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लय योग क्या है?

लय योग मंत्र

लय योग अथवा नाद योग भी एक प्राचीन योग मार्ग के रूप में भारत में प्रचलित है।

लय योग के सम्बन्ध में ‘योग राज उपनिषद्’ में कहा गया है –
साध्यते मन्त्रयोगस्तु वत्सराजादिभिर्यथा।
कृष्णद्वैपनाद्यैस्तु साधितो लयसंज्ञितः।।
अर्थात् वत्सराज आदि के द्वारा मन्त्रयोग सिद्ध किया गया तथा व्यास (कृष्णद्वैपायन) आदि ने लय योग को सिद्ध किया।

लय योग से अर्थ मन को लय कर देने से है।

मन को लय करने के लिये साधक अपनी चेतना को बाह्य वृत्तियों से समेट कर अन्तर्मुख करके
भीतर होने वाले शब्दों को सुनने की चेष्टा करता है, जिसे‘नाद’ कहते हैं।

‘नादबिन्दु उपनिषद्’ में इसकी पूरी साधन प्रक्रिया बतलाई गई है।
प्रचलित साधन पद्धतियों में थोड़ा बहुत अन्तर भी दिखलायी पड़ता है।
इस ‘नाद’ को सुनने के लिए साधक किसी आसन में बैठ कर अपने दाहिने अँगूठे से दाहिने कान को, बाँये अँगूठे से बाँये कान को बन्द करके
इस तरह से क्रमशः आँख, नाक और होठों को बन्द कर बाहर से वृत्तियों को समेट कर अन्दर में ‘नाद’ को श्रवण करने के लिए केन्द्रित करते हैं।

शिव संहिता में विभिन्न प्रकार के अनहद ‘नाद’ बतलाये गये हैं।
नाद श्रवण की साधना के प्रारम्भ में मधुमक्खी की भन-भनाहट,
इसके बाद वीणा तब सहनाई और तत्पश्चात् घण्टे की ध्वनि और अनन्तः मेघ गर्जन आदि की ध्वनियाँ साधक को सुनाई पड़ती है।
इस नाद-श्रवण में पूरी तरह लीन होने से मन लय हो जाता है और समाधि की अवस्था प्राप्त हो जाती है, ऐसा कहा जाता हैं।
इसी तरह कुछ साधक सिद्धासन में बैठ कर वैष्णवी मुद्रा धारण करके अनाहत ध्वनि को दाँये कान से सुनने का प्रयास करते हैं।

इस ‘लययोग या नादयोग’ की साधना से बाहर की ध्वनियाँ स्वतः मिटने लगती है और

साधक ‘अकार’ और ‘मकार’ के दोनों पक्षों पर विजय प्राप्त करते हुए धीरे-धीरे प्रणव को पीने लगते हैं, ऐसी मान्यता है।
प्रारम्भ में ‘नाद’ की ध्वनि समुद्र, मेघ-गर्जन, भेरी तथा झरने की तरह तीव्र होती है, मगर इसके पश्चात् यह ध्वनि मृदु होने लगती है
और क्रमशः घण्टे की ध्वनि, किंकिणी, वीणा आदि जैसी धीमी होती जाती है।

इस प्रकार के अभ्यास से चित्त की चंचलता मिटने लगती है और एकाग्रता बढ़ने लगती है।
नाद के प्रणव में संलग्न होने पर साधक ज्योतिर्मय हो जाता है और उस स्थिति में उसका मन लय हो जाता है।
इसके निरन्तर अभ्यास से साधक मन की सब ओर से खींच कर परम तत्व में लीन कर लेता है,

यही लय योग कहलाता है। इसे ही लय योग की परम उपलब्धि बतलाया जाता है।

कुछ लोग ‘नाद योग’ से अर्थ समझते हैं, वह ध्वनि जो सबके अन्दर विद्यमान है तथा
जिससे सृष्टि के सभी आयाम प्राण तथा गति प्राप्त करते हैं, उसकी अनुभूति प्राप्त करना।
मगर इस योग के तकनीक के सम्बन्ध में जो बातें की जाती हैं उसमें साधना की गहराई का अभाव दीखता है।
इस ‘नाद’ को ही कुछ विद्वान चार श्रेणियों बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा रूप में विभाजित करते हैं
और इसे साधना की विभिन्न सीढ़ियाँ बतलाते हैं।
कहीं-कहीं इस ‘नाद’ को चक्र-साधना से भी जोड़ दिया जाता है।

इसके अन्तर्गत यह मान्यता है कि जैसे-जैसे चक्र जाग्रत होते है ‘नाद योग’ में सूक्ष्म ध्वनियों का अनुभव होता है।
मूलधार चक्र से आगे बढ़ने पर क्रमशः ध्वनियां सूक्ष्म होती जाती हैं और यह अभ्यास ‘बिन्दु’ पर जाकर समाप्त होता है।
ऐसी मान्यता है कि ‘बिन्दु’ पर जो नाद प्रकट होता है उसकी पकड़ मन से परे होती है।
कुछ लोग संगीत के सात स्वरों (सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा) को आँखें बन्द करके क्रमशः
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि, बिन्दु (आज्ञा) तथा सहस्त्रार के साथ जोड़कर
आत्म-चेतना को ऊपर उठाने का अभ्यास करते हैं।
कहीं-कहीं तो मूलाधार चक्र पर मूलाधार के स्वर को मन-ही-मन दुहराया जाता है
और बिन्दु पर इसी शब्द की बार-बार मानसिक रूप से आवृत्ति की जाती है।

पता नहीं कल्पना के आधार पर शब्दोच्चार किसी चक्र पर करने से कौन सी साधना की उपलब्धि हो सकती है?

इतना अवश्य हो सकता है कि मन किसी काल्पनिक विषय में उलझा रह कर उन शब्दों को ही ‘नाद-योग’ की उपलब्धि मान लें।

आत्मिक-चेतना का विकास इस तथाकथित‘लययोग या नादयोग’ से कहाँ तक सम्भव हो पाएगा- यह कहना कठिन है।

‘नाद’ का मूल स्वरूप क्या है तथा यह साधना के किस मण्डल में प्रकट होता है

यह भी योग के चेतन-विज्ञान के द्वारा समर्थ सद्गुरु के संरक्षण में बैठ कर ही जाना जा सकता है।

     

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