारी जीवन की सार्थकता को समाप्त कर देगी.!!

अबूझ मुहूर्त ( स्वयं सिद्ध मुहूर्त)

नीचे दिए गए साढ़े तीन मुहूर्त स्वयं सिद्ध माने जाते हैं जिनमें पंचांग की शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं है : –

  • चैत्र शुक्ल प्रतिपदा( हिन्दू नववर्ष)
  • वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया)
  • आश्विन शुक्ल दशमी (विजय दशमी)
  • दीपावली के प्रदोष काल ( कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा) का आधा भाग।

भारत वर्ष में इनके अतिरिक्त लोकचार और देशाचार के अनुसार निम्नलिखित तिथियों को भी स्वयंसिद्ध मुहूर्त माना जाता है : –

  • भड्डली नवमी (आषाढ़ शुक्ल नवमी)
  • देवप्रबोधनी एकादशी (कार्तिक शुक्ल एकादशी)
  • बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी)
  • फुलेरा दूज (फाल्गुन शुक्ल द्वितीया)

इनमें किसी भी कार्य को करने के लिए पंचांग शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं है।

शनि दोष शांति उपाय।
यदि आपको किसी भी कारण शनि के शुभ फल प्राप्त नहीं हो रहे हैं। फिर वह चाहे जन्मकुंडली में शनि ग्रह के अशुभ होने, शनि साढ़ेसाती या शनि ढैय्या के कारण है तो प्रस्तुख लेख में दिये गये सरल उपाय आपके लिए लाभकारी सिद्ध होंगे।
भारतीय समाज में आमतौर ऐसा माना जाता है कि शनि अनिष्टकारक, अशुभ और दुःख प्रदाता है, पर वास्तव मे ऐसा नहीं है। मानव जीवन में शनि के सकारात्मक प्रभाव भी बहुत है। शनि संतुलन एवं न्याय के ग्रह हैं। यह सूर्य के पुत्र माने गये हैं। यह नीले रंग के ग्रह हैं, जिससे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर निरंतर पड़ती रहती हैं। यह सबसे धीमी गति से चलने वाला ग्रह है। यह बड़ा है, इसलिए यह एक राशि का भ्रमण करने में अढाई वर्ष तथा 12 राशियों का भ्रमण करने पर लगभग 30 वर्ष का समय लगाता है।
सूर्य पुत्र शनि अपने पिता सूर्य से अत्यधिक दूरी के कारण प्रकाशहीन है। इसलिए इसे अंधकारमयी, विद्याहीन, भावहीन, उत्साह हीन, नीच, निर्दयी, अभावग्रस्त माना जाता है। फिर भी विशेष परिस्थितियों में यह अर्थ, धर्म, कर्म और न्याय का प्रतीक है। इसके अलावा शनि ही सुख-संपति, वैभव और मोक्ष भी देते हैं। प्रायः शनि पापी व्यक्तियों के लिए दुख और कष्टकारक होता है। मगर ईमानदारों के लिए यह यश, धन, पद और सम्मान का ग्रह है। शनि की दशा आने पर जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं। शनि प्रायः किसी को क्षति नहीं पहुंचाता, लेकिन अति की स्थिति में अनेक ऐसे सरल टोटके हैं, जिनका प्रयोग कर हम लाभ उठा सकते हैं।

शनिवार को काले रंग की चिड़िया खरीदकर उसे दोनों हाथों से आसमान में उड़ा दें। आपकी दुख-तकलीफें दूर हो जायेंगी।
शनिवार के दिन लोहे का त्रिशूल महाकाल शिव, महाकाल भैरव या महाकाली मंदिर में अर्पित करें।
शनि दोष के कारण विवाह में विलंब हो रहा हो, तो शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार को 250 ग्राम काली राई, नये काले कपड़े में बांधकर पीपल के पेड़ की जड़ में रख आयें और शीघ्र विवाह की प्रार्थना करें।
पुराना जूता शनिचरी अमावस्या के दिन चैराहे पर रखें।
आर्थिक वृद्धि के लिए आप सदैव शनिवार के दिन गेंहू पिसवाएं और गेहूं में कुछ काले चने भी मिला दें।
किसी भी शुक्ल पक्ष के पहले शनि को 10 बादाम लेकर हनुमान मंदिर में जायें। 5 बादाम वहां रख दें और 5 बादाम घर लाकर किसी लाल वस्त्र में बांधकर धन स्थान पर रख दें।
शनिवार के दिन बंदरों को काले चने, गुड़, केला खिलाएं।
सरसों के तेल का छाया पत्र दान करें।
बहते पानी में नारियल विसर्जित करें।
शनिवार को काले उड़द पीसकर उसके आटे की गोलियां बनाकर मछलियों को खिलाएं।
प्रत्येक शनिवार को आक के पौधे पर 7 लोहे की कीलें चढ़ाएं।
काले घोड़े की नाल या नाव की कील से बनी लोहे की अंगूठी मध्यमा उंगली में शनिवार को सूर्यस्त के समय पहनें।
लगातार पांच शनिवार शमशान घाट में लकड़ी का दान करें।
काले कुत्ते को दूध पिलाएं।
शनिवार की रात को सरसों का तेल हाथ और पैरों के नाखूनों पर लगाएं।
चीटिंयों को 7 शनिवार काले तिल, आटा, शक्कर मिलाकर खिलाएं।
शनिवार की शाम पीपल के पेड़ के नीचे तिल या सरसों के तेल का दीपक जलाएं।
शनि की ढैया से ग्रस्ति व्यक्ति को हनुमान चालीसा का सुबह-शाम जप करना चाहिए।
शनि पीड़ा से ग्रस्त व्यक्ति को रात्रि के समय दूध का सेवन नहीं करना चाहिए।
काला हकीक सुनशान जगह में शनिवार के दिन दबाएं।
शनिवार के कारण कर्ज से मुक्ति ना हो रही हो, तो काले गुलाब जामुन अंधों को खिलाएं।
शनिवार की संध्या को काले कुत्ते को चुपड़ी हुई रोटी खिलाएं। यदि काला कुत्ते रोटी खा ले तो अवश्य शनि ग्रह द्वारा मिल रही पीड़ा शांति होती है।
काले कुत्ते को द्वार पर नहीं लाना चाहिए। अपितु पास जाकर सड़क पर ही रोटी खिलानी चाहिए।
शनि शांति के लिए ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः या ऊँ शनैश्चराय नमः का जप करें।
शनि शांति के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।
सात मुखी रुद्राक्ष भी शनि शांति के लिए धारण कर सकते हैं।
नीलम रत्न धारण करें अथवा नीली या लाजवर्त, पंच धातु में धारण करें।
: 💐

27 नक्षत्रो के लिए निर्धारित पेड़-पौधे

अश्विनी – कोचिला,
भरनी – आंवला
कृतका – गुल्लड़
रोहिणी – जामुन
मृगशिरा – खैर
आद्रा – शीशम
पुनर्वसु – बांस
पुष्य – पीपल
अश्लेषा – नागकेसर
मघा – बट
पूर्वा फाल्गुन – पलास
उत्तरा फाल्गुन – पाकड़
हस्त – रीठा
चित्रा – बेल
स्वाती- अजरुन
विशाखा – कटैया
अनुराधा – भालसरी
ज्योष्ठा – चीर
मूला – शाल
पूर्वाषाढ़ – अशोक
उत्तराषाढ़ – कटहल
श्रवण – अकौन
धनिष्ठा – शमी
शतभिषा – कदम्ब
पूर्व भाद्र – आम
उत्तरभाद्र – नीम
रेवती – महुआ
[ सभी बंधुओ से निवेदन है कि इस पोस्ट को पूरा पढ़े :-

पिछले लगभग एक दशक के मानसून के भारत मे होने वाली बारिश के पैटर्न को देखने से एक भयानक तस्वीर उभर कर सामने आ रही है…
बारिश के दिन कम हो रहे हैं, क्योंकि आजकल मानसून आता देर से है और चला भी जल्दी जाता है..इसके अलावा बीच मे मानसून ब्रेक की स्थिति बनती ही है, जो जुलाई अगस्त के महीने में भी मई के महीने का अहसास करा जाती है…

सूखे के अलावा एक बात और भी है कि जहां बारिश होती है वहां बाढ़ के कारण हाहाकर की स्थिति बनी रहती है…ताजा हालात पे गौर करिए…आधे भारत मे बाढ़ का प्रकोप है और आधे में सूखे का…

ये स्थिति सिर्फ अंधाधुंध तथाकथित विकास के धुन के कारण है..पुर देश का सीमेंटीकरण किया जा रहा है…गांव की गलियों पे भी सीमेंट की चादरें बिछा दी गयी हैं…भूमिगत जल स्त्रोत रिचार्ज नही हो पा रहे हैं..पारंपरिक देशी वृक्ष बरगद, पीपल और नीम की अंधाधुंध कटाई हो रही है और इनके स्थान पर विदेशी सजावटी पौधे रोपे जा रहे हैं, जो कि वातावरण में सिर्फ जहर फैलाते हैं या अस्थमा के रोग…

किसी को यकीन नही होगा पर हम विनाश के मुहाने पर आ खड़े हुए हैं…आने वाले 2-4 वर्षों में युद्धस्तर पर नदियों को जोड़ने का काम शुरु नही किया गया तो …विनाश की कल्पना भी नही की जा सकती…

तीन देव वृक्षो बरगद, पीपल और नीम का बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए….बड़े नहरों का जाल और नदियों को जोड़े जाने का तुरन्त प्लान बने क्योकि बारिश का पैटर्न यही है कि जहां इस साल सूखा है वहां अगले वर्ष बाढ़…जंहा इस वर्ष बाढ़ है वंहा अगले वर्ष सूखा…..

