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एक बहुत ही सुंदर कथा माता कैकेयी का चरित्र! ये कथा हमने भक्तमाल से ली है। कथा विस्तार से है, ये दुर्लभ प्रस्तुति हैं।

कैकेयी पद कमल सुचि बंदौं बारं बार।
राम काज-हित जिन कुजस बिपुल लियौ सिर धार ।।

रामायण में महारानी कैकेयी का चरित्र सबसे अधिक बदनाम है । जिसने सारे विश्व के परमप्रिय प्रणाराम राम को बिना अपराध वन में भिजवाने का अपराध किया -उसका पापिनी, कलंकिनी , राक्षसी, कुलविनाशिनी कहलाना कोई आश्चर्य की बात नहीं।

समस्त सद्गुणों के आधार, जगदाधार राम जिसकी आखों के काँटे हो गये, उसपर गालियों की बौछार न हो तो किसपर हो । इसीसे लाखों वर्ष बीत जानेपर भी आज जगत के नर-नारी कैकेेयी का नाम सुनते ही नाक भी सिकोड़ लेते है और मौका पानेपर उसे दो-चार ऊँचे – निचे शब्द सुनाने से बाज नहीं आते।

परतुं इससे यह नहीं समझना चाहिये कि कैकेयी सर्वथा दुर्गुणों की ही खान थीं, उनमें कोई सदगुण था ही नहीं । सच्ची बात तो यह है कि यदि कैकेयी के श्रीरामवनवास का कारण होने का प्रसङ्ग निकाल लिया जाय तो कैकेयी का चरित्र रामायण के प्राय: सभी स्त्री-चरित्रो मे सबसे बढकर समझा जाय ।

कैकेयी के रामवनवास का कारण होने में एक बड़ा भारी रहस्य छिपा हुआ है, जिसका उदृघाटन होनेपर यह सिद्ध हो जाता है कि श्रीराम के अनन्य और अनुकूल भक्ती मे कैकेयी जी का स्थान सबसे ऊँचा है ।

कैकेयी महाराज कैकय की पुत्री और दशरथजी की छोटी रानी थीं । ये केवल अप्रतिम सुन्दरी ही नहीं थीं, प्रथम श्रेणी की पतिव्रता और वीरांगना भी थीं । बुद्धिमत्ता, सरलता, निर्भयता, दयालुता, आदि सद्गुणो का कैकेयी के जीवन मे पूर्ण विकास था । इन्होने अपने प्रेम और स्वाभाव से महाराज के हृदयपर इतना अधिकार का लिया था कि महाराज तीनों पटरानियों में कैकेयी को ही सबसे अधिक मानते थे । कैकेयी पति-सेवा के लिये सभी कुछ भी कर सकती थीं ।

दक्षिण दिशा में दण्डकारण्य में वैजयन्त नामक एक प्रसिद्ध नगर है, जहाँ तिमिध्वज असुर रहता था जिसका दूसरा नाम शंबर विख्यात था । वह महासुर सैकडो प्रकार की माया जानता था । देवता उसे पराजित न कर सके तब वह इंद्र से संग्राम (युद्ध)करने को तेयार हुआ । उस बड़े भारी देवासुर संग्राम मे क्षत-विक्षत पुरुषो को रात में सोते समय राक्षस लोग बिछोने से खींचकर मारा करते थे ।

इन्द्र ने राजा दशरथ से सहायता मांगी । अन्य राजर्षियो के साथ महाबाहु राजा दशरथ भी कैकयी साथ लेकर इन्द्र की सहायता के लिये गये और उन्होने राक्षसो के साथ घनघोर युद्ध किया । उस समय कैकेेयी जी भी पति के साथ रणाङ्गण में गयी थी – आराम भोगने के लिए नहीं, सेवा और शूरता से पतिदेव को सुख पहुँचा ने के लिए ।

कैकेयी का पातिव्रत और वीरत्व इसीसे प्रकट होता है की उन्होंने एक समय महाराज दशरथ के सारथि के मर जाने पर स्वयं बडी ही कुशलता से सारथी का कार्य किया और महाराज को युद्धभूमि से दूर ले गयी, इस प्रकार कैकेयी जी ने महाराज को बचाया था । उसी युद्ध में दूसरी बार एक घटना यह हुईं कि महाराज घोर युद्ध कर रहे थे, इतने में उनके रथके पहिये की धुरी गिर पडी ।

राजा को इस बातका पता नहीं लगा । कैकेयी ने इस घटना को देख लिया और पति की विजय कामनासे महाराज से बिना कुछ कहे सुने तुरंत धुरी की जगह अपना हाथ डाल दिया और बडी धीरता से बैठी रही । उस समय वेदना के मारे कैकेयी के आखों के कोये काले पड़ गये, परंतु उन्होने अपना हाथ नहीं हटाया । इस विकट समय में यदि कैकेयी ने बुद्धिमत्ता और सहनशीलता से काम न लिया होता तो महाराज के प्राण बचने कठिन थे ।

