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एक ऐसे योगी की अमर कथा जिससे प्रभु राम और श्रीकृष्ण भी चमत्कृत थे । देवताओं के पास अलौकिक शक्तियां हैं, उनके लिए समय, दिशा, युग और स्थान का कोई महत्व नहीं होता।

देवता किसी भी समय किसी भी स्थान, किसी भी काल में उपस्थित हो सकते हैं। लेकिन क्या मनुष्य के लिए हर युग में रहना संभव है? कहते हैं मानव शरीर नश्वर होता है लेकिन क्या इस नश्वर शरीर के बावजूद वह मौत को जीतकर हर युग में उपस्थित रह सकता है?

हठयोग के प्रवर्तक बाबा गोरक्षनाथ (सामान्यजन की भाषा में गोरखनाथ) के विषय में ऐसा ही कहा जाता है कि मनुष्य होने के बावजूद उन्होंने चारों युग में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाई है। नाथ परंपरा को सुव्यवस्थित तरीके से प्रचारित कर इसका विस्तार करने वाले बाबा गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य और स्वयं शिव के अवतार थे।

नाथ सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है, जिसका नींव आदिनाथ, जिन्हें स्वयं शिव ही माना गया है, ने की थी। आदिनाथ के दो शिष्य थे, जालंधरनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य रहे थे कृष्णपाद और मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे गोरक्षनाथ। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ये चार योगी नाथ परंपरा के प्रवर्तक थे।

बाबा गोरखनाथ को शिव का अवतार भी कहा जाता है, जिससे जुड़ी एक कथा प्रचलित है। कहते हैं एक बार गोरखनाथ तप में लीन थे। उन्हें देखकर देवी पार्वती ने शिव से उनके विषय में पूछा। पार्वती से वार्तालाप करते हुए शिव ने उन्हें कहा कि धरती पर योग के प्रसार के लिए उन्होंने ही गोरक्षनाथ के रूप में अवतार लिया है।

गोरखनाथ का जीवन अपने आप में अद्भुत था। उन्हें हर युग में देखा गया और संबंधित घटनाओं के साथ उनके रिश्तों को भी जोड़ा गया। सर्वप्रथम सतयुग में उन्होंने पंजाब में तपस्या की थी, उसके बाद त्रेतायुग में उन्होंने उत्तर प्रदेश के एक स्थान गोरखपुर में रहकर ही साधना की, जहां उन्हें राम के राज्याभिषेक के लिए भी निमंत्रण भेजा गया था। लेकिन उस दौरान वे तपस्या में लीन थे इसलिए वह खुद तो ना पहुंच सके हालांकि अपना आशीर्वाद राम के लिए भेजा था।

द्वापरयुग में जूनागढ़, गुजरात में स्थित गोरखमढ़ी में गोरखनाथ ने तप किया था। इसी स्थान पर रुक्मिणी और कृष्ण का विवाह भी संपन्न हुआ था। इस अलौकिक विवाह में देवताओं के आग्रह के बाद गोरखनाथ ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी।

जब धर्मराज युद्धिष्ठिर द्वारा किया जा रहा राजसूय यज्ञ संपन्न होने जा रहा था तब स्वयं भीम उन्हें आमंत्रित करने के लिए गए थे। जब भीम वहां पहुंचे तब गोरखनाथ तप में लीन थे, इसलिए भीम को काफी लंबे समय तक उनका इन्तजार करना पड़ा।

कहते हैं जिस स्थान पर विश्राम करते हुए भीम ने गोरखनाथ का इंतजार किया था, धरती का वह भाग भीम के भार की वजह से दबकर सरोवर बन गया था। आज भी मंदिर के प्रांगण में वह सरोवर मौजूद है। प्रतीक के रूप में उस स्थान पर भीम की विश्राम करती हुई मूर्ति को भी स्थापित किया गया है।

कलियुग में तो उनके अनेक स्थानों पर प्रकट होकर योग साधकों को दर्शन देने जैसी घटनाएं सुनी जाती रही हैं। कलियुग में सौराष्ट्र के काठियावाड़ जिले के गोरखमढ़ी स्थान को उन्होंने तप कर धन्य किया है। इन सब घटनाओं के आधार पर गोरखनाथ को चिरंजीवी मान लिया गया है।

कुछ ऐसी भी कथाएं हैं जो बाबा गोरखनाथ के जीवनकाल को बहुत पहले और बहुत बाद में भी प्रदर्शित करती हैं। ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर स्थित मठ को ढहा दिया गया। यह इस बात का प्रमाण है कि गोरखनाथ तेरहवीं शताब्दी से भी बहुत पहले उपस्थित थे। लेकिन फिर संत कबीर और गुरुनानक देव के साथ उनका संवाद यह प्रमाणित करता है कि वे बहुत बाद में भी थे।

गोरखनाथ के चमत्कारों से जुड़ी भी कई कथाएं प्रचलित हैं, जिनके अनुसार राजस्थान के प्रख्यात गोगाजी का जन्म भी गोरखनाथ जी द्वारा दिए गए वरदान से ही हुआ था।

गोरखनाथ ने उन्हें गूगल नामक फल प्रसाद के तौर पर दिया जिसे ग्रहण करने के बाद वे गर्भवती हो गईं। गूगल फल से ही उनका नाम गोगाजी पड़ा, जो आगे चलकर राजस्थान के ख्याति प्राप्त राजा बने।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार राजकुमार बप्पा रावल, किशोरावस्था में अपने दोस्तों और साथियों के साथ शिकार पर गए। जब वे जंगल पहुंचे तो उन्हें गोरखनाथ तप में लीन अवस्था में दिखे। उन्होंने वहीं रहकर गोरखनाथ की सेवा करनी शुरू कर दी।

जब गोरखनाथ अपने ध्यान से जागे तब उन्होंने बप्पा रावल को देखा और उनकी सेवा से वे बहुत प्रसन्न हुए। गोरखनाथ ने बप्पा को एक तलवार भेंट की, जिसके बल पर चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।

गोरखनाथ के उपदेशों में योग और शैव तंत्र, दोनों का ही सामंजस्य है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों की सीमा से पार जाकर जब व्यक्ति शून्य की अवस्था में पहुंच जाता है, तभी उसके जीवन की असली शुरुआत होती है।

शून्य का अर्थ है खुद को ब्रह्मलीन कर देना, जहां व्यक्ति को परम शक्ति का अनुभव होने लगता है। हठयोग करने वाला व्यक्ति कुदरत के सारे नियमों से मुक्त होकर उसे चुनौती देने लगता है, उस अदृश्य शक्ति को भी जहां से शुद्ध प्रकाश का उद्भव होता है।

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