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: 🌺 भगवान् की भक्ति का माहात्म्य 🌺
श्रीमद्भागवत महापुराण, प्रथम स्कन्ध, द्वितीय अध्याय.

मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान में भक्ति हो— भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से हृदय आनन्दस्वरूप परमात्मा की प्राप्ती करके कृतकृत्य हो जाता है । भगवान में अनन्य प्रेम से चित्त जुड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का अविर्भाव हो जाता है । धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो, तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है । धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिये है, भोग विलास उसका फल नहीं माना गया है । भोग विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्व जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना जीवन का फल नहीं है । तत्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड सच्चिदानन्द स्वरूप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रम्ह, कोई परमात्मा और कोई भगवान के नाम से पुकारते हैं । मुनिजन भागवत श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्य से युक्त भक्ति से, हृदय में परम तत्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं । अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसी में है कि भगवान प्रसन्न हो जाऐं। इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ।

स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा संप्रसीदति ॥ ६ ॥
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ७ ॥
धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः ।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ ८ ॥
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥ ९ ॥
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥ १० ॥
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥ ११ ॥
तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञान वैराग्य युक्तया ।
पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्त्या श्रुतगृहीतया ॥ १२ ॥
अतः पुम्भिर्द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रम विभागशः ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम् ॥ १३ ॥
तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा ॥ १४ ॥

जानिये ज्योतिष में कैसे होती है उम्र की कैलकुलेशन?

इस संसार का सार्वभौमिक सत्य यह है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु होगी। इसके सिवा सबकुछ अर्धसत्य है। मनुष्य दिन-रात मेहनत करके धन का उपार्जन करने में लगा रहता है। लेकिन शायद उसे इस बात ख्याल नहीं रहता है कि कफन में जेब नहीं होती है। हालांकि मौत के बारे में जानना कठिन है किन्तु ज्योतिष विज्ञान की सैद्धान्तिक पद्धति से यदि जातक की कुण्डली सही बनी है तो उसकी आयु का पता लगाया जा सकता है।

आयु की सीमा निर्धारण में मारक ग्रह का भी एक निर्णायक स्थान होता है। मारक ग्रहों के निर्णय के उपरान्त उनमें बल के तरतम्य से क्रम का निर्धारण किया जाता है। और बली माकेश की दशा-अन्तर्दशा एवं योगायु अथवा मध्य-दीर्घायु के वर्षों का जब-तक समन्वय होता है तभी तक वास्तव में आयु मानी जाती है। यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि चाहे मैं कुछ भी असावधानी करूं इस अवधि से पूर्व तो मेरी मृत्यु नहीं होगी, यह धारणा नितान्त अतर्क संगत हैं।

आशय यह है कि समस्त आयुर्दाय विचार सामान्य परिस्थितियों में ही लागू होता है। इस प्रसंग एक बात और दृष्टब्य है कि असाधारण परिस्थितियों यथा युद्ध, दंगा, आतंकवाद, भूकम्प, बाढ़, बड़ी दुर्घटना व महामारी आदि में जब एक साथ बहुत से व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है, तब लोग प्रायः यह प्रश्न करते हैं कि क्या सबका मारकेश साथ-साथ ही आया था?

क्या सबकी आयु इतने सूक्ष्म रूप से समान थी कि सबकी मृत्यु एक साथ ही हुई? इस विषय में मेरा विचार है कि जब एक समय में पूरी दुनिया में हजारों लोगों का जन्म हो सकता है तो एक साथ हजारों लोगों की मृत्यु भी सम्भव है।

आयुर्दाय: जिससे जातक की आयु का ज्ञान किया जाता है इसे आयुदार्य कहते हैं।

आयुर्दाय दो प्रकार का होता है-

  1. योगज।
  2. गणितागत।

गणित द्वारा आयुनिर्णय

गणितद्वारा आयु निकालने पांच पद्धतियां है, जो निम्न प्रकार से हैं –

अंशायु-सत्याचार्य के मत से

पिण्डायु-मयादि के मत से

नैसर्गिक आयु-पराशरी के मत से मिश्रायु-उपरोक्त चारों प्रकारों के मिश्रण एवम् अष्टकवर्ग द्वारा आयु का ज्ञान किया जाता है।

गणितागत-

गणितीय विधियों द्वारा आयु का किया गया ज्ञान सटीक साबित होता हैं।

योगज-
यानि योगों के द्वारा आयुनिर्णयग्रहों की विशेष परिस्थितियों अर्थात् जन्म कुण्डली में स्थित भाव में ग्रहों एवम् राशियों की स्थिति से जो अनेकानेक योगों का सृजन होता है उससे योगज आयुर्दाय की पुष्टि होती ।
योगों द्वारा आयुनिर्णय- योगज आयु चार प्रकार की होती है-

1-अरिष्ट आयु-अरिष्ट आदि के होने से अल्पायु होना।

2-परम आयु- ग्रहों के योग से दीर्घायु होना।

3-नियत आयु- कुछ विशेष योग जिनसे नियत आयु का ज्ञान होना।

4-अमित आयु- ग्रहों की स्थितियों के कारण अपरिमिति इसके उदाहरण अघालिखित हैं-

ये पाप लुब्धाश्च चैराश्च देव ब्राम्हण न्दिकाः ।
सर्वा शिनश्च ये तेषाम् काल मरणं ध्रुवम्।।

वैद्यनाथ-अर्थात् जो लोग पापी, लोभी, चोर हों एवम् देव ब्राम्हण के निन्दक हों, सब कुछ खाते हों तो उनकी अकाल मृत्यु हो ही जाती है।

अल्पायु योग-

बहुमत के आधार पर 32 वर्ष की आयु तक अल्पायु योग के अनतर्गत आता हैं विद्वानों का कथन है कि आठ वर्ष तक आयु का विचार अनावश्यक है, किसी किसी के अनुसार 12 वर्ष के पूर्व आयु का विचार नहीं करना चाहिए। अल्पायु योग निम्नवत् बनते हैं-

1 वर्ष की आयु-

1- यदि चन्द्र लग्न में स्थित हो, पाप ग्रह केन्द्र में हो तथा शुभ ग्रह के साथ न हों तो एक वर्ष के अन्दर मृत्यु होती है।

2- यदि लग्न में बली चन्द्र अथवा सूर्य हो तथा केन्द्र त्रिकोण अथवा अष्टम् में पाप ग्रह हो और यदि सूर्य चन्द्रमा और शुक्र किसी राशि में एक साथ हों तो जातक की आयु 1 वर्ष से कम की होती हैं.