शत्रुओं का संहार करने के बाद जब महाराज को इस दुर्घटना का पता लगा, तब उनके आक्षर्य का पार नहीं रहा । उनका हृदय कृतज्ञ ता तथा आनन्द से भर गया । ऐसी वीरता और त्यागपूर्ण क्रिया करनेपर भी उनके मन में कोई अभिमग्न नही, वे पतिपर कोई अहसान नहीं करतीं ।

महाराज वरदान देना चाहते हैं तो वे कह देती है कि मुझे तो आपके प्रेम के सिवा अन्य कुछ भी नहीं चाहिये । महाराज किसी तरह नहीं मानते और दो वर देने के लिये हठ करने लगते हैं, तब दैवी प्रेरणावश ‘आवश्यक होनेपर मांग लूंगी ‘ कहकर अपना पिण्ड छुडा लेती हैं । उनका यह अपूर्व त्याग सर्वथा सराहनीय है ।

संत वरदान मांगने के विषय में अन्य दो कथाएँ भी सुनते है १. दशरथ महाराज की उँगली मे विस्फोटक नामक रोग हुआ जिस मे बडी जलन होती थी । उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यदि कैकेयी के मुंह में उँगली रहे तो उसमें जलन न होगी । अतएव कैकेयी से कहा गया, उन्होने स्वीकार कर लिया और मुख मे उँगली डालने से सचमुच जलन मिट गयी । तब प्रसन्न हो राजाने दो वरदान मांगने को कहा था ।

२.एक संत कहते है की राजाके फोडे को चूसकर अपने अधरामृत से राजा को चंगा कर दिया था । इसपर उन्होने वरदान मांगने को कहा ।

३.एक ऋषि सोये हुए थे और कैकेयी ने उनके मुंह मे स्याही लगाकर काला मुंह कर दिया था, उन्होने क्रोध से शाप दिया था कि तुझे ऐसा कलंक लगेगा कि कोई तेरा मुख न देखेगा। फिर ऋषिने अपना दण्ड माँगा तो कैकेयी ने दे दिया । इसपर संतुष्ट होकर उन्होने वर दिया कि तू चाहेगी तब तेरा हाथ लोहदण्ड का काम देगा । अत: इस संग्राम में रथ के चक्र में उसके हाथने लोहे की कील का काम किया ।

भरत, शत्रुघ्न ननिहाल चले गये है । पीछे से महाराज ने चैत्रमास मे श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी की । किसी भी कारणसे हो, उस समय महाराज दशरथ ने इस महान् उत्सव मे भरत और शत्रुघ्न को भी बुलवनने की भी आवश्यकता नहीं समझी, न कैकयराज को ही निमन्त्रण दिया गया।

कैकेयी भरत जी से भी अधिक श्रीराम जी से स्नेह करती है । बचपन में जब कभी श्रीराम जी रोने लगते थे और कौशल्या माता बहुत शांत कराने का प्रयत्न करती थी, हँसाने का प्रयत्न करती तब भी श्रीराम रोते ही रहते थे । जब कैकेयी माता श्री राम जी को अपने पास ले लेती थी तब सरकार खिलखिलाकर हंसने लगते थे ।

कहा जाता है कि कैंकेयी के विवाह के समय महाराज दशरथ ने इन्हीं के द्वारा उत्पन्न पुत्रको राज्य का अधिकारी मान लिया था परंतु रघुवंश की प्रथा और श्रीराम के प्रति अधिक अनुराग होने के कारण चुपचाप युवराजपद प्रदान करने की तैयारी कर ली गयी ।

यही कारण था कि रानी कैकेयी के महलो में भी इस उत्सव के समाचार पहले से नहीं पहुंचे थे । रानी कैकेयी अपना स्वत्व जानती थीं, उन्हे पता था कि भरत को मेरे पुत्र के नाते राज्याधिकार मिलना चाहिये परंतु कैकेयी इस बातकी कुछ भी परवा न करके राम-राज्याभिषेक की बात सुनते ही प्रसन्न हो गयीं । देवप्रेरित कुबड़ी मन्थरा ने आकर जब उन्हें रामराज्याभिषेक का समाचार सुनाया, तब वे आनंद में डूब गयीं । वे मन्थरा को पुरस्कार रूप में एक दिव्य उत्तम गहना देकर कहती है –

