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ध्यान का अर्थ है-

गहराई में उतर कर देखना। जानना और देखना चेतना का लक्षण है। आवृत्त चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है – जानो और देखो। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो, स्थुल मन के द्वारा सूक्ष़्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो। पूरी साधना यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर है, ज्ञात से अज्ञात की ओर है। देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है। जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं है। जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं है। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अन्तिम साधन है – देखना। आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएगे, विकल्प शून्य हो जाएंगे। हम जैसे-2 देखते चले जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं। दृश्य दर्शन में आंख एवं मन का संयोग है। नाद श्रवण में कान एवं मन का संयोग है। शून्य विचरण में केवल मन का रमण है। पहले दो तरीके स्थूल हैं, सरल हैं, तीसरा तरीका जरा सूक्ष्म है, कठिन भी है।
दृश्य-दर्शन से तात्पर्य है किसी भी स्थूल बिन्दु पर दृष्टि टिकाकर धारणा करना। वह बिन्दु ¬ हो सकता है, राम, कृष्ण एवं शिव का चित्र एवं मूर्ति हो सकता है। अपने गुरु का चित्र हो सकता है। अपने शरीर का कोई भी संवेदनशील अंग हो सकता है। यथा नासिकाग्र, भृकुटी, नाभि, हृदय आदि-2 प्राण-दर्शन भी सुगम एवं सरल है। प्राण-दर्शन से तात्पर्य श्वांस दर्शन से श्वांस और जीवन दोनों एकार्थक जैसे हैं जब तक जीवन तब तक श्वांस और जब तक श्वांस तब तक जीवन। शरीर और मन के साथ श्वांस का गहरा सम्बन्ध है। यह ऐसा सेतु है जिसके द्वारा नाड़ी संस्थान, मन और प्राण शक्ति तक पहुंचा जा सकता है। श्वासं को देखने का अर्थ है – प्राण शक्ति के स्पंदनों को देखना और उस चैतन्य शक्ति को देखना, जिसके द्वारा प्राण शक्ति संपदित होती है। श्वांस को देखने से मन की एकाग्रता बढ़ती है। श्वांस दीर्घ एवं मंद होना चाहिए।
दूसरा तरीका है-नाद-श्रवण का। कोई भी मधुर भक्ति स्वरों की या मंत्र स्वरों की कैसेट भर ली जाए और उसको धीमी आवाज में चलाते हुए मस्त होकर सुना जाए। मन को पूरा का पूरा उसमें लगा दिया जाए। कानों में रूई की डाट लगाकर या अंगुलियां डालकर अपने शरीर के कलरव को सुना जाए। हृदय, नाड़ियां एवं रक्त परिभ्रमण के स्वर को दत्तचित्त होकर सुना जाए। इसी शरीर के स्वर में से ‘सोऽहम्’ का स्वर फूट पड़ता है। रात्रि की सन-सन की आवाज के साथ मन को लगाया जाए। आधा घंटे का अभ्यास ही साधक को शून्य स्थिति में उतार देता है। पर यह साधना जंगल में ही संभव है, गांव या बस्ती में संभव नहीं है।
तीसरा तरीका है-शून्य विचरण। यह काफी कठिन एवं श्रम साध्य है, विशेषकर नव साधकों के लिए। लम्बे अभ्यास के बाद तो कोई भी साधक शून्य स्थिति में ही पहुंचते हैं पर प्रथम छलांग में ही शून्य में ठहरना काफी कठिन है। इस साधना में किसी भी प्रकार का नियंत्रण वर्जित है। विचार आए तो आने दें। उन्हें रोके नहीं। विचारों को देखो। संकल्प विकल्प आए तो उन्हें भी देखते रहें। करना कुछ नहीं, केवल देखना है। जान लेना है कि यह ऐसा हो रहा है। जैसे ही विचारों को देखना प्रारम्भ करते हैं, विचारों का आना बंद हो जाता है। विचार रूकते ही एक शून्य स्थिति पैदा हो जाती है। उस शून्य स्थिति में रहना ही शून्य विचरण कहलाता है।
तीन तरीके आपको सुझाए गए हैं जो आपको अच्छा लगता हो, सरल लगता हो, आपकी प्रकृति एवं स्वभाव के अनुकूल हो, वही अपना लीजिए। ध्यान रहे साधना का प्रारम्भ दृढ़ संकल्प से प्रारम्भ होता है और दृढ़ भाव से साधना का समापन होता है। भगवान बुद्ध के ये शब्द नोट कर लीजिए-

इहासने शुण्यतु में शरीरम्’ त्वगस्थि मांसं प्रलयं च यातु।
अप्राप्यं बोधिं बहुकल्प दुर्लभाम् नेहासनात्कायमः चलिष्येत्।।
उपनिषद् के ऋषि की यह प्रार्थना भी हृदयंगम कर लीजिए –
हिरण्मयेण (हिरण्मयेन) पात्रेण, सत्यस्थापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्न पावृणु, सत्य धर्माय दृष्टये।।
साधना में दृढ़ संकल्प एवं दृढ़ आस्था तथा पूर्ण समपर्ण का होना परमावश्यक है।

गुरु शिष्य का प्रकरण है। वर्षों तक गुरु के पावन सान्निध्य में शिष्य ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। अब वह अपने घर जाना चाहता था। घर का रास्ता उसके लिए अज्ञात था। उसने गुरु से अनुरोध किया, ‘गुरुदेव। आपको कष्ट न हो तो मेरा पथ-प्रदर्शन करें, अन्यथा मैं भटक जाऊंगा।’ गुरु ने शिष्य के हाथ में दीपक दिया और आगे हो गए। गुरुकुल के द्वार तक वे चलते रहे। उसके बाद शिष्य से कहा, ‘अब आगे मैं नहीं जाऊंगा। तुम अपना मार्ग स्वयं खोजो। उस खोज में कहीं भटक भी जाओ तो घबराना मत। एक दिन तुम अपनी मंजिल को अवश्य ही प्राप्त कर लोगे।’ शिष्य ने झुककर गुरु को प्रणाम किया। उसी समय गुरु ने फूंक देकर दीपक को बुझा दिया। शिष्य विस्मित हो गया। एक क्षण रुककर शिष्य बोला, ‘गुरुदेव, आप मेरे साथ यह कैसा मजाक कर रहे हैं? न आप साथ चलते हैं और न आगे का पथ-प्रदर्शन कर रहे है। अपना पथ मैं स्वयं देखूं, इसके लिए जो दीपक मेरे पास था, उसे भी आपने बुझा दिया है। अब मैं क्या करूंगा? गुरुदेव ने मुस्कराते हुआ कहा, ‘वत्स! डरो मत, मैं तुम्हें आत्म निर्भर (आत्म निर्भर) देखना चाहता हूं। यह जो दीपक तुम्हारे पास था, तुम्हारा अपना जलाया हुआ नहीं था। तुम स्वयं पुरुषार्थ करो, स्वयं प्रकाश पाओ, स्वयं दीपक जलाओ और स्वयं अपने दीपक बन जाओ।

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