8 वर्ष की आयु-

1- यदि चन्द्र निर्बल हो और अष्टम् स्थान में पाप ग्रह हों तो जातक की आयु 8 वर्ष की होती है।

2- यदि पंचम् तथाा नवम् भाव में पाप ग्रह स्थित हों 6, 8 में शुभ ग्रह हों एवम् पाॅचवें, नवें भाव पर शुभ ग्रह-दृष्टि न हो जातक की मृत्यु 8वें वर्ष में होती है।

12 वर्ष की आयु-

1- सप्तम् स्थान में राहु हो और उस पर शनि, सूर्य आदि पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक की आयु 12 वर्ष की होती है।

2- यदि चन्द्र सिंह राशि में और सूर्य शनि के साथ अष्टम स्थान में हो और उस पर शुक्र की दृष्टि हो तो जातक 12 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।

25 वर्ष की आयु-यदि शनि द्विस्वभाव राशिगत होकर लग्न में हो एवम् अष्टमेश व द्वादशेश निर्बल हो तो जातक की आयु 25 वर्ष की होती हैं।

मध्यायु योग(विशेष)

चार वर्ष तक की अवस्था मे बालक की मृत्यु माता के पाप से होती है। चार से आठ वर्ष तक अपने पूर्वार्जित पाप के कारण बालक की मृत्यु होती है।

मध्यायु योग-

40 वर्ष से 60 वर्ष पर्यन्त तक की आयु मध्यायु होती है।

40 वर्ष की आयु-

1- यदि अष्ठमेश स्थिर राशि गत हो तथाा केन्द्रवर्ती हो एवम् अष्टम् स्थाान पाप दृष्ट हो।

2- यदि अष्टमेश लग्नवर्ती हो एवम् अष्टम स्थानमें कोई ग्रह न हो।

60 वर्ष की आयु-

1- यदि तृतीयेश बृहस्पति के साथ लग्न में हो और किसी एक केन्द्र में पाप ग्रह कुम्भ राशिगत हो तो जातक ब्रहम्ज्ञानी अथवा योगी होता है तथा 60 वर्ष तक जीता है।

2- यदि अष्टम् स्थान में कोई पाप ग्रह हो, अष्टमेश लग्न में हो तो लग्नेश द्वादश भाव में हो, जातक की आयु 60 वर्ष की होती है।

70 वर्ष की आयु-

1- यदि मंगल पंचमस्थ, सूर्य सप्तमस्थ और शनि नीचस्थ (मेष राशि का) हो।

2- चन्द्रमा द्वादश स्थान में हो तथा बृहस्पति बल हीन हो।

3- लग्न नवम अथवा केन्द्र में गुरू हो एवम् अष्टम् स्थान ग्रह शून् हो एवम् लग्न व चन्द्रमा पाप ग्रह से दृष्ट हों तो जातक की आयु 70 वर्ष की होती हैं.

पूर्णायु योग-

सौम्य खेरान्विते केन्द्रे सशुभे लग्नपे सति।
किंवा जी वेक्षिते तब पूर्णायुः स्यान्नृणां तदा।।

अर्थात गुरू, शुक्र युक्त लग्नेश केन्द्रगत हो या केन्द्रगत लग्नेश गुरू, शुक्र से दृष्ट हो तो जातक पूर्णायु होता है।

ज्योतिष में कैसे होती है उम्र की कैलकुलेशन?

कर्कोदये शशि गुरू केनद्रगौ बुध भार्गवौ।
शेषास्त्रि लाभरिपुगा अमितायुः प्रदा ग्रहाः।।

ज्योतिष में कैसे होती है उम्र की कैलकुलेशन?
कर्क लग्न में चन्द्र, गुरू हो बुध, शुक्र केन्द्रगत हों शेष ग्रह त्रिषडाय में स्थित हों तो जातक अभितायु होता है।

क्रूरास्तिलाभ रिपुगाः केन्द्र कोण गताः शुभाः।
निधने शुभ राशिस्थे दिब्यायुः स्यान्नरस्तदा ।।

अर्थात पाप ग्रह त्रिषाडाय में और शुभ ग्रह केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो और अष्टम भाव शुभ ग्रह की राशि में हो तो जातक दिब्य आयु को प्राप्त करने वाला होता हैं।

आदि_शंकराचार्य

प्रमुख हिन्दू धर्मशास्त्री और वेदांत के प्रणेता

आदि शंकर भगवान् शंकर के साक्षात् अवतार थे । ये भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। उन्होने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी ‘शंकराचार्य’ कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) बदरिकाश्रम, (२) शृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये शंकर के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।

जन्म शंकर 788 ई.
birth_place = कलाड़ी, चेर साम्राज्य
वर्तमान में केरल, भारत
मृत्यु 820 ई. (उम्र 32)
केदारनाथ, पाल साम्राज्य
वर्तमान में उत्तराखंड, भारत
गुरु/शिक्षक गोविंद भगवत्पाद जी
दर्शन अद्वैत वेदांत
खिताब/सम्मान शिवावतार, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक
धर्म हिन्दू
दर्शन अद्वैत वेदांत
राष्ट्रीयता भारतीय

उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्धमतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, शृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।

कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है।

कलियुग की अपेक्षा त्रेता में तथा त्रेता की अपेक्षा द्वापर में , द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किय‍ा। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा अध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय – चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।

व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमंगल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा।

जीवनचरित

शंकर आचार्य का जन्म 788 ई केरल में कालपी अथवा ‘काषल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्ररत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजीने अपने माँ से कहा ” माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी “, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है की, जैसेही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजीका पैर छोड़ दिया। और इन्होंने गोविन्द स्वामी से संन्यास ग्रहण किया।

पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। कुछ बौद्ध इन्हें अपना शत्रु भी समझते हैं, क्योंकि इन्होंने बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुन: स्थापना की।

३२ वर्ष की अल्प आयु में सन् 539 ईसा पूर्व में केदारनाथ के समीप स्वर्गवासी हुए थे।

काल

भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म पश्चिम सुधन्वा चौहान, जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं।

आदिशंकराचार्य जी ने जो चार पीठ स्थापित किये, उनके काल निर्धारण में उत्थापित की गई भ्रांतियाँ–

  1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ : स्थापना-युधिष्ठिर संवत् 2641-2645
  2. पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ- यु.सं. 2648

3.दक्षिण शृंगेरीपीठ- यु.सं. 2648

  1. पूर्व दिशा जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ – यु.सं. 2655

आदिशंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे।

शारदा पीठमें लिखा है –

“युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार:।
……तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां ……श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति।
अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाखमासके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। [युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था]

राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिकापीठके एक आचार्य ने “विमर्श” नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है-

‘निखिलयोगिचक्रवर्त्ती श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्र
मरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्
यपरिप्राप्तभारतवर्षस्यांजलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15।
एक अन्य ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित हुआ था। उसके अनुसार गुजरातके राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्योंके विवरणहैं। इसमें प्रथम आचार्य का समय 2649 युधि. सं. दिया है।

सर्वज्ञसदाशिवकृत “पुण्यश्लोकमंजरी” आत्मबोध द्वारारचित”गुरुरत्नमालिका” तथा उसकी टीका “सुषमा”में कुछ श्लोक हैं। उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-

तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे, ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि ।
रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ॥
अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5,नेत्र=2 , अर्थात् 3952 | ‘अंकानां वामतोगति:’ इस नियमसे अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलिसंवत् बना| [कलिसंवत् 3102 B.C. में प्रारम्भ हुआ ] तदनुसार 3102-2593=509 BC में शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित होता है।

कुमारिल भट्ट जो कि शंकराचार्य के समकालीन थे , जैनग्रंथ जिनविजय में लिखा है –

ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात्।
एकीकृत्य लभेतांक:क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर:। ।
भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन:।
ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।।
जैन लोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलिसंवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं।

श्लोकार्थ- ऋषि=7,वार=7,पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2, 7702 “अंकानांवामतोगति” 2077 युधिष्ठिर संवत् आया अर्थात् 557 B.C. कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्मवर्ष सिद्ध होता है।

“जिनविजय” में शंकराचार्यजीके देहावसान के विषयमें लिखा है —

ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात्।
एकत्वेन लभेतांकस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ॥
2157 यु. सं. (जैन) 476 B.C. में आचार्यशंकर ब्रह्मलीन हुए !

बृहत्शंकरविजय में चित्सुखाचार्य (शंकराचार्य जीके सह अध्यायी)ने लिखा है–

षड्विंशकेशतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
एकत्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे। ।
………………………………|
प्रासूत तन्वंसाध्वी गिरिजेव षडाननम्।।
यहाँ युधिष्ठिर शक 2631 में अर्थात् 508 ई. पू. में आचार्य का जन्म संवत् बताया गयाहै।

वर्तमान इतिहासज्ञ जिन शंकराचार्य को 788 – 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठके 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। वे 787 से 840 ईसवीसन् तक विद्यमान थे। वे चिदम्बरम वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे। इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे। सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपनें मूल आचार्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पुरी के पूज्य वर्तमान शंकराचार्य जी ने सभी प्रमाणभूत साक्ष्यों को भारत सरकार को सौंपकर उन प्रमाणों के आलोक में ऐतिहासिक अभिलेखों में संशोधन का आग्रह भी किया है!

प्रमुख_कार्य

शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार थे। आठ वर्ष की अवस्था में श्रीगोविन्दपाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना – इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हुए।

शास्त्रीय_प्रमाण

सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि। ।
अर्थ:- ” सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया , अभ्युदय तथा नि:श्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी , फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा ,अपवर्ग अगम हो गया , तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शंकर रूप से अवतीर्ण हुऐ। “

भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शंकर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं :-

कल्यब्दे द्विसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति। । ( भविष्योत्तर पुराण ३६ )
अर्थ :- ” कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। “

निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:। ।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्। ।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्। (लिंगपुराण ४०. २०-२१.१/२)
अर्थ:- ” कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं ; रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं ; वे परमगति को प्राप्त होते हैं। “

कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामीश्वर: पर:।
न देवता भवेन्नृणां देवतानांच दैवतम्। ।
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
श्रौतस्मार्त्तप्रतिष्ठार्थं भक्तानां हितकाम्यया। ।
उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
सर्ववेदान्तसार हि धर्मान वेदनदिर्शितान। ।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारत:।
विजित्य कलिजान दोषान यान्ति ते परमं पदम। । ( कूर्मपुराण १.२८.३२-३४)
अर्थ:- ” कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रुद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिये उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त -प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिये विविध अवतारों को ग्रहण करेंगें। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदान्तसार ब्रह्मज्ञानरुप मोक्ष धर्मों का उपदेश करेंगें। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनक‍ा सेवन करते हैं ; वे कलिप्रभव दोषों को जीतकर परमपद को प्राप्त करते हैं। “

व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:। । ( शिवपुराण-रुद्रखण्ड ७.१)
अर्थ:- “सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शंकर श्री बादरायण – वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं। “

महत्व

शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-

अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित् षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्‍‌वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं; ‘अयामात्मा ब्रह्म’ यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्‍‌न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि –

नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:।
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते है। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है।

तिथियाँ

आदि गुरू शंकराचार्य का जन्म केरल के कालडी़ नामक ग्राम में हुआ था। वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया। शन्कर की रुचि आरम्भ से ही सन्यास की तरफ थी। अल्पायु में ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज में निकल पडे।। वेदान्त के गुरु गोविन्द पाद से ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारे देश का भ्रमण किया। मिथिला के प्रमुख विद्वान मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में हराया। परन्तुं मण्डन मिश्र की पत्नी भारती के द्वारा पराजित हुए। दुबारा फिर रति विज्ञान में पारंगत होकर भारती को पराजित किया।

उन्होनें तत्कालीन भारत में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की ज्योति से देश को आलोकित किया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रन्गेरी, पूर्व में गोवर्धन तथा पश्चिम में शारदा मठ नाम से देश में चार धामों की स्थापना की। ३२ साल की अल्पायु में पवित्र केदार नाथ धाम में शरीर त्याग दिया। सारे देश में शंकराचा‍र्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है।

जीवन

एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘’शंकर’’, जी आगे चलकर ‘‘जगद्गुरु शंकराचार्य’’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’

कुछ समय के पश्चात वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिन्ह, ललाट पर नेत्र चिन्ह तथा स्कंध पर शूल चिन्ह परिलक्षित कर उसे शिव अवतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्य जी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। जिस समय जगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, उस समय भरत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रकट हुए। मात्र ३२ वर्ष के जीवन काल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई। शंकराचार्य जी तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ शंकर जी की माता के कंधों पर आ पड़ा। लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी नहीं रखी॥ पाँच वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये प्रारंभ से ही प्रतिभा संपन्न थे, अत: इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी बेहद चकित थे। अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र २ वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। तत्पश्चात गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृ शक्ति इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर आलवाई (पूर्णा) नदी, जो उनके गाँव से बहुत दूर बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई। कुछ समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की सोची। पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे। एक ज्योतिषी ने जन्म-पत्री देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने माँ से हठ किया और बालक शंकर ने ७ वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से अनुमति लेकर घर से निकल पड़े।