विषय काफी गंभीर और विचारणीय है ।
धन्यवाद
🙏🙏🙏
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷#काशीकाथोडामहत्वओरवैज्ञानिकतासमझ_लीजिये और फिर बताइये कि क्या किन्ही मंदिरो की एक ईंट भी हिलाना सही होगा? 🌷🌷🌷

वाराणसी – एक यंत्र है यह शहर तो यह #काशी एक #असाधारण_यंत्र है।

ऐसायंत्रइससेपहलेयाइसकेबादकभीनहीं_बना।

इस यंत्र का निर्माण एक ऐसे विशाल और भव्य मानव शरीर को बनाने के लिए किया गया, जिसमें भौतिकता को अपने साथ लेकर चलने की मजबूरी न हो, शरीर को साथ लेकर चलने से आने वाली जड़ता न हो और जो हमेशा सक्रिय रह सके… और जो सारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को अपने आप में समा ले।

काशी की रचना #सौरमंडल की तरह की गई है, क्योंकि हमारा सौरमंडल कुम्हार के चाक की तरह है।

आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।

इसमें एक खास तरीके से मंथन हो रहा है। यह घड़ा यानी मानव शरीर इसी मंथन से निकल कर आया है, इसलिए मानव शरीर सौरमंडल से जुड़ा हुआ है और ऐसा ही मंथन इस मानव शरीर में भी चल रहा है।

सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सूर्य के व्यास से 108 गुनी है। आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।

अगर आप इन 108 चक्रों को विकसित कर लेंगे, तो बाकी के चार चक्र अपने आप ही विकसित हो जाएंगे।

हम उन चक्रों पर काम नहीं करते।
शरीर के 108 चक्रों को सक्रिय बनाने के लिए 108 तरह की योग प्रणालियां है।

पूरे काशी यनी बनारस शहर की रचना इसी तरह की गई थी। यह पांच तत्वों से बना है, और आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि शिव के योगी और भूतेश्वर होने से, उनका विशेष अंक पांच है।

इसलिए इस स्थान की परिधि पांच कोश है। इसी तरह से उन्होंने सकेंद्रित कई सतहें बनाईं।

यह आपको काशी की मूलभूत ज्यामिति बनावट दिखाता है।

गंगा के किनारे यह शुरू होता है, और ये सकेंद्रित वृत परिक्रमा की व्याख्यां दिखा रहे हैं।

सबसे बाहरी परिक्रमा की माप 168 मील है।

यह शहर इसी तरह बना है और विश्वनाथ मंदिर इसी का एक छोटा सा रूप है।

असली मंदिर की बनावट ऐसी ही है। यह बेहद जटिल है। इसका मूल रूप तो अब रहा ही नहीं।

वाराणसी को मानव शरीर की तरह बनाया गया था
यहां 72 हजार शक्ति स्थलों यानी मंदिरों का निर्माण किया गया।

एक इंसान के शरीर में नाडिय़ों की संख्या भी इतनी ही होती है। इसलिए उन लोगों ने मंदिर बनाये, और आस-पास काफी सारे कोने बनाये – जिससे कि वे सब जुड़कर 72,000 हो जाएं।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं – इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।

तो यह नाडिय़ों की संख्या के बराबर है।

यह पूरी प्रक्रिया एक विशाल मानव शरीर के निर्माण की तरह थी।

इस विशाल मानव शरीर का निर्माण ब्रह्मांड से संपर्क करने के लिए किया गया था।

इस शहर के निर्माण की पूरी प्रक्रिया ऐसी है, मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक वृहत ब्रह्मांडीय शरीर के संपर्क में आ रहा हो।

काशी बनावट की दृष्टि से सूक्ष्म और व्यापक जगत के मिलन का एक शानदार प्रदर्शन है।

कुल मिलाकर, एक शहर के रूप में एक यंत्र की रचना की गई है।

रोशनी का एक दुर्ग बनाने के लिए, और ब्रह्मांड की संरचना से संपर्क के लिए, यहां एक सूक्ष्म ब्रह्मांड की रचना की गई।

ब्रह्मांड और इस काशी रुपी सूक्ष्म ब्रह्मांड इन दोनों चीजों को आपस में जोडऩे के लिए 468 मंदिरों की स्थापना की गई।

मूल मंदिरों में 54 शिव के हैं, और 54 शक्ति या देवी के हैं। अगर मानव शरीर को भी हम देंखे, तो उसमें आधा हिस्सा पिंगला है और आधा हिस्सा इड़ा।

दायां भाग पुरुष का है और बायां भाग नारी का।
यही वजह है कि शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में भी दर्शाया जाता है – आधा हिस्सा नारी का और आधा पुरुष का।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं – इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।

आपके स्थूल शरीर का 72 फीसदी हिस्सा पानी है, 12 फीसदी पृथ्वी है, 6 फीसदी वायु है और 4 फीसदी अग्नि। बाकी का 6 फीसदी आकाश है।

सभी योगिक प्रक्रियाओं का जन्म एक खास विज्ञान से हुआ है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं।

इसका अर्थ है अपने भीतर मौजूद तत्वों को शुद्ध करना।

अगर आप अपने मूल तत्वों पर कुछ अधिकार हासिल कर लें, तो अचानक से आपके साथ अद्भुत चीजें घटित होने लगेंगी।

मैं आपको हजारों ऐसे लोग दिखा सकता हूं, जिन्होंने बस कुछ साधारण भूतशुद्धि प्रक्रियाएं करते हुए अपनी बीमारियों से मुक्ति पाई है।

इसलिए इसके आधार पर इन मंदिरों का निर्माण किया गया। इस तरह भूत शुद्धि के आधार पर इस शहर की रचना हुई।

यहां एक के बाद एक 468 मंदिरों में सप्तऋषि पूजा हुआ करती थी और इससे इतनी जबर्दस्त ऊर्जा पैदा होती थी, कि हर कोई इस जगह आने की इच्छा रखता था।

भारत में जन्मे हर व्यक्ति का एक ही सपना होता था – काशी जाने का।

यह जगह सिर्फ आध्यात्मिकता का ही नहीं, बल्कि संगीत, कला और शिल्प के अलावा व्यापार और शिक्षा का केंद्र भी बना।

इस देश के महानतम ज्ञानी काशी के हैं।
शहर ने देश को कई प्रखर बुद्धि और ज्ञान के धनी लोग दिए हैं।

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, ‘पश्चिमी और आधुनिक विज्ञान भारतीय गणित के आधार के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था।’ यह गणित बनारस से ही आया।

इस गणित का आधार यहां है।
जिस तरीके से इस शहर रूपी यंत्र का निर्माण किया गया, वह बहुत सटीक था।

ज्यामितीय बनावट और गणित की दृष्टि से यह अपने आप में इतना संपूर्ण है, कि हर व्यक्ति इस शहर में आना चाहता था। क्योंकि यह शहर अपने अन्दर अद्भुत ऊर्जा पैदा करता था।

वाराणसी का इतिहास
यह हमारी बदकिस्मती है कि हम उस समय नहीं थे जब काशी का गौरव काल था। हजारों सालों से दुनिया भर से लोग यहां आते रहे हैं।

आदिगुरू शङ्कराचार्य और मण्डन मिश्र जी के मध्य कई महीनों चलने वाला शास्त्रार्थ काशी में ही हुआ।

नालंदा विश्वविद्यालय को आज भी शिक्षा का सबसे महान स्थान माना जाता है, जबकि यह सर्वविदित है कि “नालंदा विश्वविद्यालय काशी से निकलने वाली ज्ञान की एक छोटी सी बूंद है।”

आज भी यह कहा जाता है कि ‘काशी जमीन पर नहीं है। वह शिव के त्रिशूल के ऊपर है।’

लोगों ने एक भौतिक संरचना बनाई, जिसने एक ऊर्जा संरचना को उत्पन्न किया।

🌷गुरु ही शिव है शिव ही गुरु है निखिलम वंदे जगत गुरु🌷
: *एक रुपय ये औषधि दिलाएगी इतनी मीठी नींद कि आप हैरान रह जायेंगे

