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धर्म का वास्तविक स्वरुप!!!!!

धर्म विरोध का प्रथम कारण है धर्म के वास्तविक स्वरुप को न समझना। धर्म के वास्तविक स्वरुप को समझ लेने पर कोई धर्म का विरोध कर ही नहीं सकता।

धर्म का वास्तविक स्वरुप-

धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ है धारण करना।
धारणाद्धर्म:,अर्थात जो सबको धारण करता है वह धर्म है,अथवा जिसको सब धारण करते हैं,जिसके बिना किसी का निर्वाह ही नहीं,जिस बात से कोई संसार का मनुष्य इंकार न कर सके उसे धर्म कहते हैं।

जैसे सूर्य उदय होने पर उससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
दूसरी बात ये है कि धर्म सारे संसार के लिए एक है, पृथक-2 नहीं। जैसे सूर्य सबके लिए एक है अलग अलग नहीं।

मनु ने क्रियात्मक धर्म का वर्णन किया है।
यथा: धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:।
धीर्विद्या सत्यम क्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।

१.धृति-धैर्य रखना।
२.क्षमा-निर्बलों पर दया करना क्षमा है,क्षमा वीरों का भूषण और कमजोरों का दूषण है।
३.दम-मन को वश में रखना दम है,बिना मन को वश में किये कोई कार्य सफल नहीं होता।
४.अस्तेय-सोते मनुष्य की वस्तु उठा लेना,पागल से कोई वस्तु छीन लेना या असावधान मनुष्य से विविध उपायों द्वारा छल करके किसी भी वस्तु को ले लेना चोरी है।
वेद का आदेश है कि”मा गृद्ध: कस्य स्विद्धनम्” कि किसी के धन का लोभ मत करो।
५.शौच-जल से शरीर की,सत्य से मन की,विद्या और तप से आत्मा की और ज्ञान द्वारा बुद्धि की शुद्धि करना शौच कहलाता है।
६.इन्द्रियनिग्रह-इन्द्रियों को
वश में रखना रुप,रस,गन्ध,स्पर्श आदि विषयों के मर्यादा विरुद्ध सेवन से बचना।
याद रखो विष को खाने से मनुष्य मरता है परन्तु विषयों के स्मरण मात्र से ही मानव का नाश हो जाता है।
नाम अमृत को छोडकर करे विषय विष पान।
मन्द मति इस जीव को दे सुमति भगवान।।
७.धी-अर्थात बुद्धि के अनुकूल सोच समझ कर काम करना,बुद्धि विरुद्ध कार्यों से बचना।
वाणी दूषित विद्धा बिन,मन दूषित बिन ज्ञान।
प्रभु चिन्तन बिन चित्त,और बुद्धि दूषित बिन ध्यान।।
८.विद्या-अच्छे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना और उनके अनुसार आचरण करना विद्या है।
९.सत्य-मन,वचन,कर्म की अनुकूलता का नाम सत्य है।
१०.अक्रोध-किसी से वैर विरोध,क्रोध न करना।

ये धर्म के दस क्रियात्मक लक्षण हैं।

नीति शास्त्र में निम्न लक्षण कहे हैं-
इज्याध्ययन दानानी तप: सत्यं धृति क्षमा ।
अलोभ इति मार्गोsयं धर्मस्याष्टविध:स्मृत: ।।
अर्थात यज्ञ करना,स्वाध्याय करना,दान देना,तप करना,सत्याचरण,धीरज धारण,क्षमा भाव रखना और लोभ न करना ये धर्म के आठ लक्षण हैं।

(2)-धर्म का दूसरा लक्षण-
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं,श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।।
धर्म का सार सुनो और सुनकर मन में धारण करो,जो व्यवहार तुम्हें अपने लिए अच्छा नहीं लगता,वह दूसरों के लिए भी कभी मत करो।

(3)-वेदाज्ञा का पालन करना धर्म है-धर्मादपेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्।
न तत सेवेत मेधावी न तद्वित मिहोच्यते।।

अर्थात बुद्धिमान व्यक्ति धर्मरहित(वेद विरुद्ध) महाफल देने वाले कर्म का भी सेवन न करे, क्योंकि धर्म विरुद्ध कर्म कभी भी हितकारक नहीं।
वह कर्म पीछे कर्ता का समूल नाश कर देता है।