इदं तु मन्थरे मह्यमाख्यातं परमं प्रियम् ।
एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूय: करोमि ते ।।
रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये ।
तस्मात्तुुष्टस्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति ।।
न मे परं किञ्चिदितो वरं पुन: प्रियं प्रियार्हे सुवचं वचोऽमृतम् ।
तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरं वरं परं ते प्रदादामि
तं वृणु ।। (वाल्मीकि रामायण २ । ७। ३४-३६)

मन्थरे ! तूने मुझको यह बडा ही प्रिय संवाद सुनाया है, इसके बदले मै तेरा और क्या उपकार करूं? यद्यपि भरत को राज्य देने की बात हुई थी, फिर भी राम और भरत मे मैं कोई भेद नहीं देखती । मैं इस बातसे बहुत प्रसन्न हूँ कि महाराज कल राम का राज्याभिषेक करेंगे । हे प्रियवादिनी ! राम के राज्याभिषेक का संवाद सुनने से बढकर मुझें अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है । ऐसा अमृत के समान सुखप्रद वचन सब नहीं सुना सकते । तूने यह वचन सुनाया है, इसके लिये तू जो चाहे सो पुरस्कार मांग ले ,मैं तुझे देती हूँ।

इसपर मन्थरा गहने को फेककर कैकेयी को बहुत कुछ उलटा सीधा समझाती है, परंतु फिर भी कैकेयी तो श्रीराम के गुणो की प्रशंसा काती हुई यही कहती हैं की श्रीराम धर्मज्ञ, गुणवान् ,संयतेन्द्रिय, सत्यव्रती और पवित्र हैं ।

वे राजा के ज्येष्ठ पुत्र हैं, अतएव हमारी कुलप्रथा के अनुसार उम्हें युवराजपद का अधिकार है । दीर्घायु राम अपने भाइयों और सेवको को पिता की तरह पालन करेंगे । मन्थरा ! तू ऐसे रामचन्द्र के अभिषेक की बात सुनकर क्यों दुखी हो रही है? यह तो अम्युदयका समय है । ऐसे समय में तू जल क्यो रही है? इस भावी कल्याण मे तू क्यो दु:ख कर रही है?

यथा वै भरतो मान्यस्तथा भूयोऽपि राघव: । कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु ।।
राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत्तदा ।
मन्यते हि यथाऽऽत्मानं तथा भ्रातॄन्स्तु राघव: ।।
(वाल्मीकि रामायण २। ८। १८ -१९)

मुझे भरत जितना प्यारा है, उससे कहीं अधिक प्यारे राम है , क्योकि राम मेरी सेवा कौसल्या से भी अधिक करते है । रामको यदि राज्य मिलता है तो वह भरत को ही मिलता है, ऐसा समझना चाहिये; क्योकि राम सब भाइयो को अपने ही समान समझते है । इसपर जब मन्थरा महाराज दशरथ की निन्दा करके कैकेयी को फिर उभाडते लगी, तब तो कैकेयी ने बडी बुरी तरह उसे फटकार दिया –

ईदृशी यदि रामे च बुद्धिस्तव समागता ।
जिह्वायाश्छेदनं चैंव कर्तव्यं तव पापिनि ।।

पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी ।
तौ धरि जीभ कढावउँ तोरी ।।

इस प्रसंग से पता लगता है कि कैकेयी श्रीराम को कितना अधिक प्यार करती थीं और उन्हे श्रीराम के राज्याभिषेक में कितना बडा सुख था । इसके बाद मन्थरा के पुन: बहकाने पर कैंकेयी ने अपने दो वरदान दशरथ जी से मांग लिए जिसमे भरत जी को राजगद्दी और रामजी को १४ वर्ष के वनवास की मांग थी ।

मन्थरा कौन है और वह अवध में कैसे आयी ?

१. श्रीराम वनवास के पश्चात् लोमश ऋषि अवध आये । तब लागो ने उनसे प्रश्न किया कि रामचन्द्र जी में योगी और मुनि रमण करते है, उनके राज्य में मन्थरा ने क्यों विघ्न डाला? उत्तर में उन्होने उसकी पूर्वजन्म की कथा सुनायी जो यों है । यह प्रह्लाद के पुत्र विरोचन की कन्या थी । जब विरोचन ने देवताओ को जीत लिया तब देवताओ ने विप्ररूप धरकार उससे दान में उसकी शेष आयु मांग ली । दैत्य बिना सरदार के हो गये ।

तब मन्थरा ने देत्योकी सहायता की, देवता हारकर इन्द्र के पास गये, उन्होने स्त्री का वध करने से इनकार किया। तब वे भगवान् विष्णु की शरण गये । वे शस्त्र धारण किये हुए समरभूमि में आये और इन्द्र को उसके मारने की आज्ञा देते हुए कहा कि पापिनी आततायिनीका वध उचित है । आज्ञा पाकर इन्द्र ने वज्र चलाया।