मेथी दाना हमारे रसोइघरों में दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तु है, जो अनेक औषधिय-गुणों से भरपूर होती है। प्राचीन काल से ही इसका प्रयोग खाद्य और औषधि के रूप में हमारे घरों में होता आ रहा है। आयुर्वेद के ग्रन्थ भावप्रकाश में कहा गया है कि मेथी वात को शान्त करती है, कफ और ज्वर का नाश करती है। राज निघन्टु में पित्त नाशक, भूख बढ़ाने वाली, रक्त शोधक, कफ और वात का शमन करने वाली बतलाया गया है।

मेथी में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेटस, खनिज, विटामिन, केल्शियम, फासफोरस, लोह तत्त्व, केरोटीन, थायमिन, रिवाफलेबिन, विटामिन सी आदि प्रचुर मात्रा में होते हैं। लोह तत्त्व की अधिकता के कारण मेथी रक्त की कमी वालों के लिये विशेष लाभप्रद होती है।

मेथी दानों से शरीर की आन्तरिक सफाई होती है। मेथी का उबला पानी बुखार उच्च रक्तचाप मधुमेह को कम करने में बहुत ही लाभप्रद होता है। मेथी सेवन से पाचन तंत्र सुधरता है। पेट में कर्मियों की उत्पत्ति नहीं होती। आंतों में भोजन का पाचन बराबर होता है। बड़ी आंत में, मल में कुछ गाढ़ापन आता है और मल आसानी से बड़ी आंत में गमन करने लगता हैं। मेथी खाने से भूख अच्छी लगती है। मेथी सेवन से गंध और स्वाद इन्द्रियाँ अधिक संवेदनशील होती हैं।

यह शरीर का आन्तरिक शोधन करती है। शलेष्मा को घोलती है तथा पेट और आंतों की सूजन ठीक करने में सहायक होती है। मेथी सेवन से मुंह की दुर्गन्ध दूर होती है। कफ, खांसी, इनफ्लेन्जा, निमोनिया, दमा आदि श्वसन संबंधी रोगों में लाभ होता है। गले की खराश में मेथी दाने के पानी से गरारे करने से बहुत लाभ होता है।

मेथी सेवन की विभिन्न विधियाँ

अलग-अलग रोगों के उपचार हेतु मेथी का प्रयोग अनेक प्रकार से किया जाता है। जैसे- मेथी दाणा भिगोंकर उसका पानी पीना, उसे अंकुरित कर खाना, उबालकर उसका पानी पीना, सब्जी बनाकर खाना, विभिन्न अचारों, सब्जियों अथवा अन्य खाद्य पदार्थों के साथ पकाकर सेवन करना, मेथी दानों को चूसना, चबाना अथवा पानी के साथ निगलना, मेथी की चाय अथवा काढ़ा बनाकर पीना, उसका पाउडर बना पानी के साथ लेना, अथवा लेप करना, मेथी की पुड़िये बनाकर खाना अथवा पकवान लड्डू बनाकर उपयोग करना इत्यादि, कई तरीकों से मेथी का प्रयोग हमारे घरों में होता रहता है।

माँ बहनो की मासिकधर्म गर्भाशय के सभी रोगों के लिए रामबाण है इस लिए इसे मैं सहेली का दर्जा देती हूँ साथ गर्भाशय का अपने स्थान से हट जाने पर एलोपैथी में सर्जरी व घरेलू में रामबाण एक मात्र उपचार इसके लड्डू का नियमित सेवन 3 माह

गहरी और मीठी नींद लेन का जबरदस्त नुस्खा

कागज की चिपकाने वाली टेप पर मेथी दानों को चिपका कर हथेली के अंगूठें के नाखून वाले ऊपरी पोरवे में उस टेप को लगा दें जिससे अंगूठे को मेथी का स्पर्श होता रहे। 20 से 40 मिनट के बाद आपको ऐसी जबरदस्त नींद आने लगेगी। यह नुस्खा बहुत ही उपयोगी है और बहुत से लोगों ने इस नुस्खे को आजमाया है और लाभपाया है. इस चिकित्सा को मेथी स्पर्श चिकित्सा कहते हैं।

मेथी स्पर्श चिकित्सा का सिद्धान्त

शरीर में अधिकांश दर्द और अंगों की कमजोरी का कारण आयुर्वेद के सिद्धान्तानुसार प्रायः वात और कफ संबंधी विकार होते हैं। मेथी वात और कफ का शमन करती है। अतः जिस स्थान पर मेथी का स्पर्श किया जाता है, वहाँ वात और कफ विरोधी कोशिकाओं का सृजन होने लगता हैं, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने लगती है। दर्द वाले अथवा कमजोर भाग में विजातीय तत्त्वों की अधिकता के कारण शरीर के उस भाग का आभा मंडल विकृत हो जाता है। मेथी अपने गुणों वाली तरंगें शरीर के उस भाग के माध्यम से अन्दर में भेजती है।

जिसके कारण शरीर में उपस्थित विजातीय तत्त्व अपना स्थान छोड़ने लगते हैं, प्राण ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होने लगता है। फलतः रोगी स्वस्थ होने लगता है। मेथी रक्त शोधक है, रोगग्रस्त भाग का रक्त प्रायः पूर्ण शुद्ध नहीं होता। जिस प्रकार सोडा कपड़े की गंदगी अलग कर देता है, मेथी की तरंगे रोग ग्रस्त अथवा कमजोर भाग में शुद्ध रक्त का संचार करने में सहयोग करती है जिससे उपचार अत्यधिक प्रभावशाली हो जाता है।

मेथी का स्पर्श क्यों प्रभावशाली?

मेथी के प्रत्येक दानें में हजारों दाने उत्पन्न करने की क्षमता होती है। अतः उसके सम्पर्क से मृत प्रायः कोशिकाएँ पुनः सक्रिय होने लगती है। मेथी के औषधिय गुणों की तरंगें कमजोर अंगों को शक्तिशाली बनाने, शरीर के दर्द वाले भाग की वेदना कम करने, जलन वाले भाग की जलन दूर करने में चमत्कारी प्रभावों वाली सिद्ध हो रही है। मेथी जो कार्य पेट में जाकर करती है, उससे अधिक एवं शीघ्र लाभ उसके बाह्य प्रयोग से संभव होता है, क्योंकि उससे रोगग्रस्त भाग का मेथी की तरंगों से सीधा सम्पर्क होता है।

किसी भी प्रकार के दुष्प्रभाव की संभावना प्रायः नहीं रहती। रोगग्रस्त भाग को मेथी के औषधिय गुणों का पूर्ण लाभ मिलता है जबकि मेथी सेवन से रोगग्रस्त भाग तक उसका आशिंक लाभ ही मिलता है। परिणाम स्वरूप मेथी का बाह्य स्पर्श विभिन्न असाध्य स्थानीय रोगों का सहज, सरल, स्वावलंबी प्रभावशाली उपचार के रूप में विकसित हो रहा है। अनेकों रोगों के उपचार में यांत्रिक एवं रसायनिक परीक्षणों एवं अनुभवी चिकित्सकों के परामर्श की भी आवश्यकता नहीं रहती। मात्र रोगग्रस्त भाग अथवा कमजोर अंग का मेथी से स्पर्श रखना पड़ता है।

मेथी स्पर्श द्वारा विविध उपचार

• मेथी दानों को शरीर के दर्द वाले भाग पर लगाने से दर्द में तुरन्त राहत मिलती है।

• शरीर के कमजोर अंग पर लगाने से वह अंग पुनः सक्रिय और ताकतवर होने लगता है।

• जलन, सूजन, दाद, खुजली वाले स्थान पर मेथी लगाने से तुरन्त लाभ मिलता है।

• मेथी दानों को चूसते रहने से दांतों का दर्द ठीक होता है और गले संबंधित रोगों में आराम मिलता है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों एवं ऊर्जा चक्रों पर मेथी दाना लगाने से उसके आसपास जमे विकार दूर होने से उनकी सक्रियता बढ़ जाती है।

• हथेली और पगथली में मेथी दानों के मसाज से सारे शरीर से संबंधित एक्यूप्रेशर प्रतिवेदन बिन्दू सक्रिय होने लगते हैं। एक्यूप्रेशर के दर्दस्थ प्रतिवेदन बिन्दुओं पर मेथी स्पर्श से वहाँ जमें विजातीय तत्त्व दूर होने लगते हैं और एक्यूप्रेशर चिकित्सा बिना दर्द वाली स्वावलंबी प्रभावशाली उपचार पद्धति से हो जाता है।

• अंगूठे के ऊपर वाले पोरवे पर मेथी लगाने से चक्कर एवं सिर दर्द संबंधी विभिन्न रोगों में तुरन्त आराम मिलता हैं। रक्तचाप बराबर होने लगता है। तनाव, भय, अधीरता, क्रोध कम होने लगता है।