(4)-धर्म का चौथा लक्षण है- ” सीमानोअनतिक्रमणं यत्तत् धर्मम्” सीमा या मर्यादा का अतिक्रमण न करना धर्म है। सब अपनी मर्यादा में चलें। स्वकीय कर्तव्य में तत्पर रहें। उसका उल्लंघन कभी न करें।

(5)-पांचवां लक्षण -जो प्राणीमात्र का कल्याण करने वाला कर्म है, जिससे प्राणीमात्र का हित हो, किसी का अहित न हो उसे धर्म कहते हैं।
यथा य एव श्रेयस्कर: स एव धर्म शब्देन उच्यते,मीमांसा भाष्य सूत्र १२ जिस काम से सबका कल्याण हो उसे धर्म शब्द से कहा जाता है।
इसलिए पुराने लोग प्रात: काल उठते ही ऊंचे स्वर से प्रार्थना करते सुनाई देते थे- हे भगवान सबका भला, सबके भले में हमारा भी भला।।

(6)-धर्म का छठा लक्षण है-
योग के द्वारा आत्मदर्शन करना,अपने आपको पहचानना।
मैं क्या हूं, मैं संसार में क्यों आया हूं मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है।
इस जीवन के पश्चात क्या होगा इत्यादि, अत: “अयं तु परमोधर्मोयण्योगेनात्मदर्शनम्”
परन्तु आज संसार अन्य वस्तुओं को जानने में लगा है। अपना पता ही नहीं।

(7)-सांतवा धर्म का लक्षण है-परमात्मा को सर्वज्ञ तथा सर्वव्यापक जानकर सब प्रकार के पापों से बचना,यथाशक्ति अपने आप को सब बुराईयों से बचाना चाहिये यही धर्म है।

(8)-धर्म का आठवां लक्षण है-विश्व की सेवा करना तथा परोपकार करना तथा किसी को किसी प्रकार से भी दु:खी न करना, यथा
“परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्” दूसरों का उपकार करना पुण्य और दूसरों को दु:ख देना पाप है।

(9)-धर्म का नवां लक्षण है-
वेद स्मृतिः सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।-(मनु० २/१२)

वेद=श्रुति,स्मृति,सदाचार,शीलादि और अपना सन्तोष,यह चार प्रकार का साक्षात् धर्म (मुनि लोग)कहते हैं।

|| धर्म को जानो सरल व संक्षेप भाषा में… धर्म ही सत्य है…

मित्रों कहने को तो सभी अपने आपको धार्मिक कहते है कोई अपने को हिन्दू तो कोई मुस्लिम तो कोई सिख और ईसाई आदि आदि बताता है परन्तु धर्म क्या है ? धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है ? ये कोई नही जानता।

सत्य तो यह है कि धर्म केवल एक ही है और वो सबके धारण करने योग्य हैं अतः हम यहा उसी एक धर्म को सरल व संक्षेप भाषा में ऋषियों के प्रमाण देकर समझाने का प्रयास करते हैं…

धर्म ‘धृञ धारणे’ धातु से सिद्ध होता है, जिसका अभिप्राय है– जिसको धारण किया जाए और जिसे व्यवहार में लाया जाए।

महर्षि कणाद धर्म के महत्व के सम्बन्ध में लिखते हैं कि…

“यतोSम्युदयनिः श्रेयससिध्दिः स धर्मः।”

अर्थात् धर्म उन कर्तव्य कर्मों का नाम है, जिनका पालन करके व्यक्ति इस संसार में सब प्रकार की भौतिक उन्नति कर सकता है तथा परलोक में मोक्ष पा सकता है।

महर्षि वेदव्यास जी ने धर्म को निम्न प्रकार परिभाषित किया है…

“श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।”

अर्थात् जिस आचरण को, व्यवहार को तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के साथ कभी मत करो। धर्म का सार-निचोड़ यही सुनो और सुनकर इस पर ही आचरण करो।

पुनः व्यास जी सत्य को ही धर्म कहते हुए लिखते हैं कि…

“नहि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।
नहि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात् सत्यं समाचरेत्।।”

अर्थात् सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं। सत्य से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं, इसलिये सत्य का ही व्यवहार करना चाहिए।

अन्त में सभी ग्रन्थों के सार के अनुसार महर्षि दयानन्द सरस्वती जी धर्म के सम्बन्ध में लिखते है कि…

“जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है उसी का नाम धर्म हैं |”

मित्रों जिस प्रकार एक पृथ्वी है, एक सूर्य है, एक ही मानव जाति है ठीक इसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है इसके अतिरिक्त बाकी तो सब भ्रम ही है न कि धर्म।

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