वह चिल्लाती हुई पृथ्वीपर आ गिरी, कूबड़ निक्ल आया । घरपर सबने उलटे उसी को बुरा -भला कहा । मंथरा पीडासे व्यथित क्रोध में भरी रोती बरबराती हुई, कि विष्णु पापात्मा हैं हमको इन्द्र से मरवाया, पहले भृगु की स्त्री को मारा, फिर वृंदा को छला, नृसिंह हो प्रह्लाद के पिता को छला; इसी तरह सदैव कपट व्यवहार करके देव-कष्ट को दूर किया करते हैं, उसी दशामें मर गयी । मरते समय विष्णु भगवान् और असुरो से (क्योंकि इन्होने समर में इसका साथ छोड दिया था और उनकी स्त्रियो ने उलटे इसी को चार बातें सुनायी थी ) बदला लेने की वासना रही; इससे वह दूसरे जन्म मे कैंकेयी की दासी हुई ।

उस पुराने वैर निकालने के लिये उसका जन्म हुआ, क्योकि उसने मरते समय मन में इच्छा करी थी कि भगवान् ऐसी जगह जन्म दें कि उनके समीप रहकर उनके कार्य मे विघ्न डालूँ । मंथरा नाम पडा क्योंकि यह पूरी मंथर है तीन जगह से टेढी है और मन्दबुद्धि है ।

२. एक संत लिखते हैं कि एक बार कैकेयी जी के पिता ने शिकार करते समय एक मृग का वध किया तब उसकी मृगी रोती हुईं अपनी माता के पास गयी । उसने सब वृत्तान्त सुन राजा के निकट आकर कहा कि यह मेरा जामाता है, तुम इसे छोड दो मै इसे जीवित कर लूंगी कारण कि मैं यक्षिणी हूँ मेरे भय से यह निर्भय फिरता है ।

राजा ने यह वचन सुन उसको तलवार मारी । तब उसने मरते समय कहा कि राजन् ! जैसे तुमने मेरा प्राण लिया इसी प्रकार मैं तुम्हारे जामाता का प्राण लूंगी । वही मृगी यह मन्थरा हुई । (यह कथा कहा से ली गयी है उस बात का पता नहीं है )

एक बार नारद जी चक्रवर्ती महाराज दशरथ के पास आये और उनसे राजा कैकय (वर्तमान काकेशिया व काकेशस और किसी किसी के मत से काश्मीर) की लडकी कैकेयी की सुन्दरता की प्रशंसा करते हुए बोले कि उसकी हस्तरेखाओ से सिद्ध होता है कि वह एक बड़े तपस्वी धर्मात्मा पुत्र की माता होगी, इससे विवाह कीजिये, पुत्र होगा । अब राजा को चिन्ता हुई कि उससे विवाह क्योंकर हो ।

धात्री योगिनी ने इसका बीड़ा उठाया । योगिनीने केकय देश में आ, कैकेयी का अपने ऊपर विश्वास जमा, उससे दशरथ महाराज के रूप, तेज, बल, ऐश्वर्य की प्रशंसा की और उसको रिझा लिया ।

इस बात का समाचार जब राजा केकय तक पहुंच तब उन्होचे सभायें गर्याचार्य इत्यादि मुनियो से सम्मति लौ, गर्गजी महान् ज्योतिष के ज्ञात थे ,उन्होंने ने रावण के वध की भविष्य कथा उनको सुनायी। तब केकयराज ने गर्गजी के द्वारा चक्रवर्ती महाराज़ दशरथ के पास यह सन्देश (समाचार) भेजा कि यदि आप यह प्रतिज्ञा करे कि कैकेयी का पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होगा तो फलदान कर दिया जाय, राजा यह समाचार सून सोच मे पड गये, वशिष्ठ आदि को बुलाकर सम्मति ली ।

वशिष्ठजी ने सलाह विवाह कर लेने की दी यह कहते हुए कि अभी उसकी चिन्ता क्या करना , पुत्र धर्मज्ञ होगा इससे वह कोई अडचन न डालेगा। अतएव ब्याह हुआ और मंथरा दासी कैकेयी के साथ अवध आयी ।

देवप्रेरित मंथरा के बहकाने पर और माया से मोहित हो जो दो वरदान कैकेयी ने मांग लिए इसी कुकार्य के लिये तो कैकेयी आजतक पापिनी और अनर्थ की मूलकारणरूपा कहलाती है , परंतु विचार करने की बात है कि श्री राम को इतना चाहनेवाली ,कुलप्रथा और कुलकी रक्षा का सर्वदा ध्यान रखनेवाली परम सुशीला कैकेयी ने राज्यलोभ से ऐसा अनर्थ क्यों किया ?