• रात्रि में सोते समय हाथ के अंगूठों के पहले पोरवे पर मेथी लगाने से अनिद्रा के रोग से छुटकारा मिलता है।

• मेथी का हल्का सा मसाज सीने पर करने से फेंफड़े मजबूत होते हैं। कफ, खांसी, दमा में आराम मिलता है।

• हृदय रोगियों के हृदय वाले स्थान पर मेथी दाणा लगाने से हृदय शूल और हृदय संबंधी अन्य विकार शीघ्र दूर होने लगते हैं।

• स्पलीन पर मेथी स्पर्श करने से मधुमेह ठीक होता है। शरीर में लासिका तंत्र बराबर कार्य करने लगता हैं। जिससे सूजन नहीं आती। आमाशय पर लगाने से पाचन अच्छा होता है। लीवर, पित्ताशय, गुर्दो, आंतों पर मेथी लगाने से संबंधित अंगों से विजातीय तत्व दूर होने लगते हैं और वे सारे अंग अपनी क्षमतानुसार कार्य करने लगते हैं।

• शरीर के जिस स्थान पर बाल हो और टेप से मेथी दानों का स्पर्श संभव न हों वहाँ मेथी का लेप कर उपचार किया जा सकता है।

• आग से जलने पर दानेदार मेथी को पानी में पीस कर लेप करने से जलन दूर होती है, फफोले नहीं पड़ते।

• मेथी का सिर पर लेप करने से बाल नहीं गिरते तथा गंजों के बाल आने लगते हैं। बाल अपने प्राकृतिक रंग में मुलायम बने रहते हैं। बालों की लम्बाई बढ़ती है।

• ताजा पत्तियों का पेस्ट रोज नहाने से पूर्व चेहरे पर लेप करने से चेहरे का रुखापन, झुरियाँ, गर्मी से होने वाले फोड़े फुन्सियाँ आदि ठीक होते हैं।

• पगथली के अंगूठों और अंगुलियों में मेथी लगाने से नाड़ी संस्थान संबंधी रोगों में शीघ्र राहत मिलती है।

मेथी कैसे और कितनी देर लगायें

बाजार में अलग-अलग माप की चिपकाने वाली कागज की टेप मिलती है। आवश्यकतानुसार माप की टेप पर मेथीदाणा को चिपका दें। चारों तरफ थोड़ा स्थान खाली छोड़ दें ताकि टेप त्वचा पर आसानी से चिपक सकें। मेथी दाणों का स्पर्श तब तक शरीर पर रहने दें, जब तक उस स्थान पर किसी प्रकार की प्रतिकूलता अथवा सिर में भारीपन अनुभव न हों। मेथी अपना प्रभाव लगाने के तुरन्त बाद अनुभव कराने लग जाती है। मात्र तीन दिन के नियमित प्रयोग से उसके चमत्कारी प्रभावों का अनुभव होना प्रारम्भ होने लगता है।

सारांश यही है कि मेथी स्पर्श चिकित्सा सहज, सरल, सस्ती, प्रभावशाली, दुष्प्रभावों से रहित,वैज्ञानिक, पूर्ण स्वावलंबी एवं अहिंसक होती है, जिसका शरीर के रोगग्रस्त भाग पर शीघ्र प्रभाव पड़ता है। मेथी दर्द नाशक एवं रक्त शोधक होती है। विजातीय तत्त्वों को दूर कर शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है।
#सेंधा_नमक
भारत से कैसे गायब कर दिया गया, शरीर के लिए Best Alkalizer है :-
आप सोच रहे होंगे की ये सेंधा नमक बनता कैसे है ?? आइये आज हम आपको बताते हैं कि नमक मुख्य कितने प्रकार होते हैं। एक होता है समुद्री नमक दूसरा होता है सेंधा नमक (rock salt) । सेंधा नमक बनता नहीं है पहले से ही बना बनाया है। पूरे उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में खनिज पत्थर के नमक को ‘सेंधा नमक’ या ‘सैन्धव नमक’, लाहोरी नमक आदि आदि नाम से जाना जाता है । जिसका मतलब है ‘सिंध या सिन्धु के इलाक़े से आया हुआ’। वहाँ नमक के बड़े बड़े पहाड़ है सुरंगे है । वहाँ से ये नमक आता है। मोटे मोटे टुकड़ो मे होता है आजकल पीसा हुआ भी आने लगा है यह ह्रदय के लिये उत्तम, दीपन और पाचन मे मदद रूप, त्रिदोष शामक, शीतवीर्य अर्थात ठंडी तासीर वाला, पचने मे हल्का है । इससे पाचक रस बढ़्ते हैं। तों अंत आप ये समुद्री नमक के चक्कर से बाहर निकले। काला नमक ,सेंधा नमक प्रयोग करे, क्यूंकि ये प्रकर्ति का बनाया है ईश्वर का बनाया हुआ है। और सदैव याद रखे इंसान जरूर शैतान हो सकता है लेकिन भगवान कभी शैतान नहीं होता।

भारत मे 1930 से पहले कोई भी समुद्री नमक नहीं खाता था विदेशी कंपनीया भारत मे नमक के व्यापार मे आज़ादी के पहले से उतरी हुई है , उनके कहने पर ही भारत के अँग्रेजी प्रशासन द्वारा भारत की भोली भली जनता को आयोडिन मिलाकर समुद्री नमक खिलाया जा रहा है,
हुआ ये कि जब ग्लोबलाईसेशन के बाद बहुत सी विदेशी कंपनियो (अनपूर्णा,कैपटन कुक ) ने नमक बेचना शुरू किया तब ये सारा खेल शुरू हुआ ! अब समझिए खेल क्या था ?? खेल ये था कि विदेशी कंपनियो को नमक बेचना है और बहुत मोटा लाभ कमाना है और लूट मचानी है तो पूरे भारत मे एक नई बात फैलाई गई कि आओडीन युक्त नामक खाओ , आओडीन युक्त नमक खाओ ! आप सबको आओडीन की कमी हो गई है। ये सेहत के लिए बहुत अच्छा है आदि आदि बातें पूरे देश मे प्रायोजित ढंग से फैलाई गई । और जो नमक किसी जमाने मे 2 से 3 रूपये किलो मे बिकता था । उसकी जगह आओडीन नमक के नाम पर सीधा भाव पहुँच गया 8 रूपये प्रति किलो और आज तो 20 रूपये को भी पार कर गया है।

दुनिया के 56 देशों ने अतिरिक्त आओडीन युक्त नमक 40 साल पहले ban कर दिया अमेरिका मे नहीं है जर्मनी मे नहीं है फ्रांस मे नहीं ,डेन्मार्क मे नहीं , डेन्मार्क की सरकार ने 1956 मे आओडीन युक्त नमक बैन कर दिया क्यों ?? उनकी सरकार ने कहा हमने मे आओडीन युक्त नमक खिलाया !(1940 से 1956 तक ) अधिकांश लोग नपुंसक हो गए ! जनसंख्या इतनी कम हो गई कि देश के खत्म होने का खतरा हो गया ! उनके वैज्ञानिको ने कहा कि आओडीन युक्त नमक बंद करवाओ तो उन्होने बैन लगाया। और शुरू के दिनो मे जब हमारे देश मे ये आओडीन का खेल शुरू हुआ इस देश के बेशर्म नेताओ ने कानून बना दिया कि बिना आओडीन युक्त नमक भारत मे बिक नहीं सकता । वो कुछ समय पूर्व किसी ने कोर्ट मे मुकदमा दाखिल किया और ये बैन हटाया गया।

आज से कुछ वर्ष पहले कोई भी समुद्री नमक नहीं खाता था सब सेंधा नमक ही खाते थे ।

सेंधा नमक के फ़ायदे:-

सेंधा नमक के उपयोग से रक्तचाप और बहुत ही गंभीर बीमारियों पर नियन्त्रण रहता है । क्योंकि ये अम्लीय नहीं ये क्षारीय है (alkaline) क्षारीय चीज जब अमल मे मिलती है तो वो न्यूटल हो जाता है और रक्त अमलता खत्म होते ही शरीर के 48 रोग ठीक हो जाते हैं ।

ये नमक शरीर मे पूरी तरह से घुलनशील है । और सेंधा नमक की शुद्धता के कारण आप एक और बात से पहचान सकते हैं कि उपवास ,व्रत मे सब सेंधा नमक ही खाते है। तो आप सोचिए जो समुंदरी नमक आपके उपवास को अपवित्र कर सकता है वो आपके शरीर के लिए कैसे लाभकारी हो सकता है ??

