लगभग दो सौ करोड़ वर्ष पुराना वैभवशाली इतिहास है हमारा, वर्तमान की पीड़ाअों से माँ भारती को मुक्त करके विश्व का नेतृत्व करने वाला शक्तिशाली स्वर्णिम भारत, हम अपने पुरुषार्थ व राष्ट्र आराधना से बनायेंगे।
संयम, सदाचार सद्भावना, संयुक्त परिवार व सोलह संस्कारों की गौरवशाली परम्परा भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम सार्वभौमिक वैज्ञानिक संस्कृति है।
भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र,नीति शास्त्र, वैदिक गणित ज्योतिष व वैदिक ज्ञान सार्वभामिक व वैज्ञानिक है, विराट सांस्कृतिक वैभव के होते हुए:हमें आयातित धर्म, दर्शन , पाश्चात्य संस्कृति एवं विदेशी नीतियों की आवश्यकता नहीं।
स्वदेश की संस्कृति व सभ्यता तथा स्वदेश की नीति यों में ही स्वदेश हित सन्निहित है ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ (ऋग्वेद ) एक ही सत्य के अनेक नाम हैं आैर यदि नामों का भ्रम मिट जाये तो हम विश्व शान्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं, हमारा उद्देश्य है:वसुधैव कुटुम्बकम्।
वैराग्य पलायन का नाम नहीं, अपितु विवेक की पराकाष्ठा का नाम ही वैराग्य है सम्यक्दृष्टि पाकर अनासक्त होकर निरन्तर प्रगतिशील, संघर्षशील व पुरुषार्थी बने रहना ही वैराग्य का पूर्ण लक्षण है।
हमारा संन्यास या संस्कृति पलायनवादी नहीं है, विवेक की पराकाष्ठा ही, वैराग्य है, अतः न भागो, न भोगो, बस जागो और जगाओ यही है हमारा अध्यात्म।
न जीवन से पलायन, न मौत का गम, हमें रहना है सदा सम, यही योग है। अनासक्त होकर कर्मफल की इच्छा से रहित होकर जीना ही संन्यास है।
ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से उपासना या साधना की परिपूर्णता होती है, अकेला ज्ञान मात्र अहं की अिभव्यक्ति देगा, केवल ज्ञान में जीवन जीने वाला व्यक्ति मरूभूमि की तरह जीवन में रूखापन, मिथ्या दंभ एवं कृत्रिम या काल्पनिक व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है।
अतः ज्ञान की परिपूर्णता है कर्म, भक्ति ज्ञान के बिना कर्म एक बन्धन, आडम्बर बन जाती है, अतः विवेक पूर्वक कार्य करते हुए ही हम समाधि या मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं ज्ञान से सम्यक् दृष्टि मिलती है।
दृष्टि पाकर उसका उपयोग कर्म एवं भक्ति में होना ही चाहिए, भगवान् भिखारिओं को नहीं, पात्र अधिकारियों को देते हैं, चित्र नहीं सदैव चरित्र की पूजा करो।
स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं, स्व-माने आत्मा, तन्त्र-माने अनुशासन, आत्मानुशासन का नाम ही स्वतन्त्रता है, स्वावलम्बी आत्मनिर्भर जीवन जीते हुए दूसरों को आलम्बन दो, दूसरां को भी आत्मनिर्भर बनाओ।
पहले साधक बनो, बाद में सुधारक तुम स्वयं बन जाओगे, ”माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव् याः“ धरती हमारी माँ है हम इसके पुत्र हैं, राष्ट्रदेव सबसे बड़ा देवता एवं राष्ट्रधर्म माने राष्ट्र के प्रति हमारे कर्तव्य, हमारे दायित्व यह सबसे बड़ा धर्म है।
अन्याय एवं अधर्म को करना जितना पाप है, उतना ही पाप एवं अत्याचार को सहना भी है, राष्ट्र के प्रति कृतज्ञता, श्रद्धा व स्वाभिमान हर इंसान में होना चाहिए।
योग साधना, सद् गुरुओं के सत्संग तथा दर्शन , उपनिषदादि आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय, तप, अनासक्त कर्मयोग व सेवा से जब अन्तर्दृष्टि खुल जाती है या आत्मदृष्टि उपलब्ध या प्राप्त हो जाती है तो सब स्वरूपों में ब्रह्मस्वरूप नजर आने लगता है।
सब सम्बन्धों में ब्रह्म सम्बन्ध की अनुभूति होने लगती है, यही साधना, भक्ति या उपासना की पूर्णता है, भगवान् से दौलत एवं उसके पदार्थ न मांगकर भगवान् से भगवान् को अर्थात् भगवत्ता को मांगे, प्रभु से, उसका आश्रय व उसकी भक्ति को मांगे, उससे धन-वैभव की मांग करना, तुच्छ मांग है।
भगवान् से पद, सत्ता, सम्पत्ति या दुनिया के वैभव की याचना नहीं करना क्योंकि वो दयालु पिता बिना मांगे हमारी क्षमता, योग्यता अथवा पात्रता से सदा ही अधिक देता है।
भगवान से बस इतना मांगना कि हे प्रभु! मैं अपने कर्म को अपना धर्म मानकर पूर्ण निष्ठा से स्वधर्म को निभा पाऊँ और हे नाथ! एक पल के लिए भी तुझे भूलूँ नहीं , बस यही वरदान देना।
आत्मानुशासन में जीने का नाम ही दमन है, धर्मापदेश यही है कि बांटकर खाओ, संचय मत करो, वितरण का पाठ पढ़ो (वृहदारण्यक उपनिषद्)।
मानव जीवन के निर्माण की आधारशिला है:”सोलह संस्कार“ अतः मैं गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्त्तन , गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास व अन्त्येष्टि इन सोलह संस्कारों की संस्कृति से अपना व राष्ट्र का जीवन उन्नत बनाइये।
जिसको करके असत्य या झूठ से छूटकर सत्य की प्राप्ति होती है, वही सत्संग है और जिसको करके जीव पापों में लिप्त हो जाते हैं, वह कुसंग है।
श्रद्धा माँ, और विश्वास पिता है,श्रद्धा पावन जीवन यज्ञ की सोम्यतम अग्नि है, श्रद्धा भगवत् ज्ञान की अनुभूति है, श्रद्धा सत्य ज्ञान की उपलब्धि एवं परमशान्ति का सोपान है, श्रद्धा आध्यात्मक जीवन का अिभषेक तत्त्व है।
सत्संग, स्वाध्याय, श्मशान एवं संकट के समय जैसी व्यक्ति की मति होती है वैसी ही बुद्धि यदि सदा स्थिर हो जाए तो जीव मोह-माया के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व आध्यात्मिक रूप से वि शेष सुख की प्राप्ति ही स्वर्ग, और विशेष दुःख की परिस्थितियों की प्राप्ति ही नरक है।
दुःख एवं दुःख के कारण रोग, भय, शोक, पंच क्लेश, जन्म-मरण आदि दुःखों से छूट जाना या मुक्त हो जाना ही मुक्ति है।