जो थोडी देर पहले राम को भरत से अधिक प्रिय बतलाकर उनके राज्याभिषेक के सुसंवाद पर दिव्याभरण पुरस्कार देती थी और राम तथा दशरथ की निन्दा करनेपर, भरत को राज्य देने की प्रतिज्ञा जाननेपर भी, मन्थरा को घरफोरी कहकर उसकी जीभ निकलवाना चाहती थीं, वे ही जरा सी देर में इतनी केसे बदल जाती हैं कि वे रामको चौदह सालके वन के दुख सहन करने के लिए भेज देती है और भरत के शील स्वभाव को जानती हुई भी उनके राज्य का वरदान चाहती हैं?

इसमें रहस्य है; वह रहस्य यह है कि कैकेयी का जन्म भगवान् श्रीराम की लीला में प्रधान कार्य करने के लिए ही हुआ था । कैकेयी भगवान् श्रीराम को परब्रह्म परमात्मा समझती थी और श्रीराम के लीलाकार्य मे सहायक बनने के लिए उन्होने श्रीराम की रुचि के अनुसार यह जहर की घूंट पी थी । यदि कैकेयी श्रीराम को वन भिज़वाने में कारण न बनतीं तो श्रीराम का लीलाकार्य ही सम्पन्न न होता ।

न सीता का हरण होता और न राक्षसराज रावण अपनी सेनासहित मरता । श्रीराम ने अवतार धारण किया था- दुष्कृतो का विनाश करके साधुओं का परित्राण करने केे लिए । दुष्टो के विनाश के हेतु की आवश्यक्ता थी । बिना अपराध मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम कीसीपर आक्रमण करने क्यो जाते ? आजकल के राज्यलोभी लोगो की भांति वे जबरदस्ती परस्वापहरण करना तो चाहते ही नहीं थे ।

मर्यादा की रक्षा करके ही सारा काम करना था उन्हें । रावण को मारने का कार्य भी दया को लिये हुए था, मारकर ही उसका उद्धार करना था । दुष्टकार्य करनेवालो का वध करके ही साधु और दुष्टो का-दोनो का परित्राण करना था । साघुओ को दुष्टो से बचाकर सदुपदेश से और दुष्टो का कालमूर्ति होकर मृत्युरूप सेे-एक ही वार से दो शिकार करने थे ।

पर इस कार्य के लिए भी कारण चाहिये, वह कारण था सीताहरण । इसके सिवा अनेक शाप वरदानो को भी सच्चा करना था, पहलेके हैतुओ की मर्यादा रखनी थी; परंतु वन गये बिना सीताहरण होता कैसे? राज्याभिषेक हो जाता तो वन जाने का कोई कारण ही नहीं रह जाता । महाराज दशरथ की मृत्युका समय समीप आ पहुंचा था, उसके लिए भी किसी निमित्त की रचना करनी थी ।

अतएव इस निमित्त के लिए देवी कैकेयी का चुनाव किया गया और महाराज दशरथ की मृत्यु एवं रावण का वध, इन दोनो कार्यो के लिए कैकेयी के द्वारा राम वन वास की व्यवस्था करायी गयी ।

श्रीराम वन म न जाते तो निषादराज पर कृपा कैसे होती ? भरत के प्रेम और वैराग्य का परिचय संसार को कैसे प्राप्त होता ? शबरी, केवट पर कृपा कैसे होती ?वन में भजन करने वाले ऋषियो को सुख कैसे प्राप्त होता ?

जटायु जी पर कृपा कैसे होती ? रामहृदय श्री हनुमान जी की भक्ति , वैराग्य , बल ,चातुर्य का परिचय कैसे होता ? रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना कैसे होती ? बाली पर कृपा कैसे होती ? अंगद शरणागति , विभीषण शरणागति कैसे होती ? भक्ता त्रिजटा पर कृपा कौन करता यदि सीता जी लंका न जाती ?

यदि श्रीराम के जीवन के यह १४ वर्ष हटा दिए जाएं तो और बचता ही क्या है ? मुख्या रामायण तो इन्ही १४ वर्षो की है । सर्वनियन्ता भगवान् श्रीराम की ही प्रेरणा से देवताओं के द्वारा प्रेरित होकर जब सरस्वती देवी कैकेयी की बुद्धि फेर गयीं और जब उनपर उसका पूरा असर हो गया -भावी बस प्रतीति उर आई – तब भगवदिच्छा नुसार बरतनेवाली कैकेयी भगवान् के मायावश ऐसा कार्य कर बैठी जो अत्यन्त क्रूर होनेपर भी भगवान् की लीला की सम्पूर्णता के लिये अत्यन्त आवश्यक था।

