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देवता–दैत्य जीवन दर्शन
तथ्यपरक अद्भुत विवेचन
पौराणिक संघर्ष -रहस्य
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पौराणिक धारणा के अनुसार देवता और दैत्य शब्द प्रशंसा और निंदा के पर्यायवाची बन गये हैं।ब्यवहार में देवता का अर्थ है,जिसकी स्तुति की जाय।किसी को दैत्य कह देना उसकी आलोचना जैसा लगता है।किन्तु पुराणों में उनकी प्रस्तुति के अंतराल में प्रवेश करने पर,उसका जो तात्त्विक पक्ष सामने आता है,वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
पिता की दृष्टि से उनमें कोई अंतर नहीं है।वे दोनों ही कश्यप के पुत्र हैं।समस्त ब्रह्मांड के मूल में यदि एक ही अद्वितीय ब्रह्म तत्त्व विद्यमान है,तो फिर विश्व में जो भिन्नता दिखाई देती है,उसका तात्पर्य क्या है?
कश्यप यदि उस अद्वैत तत्त्व के ब्यक्त रूप हैं,तो दिति और अदिति द्वैत बुद्धि के रूप में सामने आती हैं।वस्तुतः श्रृष्टि और उसका ब्यवहार द्वैत के बिना चल ही नहीं सकता।
उस अद्वैत तत्त्व में जब श्रृष्टि निर्माण और लीला-विस्तार का संकल्प जाग्रत होगा,तब उसे द्वैत स्वीकार करना ही होगा।किसी नाट्य से प्रभावित करने की शक्ति,उसके द्वंद्वात्मक रूप पर ही आधारित होती है।इसलिए यदि सृष्टि को ईश्वर के लीला-विस्तार के रूप में देखें तो इस द्वैत बुद्धि की आवश्यकता अपने आप सिद्ध हो जाती है।
वस्तुतः श्रृष्टि के संदर्भ में भी इसी नाट्य दृष्टि की आवश्यकता है।दर्शक जब नाटक देखता
है,तब उसमें हर्ष-विषाद,विस्मय-कौतूहल और पक्षपात की बृत्तियां होती रहती हैं।वह कभी हँसता है,तो कभी रोता है।वह किसी एक पक्ष की विजय चाहता है,तो किसी दूसरे की पराजय।पर तन्मयता की ऐसी मनःस्थिति के बाद भी नाटक के अंत में वह इसी निर्णय पर पहुँचता है कि वह तो उसके नाट्य रस की बृद्धि के लिए ही था।तत्त्वतः उनमें न तो कोई बुरा था और न ही कोई अच्छा।इसीलिए सारी पौराणिक कथायें बड़ी ही
बिस्तार से द्वंद्व के के इस पक्ष को प्रस्तुत करती हुयीं भी,उसके मूल में एक ही तत्त्व को इंगित करना नहीं भूलती हैं।
बहुधा देवता और दैत्यों की चर्चा करते हुए हम,उन्हें दो रूपों में देखने के अभ्यस्त हो गये हैं,जैसा हमने अभी कुछ समय पूर्व अपने प्रिय,दिब्य मानस-समूह में भी देखा था।
पर ब्यक्ति यदि अपने अन्तर्जीवन की ओर झाँककर देखे,तो उसे अपने अंतराल में इन दोनों का मिलाजुला रूप दिखाई देगा।हमारी बुद्धि कभी दिति का रूप धारण कर लेती है,तो कभी अदिति का,और विलक्षणता यह है कि दृष्टा कश्यप उन दोनों की आकांक्षाओं
को पूर्ण करता हुआ प्रतीत होता है।अतः मान लेना कि सर्वदा एक ही पक्ष की विजय होगी,यह तो अतिरेक भरी कल्पना है।यदि ऐसा होता कि किसी विशेष विचारधारा
