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समस्त आध्यात्मिक कार्यों में मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने मन तथा इंद्रियों को वश में करना है। मन तथा इन्द्रियों को वश में किये बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक जगत में रजो तथा तमो गुणों में निमग्न है। उसे श्रीकृष्ण के उपदेशों पर चलते हुए अपने आपको शुद्ध सत्व गुण के पद तक उठना चाहिये। तभी आगे की उन्नति संबंधी प्रत्येक आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जायेगा।

अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः।
जनसंगश्च लौल्यञ्च षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति।।

अनुवाद – जब कोई साधक निम्नांकित छः क्रियायों में अतिशय लिप्त हो जाता है तो प्रभु में उसकी प्रेममय सेवा-भक्ति नष्ट हो जाती है

(1) आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना

(2) कठिनता से प्राप्त होने वाले सांसारिक पदार्थों के लिए अत्यधिक श्रम करना

(3) सांसारिक विषयों के बारे में व्यर्थ बातें करना

(4) आध्यात्मिक प्रगति के लक्ष्य से न करके केवल पालन करने लिए शास्त्र विधियों का पालन करना अथवा शास्त्रविधियों का उल्लंघन करके प्रमाद पूर्वक उच्छृङखल आचरण करना

(5) कृष्ण भावना से विमुख सांसारिक लोगों की संगति करना और

(6) सांसारिक उपलब्धियों के लिए लालच करना

विनम्र निवेदन …एक बार श्रीमद्भगवद्गीता अवश्य पढ़े अपने जीवन में । 🙏
परम भगवान श्री कृष्ण सदैव आपकी स्मृति में रहें
श्री कृष्ण शरणं मम
ये महामंत्र नित्य जपें और खुश रहें। 😊
सदैव याद रखें और व्यवहार में आचरण करें। ईश्वर दर्शन अवश्य होंगे।
जय श्री कृष्णा

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