सेंधा नमक शरीर मे 97 पोषक तत्वो की कमी को पूरा करता है ! इन पोषक तत्वो की कमी ना पूरी होने के कारण ही लकवे (paralysis) का अटैक आने का सबसे बढ़ा जोखिम होता है सेंधा नमक के बारे में आयुर्वेद में बोला गया है कि यह आपको इसलिये खाना चाहिए क्योंकि सेंधा नमक वात, पित्त और कफ को दूर करता है।

यह पाचन में सहायक होता है और साथ ही इसमें पोटैशियम और मैग्नीशियम पाया जाता है जो हृदय के लिए लाभकारी होता है। यही नहीं आयुर्वेदिक औषधियों में जैसे लवण भाष्कर, पाचन चूर्ण आदि में भी प्रयोग किया जाता है।

समुद्री नमक के भयंकर नुकसान :-

ये जो समुद्री नमक है आयुर्वेद के अनुसार ये तो अपने आप मे ही बहुत खतरनाक है ! क्योंकि कंपनियाँ इसमे अतिरिक्त आओडीन डाल रही है। अब आओडीन भी दो तरह का होता है एक तो भगवान का बनाया हुआ जो पहले से नमक मे होता है । दूसरा होता है “industrial iodine” ये बहुत ही खतरनाक है। तो समुद्री नमक जो पहले से ही खतरनाक है उसमे कंपनिया अतिरिक्त industrial iodine डाल को पूरे देश को बेच रही है। जिससे बहुत सी गंभीर बीमरिया हम लोगो को आ रही है । ये नमक मानव द्वारा फ़ैक्टरियों मे निर्मित है।

आम तौर से उपयोग मे लाये जाने वाले समुद्री नमक से उच्च रक्तचाप (high BP ) ,डाइबिटीज़, आदि गंभीर बीमारियो का भी कारण बनता है । इसका एक कारण ये है कि ये नमक अम्लीय (acidic) होता है । जिससे रक्त अम्लता बढ़ती है और रक्त अमलता बढ्ने से ये सब 48 रोग आते है । ये नमक पानी कभी पूरी तरह नहीं घुलता हीरे (diamond ) की तरह चमकता रहता है इसी प्रकार शरीर के अंदर जाकर भी नहीं घुलता और अंत इसी प्रकार किडनी से भी नहीं निकल पाता और पथरी का भी कारण बनता है ।

ये नमक नपुंसकता और लकवा (paralysis ) का बहुत बड़ा कारण है समुद्री नमक से सिर्फ शरीर को 4 पोषक तत्व मिलते है ! और बीमारिया जरूर साथ मे मिल जाती है !

रिफाइण्ड नमक में 98% सोडियम क्लोराइड ही है शरीर इसे विजातीय पदार्थ के रुप में रखता है। यह शरीर में घुलता नही है। इस नमक में आयोडीन को बनाये रखने के लिए Tricalcium Phosphate, Magnesium Carbonate, Sodium Alumino Silicate जैसे रसायन मिलाये जाते हैं जो सीमेंट बनाने में भी इस्तेमाल होते है। विज्ञान के अनुसार यह रसायन शरीर में रक्त वाहिनियों को कड़ा बनाते हैं, जिससे ब्लाक्स बनने की संभावना और आक्सीजन जाने मे परेशानी होती है। जोड़ो का दर्द और गढिया, प्रोस्टेट आदि होती है। आयोडीन नमक से पानी की जरुरत ज्यादा होती है। 1 ग्राम नमक अपने से 23 गुना अधिक पानी खींचता है। यह पानी कोशिकाओ के पानी को कम करता है। इसी कारण हमें प्यास ज्यादा लगती है।

निवेदन :पांच हजार साल पुरानी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में भी भोजन में सेंधा नमक के ही इस्तेमाल की सलाह दी गई है। भोजन में नमक व मसाले का प्रयोग भारत, नेपाल, चीन, बंगलादेश और पाकिस्तान में अधिक होता है। आजकल बाजार में ज्यादातर समुद्री जल से तैयार नमक ही मिलता है। जबकि 1960 के दशक में देश में लाहौरी नमक मिलता था। यहां तक कि राशन की दुकानों पर भी इसी नमक का वितरण किया जाता था। स्वाद के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होता था। समुद्री नमक के बजाय सेंधा नमक का प्रयोग होना चाहिए।

आप इस अतिरिक्त आओडीन युक्त समुद्री नमक खाना छोड़िए और उसकी जगह सेंधा नमक खाइये !! सिर्फ आयोडीन के चक्कर में समुद्री नमक खाना समझदारी नहीं है, क्योंकि जैसा हमने ऊपर बताया आओडीन हर नमक मे होता है सेंधा नमक मे भी आओडीन होता है बस फर्क इतना है इस सेंधा नमक मे प्राकृतिक के द्वारा भगवान द्वारा बनाया आओडीन होता है इसके इलावा आओडीन हमें आलू, अरवी के साथ-साथ हरी सब्जियों से भी मिल जाता है।आयोडीन लद्दाख को छोड़ कर भारत के सभी स्थानों के जल में प्राकृतिक रूप से पाया जाता |

क्या प्राचीन ऋषियों को समानांतर ब्रह्माण्डों का ज्ञान था ?
Parallel Universe अर्थात् एक ही जैसा अनेक ब्रह्माण्ड और वहा के लोग।

einstein_1921आज के आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञान की नींव डाली महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन (Albert Einstein) ने और उनका भरपूर साथ दिया मैक्स प्लांक (Max Plank), श्रोडिन्गर (Schrodinger), पॉल डिराक (Paul Dirac) आदि वैज्ञानिकों ने | आइंस्टीन के सापेक्षिकता के सिद्धांत (Theory Of Relativity) ने आधुनिक विज्ञान को आध्यात्म से जोड़ने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | जिस समय आइंस्टीन ने दुनिया को सापेक्षिकता के सिद्धांत के बारे में बताया, तत्कालीन वैज्ञानिकों को ये स्वीकार करने में कठिनाई महसूस हुई कि ये दुनिया, ब्रह्माण्ड सिर्फ न्यूटन के बताये सिद्धांतो पर नहीं चलती |

आइंस्टीन ने अपने सापेक्षिकता के सिद्धांत में बताया कि समय और स्थान (Time and Space) एक दूसरे से अलग नहीं है | जैसे-जैसे समय बीतता गया, आइंस्टीन के सिद्धांतो की प्रयोगों द्वारा पुष्टि होती गयी | वर्तमान समय में जेनेवा में, लार्ज हेड्रान कोलाईडर (Large Hadron Collider) मशीन पर होने वाले नित नए प्रयोगों के परिणाम विस्मयकारी आंकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं |

large-hadron-colliderलेकिन वैज्ञानिको के लिए जो सबसे ज्यादे चकित करने वाली बात है वो ये है की ये आंकड़े, वैज्ञानिकों को जिन निष्कर्षों पर पहुंचा रहे हैं वो आज से हज़ारों वर्ष पहले लिखे गये हिन्दू धर्म ग्रंथों में बहुत विस्तार से समझाया गया है | इस लेख में हम आपको ऐसी ही एक घटना के बारे में बताने जा रहे हैं जिसमे ब्रह्माण्ड के समय और स्थान के परस्पर संबंधों की व्याख्या की गयी है |

योगवशिष्ठ में एक बहुत महत्वपूर्ण वर्णन आता है। यह घटना जीवन के उद्देश्य, रहस्यों और मृत्यु के बाद की जीवन श्रंखला पर भी प्रकाश डालता है इसलिये विद्वान इसे योगवशिष्ठ की सर्वाधिक उपयोगी आख्यायिकाओं में से एक मानते हैं। वर्णन इस प्रकार है-

किसी समय आर्यावर्त क्षेत्र में पद्म नाम का राजा राज्य करता था । लीला नाम की उसकी धर्मशील धर्मपत्नी उसे बहुत प्यार करती थी । जब कभी वह अपने पति की मृत्यु की बात सोचती तो वियोग की कल्पना से घबरा उठती । अंत में कोई उपाय न देखकर उसने भगवती सरस्वती की उपासना की और यह वरदान प्राप्त कर लिया कि यदि उसके पति की मृत्यु पहले हो जाती है, तो पति की अंतःचेतना राजमहल से बाहर न जाये । माँ सरस्वती ने यह भी आशीर्वाद दिया कि तुम जब चाहोगी अपने पति से भेट भी कर सकोगी । कुछ दिन बाद दुर्योग से पद्म का देहान्त हो गया । लीला ने पति का शव महल में ही सुरक्षित रखवा कर भगवती सरस्वती का ध्यान किया | सरस्वती ने उपस्थित होकर कहा-भद्रे ! दुःख न करो तुम्हारे पति इस समय यहीं है पर वे दूसरी सृष्टि (दूसरे लोक) में है | उनसे भेट करने के लिए तुम्हें उसी सृष्टि वाले शरीर (मानसिक ध्यान द्वारा) में प्रवेश करने की प्रयास करना होगा।