को स्वीकार कर लेने पर ब्यक्ति सदा दुखी और पराजित ही होगा,तो उसे स्वीकार कौन करता?इसलिए दोनों ही स्थितियों में,जय और पराजय,सुख और दुख की संभावना समान रूप से विद्यमान है।
देवता,विजय और सुख के प्रतीक हैं,और दैत्य ,पराजय और दुख से संत्रस्त हैं,यह मान्यता अधूरी है।पुराणों में इस तथ्य को कभी छिपाया नहीं गया है।उसमें कभी
देवता की विजय होती है,तो कभी दैत्य की।कभी एक दुखी दिखाई देता है तो कभी दूसरा।बहुधा,इस तथ्य की अनदेखा करके अधिकांश ब्यक्ति,यह मानने की भावुकता भरी भूल कर बैठते हैं कि निरंतर एक ही पक्ष की विजय होनी चाहिए।जब हम किसी
धर्मात्मा या भक्त कहे जाने वाले ब्यक्ति को पराजित और असफल देखते हैं,तो हममें नैराश्य और अनास्था का उदय होता है।इस नैराश्य और अनास्था का कारण,हमारी यह भ्रान्तिपूर्ण मान्यता ही है।
बुद्धि के एक पक्ष का आग्रह यही है कि सफलता और उत्कर्ष ही जीवन के परम लक्ष्य हैं।सुखानुभूति ही,ब्यक्ति के जीवन का उद्देश्य है,और उसे पाने के लिए किसी भी पद्धति का आश्रय लिया जा सकता है।स्वयं में कोई औचित्य या अनौचित्य नहीं होता।जिस पद्धति से भी सफलता प्राप्त हो,उसे स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए,
“दैत्य-धारणा”यही है।देवता,उन्हीं को मर्यादित मार्ग से पाने की चेष्टा करते हैं।ऐसा नहीं है कि,दैत्य में कोई सद्गुण न हो और देवता में दुर्गुण का पूरी तरह अभाव हो।
पर देवता में अपनी भूल का भान होने पर जो संकोच दृष्टिगोचर होता है,उसका दैत्य में सर्वथा अभाव है,क्योंकि उसकी दृष्टि में वह भूल ही नहीं।किसी कार्य को भूल मानकर उस पर पश्चात्ताप करने की प्रक्रिया को ही वह सबसे बड़ी भूल मानता है।
इसलिए दैत्य,अन्तर्द्वंद से उतने पीड़ित नहीं दिखाई देते हैं,जैसे देव-बृत्ति वाले ब्यक्ति।
दैत्य केवल पुरुषार्थ पर विश्वास करते हैं।उसे जीवन में किसी ईश्वर की अपेक्षा का बोध नहीं होता।ईश्वर संबंधी धारणा को बीच में लाकर वह, स्वयं को पुरुषार्थ से अलग करने में विश्वास नहीं करता।कवितावली रामायण में लंकादहन के समय माल्यवान और रावण के संवाद में गोस्वामीजी,इसी मनोभाव को अभिब्यक्त करते हैं।
रावण,दैत्य विचारधारा का ही एक उत्कृष्टतम प्रतीक है।वह अपनी साधना,तपस्या और पुरुषार्थ से,प्रकृति के समस्त तत्त्वों पर अधिकार प्राप्त कर लेता है।यहाँ पर पुनः एक बार इस सूत्र को स्पष्ट कर देना अपरिहार्य रूप से आवश्यक है कि दैत्य या राक्षस,निरंतर
बुरे कर्म ही नहीं करता है,अपितु उसके जीवन में भी,उसी प्रकार के उत्कृष्ट कर्म दिखाई देते हैं,जैसे देवता या धर्मात्मा कहे जाने वाले ब्यक्ति में दृष्टिगोचर होते हैं।यहाँ तक कि,कभी-कभी तो उसके जीवन में वे और भी उत्कृष्ट रूप में सामने आते हैं।
