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कठिनतम और जटिलतम परिस्थितियों में भी धैर्य बना रहे इसी का नाम सज्जनता है। केवल फूल माला पहनने पर अभिवादन कर देना ही सज्जनों का का लक्षण नहीं। यह तो कोई साधारण से साधारण मनुष्य भी कर सकता है। मगर काँटों का ताज पहनने के बाद भी चेहरे पर सहजता का भाव बना रहे, बस यही सज्जनता व महानता का लक्षण है।
भृगु जी ने लात मारी और पदाघात होने के बाद भी भगवान विष्णु जी ने उनसे क्षमा माँगी। इस कहानी का मतलब यह नहीं कि सज्जनों को लात से मारो अपितु यह है कि सज्जन वही है जो दूसरों के त्रास को भी विनम्रता पूर्वक झेल जाए।
सज्जन का मतलब सम्मानित व्यक्ति नहीं अपितु सम्मान की इच्छा से रहित व्यक्तित्व है। जो सदैव शीलता और प्रेम रुपी आभूषणों से सुसज्जित है वही सज्जन है। जो हर परिस्थिति में प्रसन्न रहे और दूसरों को भी प्रसन्न रखे, वही सज्जन है।

    *जय श्री राधे कृष्णा*

श्रीमदभागवत जी में श्री शुकदेव जी कहते हैं अपनों से श्रेष्ठों की हमारे जीवन निर्माण में भूमिका हो तभी वो बड़े कहलाने लायक हैं। जो निम्नता से उच्चता प्राप्त करा देवे, उसी को सच्चा हितैषी मानना।
वे गुरु, गुरु नहीं – पिता, पिता नहीं – माता, माता नहीं – पति, पति नहीं – स्वजन, स्वजन नही और तो और आपके द्वारा पूजित वो देव भी देव नहीं हैं। जो आपके सदगुणों से सींचकर, चरित्र को सुधारकर एक दिन प्रभु नारायण के चरणों में स्थान ना दिला सकें।
कोई सिखाने वाला और दिखाने वाला हो, और कभी पैर डगमगाने लग जाएँ तो आकर संभाल ले। बाक़ी ऊंचाइयों को प्राप्त करना कोई असम्भव काम नहीं है।

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जो होने वाला है वह तो होगा ही, उसको कोई अपनी शक्ति से रोक नहीं सकता और जो नहीं होने वाला है वह कभी होगा नहीं, उसको कोई अपने बल-बुद्धि से कर नहीं सकता । इसलिए सिद्धि असिद्धि में सम रहते हुए कर्तव्य कर्मों का पालन किया जाए तो मुक्ति स्वतः सिद्ध हो सकती है ।

मनुष्य अगर अपने जीवन के कर्तव्य कर्म को समझकर प्राप्त परिस्थितियों में मर्यादा पूर्वक फल की इच्छा को छोड़कर कर्तव्य कर्म करे तो फिर सन्त वचनों के अनुसार आज्ञा पालन करने से स्वतः सिद्ध मुक्ति हो जाती है । संसार में मनुष्य के बंधन का कारण केवल कर्तव्य कर्म करने में ही चूक है ।

दूसरी बात यह है कि जीव के प्रारब्ध के अनुसार फल देने वाली परिस्थितियाँ तो समस समय पर अवश्यमेव घटित होंगी, इनको कोई भी रोक नहीं सकता, इनका तो केवल सदुपयोग ही किया जाए । जैसे सुख आवे तो फूल मत जाना और दुःख आवे तो परेशान मत होना ।

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    *संसार में प्रायः देखा जाता है कि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसका कोई न कोई शत्रु न हो। अर्थात सभी के कोई न कोई शत्रु होते ही हैं और वे लोग दूसरों के दोष हमेशा देखते रहते हैं। उनके साथ प्रतियोगिता मतलब कंपिटीशन करते ही रहते हैं। वे दूसरों की कमियां ढूंढते रहते हैं। उन पर अनेक प्रकार के दोषारोपण भी करते रहते हैं।*

     *ऐसे लोग अपना जीवन तो दुखमय बना ही लेते हैं, साथ साथ दूसरों को भी दुख देते रहते हैं। परंतु बुद्धिमान लोग ऐसे मूर्ख और शत्रुओं की परवाह नहीं करते। वे अपने काम में लगे रहते हैं। अपने पुरुषार्थ में इतने मस्त होते हैं, कि वे, दूसरों की ऐसी घटिया हरकतों की कोई चिंता ही नहीं करते।*

      *इसलिए यदि बुद्धिमान लोग पुरुषार्थ में ही लगे रहें और अपने आचरण एवं योग्यता को समुद्र के समान विशाल बना लेवें, तो उनके शत्रु उनकी योग्यता की परख करते-करते थक जाएंगे, उनके पसीने छूट जाएंगे, परंतु वे समझ नहीं पाएंगे कि इन बुद्धिमान लोगों की कितनी बड़ी योग्यता है।*

!!!…समय जब निर्णय करता है तो गवाहों की जरूरत नही पड़ती…!!!

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🔴 जड़ता का प्रभाव जीव पर जितना अधिक होगा उतना ही वह जड़ पदार्थों से प्रेम अधिक करेगा उनका स्वामित्व, संग्रह एवं उपभोग उतना ही उसे अधिक रुचेगा। आलस्य, मोह और अहंकार यह जड़ता के प्रधान चिन्ह हैं। जड़ पदार्थ निर्जीव है इसलिये जिनमें जड़ता बढ़ेगी वह उतना ही आलसी बनता जावेगा। प्रयत्न, पुरुषार्थ, परिश्रम में रुचि न होगी, अध्ययन भजन एवं सत्कार्यों में मन न लगना इस बात का चिन्ह है कि ‘चित्’ ईश्वरीय तत्व का विरोधी ‘आलस’ आसुरी तत्व अपने अन्दर भर रहा है । उसी प्रकार वस्तुओं को उपकरण मात्र मानकर उनसे सामयिक लाभ उठा लेने की बात न सोच कर उपलब्ध सम्पदा का मौरूसी मान बैठना, उसके छिनने पर रोना चिल्लाना यह प्रकट करता है कि नाशवान और निर्जीव पदार्थों के प्रति अवांछनीय ममता जोड़ ली गई है, अहंकार तो असुरता का-तमोगुण का- प्रत्यक्ष चिन्ह है । क्षण क्षण में बदलती रहने वाली वस्तुओं और परिस्थितियों की अनुकूलता पर जो घमण्ड करता है वह यह भूल जाता है कि इस संसार का प्रत्येक परमाणु अत्यन्त द्रुतगति से अपनी धुरी पर घूमता है और प्रत्येक परिस्थिति तेजी के साथ उलटती-पलटती रहती है फिर पानी में उठने वाले बबूले की तरह इस क्षण प्राप्त सौभाग्य पर इतराना क्या ? ऐंठना और अकड़ना क्या? जो आज है वह कल कहाँ रहने वाला है, फिर अहंकार करने का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता है।

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