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आध्यात्म एवं भक्ति में अंतर क्या है?

  • ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
    सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥

भावार्थ:-हे कृपा के धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? यह सब मुझसे कहिए। गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजी ने सुख माना और आदर के साथ कहा-॥

  • भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
    नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥

भावार्थ:-भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षीश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिए॥

आध्यात्म ज्ञानमार्ग की परिणति है और भक्ति प्रेममार्ग की, भक्तिमार्ग प्रेरित करता है विश्वास के लिये और ज्ञानमार्ग प्रेरित करता है खोज के लिये, प्रेममार्ग कहता है प्रश्न मत करो, मान लो, ज्ञानमार्ग कहता है, प्रश्न करो, तब जानोगे।

ज्ञानमार्गियों के मन में बड़ा उथल पुथल रहता है, ईश्वर उन्हें व्यथित करता है, प्रश्न करता है, परन्तु भक्तिमार्गियों के लिए यह दुविधा नहीं रहती, क्योंकि जहाँ विश्वास होता है वहाँ प्रश्न नहीं रहता, वो ईश्वर को मान लेते हैं, साकार में कभी राम रूप में तो कभी कृष्ण रूप में और कभी शिव रूप में, उस परमस्वरूप पर इतना विश्वास कर लेते हैं कि प्रश्न की कोई गुँजाइश ही शेष नहीं रहती।

  • भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
    पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥

भावार्थ:-भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥

भक्तिमार्गी अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं और निष्काम कर्म करते हैं, ज्ञानमार्गियों के लिए ये संभव नहीं हो पाता, वो कर्म करते हैं, तो मन में प्रश्न रहता है, कर्म क्यों? वे ताउम्र जीवन का अर्थ खोजते रहते हैं? ये प्रश्न उनसे संसार का सारा आकर्षण समाप्त कर देता है, वो वैराग्य को प्राप्त होते हैं।

उनके लिए संसार महज एक प्रश्न ही है, कि संसार है तो क्यों है? जीवन है तो क्यों है? परमात्मा है तो कहाँ है? उसने संसार का सृजन किया क्यों? उसने जीवन का सृजन किया क्यों? और इन प्रश्नों का उत्तर ज्ञानमार्गी ही दे सकता है, भक्तिमार्गी दे ही नहीं सकता, और न ही देने का प्रयास करता है।

क्योंकि उसका ईश्वर स्वयं बंधा है, नियमों से संसार से, औऱ उसका विश्वास इतना प्रबल है कि वो कहता है, कि हम ऐसे प्रश्नों को सोचे ही क्यों, हमारी चिंता के लिए तो स्वयं कृष्णजी हैं, रामजी हैं, शीवजी है, ज्ञानमार्गियों का ईश्वर सांसारिक नहीं है, नियमों से परे है, निराकार है, इसलिए उसके सामने संसार महज एक प्रश्न रह जाता है।

भक्तिमार्गी के लिए संसार ईश्वर की क्रीड़ास्थली है, वो स्वयं भी उस क्रीड़ा का एक हिस्सा बन जाता है, भक्तिमार्गी के लिए संसार एक रंगमंच है, इसलिए वह अपनी भूमिका को ठीक से निभा लेना ही जीवन का उद्देश्य समझ लेता है, इसलिए उसे गृहस्थ जीवन को लेकर दुविधा नहीं, ज्ञानमार्गी के लिए संसार एक प्रश्न है, उसे इसका उत्तर चाहिये, वो स्वयं संसार का हिस्सा नहीं बनना चाहता।

इसलिये जब तक उसे अपने उत्तर नहीं मिल जाते, जीवन उसके मन को व्यथित किये रहता है, भक्तिमार्ग नास्तिकों को छोड़ देता है, लेकिन गहरे में नास्तिक ज्ञानमार्गी होता है, क्योंकि उसे अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले होते, इसलिए वो ईश्वर को नकारता है, परन्तु मूलत: वह प्रश्न करता है, और ज्ञानमार्ग करता तो तर्क है परन्तु बहुत गहरे में वो भी मानता है, उसका मानना अभी बीजरूप में होता है,

ये बीज है अनुभूति का, ज्ञानमार्गी वो ही मानता है, जिसकी उसे अनुभूति हो जाती है, ज्ञानमार्गी वो कदापि नहीं मान सकता जो उसे अनुभूत नहीं हुआ, और यही कारण है कि ज्ञानमार्गी अंतर्मुखी हो जाता है, उसके लिए प्रश्न है संसार और उत्तर है अनुभूति, बल्कि भक्तिमार्गी बहिर्मुखी हो जाता है, क्योंकि उसे संसार में पूर्णता नजर आती है।

ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥

भावार्थ:-ज्ञान अगम (दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता॥

जय महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय्!

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