आचार्य शंकर के जीवन का एक दिन–माताश्री आर्याम्बा के जीवन के अन्तिम क्षणों में उन्के पास पहुँचने के लिए आचार्य शंकर वाग्वद्ध हैं। ‘कालः क्रीड़ा गच्छत्यायुʼ सिद्धान्तानुसार यह क्षण उदित होता है। योगबल से आचार्य शंकर को इसका पूर्वाभास हो जाता है। चल देते हैं वे केरल के कालटी स्थित अपने ग्राम की ओर। ग्राम सीमा मे प्रवेश करते ही स्मृतियों की आंधी पूरी तरह उन्हें घेर लेती है। ‘अरे, यही तो अलवाई ( पूर्णा ) नदी है।इसी में स्नान करते समय मुझे मगरमच्छ ने पकड़ लिया था। माताश्री से मेरे सन्यास की अनुज्ञा मिलनें पर ही उसने मुझे मुक्त किया था। कितनी विवशता थी अनुज्ञा देते समय उन्के मन में। मैं उनका एकमात्र संतान। वह भी सन्यासोन्मुख। वंश श्रृंखला के उच्छिन्न होने की स्थिति। एकाकिनी माता की सेवा- सुश्रुवा की समस्या। फिर भी उन्होंने मुझे सन्यास की अनुमति दी।’यही सब सोचते-सोचते पहुँच जाते हैं आचार्य अपने घर के दरवाजे पर। आचार्य की आहट पाकर गृहसेविका दरवाजा खोलती है ।आचार्य सीधे पहुँचते हैं मातृशैया के पास। सन्यासी रूप में पुत्र को देखकर माता के नेत्रों से अश्रुविन्दु ढलकने लगते हैं। इसी क्रम मे माता का प्राणान्त हो जाता है। माताश्री के प्राण अपनें सन्यासी पुत्र की उत्कट प्रतीक्षा में ही अटके थे। इधर आँखे पुत्र का दर्शन करती हैं उधर दूसरे ही क्षण प्राण अपनी निष्कर्षण क्रिया से उनकी काया को शव का रूप दे देते हैं। आचार्य शंकर ने सन्यास की दीक्षा ली है, वे परिव्राजक हो गये हैं। शास्त्रानुसार वे अग्नि स्पर्श नहीं कर सकते। उनके सामने एक भयंकर धर्मसंकट सुरसा की भांति मुँह बाये खड़ा हो जाता है। यदि वे माताश्री को मुखाग्नि देते हैं तो सन्यास धर्म से च्युत होते हैं। यदि मुखाग्नि नहीं देते तो पुत्र धर्म से विमुख होते है।कुछ समय के लिए आचार्य का सन्यासी चित्त उनके मन से कूदकर भाग जाता है। उसके स्थान पर सामान्य चित्त का प्रवेश हो जाता है। मातृ शव को देखकर वे एक सामान्य मानव की भांति विलखने लगते हैं। माताश्री के हाथों को अपने हाथ में लेकर अतीत में खो जाते हैं। सोचते हैं ‘इन्हीं हाथों से मेरी इतनी सेवा की थी। आज ये हाथ इतने परवश हो गये हैं। बचपन मे पूर्णा नदी में वे इन्हीं हाथों से मुझे मल -मल कर नहलाती थी। खिलाते समय साथी बच्चों के साथ मैं खेलने के लिए भाग जाता था। वे मुझे दौड़कर पकड़ लाती थीं और इन्हीं हाथों से खिलाती थीं। इन्हीं हाथों से वे प्रतिदिन मेंरे शरीर पर तैलमर्दन करती थीं। जब पिताश्री ( शिवगुरु ) का देहांत हो गया तो माताश्री मेंरे मन सहारे अपना शेष जीवन बिताना चाहती थी। पर मेंरे सन्यासी होने के पश्चात वे पूरी तरह से टूट गयीं। मेरे अभाव में उनका मात्र एक ही कार्य रह गया था, मृत्यु की प्रतीक्षा।’आचार्य शंकर अतीत से वर्तमान में उतरते हैं। इसी समय गृहसेविका उनके कान में फुसफुसाती है,`माताश्री के अंत्येष्टि क्रिया में आपके नम्बूदरी परिवार के लोग भाग नहीं लेंगे। उनके असहयोग का कारण यह है कि वे आपके इस कृत्य को शास्त्र विरूद्ध और परम्परा विरूद्ध मानते हैं। कहते हैं ‘सन्यासी जब गृह त्याग कर देता है तो उसका गृह प्रपंच मे लौटना शास्त्र विरूद्ध है। अग्नि स्पर्श उसके लिये सर्वथा वर्जित है। हम लोग ऐसे शास्त्र विरूद्ध कार्य में आचार्य शंकर का साथ नहीं दे सकते। सेविका की बात सुनकर आचार्य एक क्षण के लिए उद्विग्न हो जाते हैं। उनकी समझ में नहीं आता है कि अकेले वे माता का शव लेकर श्मशान तक कैसे जायेंगे। कुछ समय के लिए वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। सहसा उनके मन में एक समाधान कौंधता है। ‘माताश्री के शव को श्मशान घाट पर न ले जाकर यदि गृह परिसर में ही अंत्येष्टि कर दी जाय तो इसमें क्या आपत्ति हो सकती है।ʼ ऐसा कुछ भाव आचार्य के मन में आता है। सगोत्री लोग दूर से ही आचार्य की द्विविधा का आनन्द ले रहे हैं। विपत्ति के इन क्षणों में कोई उनका साथ नहीं देता है। अन्ततः आचार्य शंकर अपने घर के सामने ही चिता सजाते हैं। किसी तरह माता के शव को चिता पर स्थापित करते हैं। हाथ में अग्निशिखा लेकर चिता की परिक्रमा करते हुए शव को मुखाग्नि देते हैं। आचार्य गृह परिसर को ही श्मशानघर मे परिवर्तित कर देते हैं। चिता से उठी लपटों को देखकर आचार्य को लगता है जैसे अग्नि देव उनकी माता के सूक्ष्म शरीर को लेकर पित्रलोक की ओर प्रयाण कर रहे हैं। क्रमशः चिता की लपटें शान्त हो जाती हैं पर आचार्य का मन अपने सगोत्रियो के लिए खिन्न हो जाता है। सोचते हैं, इतनी भारी विपत्तियों मे हमारे सगोत्रियो ने सहानुभूति का एक शब्द भी मुह से नहीं निकाला।आचार्य शंकर की इसी मानसिकता से एक शाप शब्द होता है,”अब इस गोत्र के लोग मेरी तरह शवदाह श्मशान घाट पर न करके अपने घर के सामने ही करेंगे।” ‘मृषा न होइ देव ऋषि वाणी’ सिद्धान्त के अनुसार केरल के कालटी ग्राम में नंबूदरी ब्राह्मणों मे आज भी शव-दाह घर के सामने ही किया जाता है।

शास्त्रार्थ

वे केरल से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- ‘हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जायें।’ चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा-‘आपने मुझे ज्ञान दिया है, अत: आप मेरे गुरु हुए।’ यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा चार देवों के उन्हें दर्शन हुए। काशी में कुछ दिन रहने के दौरान वे माहिष्मति नग?