इसीलिए,दैत्य और राक्षसों के जीवन में तपस्या या पूजा का जो सांगोपांग रूप दिखाई देता है,वह देवताओं और धर्मात्माओं के जीवन में भी नहीं दिखाई देता।इसके पीछे,एक विशेष प्रकार का मनोविज्ञान है।
दैत्य ,समग्र अर्थों में पुरुषार्थवादी होता है।वह अपने पुरुषार्थ के बीच में, ईश्वर या उसकी कृपा को नहीं आने देता।वह सारी सृष्टि को प्रकृति और नियमों के द्वारा ही
संचालित देखता है।इसीलिए यज्ञ,तपस्यादि के परिणामतः,जब उसे कोई सिद्धि मिलती
है,तो वह उसे,किसी ईश्वर-विशेष की कृपा नहीं मानता।उसकी दृढ़ धारणा है कि,”विशिष्टईश्वर” कहे जाने वाले ब्यक्ति क्षमतायुक्त होते हुए भी,प्रकृति के नियमों में आबद्ध हैं,और वे हमारे कर्म का परिणाम देखकर कोई कृपा नहीं करते,यह तो उनकी बाध्यता है।इसलिए
उनके मन में ईश्वर के प्रति किसी प्रकार की कृतज्ञता की बृत्ति नहीं आती है।वह उस भौतिक विज्ञानी के समान है,जो पदार्थ से शक्ति प्रकट होते देखकर चकित नहीं होता और न तो वह,उस शक्ति की पूजा करता है।रावण की बृत्ति भी ठीक इसी प्रकार की है।उसने
उत्कृष्टतम साधना के द्वारा,जो क्षमतायें प्राप्त की,उसे वह स्वयं के पुरुषार्थ का ही परिणाम मानता रहा।उसके जीवन में असफलता का क्षण तब आता है,जब हनुमानजी उसी के सामने सारी लंका में आग लगा देते हैं।उन क्षणों में माल्यवान के मन में उसी प्रकार के
विचार उदित होते हैं,जैसे किसी ईश्वरवादी ब्यक्ति के अन्तर्हृदय में आते हों।वह उसे ईश्वर की प्रतिकूलता के रूप में देखता है–
“रामकोहु पावकु,समीरु सीय-स्वाँसु कीसु,ईश-बामता बिलोकु,बानर को ब्याजु है।”.
(कवितावली-5/22)
पर उन क्षणों में भी रावण,अपनी दैत्य-धारणा पर अडिग था।वह उसे किसी ईश्वर की सत्ता अथवा क्षमता का प्रभाव मानने को प्रस्तुत नहीं था।वह माल्यवान् को झिड़क कर पूछता है कि,”तुम किस ईश्वर की चर्चा कर रहे हो?”
“को है ईश नाम को,जो बाम होत मोहूसे को,मालवान!रावरे के बावरे- से बोल हैं।”
(कवितावली-5/21)
इस तरह दैत्यों की सफलता,जहाँ उन्हें अभिमानी बना देती है,वहा “देव-दर्शन”इससे सुरक्षित है।पर ऐसा नहीं है कि देवताओं में अभिमान न आता हो।इन्द्र में अभिमान
के अनेक दृष्टांत पुराणों में मिलते हैं।पर उनकी अन्तिम परिणति,ईश्वर के द्वारा अभिमान के विनाश में ही होती है।दैत्यों का अभिमान विनष्ट होता हुआ नहीं दिखाई देता है।इसीलिए ईश्वर के द्वारा अभिमान के स्थान पर उनके ही विनाश की प्रक्रिया सामने आती है।
देवताओं की भोगवादी बृत्ति,और उनका अन्तर्द्वंद,उनकी सबसे बड़ी कमी है।इसलिए वे दैत्यों के समक्ष बार-बार पराजित होते रहते हैं।पराजय के क्षणों में उन्हें ईश्वर की याद अवश्य आती है।तब उनकी पराजय भी ईश्वर की कृपा से विजय के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

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