मनुष्यऔरब्रह्म_ज्ञान
परब्रह्म सर्वव्यापी है किन्तु उस की उनुभुति चित्त मे ही होती है।
इस लिये उसे ह्रदय में स्थितबताया गया है aजीवात्मा मे भी ईश्वर के स मान गुण होते हुए भी वे अहंकार, कामना, वास ना ,आदि के कारण तिरहोत है।
जो चिन्तन से प्रकट होते है परब्रह्म ज्ञान के अभाव मे ही यह जीवात्मा अज्ञान के कारण शरीर, मन, इन्द्रियों, आदि को महत्व दैती है ।
यहउस केबन्धनका कारण हैs तथा उस के ज्ञान से ये भी सभी बन्धन टूटकर उसे सत्य स्वरूप का ज्ञान हो जाता है।
इसी ज्ञान से मुक्ति होती हो मोक्ष ब्रह्ज्ञान से ही होता है अन्य किसी कर्म सेनही।
ईश्वरके गुणों के प्रकट न होने के कारण जीवात्मा का शरीर के साथ एकता मान लेना है यही सबसे बडी बाधा है।
जिसे पार किये बिना उस का ज्ञान सम्भव नही है hपरमात्मा साकार भी है इस लिए उपासना का महत्व है उपासना से ही वह प्रत्यक्ष होता है उस का प्रत्यक्ष दर्शन भी सम्भव है किन्तु बिना अभ्यास के यह सम्भव नही है
परब्रह्मका जगत से भेद और अभेद दोनो प्रकार से सम्बन्ध है
ज्ञानमार्गी अभेद उपास ना को ग्रहण करतेहै एवं भक्त भेदोपास ने को दोनो का फल एक ही है।
निष्कामभाव से किये गए शास्त्र विहित कर्म भी परमात्मा की प्राप्ति मे सहायक हैंअतः उनका त्याग उचित नही है।
अन्य सब धर्मो की अपेक्षा भगवान की भक्ति विषयक धर्म अधिक श्रेष्ठ है जो साधक उस परब्रह्म के ध्रम को नही समझ सकता उसके लिए प्रतीकोपासना का विधान किया गया है
प्रतीकोपासना करने वालो को उसी के अनुसार फल मिलता है वे न तो ब्रह्मलोक मे जाते है न सीधे ब्रह्म को ही प्राप्र होते हैं
ब्रह्मज्ञानके उपासक•••••• ब्रह्मविधाके उपासक तीन प्रकार के होते है।
१-जिनको इसी जन्म मे ब्रह्मज्ञान हो जाता है वे जीवमुक्त होकर प्रारब्ध भोगकी समाप्ति पर देहपात के बाद सीधे परमात्मा को प्राप्त होते है।
२–दुसरे वे साधक है जो परब्रह्म को प्राप्त न होकर ब्रह्मलोक में जाकर वहॉ भोगे को भोगते हुए कल्पान्त तक वही निवास करते है
३-तीसरे प्रकप् के वे साधक होते है जिनको ब्रह्मज्ञान नही हुआ है वह भु लोक पर स्वर्ग नरक बताकर अपनी सुख सुविधा के साधन ढुढ़ते रहते है