सत्ताइस नक्षत्रों से जानें व्यक्तित्व के हर रंग-ढंग

ज्योतिष शास्त्र में विभिन्न प्रकार के नक्षत्रों का जिक्र किया गया है। ये सभी नक्षत्र जितने महत्वपूर्ण हैं उतने ही वैयक्तिक जीवन पर भी असर डालते हैं। आपको यकीन नहीं होगा लेकिन ये सच है कि जिस नक्षत्र में इंसान जन्म लेता है वह नक्षत्र उसके स्वभाव और आगामी जीवन पर अपना असर जरूर छोड़ता है। आइए जानें भिन्न-भिन्न नक्षत्रों में जन्म लेने वाले लोगों की क्या-क्या खासियत होती है।
अश्विन नक्षत्र
ज्योतिष शास्त्र में सबसे प्रमुख और सबसे प्रथम अश्विन नक्षत्र को माना गया है। जो व्यक्ति इस नक्षत्र में जन्म लेता है वह बहुत ऊर्जावान होने के सथ-साथ हमेशा सक्रिय रहना पसंद करता है। इनकी महत्वाकांक्षाएं इन्हें संतुष्ट नहीं होने देतीं। ये लोग रहस्यमयी प्रकृत्ति के इंसान होने के साथ-साथ थोड़े जल्दबाज भी होते हैं जो पहले काम कर लेते हैं और बाद में उस पर विचार करते हैं। ये लोग अच्छे जीवनसाथी और एक आदर्श मित्र साबित होते हैं।
भरणी नक्षत्र
इस नक्षत्र का स्वामी शुक्र ग्रह होता है, जिसकी वजह से इस नक्षत्र में जन्में लोग आराम पसंद और आलीशान जीवन जीना चाहते हैं। ये लोग काफी आकर्षक और सुंदर होते हैं, इनका स्वभाव लोगों को आकर्षित करता है। इनके जीवन में प्रेम सर्वोपरि होता है और जो भी ये ठान लेते हैं उसे पूरा करने के बाद ही चैन से बैठते हैं। इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान हमेशा बना रहता है।
कृत्तिका नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्में जातक ना तो पहली नजर में प्यार जैसी चीज पर भरोसा करते हैं और ना ही किसी पर बहुत जल्दी एतबार करते हैं। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति पर सूर्य का प्रभाव रहता है, जिसकी वजह से ये लोग आत्म गौरव करने वाले होते हैं। ये लोग स्वाभिमानी होने के साथ-साथ तुनक मिजाजी और बहुत उत्साहित रहने वाले होते हैं। ये लोग जिस भी काम को अपने हाथ में लेते हैं उसे पूरी लगन और मेहनत के साथ पूरा करते हैं।
रोहिणी नक्षत्र
रोहिणी नक्षत्र का स्वामी चंद्रमा होता है और चंद्रमा के प्रभाव की वजह से ये लोग काफी कल्पनाशील और रोमांटिक स्वभाव के होते हैं। ये लोग काफी चंचल स्वभाव के होते हैं और स्थायित्व इन्हें रास नहीं आता। इन लोगों की सबसे बड़ी कमी यह होती है कि ये कभी एक ही मुद्दे या राय पर कायम नहीं रहते। ये लोग स्वभाव से काफी मिलनसार तो होते ही हैं लेकिन साथ-साथ जीवन की सभी सुख-सुविधाओं को पाने की कोशिश भी करते रहते हैं। विपरीत लिंग के लोगों के प्रति इनके भीतर विशेष आकर्षण देखा जा सकता है।
मृगशिरा नक्षत्र
इस नक्षत्र के जातकों पर मंगल का प्रभाव होने की वजह से ये लोग काफी साहसी और दृढ़ निश्चय वाले होते हैं। ये लोग स्थायी जीवन जीने में विश्वास रखते हैं और हर काम पूरी मेहनत के साथ पूरा करते हैं। इनका व्यक्तित्व काफी आकर्षक होता है और ये हमेशा सचेत रहते हैं। अगर कोई व्यक्ति इनके साथ धोखा करता है तो ये किसी भी कीमत पर उसे सबक सिखाकर ही मानते हैं। ये लोग काफी बुद्धिमान और मानसिक तौर पर मजबूत होते हैं। इन्हें संगीत का शौक होता है और ये सांसारिक सुखों का उपभोग करने वाले होते हैं।
आर्द्रा नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोगों पर आजीवन बुध और राहु ग्रह का प्रभाव रहता है। राहु का प्रभाव इन्हें राजनीति की ओर लेकर जाता है और इनके प्रति दूसरों में आकर्षण विकसित करता है। ये लोग दूसरों का दिमाग पढ़ लेते हैं इसलिए इन्हें बहुत आसानी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। दूसरों से काम निकलवाने में माहिर इस नक्षत्र में जन्में लोग अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए नैतिकता को भी छोड़ देते हैं।
पुनर्वसु नक्षत्र
ऐसा माना जाता है कि इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति के भीतर दैवीय शक्तियां होती हैं। इनका शरीर काफी भारी और याद्दाश्त बहुत मजबूत होती है। ये लोग काफी मिलनसार और प्रेम भावना से ओत-प्रोत होते हैं। आप कह सकते हैं कि जब भी इन पर कोई विपत्ति आती है तो कोई अदृश्य शक्ति इनकी सहायता करने अवश्य आती है। ये लोग काफी धनी भी होते हैं।
पुष्य नक्षत्र
ज्योतिषशास्त्र के अंतर्गत शनिदेव के प्रभाव वाले पुष्य नक्षत्र को सबसे शुभ माना गया है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग दूसरों की भलाई के लिए सदैव तैयार रहते हैं और इनके भीतर सेवा भावना भी बहुत प्रबल होती है। ये लोग मेहनती होते हैं और अपनी मेहनत के बल पर धीरे-धीरे ही सही तरक्की हासिल कर ही लेते हैं। ये लोग कम उम्र में ही कई कठिनाइयों का सामना कर लेते हैं इसलिए ये जल्दी परिपक्व भी हो जाते हैं। चंचल मन वाले ये लोग विपरीत लिंग के प्रति विशेष आकर्षण भी रखते हैं। इन्हें संयमित और व्यवस्थित जीवन जीना पसंद होता है।
आश्लेषा नक्षत्र
शास्त्रों के अनुसार यह नक्षत्र विषैला होता है और इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्तियों के भीतर भी विष की थोड़ी बहुत मात्रा अवश्य पाई जाती है। आश्लेषा नक्षत्र में जन्में व्यक्ति ईमानदार तो होते हैं किंतु मौका मिलते ही अपने रंग दिखाने से भी बाज नहीं आते। जब तक इन्हें लाभ मिलता है बस तभी तक दोस्ती निभाने वाले ये लोग दूसरों पर बिल्कुल भरोसा नहीं कर पाते। ये लोग कुशल व्यवसायी साबित होते हैं और दूसरों का मन पढ़कर उनसे अपना काम निकलवा सकते हैं। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोगों को अपने भाइयों का पूरा सहयोग मिलता है।
मघा नक्षत्र
इस नक्षत्र को गण्डमूल नक्षत्र की श्रेणी में रखा गया है। सूर्य के स्वामित्व के कारण ये लोग काफी ज्यादा प्रभावी बन जाते हैं। इनके भीतर स्वाभिमान की भावना प्रबल होती है और बहुत ही जल्दी इनका दबदबा भी कायम हो जाता है। ये कर्मठ होते हैं और किसी भी काम को जल्दी से जल्दी पूरा करने की कोशिश करते हैं। इनके भीतर ईश्वरीय आस्था बहुत अधिक होती है।
पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोगों में संगीत और कला की विशेष समझ होती है जो बचपन से ही दिखाई देने लगती है। ये लोग नैतिकता और ईमानदारी के रास्ते पर चलकर ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं, शांति पसंद होने की वजह से किसी भी तरह के विवाद या लड़ाई-झगड़े में पड़ना पसंद नहीं करते। इनके पास धन की मात्रा अच्छी खासी होती है जिसकी वजह से ये भौतिक सुखों का आनंद उठाते हैं। ये लोग अहंकारी प्रवृत्ति के होते हैं।
