एक उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक प्रस्तुति!!!!!!!
मित्रो, मानव जीवन के चारों आश्रमों के सदस्य- ब्रह्मचारि, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी सभी पूर्णयोगी बनने के निमित्त है, मानव जीवन पशुओं की भाँति इन्द्रियतृप्ति के लिये नहीं बना है, इसलिये मानव जीवन के चारों आश्रम इस प्रकार व्यवस्थित है कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सके, ब्रहचारी या शिष्यगण प्रामाणिक गुरु की देखरेख में इन्द्रियतृप्ति से दूर रहकर मन को वश में करते हैं, वे भगवद्भक्ति से सम्बन्धित शब्दों को ही सुनते है।
श्रवण ज्ञान का मूलाधार है, अतः शुद्ध ब्रह्मचारी सदैव “हरेर्नामानुकीर्तनम्” अर्थात् भगवान् के यश के कीर्तन तथा श्रवण में ही लगा रहता है, वह सांसारिक शब्द-ध्वनियों से दूर रहता है और उसकी श्रवणेन्द्रिया “ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्” या “हरे कृष्ण हरे राम” की आध्यात्मिक ध्वनि को सुनने में ही लगी रहती है, इसी प्रकार से गृहस्थ भी, जिन्हें इन्द्रियतृप्ति की सीमित छूट है, बड़े ही संयम से इन कार्यों को पूरा करते हैं।
यौन जीवन में मादकद्रव्य सेवन और मांसाहार मानव समाज की सामान्य प्रवृत्तियाँ है, किन्तु संयमित गृहस्थ कभी भी यौन जीवन तथा इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में अनियन्त्रित रूप से प्रवृत्त नहीं होता, इसी उद्देश्य से प्रत्येक सभ्य मानव समाज में धर्म-विवाह का प्रचलन है, यह संयमित अनासक्त यौन जीवन भी एक प्रकार का यज्ञ है, क्योंकि संयमित गृहस्थ उच्चतर दिव्य जीवन के लिये अपनी इन्द्रियतृप्ति की प्रवृत्ति की आहुति कर देता है।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।।27।।
दूसरे, जो मन तथा इन्द्रियों को वश में करके आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं, सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा प्राणवायु के कार्यों को संयमित मन रूपी अग्नि में आहुति कर देते है।
सज्जनों! यहाँ पर ऋषि पतन्जलि द्वारा सूत्रबद्ध योगपद्धति का निर्देश है, पतंजलि कृत योगसूत्र में आत्मा को प्रत्यगात्मा तथा परागात्मा कहा गया है, जब तक जीवात्मा इन्द्रियभोग में आसक्त रहता है तब तक वह परागात्मा कहलाता है, और ज्योंही वह इन्द्रियभोग से विरत हो जाता है तो प्रत्यगात्मा कहलाने लगता है, जीवात्मा के शरीर में दस प्रकार के वायु कार्यशील रहते हैं और इसे श्र्वासक्रिया (प्रामायाम) द्वारा जाना जाता है।
ऋषि पतंजलि की योगपद्धति बताती है कि किस तरह शरीर के वायु के कार्यों को तकनीकी उपाय से नियन्त्रित किया जाय जिससे अन्ततः वायु के सभी आन्तरिक कार्य आत्मा को भौतिक आसक्ति से शुद्ध करने में सहायक बन जायें, इस योगपद्धति के अनुसार प्रत्यगात्मा ही चरम उद्देश्य है, यह प्रत्यगात्मा पदार्थ की क्रियाओं से प्राप्त की जाती है, इन्द्रियाँ इन्द्रियविषयों से प्रतिक्रिया करती है, यथा कान सुनने के लिये, आँख देखने के लिये, नाक सूँघने के लिये, जीभ स्वाद के लिये तथा हाथ स्पर्श के लिये है।
ये सब इन्द्रियाँ मिलकर आत्मा से बाहर के कार्यों में लगी रहती है, ये ही कार्य प्राणवायु की क्रियायें है, अपान वायु नीचे की ओर जाती है, व्यान वायु से संकोच तथा प्रचार होता है, समान वायु से संतुलन बना रहता है, उदान वायु ऊपर की ओर जाती है और जब मनुष्य प्रबुद्ध हो जाता है तो वह इन सभी वायुओं को आत्म-साक्षात्कार की खोज में लगाता है।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।28।।
कठोर व्रत अंगीकार करके कुछ लोग अपनी सम्पत्ति का त्याग करके, कुछ कठिन तपस्या द्वारा, कुछ अष्टांग योगपद्धति के अभ्यास द्वारा अथवा दिव्यज्ञान में उन्नति करने के लिये वेदों के अध्ययन द्वारा प्रबुद्ध बनते है।
सज्जनों! इन यज्ञों के कई वर्ग किये जा सकते हैं, बहुत से लोग विविध प्रकार के दान-पुण्य द्वारा अपनी सम्पत्ति का यजन करते हैं, धनाढ्य व्यापारी या राजनीतिक लोग अनेक प्रकार की धर्मार्थ संस्थायें खोल देते हैं, जैसे धर्मशाला, अन्न क्षेत्र, अतिथिशाला, अनाथालय तथा विद्यापीठ, कई राज्यों में भी अनेक अस्पताल, बुजुर्गों के लिये आश्रम तथा गरीबों को भोजन, शिक्षा तथा चिकित्सा की सुविधायें प्रदान करने के दातव्य संस्थान है, ये सब दानकर्म द्रव्यमय यज्ञ हैं।
बहुत से लोग जीवन में उन्नति करने अथवा उच्चलोकों में जाने के लिये चातुर्मास्य जैसे विविध तप करते हैं, इन विधियों के अन्तर्गत कतिपय कठोर नियमों के अधीन कठिन व्रत करने होते हैं, जैसे चातुर्मास्य व्रत रखने वाला वर्ष के चार महीनों में (जुलाई से अक्टूबर तक) बाल नहीं काटता, न ही कतिपय खाद्य वस्तुयें खाता है और न दिन में दो बार खाता है, न जगह परिवर्तन करके कहीं जाता है, जीवन के सुखों का ऐसा परित्याग तपोमय यज्ञ कहलाता है।
कुछ लोग ऐसे भी है जो अनेक योगपद्धतियों का अनुसरण करते हैं, जैसे पतंजलि द्वारा योग पद्धति (ब्रह्म में तदाकार होने के लिये) अथवा हठयोग या अष्टांगयोग (विशेष सिद्धियोंके लिये) कुछ लोग समस्त तीर्थस्थानों की यात्रा करते हैं, ये सारे अनुष्ठान योग-यज्ञ कहलाते हैं, जो भौतिक जगत् में किसी सिद्धि विशेष के लिये किये जाते हैं, कुछ लोग ऐसे है जो विभिन्न वैदिक साहित्य जैसे उपनिषद् तथा वेदान्तसूत्र या सांख्यदर्शन के अध्ययन में अपना ध्यान लगाते है, इसे स्वाध्याय यज्ञ कहा जाता है।
ये सारे योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञों में लगे रहते हैं और उच्चजीवन की तलाश में रहते हैं, किन्तु भगवद्भक्त इनसे पृथक् है, क्योंकि यह परमेश्वर की प्रत्यक्ष सेवा है, इसे उपर्युक्त किसी भी यज्ञ से प्राप्त नहीं किया जा सकता, अपितु भगवान् तथा उनके प्रामाणिक भक्तों की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है, इसलिये भगवद्भक्ति दिव्य है।
- भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥
भावार्थ:-भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥
जय श्री कृष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्