लीला ने अपने मन को एकाग्र किया, अपने पति की याद की, उनका ध्यान किया और उस लोक में प्रवेश किया जिसमें पद्म की अंतर्चेतना विद्यमान थी । लीला ने वहां जा कर, कुछ क्षणों तक जो कुछ दृश्य देखा उससे बड़ी आश्चर्यचकित हुई । उस समय सम्राट पद्म इस लोक (यानी इस सृष्टि) के 16 वर्ष के महाराज थे और एक विस्तृत क्षेत्र में शासन कर रहे थे । लीला को अपने ही कमरे में इतना बड़ा साम्राज्य और एक ही दिन के भीतर 16 वर्ष व्यतीत हो गये ये देखकर बड़ा विस्मय हुआ । उस समय भगवती सरस्वती उनके साथ थी उन्होंने समझाया पुत्री
सर्गे सर्गे पृथग्रुपं सर्गान्तराण्यपि । तेष्पन्सन्तः स्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत्। योगवशिष्ठ 4।18।16।77

आकाशे परमाण्वन्तर्द्र व्यादेरगुकेअपि च । जीवाणुर्यत्र तत्रेदं जगद्वेत्ति निजं वपुः ॥ योगवशिष्ठ 3।443435

अर्थात्- “हे लीला ! जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक परतें निकलती चली आती है उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि क्रम विद्यमान है इस प्रकार एक के अन्दर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्न लोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनंत द्रव्य के अनंत परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान है”।

अपने कथन की पुष्टि करने के लिए, एक जगत (सृष्टि) दिखाने के बाद उन्होंने लीला से कहा – देवी तुम्हारे पति की मृत्यु 70 वर्ष की आयु में हुई है ऐसा तुम मानती हो (क्योकि इस जन्म और लोक में यह सत्य भी है), इससे पहले तुम्हारे पति एक ब्राह्मण थे और तुम उनकी पत्नी । ब्राह्मण की कुटिया में उसका मरा हुआ शव अभी भी विद्यमान है चलो तुम्हे दिखाती हूँ, यह कहकर भगवती सरस्वती लीला को और भी सूक्ष्म जगत में ले गई और लीला ने वहाँ अपने पति का मृत शरीर देखा -उनकी उस जीवन की स्मृतियाँ भी याद हो आई और उससे भी बड़ा आश्चर्य लीला को यह हुआ कि जिसे वह 70 वर्षों की आयु समझे हुये थी वह और इतने जीवन काल में घटित सारी घटना उस सृष्टि (जिसमे उनके पति ब्राह्मण थे और वो उनकी पत्नी) के कुल 7 दिनों के बराबर थी।

लीला ने यह भी देखा कि उस समय उनका नाम अरुन्धती था- एक दिन एक राजा की सवारी निकली उसे देखते ही उनको राजसी भोग भोगने की इच्छा हुई। उसी सांसारिक इच्छा के फलस्वरूप ही उसने लीला का शरीर प्राप्त किया और राजा पद्म को प्राप्त हुई । इसी समय भगवती सरस्वती की प्रेरणा से राजा पद्म जो कि दूसरी सृष्टि में थे उन्हें अंत समय (वहां की सृष्टि के अनुसार) में फिर से पद्म के रूप में राज्य-भोग की इच्छा जाग उठी, लीला को उसी समय फिर पूर्ववर्ती भोग की इच्छा ने प्रेरित किया और फलस्वरूप वह भी अपने व्यक्त शरीर में आ गई और राजा पद्म भी अपने शव में प्रविष्ट होकर जी उठे फिर कुछ दिन तक उन्होंने राज्य-भोग भोगे और अन्त में पुनः मृत्यु को प्राप्त हुए।

इस कथानक में महर्षि वशिष्ठ ने मन की अनंत इच्छाओं के अनुसार जीवन की अनवरत यात्रा, मनुष्येत्तर योनियों में भ्रमण, समय तथा स्थान से निर्मित ब्रह्माण्ड (टाइम एण्ड स्पेश) में चेतना के अभ्युदय और अस्तित्व तथा प्राण विद्या के गूढ रहस्यों पर बड़ा ही रोचक और बोधगम्य प्रकाश डाला है । पढ़ने सुनने में यह कथानक परियों की सी कथा या जादुई चिराग जैसी लग सकती है लेकिन ये वो विज्ञान है जिसकी सहायता से पूरे ब्रह्माण्ड की व्याख्या की जा सकती है |

parallel-universeआज के आधुनिक वैज्ञानिकों के सामने दोहरी समस्या है, पहली ये की वो ये स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करते है की हिन्दू धर्म के प्राचीन ऋषि-महर्षि, समय-स्थान,

ब्रह्माण्ड (Universe), समानांतर ब्रह्माण्ड (Parallel Universe) आदि की गुत्थी सुलझा चुके थे (क्योकि ये स्वीकार करने में इतिहास और दर्शन की सभी प्राचीन मान्यताये छिन्न-भिन्न होने का खतरा है), और दूसरी समस्या ये है कि अगर वो ये मान भी लें की ऐसा था तो उन प्राचीन ऋषि-महर्षि के ज्ञान को, उनके आधुनिक विज्ञान की भाषा में उनको समझाएगा कौन ?

यहाँ यक्ष प्रश्न यह भी है कि हमारे ही पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान और हम ही इसका महत्व नहीं समझते |

मानवेतर सत्ता का विस्तार असीम है | उसकी तुलना में बहुत ही सीमित क्षेत्र (Dimension) की दुनिया में हम अपने दैनिक जीवन के क्रिया-कलाप को अंजाम दे रहे हैं | इसके परे जो दुनिया है उसे समझने के लिए हमें अपने, स्वयं का विस्तार करना पड़ेगा तभी हम उसे समझ पायेंगे |
[ 16 विद्याएॅ

  1. वाक् सिद्धि : जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं!
  2. दिव्य दृष्टि: दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं!
  3. प्रज्ञा सिद्धि : प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें!
  4. दूरश्रवण : इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता!
  5. जलगमन : यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो!
  6. वायुगमन : इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं!
  7. अदृश्यकरण : अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं!
  8. विषोका : इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं!
  9. देवक्रियानुदर्शन : इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं!
  10. कायाकल्प : कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं!
  11. सम्मोहन : सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं!
  12. गुरुत्व : गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं!
  13. पूर्ण पुरुषत्व : इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की!
  14. सर्वगुण संपन्न : जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं!
  15. इच्छा मृत्यु : इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं!
  16. अनुर्मि : अनुर्मि का अर्थ हैं-जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो!

यह समस्त संसार द्वंद्व धर्मों से आपूरित हैं, जितने भी यहाँ प्राणी हैं, वे सभी इन द्वंद्व धर्मों के वशीभूत हैं, किन्तु इस कला से पूर्ण व्यक्ति प्रकृति के इन बंधनों से ऊपर उठा हुआ होता हैं!

कब देते है ग्रह अपने अशुभ फल।

प्रत्येक जातक की कुंडली में अशुभ ग्रहों की स्थिति अलग-अलग रहती है, परंतु कुछ कर्मों के आधार पर भी ग्रह आपको अशुभ फल देते हैं। व्यक्ति के कर्म-कुकर्म के द्वारा किस प्रकार नवग्रह के अशुभ फल प्राप्त होते हैं, आइए जानते हैं :
चंद्र :सम्मानजनक स्त्रियों को कष्ट देने जैसे, माता, नानी, दादी, सास एवं इनके पद के समान वाली स्त्रियों को कष्ट देने एवं किसी से द्वेषपूर्वक ली वस्तु के कारण चंद्रमा अशुभ फल देता है।
बुध :अपनी बहन अथवा बेटी को कष्ट देने एवं बुआ को कष्ट देने, साली एवं मौसी को कष्ट देने सेबुध अशुभ फल देता है। इसी के साथ हिजड़े को कष्ट देने पर भी बुध अशुभ फल देता है।
गुरु :अपने पिता, दादा, नाना को कष्ट देने अथवा इनके समान सम्मानित व्यक्ति को कष्ट देने एवं साधु संतों को कष्ट देने से गुरु अशुभ फल देता है।
सूर्य :किसी का दिल दुखाने (कष्ट देने), किसी भी प्रकार का टैक्स चोरी करने एवं किसी भी जीव की आत्मा को ठेस पहुँचाने पर सूर्य अशुभ फल देता है।
शुक्र :अपने जीवनसाथी को कष्ट देने, किसी भी प्रकार के गंदे वस्त्र पहनने, घर में गंदे एवं फटे पुराने वस्त्र रखने से शुभ-अशुभ फल देता है।
मंगल :भाई से झगड़ा करने, भाई के साथ धोखा करने से मंगल के अशुभ फल शुरू हो जाते हैं। इसी के साथ अपनी पत्नी के भाई (साले) का अपमान करने पर भी मंगल अशुभ फल देता है।
शनि :ताऊ एवं चाचा से झगड़ा करने एवं किसी भी मेहनतम करने वाले व्यक्ति को कष्ट देने, अपशब्द कहने एवं इसी के साथ शराब, माँस खाने पीने से शनि देव अशुभ फल देते हैं। कुछ लोग मकान एवं दुकान किराये से लेने के बाद खाली नहीं करते अथवा उसके बदले पैसा माँगते हैं तो शनि अशुभ फल देने लगता है।
राहु :राहु सर्प का ही रूप है अत: सपेरे का दिल दुखाने से, बड़े भाई को कष्ट देने से अथवा बड़े भाई का अपमान करने से, ननिहाल पक्ष वालों का अपमान करने से राहु अशुभ फल देता है।
केतु :भतीजे एवं भांजे का दिल दुखाने एवं उनका हक छीनने पर केतु अशुभ फल देना है। कुत्ते को मारने एवं किसी के द्वारा मरवाने पर, किसी भी मंदिर को तोड़ने अथवा ध्वजा नष्ट करने पर इसी के साथ ज्यादा कंजूसी करने पर केतु अशुभ फल देता है। किसी से धोखा करने व झूठी गवाही देने पर भी राहु-केतु अशुभ फल देते हैं।अत: मनुष्य को अपना जीवन व्यवस्थत जीना चाहिए। किसी को कष्ट या छल-कपट द्वारा अपनी रोजी नहीं चलानी चाहिए। किसी भी प्राणी को अपने अधीन नहीं समझना चाहिए जिससे ग्रहों के अशुभ कष्टसहना पड़े।

