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☆☆ कुण्डली-मन्थन – साढ़े-साती

•• गोचर के ग्रह – किसी कूरियर की तरह अपना फल लिये दशाओं के रूप में एड्रेस तलाश करते रहते हैं । जिस दशा से उनका फल मिल जाता है – वहां पर वो अपना फल प्रदान कर देते हैं । कोई भी दशा – किसी भी जातक के व्यक्तिगत फल को प्रदान करती है । जातक के ये व्यक्तिगत फल उसकी कुण्डली में प्रकट होते है । जो उसके पूर्व जन्म के कर्मों का फल होता है । गोचर के ग्रहों का फल तभी प्रकट होता है – जब वैसी ही दशा भी चल रही हो और वैसा ही फल कुण्डली में भी प्रकट होता दिखता हो । जो फल कुण्डली में नही है – वो किसी भी रूप में गोचर प्रदान नही कर पायेगा । अगर – कुण्डली में फल है और गोचर में भी वैसा ही फल है – तो फिर दशा भी वैसी ही मिलनी चाहिये अन्यथा फल नही मिल पायेगा ।
गोचर का फल – अंतर्दशा से, अंतर्दशा का फल – महादशा से, महादशा का फल – योगफल से, योगफल का फल – कुण्डली के फल से मिलता है । तभी गोचर सार्थक सिद्ध होता है । दरअसल – गोचर का अधिकतम फल 20% के औसत से प्रकट होता है । लेकिन – इसका फल, अगर अंतर्दशा से मिल जाये तो ये 40% हो जाता है और अगर यही फल महादशा से मिल जाये तो 60% हो जायेगा । यही – दशा-भुक्ति के ग्रह – कुण्डली में कोई शुभ योग बनाते हो तो, ये फल 80% हो जाता है और यही ग्रह कुण्डली के लग्न और लग्नेश से संबंध बनाते हो तो, यही फल शत-प्रतिशत हो जाता है ।
प्रत्यन्तर्दशा, सूक्ष्मदशा और प्राणदशा कि अवधि अधिक नही होती इसलिये इससे मिलता-जुलता फल गोचर के 20% से अधिक प्रभाव पैदा नही कर पाता है ।
गोचर का सबसे अधिक विचार तब होता है – जब जातक पर साढ़े-साती चल रही होती है । शिथिल गति से चलने वाला शनि जब राशि से पहले भाव मे संचार करता है तब साढ़े-साती का आरम्भ माना जाता है और जब राशि से अगले भाव से गुजर जाये तो साढ़े-साती समाप्त मानी जाती है । इन तीनों राशियों को भोगने में शनि को साढ़े सात वर्ष लगते हैं और इसकी साढ़े-साती कहते हैं ।
शिथिल गति से चलने वाला शनि कर्मकारक है और चन्द्र राशि भी कर्मकारक है । इसलिये चंद्र-राशि से शनि के संचार को साढ़े-साती कहा है । अन्यथा इसे लग्न-राशि से भी कहा जा सकता था ।
कर्म – निर्णय करने से होता है, निर्णय – विचार करने से होता है और विचार – मन से उठते है । मन – चंद्र से संचालित होता है – इसलिये चंद्र-राशि, कर्मकारक है । चंद्र राशि से पिछली राशि कर्मो का भूतकाल है और अगली राशि कर्मों का भविष्य है – चंद्र-राशि स्वयं वर्तमान है । इसलिये – चंद्र राशि के कर्मपथ पर जब कर्मकारक शनि संचार करता है तो, कर्मों का हिसाब हो जाता है ।
भूत, भविष्य और वर्तमान में – जहां भी कर्मों से जातक चूक जाता है । शनि का नकारात्मक फल उसी के अनुरूप प्रकट होता है । नकारात्मक भी इस परिप्रेक्ष्य में कि – शनि, कर्मों को सुधारने का संकेत करता है और कर्तव्य परायणता का पाठ पढ़ाने का प्रयास करता है । अगर – जातक नही समझ पाया तो, फिर परीक्षा आरम्भ हो जाती है । अब – अगर, आपकी राशि से पिछला भाव निर्बल है तो, परीक्षा भूतकाल के कर्मों की होगी और अगर अगला भाव निर्बल है तो हिसाब भविष्य का होगा । इसके बाद – अगर चंद्र राशि स्वयं ही निर्बल है तो, हिसाब शारीरिक गतिविधियों का भी होगा ।
कुण्डली का स्तर, शुभ और अशुभ योग, महादशा, अंतर्दशा और शनि का बल – इसमे विशेष भूमिका निभाते है । अष्टक वर्ग का बल चंद्र राशि और उसके आगे-पीछे वाले भाव को एक ठोस आधार प्रदान करता है । जिससे चंद्र-राशि का कर्मपथ एक दृढ़ता लिये होता है और शनि के संचार को सरल बनाने में सहायता करता है । इसलिये साढ़े-साती के दौरान अष्टक वर्ग का बल सबसे पहले देखना चाहिये ।
अगर – अष्टकवर्ग, चंद्र-राशि को बल नही दे पा रहा है तो, समझना चाहिये कि – रास्ता उबड़-खाबड़ है और शनि जैसी हैवी वेट गाड़ी यहां खूब हिचकोले ले लेकर चलेगी – जिससे जीवन की गति धीमी और दुखदायी होगी ।
ईसके बाद – इन भावों में ग्रहों की उपस्थिति कैसी है । शुभ ग्रह इन भावों में शुभ संकेत देते हैं और अशुभ ग्रह इन भावों में नकारात्मकता को बढ़ावा देते हैं ।

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