संत एक अन्य कारण भी बताते है – सत्योपाख्यान के अध्याय २७ में यह कथा है कि एक बार गन्धर्वो का राजा विश्वावसु अप्सराओ सहित अवध में आया, इसके गानसे सब मोहित हो गये । श्री राम-लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जी उसकी गोदमें जा बैठे, नहीं उतरते थे ,पर वह बिना इन्द्र की आज्ञा के रुकना न चाहता था।

कैंकेयीजी इस बातपर रुष्ट हुई और उन्हो ने इन्द्र कोजाबेजा कहा । इन्द्र को समाचार मिला तो उसने प्रतिज्ञा की कि हम इसका बदला लेंगे । राज्यरस भंग का सारा दोष इसी के सिर पडेगा ।

अब प्रश्न यह है कि जब कैकेयी भगवान् की परम भक्त थीं, प्रभु की इस आभ्यन्तरिक गुह्यलीला के अतिरिक्त प्रकाश मे भी श्रीराम से अत्यन्त प्यार करती थीं, राज्य में और परिवार मे उनकी बडी सुख्याति थी, सारा कुटुम्ब कैकेयी से प्रसन्न था, फिर भगवान् ने उसीके द्वारा यह भीषण कार्य कराकर उसे कुटुम्बियों और अवधवासियो के द्वारा तिरस्कृत, पुत्रद्वारा अपमानित और इतिहास मे सदाके लिये लोकनिन्दित क्यो बनाया?

जब भगवान् ही सबके प्रेरक हैं, तब साध्वी सरला कैयीके मन में सरस्वती के द्वारा ऐसी प्रेरणा ही क्यों कारायी, जिससे उनका जीवन सदा के लिये दुखी और नाम सदाके लिये बदनाम हो गया? इसी में तो रहस्य है । भगवान् श्रीराम साक्षात् सच्चिदानन्द परमात्मा हैं, कैकेेयी उनकी परम अनुरागिणी सेविका है ।

जो सबसे गुह्य और कठिन कार्य होता है, उसको सबके सामने न तो प्रकाशित ही किया जा सकता है और न हर कोई उसे करने मे ही समर्थ होता है । वह कार्य तो किसी अत्यन्त कठोरकर्मी, घनिष्ठ और परम प्रेमी के द्वारा ही करवाया जाता है । खास करके जिस कार्यमें कर्ता की बदनामी हो, ऐसे कार्य के लिये तो उसी को चुना जाता है, जो अत्यन्त ही अन्तरङ्ग हो ।

रामका लोकापवाद मिटाने के लिये श्रीसीटा जी वनवास स्वीकार करती हुई सन्देशा कहलाती हैं कि -मैं जानती हूँ मेरी शुद्धता में आपको सन्देह नहीं है; केवल आप लोकापवाद के भय से मुझे त्याग रहे है । तथापि मेरे तो आप ही परम गति हैं । आपका लोकापवाद दूर हो, मूझे अपने शरीर के लिये कुछ भी शोक नहीं है ।

यहाँ सीताजी रामकाज़ के लिये कष्ट सहती है।परंतु उनकी बदनामी नहीं होती, प्रशंसा होती है; उनके पातिव्रत की आजतक पूजा होती है।

परंतु कैकेयी का कार्य इस से अत्यन्त महान है। उसे तो रामकाज के लिये रामविरोधी प्रख्यात होना पडेगा । गालिया सहनी पड़ेगी – पापिनी, कलंकिनी, कुलघातिनी की उपाधियां ग्रहण करनी पड़ेंगी , वैधव्यका दुख स्वीकार कर पुत्र और नगस्वासियो के द्वारा तिरस्कृत होना पडेगा तथापि रामकाज जरूर करना पडेगा ।

यही राम की इच्छा है और इस ‘ रामकाज ’ के लिये रामने कैकेयी को ही प्रधान पात्र चुना है । इसीसे यह कलंक का चिर टीका उन्ही के सिर पोता गया है । यह इसीलिये कि वे परब्रह्म श्रीरामकी परम अन्तरङ्ग प्रेमपात्री है, वे श्रीराम की लीलाओ मे सहायिका है, उन्हें बदनामी-खुशनामी से कोई काम नहीं, उन्हें तो सब कुछ सहकर भी ‘ रामकाज ’ करना है ।

उस कथा का स्मरण कीजिये जब भगवान् श्री कृष्ण के अंगो में भीषण दर्द उठ गया था और नारद जी भी उस दर्द को देख कर घबरा गए थे । कोई उपाय नहीं मिल रहा था तब भगवान् ने कहा की किसी भक्त प्रेमी की चरण रज मिल जाए तो यह दर्द ठीक हो सकता है ।

परंतु जो रज देगा उसे कई वर्षो तक भीषण नर्क भोगना पड़ेगा द्वारिका में किसीने भी राज नहीं दिया और अन्य किसी भक्त की भी हिम्मत नहीं हुई । नारद जी ने जब यह बात गोपियों को सुनायी तब उन्होंने अपने चरण की रज झाड़कर उन्हें दे दी ।