अशुभ ग्रहों के लक्षण।

ज्योतिष शास्त्र में किसी भी ग्रह का शुभ अथवा अशुभ प्रभाव जन्मकुंडली पर र्निभर करता है। कुंडली में ग्रह दोष हो तो जिन्दगी में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिन जातको की जन्मपत्रिका नहीं बनी होती अथवा बनी भी हो तो कभी किसी ज्योतिष को दिखाई न हो ऐसी स्थिति में नीचे बताए गए लक्षणों को देखकर यह जानना चाहिए कि आपके लिए कौन सा ग्रह अशुभ प्रभाव दे रहा है
सूर्य- सूर्य से प्रभावित जातक का बाल्यावस्था में ही अपने पिता से संबंध विच्छेद हो जाता है। उसके शरीर में विकार उत्पन्न हो जाते हैं जैसे नेत्र रोग। उसे वो यश नहीं मिल पाता जिसका वो भागिदार होता है। उसे नींद नाम मात्र आती है।
चंद्र- चंद्र से प्रभावित जातक के घर में पानी की समस्या रहती है। उसकी कल्पनाशक्ति कमजोर हो जाती है। उसके घर में दुधारू पशु जैसे गाय, भैंस जीवित नहीं रह पाते और माता का स्वास्थ्य बिगड़ा रहता है।
बुध- बुध से प्रभावित जातक को नशे, सट्टे व जुए की लत लग जाती है। उसकी बेटी व बहन पर सदैव दुख मंडराता रहता है।
गुरु- गुरु से प्रभावित जातक के विवाह में विलंब होता है। उसका सोना खोने लगता है, चोटी के बाल उड़ जाते हैं, शिक्षा में बाधा आती है और अपयश का शिकार होना पड़ता है।
शुक्र- शुक्र से प्रभावित जातक को प्रेम में धोखा मिलता है। उसका अंगूठा बेकार हो जाता है, त्वचा में विकार उत्पन्न होने लगते हैं और वह स्वप्नदोष से ग्रस्त रहता है।
शनि- शनि से प्रभावित जातक घर में आगजनी होता है। उसके घर का नाश हो जाता है, पलकों व भौंहों के बाल गिरने लगते हैं और वह मुसिबतों से घिरा रहता है।
राहु- राहु से प्रभावित जातक के हाथ के नाखून झड़ जाते हैं। अगर वह घर में कोई कुत्ता पालता है तो वह मर जाता है। वह स्वंयं की बुद्धी से काम नहीं लेता। उसके बहुत से शत्रु होते हैं।
केतु- केतु से प्रभावित जातक के पैरों के नाखून झड़ जाते हैं, जोड़ों में दर्द रहता है, मूत्र संबंधित रोग होते हैं और पुत्र अस्वस्थ रहता है.
[ अनजाने में किये हुये पाप का प्रायश्चित कैसे? होता है।
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
बहुत सुन्दर प्रश्न है ,यदि हमसे अनजाने में कोई पाप हो जाए तो क्या उस पाप से मुक्ती का कोई उपाय है।

श्रीमद्भागवत जी के षष्ठम स्कन्ध में , महाराज परीक्षित जी ,श्री शुकदेव जी से ऐसा प्रश्न कर लिए।

बोले भगवन – आपने पञ्चम स्कन्ध में जो नरको का वर्णन किया ,उसको सुनकर तो गुरुवर रोंगटे खड़े जाते हैं।

प्रभूवर मैं आपसे ये पूछ रहा हूँ की यदि कुछ पाप हमसे अनजाने में हो जाते हैं ,जैसे चींटी मर गयी,हम लोग स्वास लेते हैं तो कितने जीव श्वासों के माध्यम से मर जाते हैं। भोजन बनाते समय लकड़ी जलाते हैं ,उस लकड़ी में भी कितने जीव मर जाते हैं । और ऐसे कई पाप हैं जो अनजाने हो जाते हैं ।

तो उस पाप से मुक्ती का क्या उपाय है भगवन ।
आचार्य शुकदेव जी ने कहा राजन ऐसे पाप से मुक्ती के लिए रोज प्रतिदिन पाँच प्रकार के यज्ञ करने चाहिए ।

-महाराज परीक्षित जी ने कहा, भगवन एक यज्ञ यदि कभी करना पड़ता है तो सोंचना पड़ता है ।आप पाँच यज्ञ रोज कह रहे हैं । –
यहां पर आचार्य शुकदेव जी हम सभी मानव के कल्याणार्थ कितनी सुन्दर बात बता रहे हैं ।

बोले राजन पहली यज्ञ है -जब घर में रोटी बने तो पहली रोटी गऊ ग्रास के लिए निकाल देना चाहिए ।

दूसरी यज्ञ है राजन -चींटी को दस पाँच ग्राम आटा रोज वृक्षों की जड़ो के पास डालना चाहिए।

तीसरी यज्ञ है राजन्-पक्षियों को अन्न रोज डालना चाहिए ।

चौथी यज्ञ है राजन् -आँटे की गोली बनाकर रोज जलाशय में मछलियो को डालना चाहिए ।

पांचवीं यज्ञ है राजन् भोजन बनाकर अग्नि भोजन , रोटी बनाकर उसके टुकड़े करके उसमे घी चीनी मिलाकर अग्नि को भोग लगाओ।

राजन् अतिथि सत्कार खूब करें, कोई भिखारी आवे तो उसे जूठा अन्न कभी भी भिक्षा में न दे ।

राजन् ऐसा करने से अनजाने में किये हुए पाप से मुक्ती मिल जाती है। हमे उसका दोष नहीं लगता ।उन पापो का फल हमे नहीं भोगना पड़ता।

राजा ने पुनः पूछ लिया ,भगवन यदि
गृहस्त में रहकर ऐसी यज्ञ न हो पावे तो और कोई उपाय हो सकता है क्या।

तब यहां पर श्री शुकदेव जी कहते हैं
राजन्

कर्मणा  कर्मनिर्हांरो न ह्यत्यन्तिक इष्यते।

अविद्वदधिकारित्वात् प्रायश्चितं विमर्शनम् ।।

नरक से मुक्ती पाने के लिए हम प्रायश्चित करें। कोई व्यक्ति तपस्या के द्वारा प्रायश्चित करता है। कोई ब्रह्मचर्य पालन करके प्रायश्चित करता है। कोई व्यक्ति यम,नियम,आसन के द्वारा प्रायश्चित करता है। लेकिन मैं तो ऐसा मानता हूँ राजन्!