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्में लोग समझदार और बुद्धिमान होते हैं। ये अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयास करते हैं। ये लोग निजी क्षेत्र में सफलता हासिल नहीं कर सकते इसलिए इन्हें सरकारी क्षेत्र में ही अपना कॅरियर तलाशना चाहिए। ये लोग एक काम को करने में काफी समय लगा देते हैं। अपने हर संबंध को ये लोग लंबे समय तक निभाते हैं।
हस्त नक्षत्र
बौद्धिक, मददगार, निर्णय लेने में अक्षम, कुशल व्यवसायिक गुणों वाले ये लोग दूसरों से अपना काम निकालने में माहिर माने जाते हैं। इन्हें हर प्रकार की सुख-सुविधाएं मिलती हैं और इनका जीवन आनंद में बीतता है।
चित्रा नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्तियों के स्वभाव में आपको मंगल ग्रह का प्रभाव दिखाई दे सकता है। ये लोग हर किसी के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की कोशिश करते हैं, इन्हें आप सामाजिक हितों के लिए कार्य करते हुए भी देख सकते हैं। ये लोग विपरीत हालातों से बिल्कुल नहीं घबराते और खुलकर मुसीबतों का सामना करते हैं। परिश्रम और हिम्मत ही इनकी ताकत है।
स्वाति नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक मोती के समान चमकते हैं अर्थात इनका स्वभाव और आचरण स्वच्छ होता है। ऐसा माना जाता है कि इस नक्षत्र में पानी की बूंद सीप पर गिरती है तो वह मोती बन जाती है। तुला राशि में होने की वजह से स्वाति नक्षत्र के जातक सात्विक और तामसिक दोनों ही प्रवृत्ति वाले होते हैं। ये लोग राजनीतिक दांव-पेंचों को अच्छी तरह समझते हैं और अपने प्रतिद्वंदियों पर हमेशा जीत हासिल करते हैं।
विशाखा नक्षत्र
पठन-पाठन के कार्यों में उत्तम साबित होते हैं स्वाति नक्षत्र में जन्में लोग। ये लोग शारीरिक श्रम तो नहीं कर पाते लेकिन अपनी बुद्धि के प्रयोग से सभी को पराजित करते हैं। ये लोग काफी सामाजिक होते हैं जिसकी वजह से इनका सामाजिक दायरा भी बहुत विस्तृत होता है। ये लोग महत्वाकांक्षी होते हैं और अपनी हर महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए बहुत मेहनत करते हैं।
अनुराधा नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्में लोग अपने आदर्शों और सिद्धांतों पर जीते हैं। ये लोग अपने गुस्से को नियंत्रित नहीं कर पाते इस कारण इन्हें कई बार बड़े नुकसान उठाने पड़ते हैं। ये लोग अपने दिमाग से ज्यादा दिल से काम लेते हैं और अपनी भावनाओं को छिपाकर नहीं रख पाते। ये लोग जुबान से थोड़े कड़वे होते हैं जिसकी वजह से लोग इन्हें ज्यादा पसंद नहीं करते।
ज्येष्ठा नक्षत्र
गण्डमूल नक्षत्र की श्रेणी में होने की वजह से यह भी अशुभ नक्षत्र ही माना जाता है। ज्येष्ठा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग तुनक मिजाजी होते है और छोटी-छोटी बातों पर लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। खुली मानसिकता वाले ये लोग सीमाओं में बंधकर अपना जीवन नहीं जी पाते।
मूल नक्षत्र
यह नक्षत्र गण्डमूल नक्षत्र की श्रेणी का सबसे अशुभ नक्षत्र माना गया है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्तियों के परिवार को भी इसके दोष का सामना करना पड़ता है। लेकिन इनमें कई विशेषताएं भी होती हैं जैसे कि इनका बुद्धिमान होना, इनकी वफादारी, सामाजिक रूप से जिम्मेदार, आदि। इन्हें आप विद्वानों की श्रेणी में रख सकते हैं।
पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र
ईमानदार, प्रसन्न, खुशमिजाज, कला, सहित्य और अभिनय प्रेमी, बेहतरीन दोस्त और आदर्श जीवनसाथी, ये सभी पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में जन्में लोगों के खासियत होती है।
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र
ये लोग काफी आशावादी और खुशमिजाज स्वभाव के होते हैं। इस नक्षत्र में पैदा होने वाले लोग नौकरी और व्यवसाय दोनों ही में सफलता प्राप्त करते हैं। ये पूरी भावना के साथ अपने मित्रों का साथ देते हैं और इसी स्वभाव के कारण इन्हें अपने मित्रों से परस्पर सहयोग और सहायता इन्हें मिलती रहती है। ये लोग काफी धनी भी होते हैं।
श्रवण नक्षत्र
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार माता-पिता के लिए अपना सर्वस्व त्यागने वाले श्रवण कुमार के नाम पर ही इस नक्षत्र का नाम पड़ा है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोगों में कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि इनका ईमानदार होना, इनकी समझदारी, कर्तव्यपरायणता आदि। ये लोग जिस भी कार्य में हाथ डालते हैं उसमें सफलता हासिल करते हैं। ये लोग कभी अनावश्यक खर्च नहीं करते, जिसकी वजह से लोग इन्हें कंजूस भी समझ बैठते हैं।
घनिष्ठा नक्षत्र
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग काफी उर्जावान होते हैं और उन्हें खाली बैठना बिल्कुल पसंद नहीं होता। ये लोग अपनी मेहनत और लगन के बल पर अपनी मंजिल हासिल कर ही लेते हैं। इन्हें दूसरों को अपने नियंत्रण में रखना अच्छा लगता है और ये अधिकार भावना भी रखते हैं। इन्हें शांतिपूर्ण तरीके से अपना जीवन जीना पसंद है।
शतभिषा नक्षत्र
ये लोग शारीरिक श्रम में बिल्कुल विश्वास नहीं करते हैं और हर समय अपनी बुद्धि का परिचय देते हैं। इस नक्षत्र में जन्में लोग स्वच्छंद विचारधारा के होते है अत: साझेदारी की अपेक्षा स्वतंत्र रूप से कार्य करना पसंद करते हैं। ये लोग उन्मुक्त विचारधारा के होते हैं और मशीनी तौर पर जीना इन्हें कतई बरदाश्त नहीं होता। ये अपने शत्रुओं पर हमेशा हावी रहते हैं।
पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र
गुरु ग्रह के स्वामित्व वाले इस नक्षत्र में जन्में जातक सत्य और नैतिक नियमों का पालन करने वाले होते हैं। दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहने वाले ये लोग बहुत अधिक व्यवहार कुशल और मिलनसार कहे जा सकते हैं। ये लोग आध्यात्मिक प्रवृत्ति के तो होते ही हैं साथ ही साथ ज्योतिष के भी अच्छे जानकार कहे जाते हैं।
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र
इस नक्षत्र में जन्में लोग हवाई किलों या कल्पना की दुनिया में विश्वास अहीं करते। ये लोग बेहद यथार्थवादी और हकीकत को समझने वाले होते हैं। व्यापार हो या नौकरी, इनका परिश्रम इन्हें हर जगह सफलता दिलवाता है। इनके भीतर त्याग भावना भी बहुत ज्यादा होती है।
रेवती नक्षत्र
रेवती नक्षत्र में जन्में जातक बहुत ईमानदार होते है और इस कारण ये किसी भी रूप में धोखा नहीं दे सकते। परंपराओं और मान्यताओं को लेकर ये लोग काफी रूढ़िवादी होने के बावजूद अपने व्यवहार में लचीलापन रखते हैं। इनकी शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा होता है और अपनी सूझबूझ से ये बहुत सी मुश्किलों को हल कर लेते हैं।