नारद जे ने कहा की कृष्ण भगवान् है , उनके श्रीअंग को तुम्हारी चरण रज का स्पर्श हुआ तो तुम्हे नर्क जाना पड़ेगा । गोपियों ने कहा – हमें अपनी परवाह नहीं है ,हम कितने भी वर्षो तक नर्क भोग लेंगे लेकिन प्रियतम को यदि इस रज से सुख होता है तो वह देंगे ।

उन्होंने ने एक क्षण भी पाप, निंदा ,नर्क की चिंता नहीं की । उसी तरह कैकेयी जी ने किसी निंदा का नही सोचा , सोचा केवल इतना की हमारे प्राणप्रिय श्रीराम की लीला में कोई बाधा न आये । सरकार यदि किसी और को यह कार्य सौंपते तो वह यह करने में सक्षम नहीं हो पाता क्योकि अन्य किसी के हृदय में निष्काम प्रेम ही नहीं है कैकेयी जी जैसा ।

जब हनुमान जी संजीवनी ब्यूटी लाते समय अयोध्या में श्री भारत जी के बाण से घायल होकर निचे आ गिरे तब उन्होंने भारत जी को सीता जी के रावण द्वारा हरण की बात बताई।

कैकेयी को जब सीता हरण की बात पता चली तो तुरंत उसने अस्त्र शस्त्र धारण कर लिए , उसकी आँखे लाल हो गयी और वह कहने लगी – मेरी पुत्रवधु का अपहरण करने की हिम्मत कैसे हुई रावण की , अभी उससे युद्ध करके उसके प्राण ले लूँगी और अपनी सीता को वापस लेकर आउंगी ।बाद में उसे श्रीराम के लीला कार्य का स्मरण हुआ तो वो शांत हुई ।

जब भरत श्रीराम को लौटा ले जाने के लिए बहुत आग्रह करते हैं और श्रीराम किसी प्रकार नहीं मानते, तब भगवान् श्री राम का रहस्य जाननेवाले मुनि वसिष्ठ श्रीराम के संकेत से भरत को अलग ले जाकर एकान्त में समझाते है – पुत्र ! आज मैं तुझे एक गुप्त रहस्य सुना रहा हूं ।

श्रीराम साक्षात् नारायण हैं; पूवकाल में ब्रह्माजी ने इनसे रावण वध के लिये प्रार्थना की थी, इसीसे इन्होंने दशरथ के यहाँ पुत्ररूप से अवतार लिया है । श्रीसीता जी साक्षात् योगमाया हैं । श्रीलक्ष्मण शेष के अवतार हैं, जो सदा श्रीराम के साथ उनकी सेवा में लगे रहते है । श्रीराम को रावण का वध करना है, इससे वे जरूर वन में रहेंगे; तेरी माता का कोई दोष नही है

कैकेय्या वरदानादि यद्यन्नि ष्ठुरभाष्णम् ।।
सर्व देवकृतं नोचेदेवं सा भाषयेत्कथम्।
तस्मात्त्यजाग्रहं तात रामस्य विनिवर्तने ।।
(अध्यात्मरामायण २। ९। ४५ -४६)

कैकेयी ने जो वरदान मांगे और निष्ठुर वचन कहे थे, सो सब देवका कार्य था-रामकाज था । नहीं तो भला, कैकेयी कभी ऐसा कह सकती है? अतएव तुम राम को अयोध्या लौटा ले चलने का आग्रह छोड दो । रास्ते में भरद्वाज मुनि ने भी भरत से कहा था -भरत !

तू माता कैकेयीपर दोषारोपण मत कर । राम का वनवास समस्त देव दानव और ऋषियो के परम हित और परम सुख का कारण होगा । अब श्रीवसिष्ठ जी से स्पष्ट परिचय प्राप्त कर भरत समझ जाते है और श्रीराम की चरण-पादुका सादर लेकर अयोध्या लौटने की तैयारी करते हैं । इधर कैकेयी जी एकान्त मे श्रीराम के समीप जाकर आखो से आसुंओं की धारा बहाती हुई व्याकुल हृदय से हाथ जोडकर कहती हैं- श्रीराम ! तुम्हारे राज्याभिषेक मे मैने विघ्न किया था । उस समय मेरी बुद्धि देवताओ ने बिगाड दी थी और मेरा चित्त तुम्हारी माया से मोहित हो गया था ।