केचित् केवलया भक्त्या वासुदेव
परायणः ।

राजन् केवल हरी नाम संकीर्तन से ही
जाने और अनजाने में किये हुए को नष्ट करने की सामर्थ्य है ।

इसलिए सदैव कहीं भी कभी भी किसी भी समय सोते जागते उठते बैठते राम नाम रटते रहो।📚🖍🙏🙌
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰

कावड यात्रा आधारित जीवन-संदेश :–

कावड़ यात्रा ;- कावड़ यात्रा एक प्रतीक क्रिया है जो कर्मकाण्ड के अन्तर्गत आती है. कावड़ यात्रा के अन्तर्गत हमारे द्वारा “सदानीरा नदी“ के शुद्ध जल से [ अर्थात जो नदी सदैव प्रवाहित बनी रहने वाली है या जिस नदी का प्रवाह कभी थमता नहीं है उस सतत प्रवाह वाली नदी के बहते हुए शुद्ध जल से ] दो छोटे पात्र में जल भरकर तथा दोनों ही पात्र को भाररहित अवस्था में अपने कंधो पर धारणकर शिवमन्दिर की ओर प्रस्थान किया जाता है तथा शिवमन्दिर पहुँचकर, साथ में लाये गये दोनों ही पात्र के जल द्वारा – शिवविग्रह का – जलाभिषेक किया जाता है. कावड यात्रा में हमारा एक ही गन्तव्य होता है – शिवविग्रह को प्राप्त कर, उसका जलाभिषेक करना. इस लक्ष्य प्राप्ति के पूर्व न तो हमारे द्वारा गन्तव्य में परिवर्तन किया जाता है और न यात्रा को विराम ही दिया जाता है. इस प्रकार कावड़ यात्रा को पूर्ण करता हुआ कावड़ यात्री [कावड़िया] स्वयं को कृतार्थ मानता है. वह इस प्रकार शिवपूजन करता हुआ स्वयं को कृतकृत्य जानता है .
अनवरत रूप से चलने वाले इस सृष्टिचक्र में कावड़ यात्रा की यह क्रिया प्रतीकात्मक होकर आत्म-साधना के अति गुप्त रहस्य से सम्बन्धित एवं प्राणोंपासना पर आधारित होना जानी गयी है. इस कावड़ यात्रा का रहस्यबोध प्राप्त करने हेतु विचारणीय है कि – धर्मग्रंथ इस मानव देह में स्थित अविनाशी, अजर, अमर, आत्मा को शिवस्वरूप होना कथन करते हैं. पूज्यपाद आचार्य आदिशंकर द्वारा – शिवोहम, शिवोहम – का जयघोष किया जाकर, स्वयं को ही शिवस्वरूप होना कथन किया है, इस देहस्थ जीवात्मा को ही शिवस्वरूप होने का उद्घोष किया है. आत्मसाधना में योगी पुरुष इस देहस्थ आत्मा को ही आदिदेव शिव का विग्रहरूप होना तथा इसे अनादि एवं देहरूपी मन्दिर में निवास करने वाला जानते हैं. कठोपनिषद में श्रुति इस शिवस्वरूप – परम पुरुष परमात्मा – को ज्योतिर्मय होना एवं अपनी पूर्णता को धारण करते हुए सब मनुष्यों [ स्त्री – पुरुषों ] के हृदय में निवास करने वाला कथन करती है. इसे धूम रहित स्थिर ज्योति के समान होना वर्णन करती है. [कठ.उप. २.१.१२-१३ एवं २.३.१७]
योग – साधना के मार्ग में, सिद्धावस्था को प्राप्त – आत्मज्ञ, वेदविद, मनीषी पुरुष – नासिका के उभय स्वर में सतत प्रवाहित, प्राणवायु के प्रवाह को ही सदानीरा नदी रूप में गंगा और यमुना नदी होना कथन करते हैं. योगी – सिद्धपुरुषों द्वारा नासिका स्वर की इन दोनों ही नाड़ियों को इड़ा और पिंगला तथा सूर्य एवं चन्द्र नाडी भी कहा गया है. इन दोनों ही नाड़ियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला प्राणवायु ग्रहण करते समय शीतलता का बोध प्रदान करता है. चूँकि श्रीमद्भगवदगीता में इस मानवदेह को वस्त्र या अविनाशी आत्मा द्वारा धारण किया गया बाह्य कलेवर कहा गया है. [गीता २.२२ एवं ८.५ व ६ ] अतः स्थूल नदी के जल स्नान करना या डूबकी लगाना तो सदैव ही देहरूपी वस्त्र या अजर – अमर आत्मा द्वारा धारण किये गये बाह्य कलेवर को ही धोना होता है. यह तो मात्र शरीर को शुद्ध करना या देह के मैल या देह की गन्दगी को दूर करना होता है, जो इस जीवात्मा को विकारमुक्त करता नहीं है . अतः जीवात्मा का स्नान तो नासिका के उभय स्वर में सतत प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन से सम्बन्ध रखता है जिसे सूचित करने के लिए ही इन दोनों नासिका स्वर को गंगा और यमुना नदी कहा गया है. तथा इनके संयुक्त प्रवाह को सुषुम्ना कहा जाकर इसे ही तीर्थराज प्रयाग होना वर्णन किया गया है .
अतः शुद्ध जल और नियत गन्तव्य की भांति आचरण की निर्मलता तथा चित्त की एकाग्रता और धैर्य को अपनाकर नासिका के उभय स्वर में प्रवाहित होने `वाले प्राणवायु के इस शीतल प्रवाह में अवगाहन करना ही जीवात्मा का स्नान करना होता है. इस प्रकार किया गया स्नान ही इस जीवात्मा को कर्म विकार से मुक्त करने वाला होता है. श्रीमद्भगवदगीता में आया ‘नासिकाग्रे दृष्टि और दिशाओं का अवलोकन नहीं करने’ का कथन इस अवस्था को ही सूचित करता है. [गीता ६.१३]
आत्मसाधनारत योगी पुरुषों द्वारा नासिका के दायें स्वर को गंगा नदी एवं बाएं स्वर को यमुना नदी कहा गया है तथा इन दोनों नासिका स्वर में प्राणवायु के एकरूप सम प्रवाह को ही सुषुम्ना नाडी या प्रयागराज कहा गया है. अतः अविनाशी अदृष्य जीवात्मा का स्नान करना तो प्राणवायु की शीतलता से सम्बन्ध रखता है. इस अवसर पर ज्ञातव्य है कि नासिका के उभय स्वर से ग्रहण करते समय प्राणवायु मरुभूमि में भी शीतलता का बोध प्रदान करने वाला होता है. अतः नासिका स्वर से प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन करना ही इस जीवात्मा का स्नान करना माना गया है.
नासिका के उभय स्वर में प्रवाहित होने वाले प्राणवायु के शीतल प्रवाह में अवगाहन करने हेतु चित्त कि एकाग्रता अपनाना आवश्यक होता है किन्तु सुषुम्ना नाडी में प्रवाहित होने वाला प्राणवायु स्वभावतः शीतलता का बोध प्रदान करता है. जिसे कुण्डलिनी जागरण कहा गया है. इस प्रकार प्रवाहित प्राण ही देहस्थ जीवात्मा को आपादमस्तक शीतलता की अनुभूति प्रदान करता है. यह नासिका के दोनों ही स्वर में भाररहित अवस्था को अपनाकर अल्प मात्रा में प्रवाहित होता है. अतः कावड़ यात्रा की यह स्थूल क्रिया तो नासिका के उभय स्वर से सम्बन्ध रखने वाली है. यह उभय स्वर में प्रवाहित होने वाला प्राण ही देहस्थ अविनाशी आत्मा का बोध प्रदान करता है. सर्वरूप से एकाकार अवस्था का बोध प्रदान करता है अतः इसे ही अमृत प्राप्ति के कुम्भ स्नान से जोड़ा जाकर भी लोकस्मृति में धारण किया गया है. हम देहस्थ शिवस्वरूप आत्मा का बोध प्राप्तकर, कुन्डलिनी की जाग्रत अवस्था को धारण करें, हम स्व – आत्मस्वरूप की शीतलता को प्राप्त करें इस उद्देश्य को प्रतिबोधात्मक रूपमें सूचित करना ही कावड़ यात्रा का एकमेव आधार है.
अतः कावड़ यात्रा की स्थूल क्रिया तो तमोगुण की प्रधानता वाले व्यक्ति के लिए ही लाभप्रद कही जा सकती है. किन्तु जो साधक योगमार्ग के पथिक हैं उनके लिए तो प्राणायाम की प्रक्रिया पर आधारित इस अतिगुढ़ कावड़ यात्रा को अपनाकर, प्राणवायु की शीतलता से ही देहस्थ शिवस्वरूप आत्मा का जलाभिषेक करना ही आत्मकल्याण कारी है. इस प्रकार किया गया शीतलता का स्नान ही शिवस्वरुप अविनाशी आत्मा की आराधना करना है जो इस देहस्थ जीवात्मा को कर्म विकार से मुक्त करने वाला है. यही मनुष्यरूप जीवात्मा को जन्म – जन्मान्तर के कर्म बंधन से मुक्त करने वाला युगों – युगों से प्रचलित साधना मार्ग है जिसे श्रावन मास की कावड़ यात्रा रूप में स्मृति में धारण किया गया है. श्रेय आधारित जनसुविधा और आत्मकल्याण का यही धर्म-मार्ग है. अतः सड़क मार्ग को सुव्यवस्थित एवं गमनागमन योग्य बनाये रखने के लिए युग परिवर्तन के अवसर पर आगामी श्रावण मास में हमें प्राणायाम की प्रक्रिया पर आधारित इस मूल कावड़ यात्रा का ही अनुपालन करना चाहिए । ॥ॐ हरि: ॥ .

Recommended Articles

Leave A Comment