कालसर्प योग के शुभा शुभ प्रभाव।

कालसर्प एक ऐसा योग है जो जातक के पूर्व जन्म के किसी जघन्य अपराध के दंड या शाप के फलस्वरूप उसकी जन्मकुंडली में परिलक्षित होता है। व्यावहारिक रूप से पीड़ित व्यक्ति आर्थिक व शारीरिक रूप से परेशान तो होता ही है, मुख्य रूप से उसे संतान संबंधी कष्ट होता है। या तो उसे संतान होती ही नहीं, या होती है तो वह बहुत ही दुर्बल व रोगी होती है। उसकी रोजी-रोटी का जुगाड़ भी बड़ी मुश्किल से हो पाता है। धनाढय घर में पैदा होने के बावजूद किसी न किसी वजह से उसे अप्रत्याशित रूप से आर्थिक क्षति होती रहती है। तरह तरह के रोग भी उसे परेशान किये रहते हैं।

जब जन्म कुंडली में सारे ग्रह राहु और केतु के बीच अवस्थित रहते हैं तो उससे ज्योतिष विद्या मर्मज्ञ व्यक्ति यह फलादेश आसानी से निकाल लेते हैं कि संबंधित जातक पर आने वाली उक्त प्रकार की परेशानियां कालसर्प योग की वजह से हो रही हैं। परंतु याद रहे, कालसर्प योग वाले सभी जातकों पर इस योग का समान प्रभाव नहीं पड़ता। किस भाव में कौन सी राशि अवस्थित है और उसमें कौन-कौन ग्रह कहां बैठे हैं और उनका बलाबल कितना है – इन सब बातों का भी संबंधित जातक पर भरपूर असर पड़ता है। इसलिए मात्रा कालसर्प योग सुनकर भयभीत हो जाने की जरूरत नहीं बल्कि उसका ज्योतिषीय विश्लेषण करवाकर उसके प्रभावों की विस्तृत जानकारी हासिल कर लेना ही बुद्धिमत्ता कही जायेगी। जब असली कारण ज्योतिषीय विश्लेषण से स्पष्ट हो जाये तो तत्काल उसका उपाय करना चाहिए।

नीचे हम कुछ ज्योतिषीय स्थितियां दे रहे हैं जिनमें कालसर्प योग बड़ी तीव्रता से संबंधित जातक को परेशान किया करता है।

जब राहु के साथ चंद्रमा लग्न में हो और जातक को बात-बात में भूत-प्रेतों की बाधा सताती रहती हो, या किसी के टोने-टोटके से पीड़ित होने की बीमारी आम रूप से परेशान करने लगती है।

जब लग्न में मेष, वृश्चिक, कर्क या धनु राशि हो और उसमें बृहस्पति व मंगल स्थित हों, राहु की स्थिति पंचम भाव में हो तथा वह मंगल या बुध से युक्त या दृष्ट हो, अथवा राहु पंचम भाव में स्थित हो तो संबंधित जातक की संतान पर कभी न कभी भारी मुसीबत आती ही है, अथवा जातक किसी बड़े संकट या आपराधिक मामले में फंस जाता है।

चंद्रमा से द्वितीय व द्वादश भाव में कोई ग्रह न हो। यानी केंद्रुम योग हो और चंद्रमा या लग्न से केंद्र में कोई ग्रह न हो तो जातक को मुख्य रूप से आर्थिक परेशानी होती है।

जब राहु के साथ बृहस्पति की युति हो तब जातक को तरह-तरह के अनिष्टों का सामना करना पड़ता है।

जब राहु की मंगल से युति यानी अंगारक योग हो तब संबंधित जातक को भारी कष्ट का सामना करना पड़ता है।

जब राहु के साथ सूर्य या चंद्रमा की युति हो तब भी जातक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, शारीरिक व आर्थिक परेशानियां बढ़ती हैं।

जब राहु के साथ शनि की युति यानी नंद योग हो तब भी जातक के स्वास्थ्य व संतान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, उसकी कारोबारी परेशानियां बढ़ती हैं।

जब राहु की बुध से युति अर्थात जड़त्व योग हो तब भी जातक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, उसकी आर्थिक व सामाजिक परेशानियां बढ़ती हैं।

जब अष्टम भाव में राहु पर मंगल, शनि या सूर्य की दृष्टि हो तब जातक के विवाह में विघ्न, देर होती है, अथवा उसे वैधव्य या विाुरत्व की प्राप्ति होती है।

यदि जन्म कुंडली में शनि चतुर्थ भाव में और राहु बारहवें भाव में स्थित हो तो संबंधित जातक बहुत बड़ा धूर्त व कपटी होता है। इसकी वजह से उसे बहुत बड़ी विपत्ति में भी फंसना पड़ जाता है।

जब लग्न में राहु-चंद्र हों तथा पंचम, नवम या द्वादश भाव में मंगल या शनि अवस्थित हों तब जातक की दिमागी हालत ठीक नहीं रहती। उसे प्रेत-पिशाच बाधा से भी पीड़ित होना पड़ सकता है।

जब दशम भाव का नवांशेश मंगलराहु या शनि से युति करे तब संबंधित जातक भयंकर अग्निकांड का शिकार होता है।