अतएव मेरी इस दुष्टता को तुम क्षमा करो; क्योकि साधु क्षमाशील हुआ करते है । फिर तुम तो साक्षात् विष्णु हो, इंद्रियों से अव्यक्त सनातन परमात्मा हो, माया से मनुष्य रूपधारी होकर समस्त विश्व को मोहित कर रहे हो । तुम्ही से प्रेरित होकर लोग साधुअसाधु कर्म करते हैं ।

यह सारा विश्व तुम्हारे अधीन है, अस्वतन्त्र है, अपनी इच्छा से भी नहीं कर सकता । जैसे कठपुतलियाँ नचानेवाले के इच्छानुसार ही नाचती हैं, वैसे ही यह बहुरूपधारिणी नर्तकी माया तुम्हारे ही अधीन है । तुम्हें देवताओं का कार्य करना था, अतएव तुमने ही ऐसा करने के लिये मुझे प्रेरणा क्री ।

हे विश्वेश्वर ! हे अनन्त ! हे जगन्नाथ ! मेरी रक्षा करो । मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ । तुम अपनी तत्त्वज्ञानरूपी निर्मल तीक्ष्णधार तलवार से मेरी पुत्र -वित्तादि विषयो मे स्नेहरूपी फांसी काट दो । मैं तुम्हारे शरण हूँ । ( अध्यात्म रामायण ) कैकेयी के स्पष्ट और सरल वचन सुनकर भगवान ने हँसते हुए कहा – हे महाभागे ! तुम जो कुछ कहती हो, सत्य कहती हो; इसमें किंचित् भी मिथ्या नहीं है ।

देवताओ का कार्य सिद्ध करने के लिये मेरी ही प्रेरणा से उस समय तुम्हारे मुख से वैसे वचन निकले थे । इस में तुम्हारा कुछ भी दोष नही है । तुमने तो मेरा ही काम किया है । अब तुम जाओ और हृदय मे सदा मेरा ध्यान करती रहो । तुम्हारा स्नेह पाश सब ओर से टूट जायगा और मेरी इस भक्ति के कारण तुम शीघ्र ही मुक्त हो जाओगी । मैं सर्वत्र सरमदृष्टि हूँ ।

मेरे न तो कोई द्वेष्य है और न प्रिय । मुझे जो भजता है, मैं भी उसी को भजता हूँ;परंतु हे माता ! जिनकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित है, वे मुझको तत्त्व से न जानकर सुख-दुख का भोक्ता साधारण मनुष्य मानते हैं । यह बड़े सौभाग्य का विषय है कि तुम्हारे हृदय मे मेरा यह भवनाशक तत्त्वज्ञान हो गया है । अपने घरमें रहकर मेरा स्मरण करती रहो । तुम कभी कर्मो से लिप्त नहीं होओगी । ( अध्यात्मरामायण )

भगवान के इन वचनों से कैंकेयी की स्थिति का पता लगता है । भगवान के कथन का सार यही है कि तुम महाभाग्यवती हो, लोग चाहे तुम्हें अभागिनी मानते रहे। तुम निर्दोष हो, लोग चाहे तुम्हें दोषी समझें । तुुम्हारे द्वारा तो यह कार्य मैने ही करवाया था।

जिन लोगो की बुद्धि मायामोहित है, वे ही तुमको मामूली समझते हैं, तुम्हारे हृदय मे तो मेरा तत्त्वज्ञान है, तुम धन्य हो । भगवान् श्रीराम के इन वचनो को सुनकर कैकेयी आनन्द और आश्चर्यपूर्ण हृदय से सैकड़ो बार साष्टाङ्ग प्रणाम और प्रदक्षिणा करके सानन्द भरत के साथ अयोध्या लौट गयीं ।

उपर्युक्त स्पष्ट वर्णनसे यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि कैकेयी ने जान-बूूझकर स्वार्थबुद्धि से कोई अनर्थ नहीं किया था । उन्होने जो किया, सो श्रीराम की प्रेरणा से रामकाज़ के लिये । इस विवेचन से यह प्रमाणित हो जाता है कि कैकेयी बहुत ही उच्चकोटि की भक्तहृदया देवी थीं ।

वे सरल, स्वार्थहीन, प्रेममय, स्नेह-वात्सल्ययुक्त, धर्मपरायणा, बुद्धिमती, आदर्श पतिव्रता, निर्भय विराङ्गना होने के साथ ही भगवान् श्रीराम की अनन्य भक्ता थीं । उनकी जो कुछ बदनामी हुई और हो रही है, सो सब श्रीराम की अन्तरङ्ग प्रीति का निदर्शनरूप ही है।

जिस देवी ने ज़गत के आधार, प्रेम के समुद्र, अनन्य रामभक्त भरत को जन्म दिया, वह देवी कदापि तिरस्कार के योग्य नहीं हो सकती, ऐसी प्रात: स्मरणीया देवी के चरणो में बार-बार अनन्त प्रणाम हैं।

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