जब दशम भाव का नवांश स्वामी राहु या केतु से युक्त हो तब संबंधित जातक की दम घुटने से मौत या मरणांतक कष्ट पाने की प्रबल आशंका बनी रहती है।

जब अष्टम भाव में पाप ग्रह युक्त राहु अवस्थित हो तब संबंधित जातक की मृत्यु सांप काटने से होती है।
जब राहु व मंगल के बीच षडाष्टक संबंध हो तब संबंाित जातक को बहुत कष्ट होता है। वैसी स्थिति में तो कष्ट और भी बढ़ जाते हैं जब राहु मंगल से दृष्ट हो।

जब लग्न मेष, वृष या कर्क हो तथा राहु की स्थिति 1ए 3ए 4ए 5ए 6ए 7ए 8ए 11 या 12वें भाव में हो। तब उस स्थिति में जातक स्त्राी, पुत्रा, धन-धान्य व अच्छे स्वास्थ्य का सुख प्राप्त करता है।

जब राहु छठे भाव में अवस्थित हो तथा बृहस्पति केंद्र में हो तब जातक का जीवन खुशहाल व्यतीत होता है।

जब राहु व चंद्रमा की युति केंद्र (1ए 4ए 7ए 10वें भाव) या त्रिाकोण में हो तब जातक के जीवन में सुख-समृद्धि की सारी सुविधाएं उपलब्ध हो जाती हैं।

जब शुक्र दूसरे य12वें भाव में अवस्थित हो तब जातक को अनुकूल फल प्राप्त होते हैं।

जब बुधादित्य योग हो और बुध अस्त न हो तब जातक को अनुकूल फल प्राप्त होते हैं।

जब लग्न व लग्नेश सूर्य व चंद्र कुंडली में बलवान हों साथ ही किसी शुभ भाव में अवस्थित हों और शुभ ग्रहों द्वारा देखे जा रहे हों। तब कालसर्प योग की प्रतिकूलता कम हो जाती है।

जब दशम भाव में मंगल बली हो तथा किसी अशुभ भाव से युक्त या दृष्ट न हों। तब संबंधित जातक पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।

जब मंगल की युति चंद्रमा से केंद्र में अपनी राशि या उच्च राशि में हो, अथवा अशुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट न हों। तब कालसर्प योग की सारी परेशानियां कम हो जाती है।

जब राहु अदृश्य भावों में स्थित हो तथा दूसरे ग्रह दृश्य भावों में स्थित हों तब संबंधित जातक का कालसर्प योग समृद्धिदायक होता है।

जब राहु छठे भाव में तथा बृहस्पति केंद्र या दशम भाव में अवस्थित हो तब जातक के जीवन में धन-धान्य की जरा भी कमी महसूस नहीं होती।

उक्त लक्षणों का उल्लेख इस दृष्टि से किया गया है ताकि सामान्य पाठकों को कालसर्प योग के बुरे प्रभावों की पर्याप्त जानकारी हासिल हो सके। किंतु ऐसा नहीं है कि कालसर्प योग सभी जातकों के लिए बुरा ही होता है। विविध लग्नों व राशियों में अवस्थित ग्रह जन्म-कुंडली के किस भाव में हैं, इसके आधार पर ही कोई अंतिम निर्णय किया जा सकता है।

कालसर्प योग वाले बहुत से ऐसे व्यक्ति हो चुके हैं, जो अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए भी ऊंचे पदों पर पहुंचे। जिनमें भारत के प्रथम प्राानमंत्राी स्व पं ज़वाहर लाल नेहरू का नाम लिया जा सकता है। स्व मोरारजी भाई देसाई व श्री चंद्रशेखर सिंह भी कालसर्प आदि योग से ग्रसित थे। किंतु वे भी भारत के प्रधानमंत्राी पद को सुशोभित कर चुके हैं।

अत: किसी भी स्थिति में व्यक्ति को मायूस नहीं होना चाहिए और उसे अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए हमेशा अपने चहुंमुखी प्रगति के लिए सतत सचेष्ट रहना चाहिए। यदि कालसर्प योग का प्रभाव किसी जातक के लिए अनिष्टकारी हो तो उसे दूर करने के उपाय भी किये जा सकते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई उपायों का उल्लेख है, जिनके माध्यम से हर प्रकार की ग्रह-बाधाएं व पूर्वकृत अशुभ कर्मों का प्रायश्चित किया जा सकता है।
: महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई?
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शिवजी के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे. विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.

मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं. इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.

मृकण्ड ने घोर तप किया. भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.

महादेव प्रसन्न हुए. उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.

भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा. ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है. इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है.

ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया. मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे. भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.

मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी. मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी. उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.

मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है. बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.

मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.

“ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥”

समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए. यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की. मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था.

यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए. उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए.

इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा. यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए.

बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया.

यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा. एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं.

शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए. उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?

यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे. उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं. आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है.

भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है. तुम इसे नहीं ले जा सकते.

यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है. मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा.

महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए. उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है. सोमवार को महामृत्युंजय का पाठ करने से शिवजी की कृपा होती है और कई असाध्य रोगों, मानसिक वेदना से राहत मिलती है।
ॐ नम: शिवाय
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: 🌞
इस संसार में काफ़ी लोग शरीर से थोड़ा ऊपर उठ पाते है पर वो मन पर अटक पर जाते है ये शुरुआत है भीतर की यात्रा की, मन से ही विचारों से ही बहुत कम लोगों में समझ पैदा होती है की विचारो से कुछ नहीं होगा तो फिर उन थोडे से लोगों में से बहुत कम लोग मन से भी ऊपर उठ पाते है मन के पार चले जाते
मन के पार जाने का नाम ध्यान है
ध्यान से आत्मा मिलेगी
आत्मा में बहुत सुख है
लोग इसी सुख में ही अटक के रह गए परन्तु बहुत ही बहुत ही कम लोगों में अपने गुरु के साथ रह कर ये समझ पैदा हुई की शरीर और मन के पार गए तो इतना सुख पाया
क्यों ना आत्मा के भी पार
जाया जाए बड़े साहस की बात है
पर जो लोग ये साहस कर पाते है वही आत्मा के पार जा कर बुद्धत्व को पाते है
बुद्धत्व में परमात्मा मिलता है
परमात्मा में महा आनन्द है
बहुत से साधक इसी महा आनन्द अटक गए
बहुत ही बहुत ही कम साधक
एक कदम और बढ़ पाए
परमात्मा के भी पार
बहुत खतरनाक कदम है
परमात्मा को भी छोड़ देना
जिसे पाने के लिए बरसों इतनी साधना, ध्यान विधियां की थी
उसे भी एक दिन छोड़ना पड़ता है बहुत हिम्मत चाहिए गुरु का साथ चाहिए
जैसे ही साधक परमात्मा को भी छोड़ पाते है
वही निर्वाण को पाते है…!

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